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________________ सुहृद् गृहं किं परकीयमस्तु आः प्रस्मृतं स्वार्थी जगत् व्यवस्था, र्धाङ्गनान्या हि विपत्तिकाले ॥ २४ जो मैंने सोचा वह ठीक है अथवा नहीं ? मित्र के घर को पराया क्यों मानना चाहिए ? ओह ! मैं इस स्वार्थी जगत् की व्यवस्था के बारे में भूल कर रहा हूं, क्योंकि विपत्तिकाल में अपनी पत्नी भी परायी हो जाती है । विपत्तिकाल में पत्नी भी परायी हो जाती है, इस सामान्य वचन के द्वारा 'मैं इस स्वार्थी जगत् की व्यवस्था के बारे में भूलकर रहा हूं' विशेष का समर्थन किया गया है । 'हि' अर्थान्तरन्यास का वाचक शब्द है । लौकिक व्यवहार जगत् से 'अर्धाङ्गनान्या० सूक्ति का ग्रहण किया गया है । विद्याबलादात्म बलातिरेकाद्, विजित्य तं राज्यमथोददेऽस्मै । नवोत्तमा लोभ लवं स्पृशन्ति, २५ यतो न लोभात् परमस्ति पापम् ॥ राजा रत्नपाल ने अतिशायी बिद्याबल और आत्मबल से उस राज्य को जीतकर उस युवति के पिता को दे दिया । उत्तम व्यक्ति लोभ का स्पर्श नहीं करते, क्योंकि संसार में लोभ से बड़ा कोई पाप नहीं है। यहां पर सामान्य का समर्थन सामान्य से किया गया है । किं युक्तमालोचि मयाऽथवा नं., सद्दर्शनं यन्नयनं पुनाति ॥ * उसकी चिन्ता मुनि दर्शन से प्रनष्ट पापों के साथ ही विलीन हो गई । वह प्रसन्न होकर उठा और मुनि चरणों में वन्दन किया । यह सत्य है कि सज्जन व्यक्तियों के दर्शन से आंखें पवित्र हो जाती हैं। यहां पर ' सद्दर्शन से आंखें पवित्र होती हैं' रूप सामान्य से 'मुनि दर्शन से ब्राह्मण पवित्र हो गया' विशेष का समर्थन किया गया है । चकित विस्मित चित्त इलापति ८४ विनिर्ययौ तस्य शुगाशु पापैः, समं मुनेर्दर्शनतः प्रनष्टैः । सहर्षमुत्थाय पदी ववन्दे, Jain Education International रात्री की बातें सुनकर चकित चित्त राजा रत्नपाल अनिश्चित पथ से आगे चल पड़ा । विरक्त व्यक्तियों का यही शुभ क्रम होता है। वायु कभी भी निश्चित गति से नहीं चलता है । यहां 'वायु कभी भी निश्चित गति से नहीं चलता' रूप सामान्य से 'राजा अनिश्चित पथ की ओर चल पड़ा' विशेष का समर्थन किया गया है । लोकमूलक सूक्ति से राजा को सांसारिक विरक्ति और अनन्त पथ की ओर गमन का उद्घाटन किया गया है । स्तत इयाय यथाऽव्यवसायिना ॥ विरत चेतसः एषः शुभः क्रमो २७ न पवनो नियतं व्रजति क्वचित् ॥ For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा www.jainelibrary.org
SR No.524583
Book TitleTulsi Prajna 1995 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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