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यत्रापि कुत्रापि यथा कथंचित्,
कालात्ययो हा क्रियते हठेन । यथा विदग्धेन वचो व्ययो हि,
मितं पचेन द्रविण व्ययो वा ।।३६ जैसे विद्वान् व्यक्ति वचन का और कंजूस धन का व्यय करता है, वैसे ही वह राजा ज्यों-त्यों, जहां-कहीं रहकर हठपूर्वक समय बिताने लगा। 'दुःख का समय शीघ्र व्यतीत नहीं होता' इस तथ्य को उद्घाटित करने के लिए विद्वान्-वचन और कृपणधन को उपमान बनाया गया है। यहां एक उपमेय के लिए दो सार्थक एवं औचित्यपूर्ण उपमानों का विन्यास किया गया है ।
इस प्रकार अनेक स्थलों पर उपमा का प्रयोग काव्य-शोभा संवर्द्धन एवं तथ्यों की ललित अभिव्यक्ति के लिए किया गया है। अन्य उपमा प्रसंग २-२६, २७, ३८, ४०, ४२, ४५, ४-१, ५-१४, १६, १८ आदि द्रष्टव्य हैं। विस्तार भय के कारण सबका विवेचन संभव नहीं है। ३. रूपक--
रूपक का अर्थ है 'रूप का आरोप' । इस अलंकार में एक वस्तु में अन्य वस्तु का आरोप कर दोनों में अभेद स्थापन किया जाता है:---रूपयति एकतां नयतीति रूपकम्, रूपवत्करोतीति रूपयतीति रूपयुक्तं करोतीत्यर्थः । १० दण्डी के अनुसार जब उपमा के अन्तर्गत उपमेय-उपमान में परस्पर भेद तिरोधान हो जाए वह रूपक है :---उपमैव तिरोभूतभेदारूपकमुच्यते । आचार्य मम्मट ने उपमान और उपमेय के अभेदारोप को रूपक कहा है :
तद्रूपकमभेदोपमानोपमेययोः । ९ अतिसाम्यादनपह नुत भेदयोरभेदः ।"
भावों की स्पष्ट अभिव्यक्ति, गुणों की उदात्तता, भव्यता-एवं लालित्य-सौन्दर्य के अभिव्यंजन में रूपक अलंकार की महनीयता सिद्ध है ।
महाकवि-महाप्रज्ञ ने रत्नपालचरित में उदात्त एवं भव्य-निरूपण के अवसर पर रूपक का साधु विनियोजन किया है। दिव्य-सुन्दरी द्वारा कृत स्तुति में राजा की महनीयता को उद्घाटित करने के लिए --'जय-जय दस्युतमोऽभ्रमणे' में 'दस्यु-तम' पद में रूपक का विनियोजन किया गया है। दस्यु में ही अन्धकार का अभेदारोप होने से रूपक अलंकार हुआ है।
__'जय-जय सुकृतम्भोजसरो'४२ यहां पर राजा के यश को उद्घाटित करने के लिए सुकृत-कमल का सरोवर कहा गया है । सुकृत में ही कमल का आरोप किया गया है ।
'आरूढवानुत्तरदिग्गजेन्द्र विन्यस्त श्लोकांश में 'दिग्गजेन्द्रं' में रूपक अलंकार है। दिशा में ही गजेन्द्र का आरोप है। राजा के उत्कृष्ट पराक्रम को ज्ञापित करने के लिए इस रूपक का विनियोजन हुआ है। __ यस्मिन्नधीनीकृतमत्तचेतो
मतङ्गजा योगिवरा वसन्ति ॥४ (जहां पर चित्तरूपी मत्त मतंगज (हाथी) को वश में कर योगिवर निवास करते
खंड २१, अंक १
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