SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बुद्धि या ज्ञान जड़ है। ज्ञान पुरुष का धर्म नहीं किन्तु प्रकृति का धर्म है । अतः अनुभव की उपलब्धि न तो पुरुष में होती है और न ही बुद्धि में होती है । जब ज्ञानेन्द्रिय वाह्य जगत् के पदार्थों को बुद्धि के सामने उपस्थित करती है तब बुद्धि उपस्थित पदार्थ का आकार धारण कर लेती है। बुद्धि के पदार्थाकार होने के पश्चात् चैतन्यात्मक पुरुष का प्रतिबिम्ब जब तक बुद्धि में नहीं पड़ता तब तक अनुभव नहीं होता। बुद्धि में पुरुष का प्रतिबिम्ब पड़ता है । बुद्धि में प्रतिबिम्बित पुरुष का पदार्थों से सम्पर्क होना ही ज्ञान है।५ बुद्धि में प्रतिबिम्बत होने पर ही पुरुष को ज्ञाता कहा जाता है। प्रत्यक्ष अनुमान एवं आगम के भेद से सांख्य तीन प्रमाण स्वीकार करता है। सांख्य 'व्यक्ताव्यक्तज्ञविज्ञानात्' के माध्यम से विवेक ज्ञान को ही पूर्ण ज्ञान मानता है। विपर्यय ज्ञान को इस दर्शन में सदसत् ख्याति कहते हैं। सांख्य दर्शन ज्ञान की प्रमाणता एवं अप्रमाणता को स्वतः स्वीकार करता है .३६ जैन दर्शन ज्ञान गुण के सन्दर्भ में सांख्यों की तरह जड़वादी नहीं है । वह ज्ञान को प्रकृति का गुण धर्म नहीं मानता। जैन मत के अनुसार ज्ञान आत्मा का स्वभाव है । वह आत्मा का गुण है । आत्मा स्वरूपतः ज्ञान गुण सम्पन्न है। जैन चैतन्य और ज्ञान को सांख्यों की तरह भिन्न-भिन्न नहीं मानते। ये दोनों अभिन्न है। जैसे अग्नि स्वभावतः ही उष्णता गुण युक्त होती है वैसे ही आत्मा भी स्वभावतः ज्ञान गुण युक्त ही होती हैं।" न्याय तथा वैशेषिक दर्शन, परस्पर सम्बद्ध हैं। वैशेषिक में तत्त्व-मीमांसा प्रधान है तथा न्यायदर्शन में तर्कशास्त्र और ज्ञान-मीमांसा का प्राधान्य है । न्यायदर्शन वस्तुवादी है । वह ज्ञान को ज्ञाता और ज्ञेय का संबंध मानता है। ज्ञाता और ज्ञेय के अभाव में ज्ञान पैदा नहीं हो सकता । ज्ञाता जब ज्ञेय के सम्पर्क में आता है तब उसमें "ज्ञान" नामक गुण उत्पन्न होता है ज्ञान आत्मा का आगन्तुक धर्म है क्योंकि चेतना उसका आगन्तुक लक्षण है । न्याय दर्शन के अनुसार द्रव्य अपनी उत्पत्ति के प्रथम क्षण में गुण विहीन होता है। समवाय संबंध के द्वारा उत्पत्ति के बाद गुण का गुणी से सम्बन्ध करवाया जाता है । चैतन्य गुण आत्मा से अन्य है। समवाय सम्बन्ध रूप उपाधि से आगत है। न्यायदर्शन की आत्मा स्वरूपतः अज्ञान स्वरूप है। जब ज्ञाता ज्ञेय पदार्थ के संपर्क में आता है तब ज्ञेय पदार्थ के द्वारा ही ज्ञाता में ज्ञान पैदा होता है । ज्ञेय पदार्थ के अभाव में ज्ञान पैदा ही नहीं हो सकता। ज्ञान का कार्य ज्ञेय पदार्थ को प्रकाशित करना है। बुद्धि उपलब्धि, अनुभव ये शब्द ज्ञान के पर्याय हैं। जैन दर्शन ज्ञान को आत्मा का आगन्तुक धर्म नहीं मानता है। ज्ञान तो आत्मा का स्वरूप है । आत्मा चैतन्य लक्षण वाली है । ज्ञान का अस्तित्व ज्ञेय पदार्थ पर निर्भर नहीं है । वह स्वतः अस्तित्ववान । जैनदर्शन के अनुसार गुण-गुणी में धर्म-धर्मी में ज्ञानगत भिन्नता है वस्तुगत भिन्नता नहीं है। द्रव्य गुण से संयुक्त ही होता है। उत्पत्ति के प्रथम क्षण अगुणता का सिद्धांत सम्यक नहीं है । न्याय के अनुसार यथार्थ एवं अयथार्थ के भेद से ज्ञान दो प्रकार का है । वस्तु जैसी है उसका वैसा ही ज्ञान होना यथार्थ ज्ञान है । तथा वस्तु स्वभाव से विपरीत ज्ञान होना अयथार्थ अनुभव है।४३ इनके अनुसार ज्ञान स्वप्रकाशक नहीं है मात्र अर्थ प्रकाशक है । ज्ञान भी ज्ञानान्तर वेद्य है । ४ प्रमाण के चार खण्ड २१, अंक १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524583
Book TitleTulsi Prajna 1995 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy