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________________ तथा वैधयं के द्वारा सामान्य का विशेष के साथ एवं विशेष का सामान्य के साथ समर्थन में यह अलंकार होता है : सामान्यं वा विशेषो वा तदन्येन समर्थ्यते। यत्र सोऽर्थांतरन्यासः साधर्म्यणेतरेण वा ॥ महाप्रज्ञ काव्य-साहित्य में सबसे अधिक प्रयोग इस अलंकार का हुआ है। रत्नपालचरित में अनेक स्थलों पर इसका सुन्दर विनियोजन हुआ है । उदाहरण द्रष्टव्य हैंअथांशुमाली लसदंशुमाला समाकुलः पूर्वशिलोच्चयस्य । चूलां ललम्बे तमसः शमाय सन्तो निसर्गादुपकारिणो यत् ॥९ सूर्य अपनी कमनीय किरणों से समाकुल होकर अन्धकार का नाश करने के लिए पूर्वांचल पर उदित हुआ । यह सच है कि सन्त स्वभाव से ही उपकारी होते हैं । 'सन्त स्वभाव से उपकारी होते हैं' यह सामान्य है, इसके द्वारा विशेष सूर्य के तमस-विनाशक स्वरूप का समर्थन किया गया है । 'यत्' पद अर्थान्तरन्यास का बोधक चिह्न है। 'सन्तो निसर्गादुपकारिणो यत्' कमनीय सूक्ति है । एवं विकल्पप्रवणोऽवनीशोड नल्प प्रमोदेन पुरश्चचाल । सन्तः पुरोगा हि भवन्ति नित्यं, ___ निसर्गतः सर्वविधौकृताज्ञाः ॥२२ इस प्रकार चिन्तन कर निपुण-नृपति अत्यत्त आनन्दित होता हुआ आगे चला । क्योंकि जो सज्जन निसर्गतः सब विधियों में आज्ञा प्रधान होते हैं, वे सदा अग्रसर होते हैं । यहां पर 'आज्ञा प्रधान सज्जन सर्वदा अग्रसर होते हैं'-इस सामान्य वचन के द्वारा 'राजा चिन्तन कर आगे बढ़ा' --विशेष का समर्थन किया गया है । 'हि' शब्द के प्रयोग से अर्थान्तरन्यास का सफल विन्यास हुआ है । प्रकामवासेन नयेत भक्ति ह्रासं गृहीत्वेति ततः सुशिक्षाम् । जाते वपुर्लग्नजले कदुष्णे, बहिर्ययो भानुरिवाऽम्बुदात् सः ॥ एक ही स्थान पर अधिक रहने से भक्ति का ह्रास होता है । शरीर पर लगे जल बिन्दुओं के ऊष्ण होने पर राजा ने उक्त शिक्षा ली और वह सरोवर से बाहर आ गया जैसे सूर्य बादलों से बाहर आता है। यहां पर 'प्रकाम वासेन०' रूप सामान्य बचन का 'जाते---सः' रूप विशेष वचन से समर्थन किया गया है। राजा सरोवर से बाहर आ गया' इस तथ्य की अभिव्यक्ति के लिए अन्य अर्थ (एक ही स्थान पर रहने से भक्ति का ह्रास होता है की उपस्थापना की गई है । उपमा के विनियोजन से इसके सौन्दर्य में 'सोने में सुगन्ध' की तरह संवृद्धि हो गयी है। अर्थान्तरन्यास और उपमा का भेद सहित एकत्र सन्निधान से संसृष्टि अलंकार का सौन्दर्य भी चर्व्य है। खण्ड २१, अंक १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524583
Book TitleTulsi Prajna 1995 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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