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________________ प्रकार इस दर्शन में स्वीकार किए गए हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शाब्द (आगम)।१५ मीमांसा-दर्शन में ज्ञान को आत्मा का विकार कहा गया है। ज्ञान को एक क्रिया का व्यापार और उसे अतीन्द्रिय माना गया है। इस दर्शन के अनुसार ज्ञान आत्मा जैसे सूक्ष्म द्रव्य में पाया जाता है। प्रमुख मीमांसक कुमारिल एवं प्रभाकर की ज्ञान संबंधी अवधारणा पृथक्-पृथक् दीखती है । कुमारिल का ज्ञान विषयक मत ज्ञाततावाद कहलाता है । यह प्रभाकर के मत से भिन्न है । कुमारिल के अनुसार ज्ञान स्व प्रकाशक नहीं है । ज्ञान केवल ज्ञेय विषय को ही प्रकाशित करता है। अर्थ प्राकट्य के द्वारा उसका ज्ञान होता है। जैन मत से जो ज्ञान स्व-प्रकाशक नहीं है वह अर्थ प्रकाशक भी नहीं हो सकता। प्रभाकर का ज्ञान विषयक मत त्रिपुटी प्रत्यक्षवाद कहा जाता है। वे ज्ञान को स्वप्रकाशक मानते हैं। उसे अपनी अभिव्यक्ति के लिए किसी अन्य ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। ज्ञान के लिए ज्ञानान्तर की कल्पना से अनवस्था दोष आता है । ज्ञान स्वप्रकाशक तो है किन्तु नित्य नहीं । ज्ञान आत्मा का आगन्तुक गुण है। विषय संपर्क से आत्मा में ज्ञान उत्पन्न होता है। प्रत्येक ज्ञान में जेय, ज्ञान और ज्ञाता की त्रिपुटी का प्रत्यक्ष होता है । इसलिए यह त्रिपुटी प्रत्यक्षवाद है। ___ बौद्ध दर्शन में साकार चित्त को ज्ञान कहते हैं। बौद्ध दर्शन के भिन्न-भिन्न प्रस्थान हैं । अत: उनकी ज्ञान-मीमांसा में भी वैविध्य है। योगाचार अर्थात् विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध ज्ञान को ही मात्र परमार्थ सत् मानता है। उसके अनुसार बाह्य पदार्थ का कोई अस्तित्व ही नहीं है । वैभाषिक बौद्ध ज्ञान-मीमांसा के क्षेत्र में तदुत्पत्ति एवं तदाकारता के सिद्धांत को स्वीकार करते हैं। उनका मानना है कि तदुत्पत्ति एवं तदाकारता के अभाव में प्रतिनियत कर्म-व्यवस्था नहीं हो सकती। ज्ञान पदार्थ से उत्पन्न होता है तथा पदार्थाकार को ग्रहण करता है। घट से उत्पन्न ज्ञान घटाकार में परिणत होकर ही घटज्ञान करता है । बौद्ध दर्शन में अपूर्व अर्थ के ज्ञापक सम्यक् ज्ञान को ही प्रमाण कहा गया है ।५० जो ज्ञान अविसंवादी है वही सम्यग्ज्ञान कहलाता है ।" अर्थ क्रिया की व्यवस्था से ही ज्ञान के अविसंवादित्व आदि का बोध होता है। सम्यग्ज्ञान प्रत्यक्ष एवं अनुमान भेद से दो प्रकार का है। कल्पना रहित ज्ञान अर्थात निविकल्प ज्ञान एवं अभ्रांत ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण है।५२ व्याप्ति ज्ञान से सम्बन्धित किसी धर्म के ज्ञान से धर्मी के विषय में जो परोक्ष ज्ञान होता है वह अनुमान है ।५३ बौद्ध दर्शन में वही ज्ञान प्रमाण है और वही ज्ञान प्रमाण फल भी है। प्रत्येक ज्ञान अर्थ से उत्पन्न होता है तथा अर्थाकार होता है । यथा जो ज्ञान पुस्तक से उत्पन्न हुआ है वह पुस्तकाकार है तथा पुस्तक के बोधरूप हैं। अतः ज्ञान में जो पुस्तकाकारता है वह प्रमाण है और जो पुस्तक का बोध है, वह प्रमाणफल है। इस प्रकार एक ही ज्ञान में प्रमाण और फल की व्यवस्था की जाती है। बौद्ध दर्शन क्षणिकवादी है वहां आत्मा जैसे किसी नित्य द्रव्य की स्वीकृति नहीं है। ज्ञान चैतसिक है। चित्त परम्परा चलती रहती है । प्रवृत्ति विज्ञान एवं आलय विज्ञान की अवधारणा बोद्ध दर्शन में है। तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524583
Book TitleTulsi Prajna 1995 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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