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________________ करने में समर्थ होते हैं। किस परिस्थिति में कवि किस मानसिक भाव की अभिव्यक्ति करता है - इस तथ्य का उद्घाटन अलंकारों से ही होता है । प्रस्तुत संदर्भ में महाकवि पंत के विचार अवधेय हैं- अलंकार केवल वाणी की सजावट के लिए नहीं, वे भावाभिव्यक्ति के विशेष-द्वार हैं। भाषा की पुष्टि और राग की परिपूर्णता के लिए उपादान हैं । वे वाणी के आचार, व्यवहार और रीति-नीति हैं, पृथक् स्थितियों पृथक् स्वरूप हैं, भिन्न-भिन्न अवस्थाओं के भिन्न-भिन्न चित्र हैं । वे वाणी के हास अश्रु, स्वप्न, पुलक और हाव भाव हैं । " भावावेश की स्थिति में अलंकारों का स्वतः प्रस्फुटन हो जाता है, और कल्पना या भावावेश के कारण भाषा का अलंकृत होना सहज-संभाव्य है । वास्तव में अलंकार काव्य के मात्र बाह्य-धर्म न होकर आन्तरिक उक्ति के साथ मन में आए हुए भाषा के रत्न हैं, जिनमें कल्पना का नित्य विहार है ।" उपर्युक्त तथ्य महाकवि - महाप्रज्ञ की रचनाओं के आलोक में पूर्णतया सार्थक एवं सटीक प्रतीत होता है । आचार्य श्री महाप्रज्ञ के सम्पूर्ण वाङमय में अलंकार स्वतः उनकी वाणी के मित्र बनकर विराजमान है । उनके साहित्य पर दृष्टिपात करने से ध्वन्यालोक की उक्ति चरितार्थ सिद्ध होती है कि सारस्वत महाकवि की वाणी में अलंकार 'अहमहमिका' की भावना से पूर्ण होकर टूट पड़ते हैं । 'अश्रुवीणा' का श्रद्धाप्रवाह और आसूं की धारा अलंकारों के सहयोग से वेगवती हो गई है । 'संबोधि' में काव्यलिङ्ग एवं अर्थान्तरन्यास के चारू प्रयोग ने उसे दार्शनिकता की निरस भूमि से उठाकर काव्य की सरस भूमि में प्रतिष्ठित कर दिया है। विवेच्य 'रत्नपालचरित' काव्य में अलंकारों का सुन्दर लास्य वस्तु - वर्णनीयता एवं रस - चर्वणीयता को उत्कर्ष तक ले जाता है । आचार्य महाप्रज्ञ की महनीय कृति 'रत्नपालचरित' में लगभग बीस अलंकारों का प्रयोग हुआ है । साहित्याचार्यो द्वारा विन्यस्त अलंकार स्वरूप सम्बन्धी धारणा को स्वीकार कर, उसमें उपस्थित कतिपय अलंकारों का संक्षिप्त विवेचन यहां प्रस्तुत किया जा रहा है १. अर्थान्तरन्यास - 'अर्थान्तरन्यास' में दो शब्द हैं अर्थान्तर और न्यास अर्थात् अन्य अर्थ ( अर्थान्तर ) का न्यास या रखना अर्थान्तर न्यास अलंकार है । इसमें सामान्य का विशेष के साथ अथवा विशेष का सामान्य के साथ समर्थन किया जाता है । किसी कथन के समर्थन के लिए अन्य अर्थं का न्यास होता है । इसके मूल में सादृश्य होता है जो शाब्द होता है, आर्थ या व्यंग्य नहीं होता है । इसके पुरस्कर्ता आचार्य - भामह माने जाते हैं । इनके अनुसार पूर्व अर्थ सम्बद्ध afed अर्थ के अतिरिक्त अन्य अर्थ के वर्णन में अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है । 'हि' शब्द के प्रयोग से यह अधिक स्पष्ट हो जाता है ।" आचार्य मम्मट के अनुसार साधर्म्य तुलसी प्रज्ञा ८२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524583
Book TitleTulsi Prajna 1995 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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