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________________ दसवैकालिक और धम्मपद में भिक्षु साध्वी संचितयशा स्वयं भू धर्म में निरत और भूमा के सुख में आसक्त प्राणी भिक्षु शब्द वाच्य है । सर्वस्व त्याग जन्य आकिंचन्य से त्रैलोक्याधिपत्य विभूषित सम्राट किंवा स्वराट् पद्वी पर अधिभूषित होने वाला भिक्षु होता है । देखने में अकिंचन होता है लेकिन करने में त्रिलोकनाथ । बाह्य रूप से उसके पास तो कहने को कुछ नहीं होता लेकिन सम्पूर्ण विश्व की विभूषिता शक्ति को अधिकृत करने की कला को वह सहज ही हस्तगत कर लेता है। उसकी चरण यात्रा तो सोमा से प्रारम्भ होती है लेकिन वह उस असीम में अधिष्ठत हो जाता है, जहां पर 'सव्वे सरा णियदन्ति तत्थ', 'न तत्र चक्षुर्गच्छति' 'नैषा तर्केण मतिरापनेया', 'नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यः', 'यमेवैषवणुते तेन लभ्यः'रूप शाब्दिक-मूक्तियां सम्पूर्णतया संगठित हो जाती है । भिक्षु-वर्ग विश्व का एक प्रभावशाली संगठन है । धर्म के उत्कर्ष के साथ-साथ धार्मिकों का भी उत्कर्ष होता है । धार्मिकों का नेतृत्व भिक्षु वर्ग के हाथ में रहता है। इस भिक्षु-वर्ग का उदय किम काल में हुआ ? यह अनुसंधेय प्रश्न है। वेद संहिताओं में 'भिक्षु' शब्द नहीं मिलता। ब्रह्मचारिन् का भिक्षाटन मिलता है वह भिक्षु-जीवन के कर्तव्यों से सर्वथा भिन्न है फिर भी ब्रह्मचारी के गुण और भिक्षु के आन्तरिक गुण समकक्ष प्रतीत होते हैं । पुराणों में मुनि, महषि, सन्यासी, ऋषि, परमर्षि इत्यादि शब्द मिलते हैं । उपनिषदों, स्मृति ग्रंथों में 'भिक्षु' शब्द मिलता है । जैन आगम और बौद्ध त्रिपिटकों में भी 'भिक्षु' शब्द का उल्लेख है । भिक्षु कौन होता है ? क्यों वह समाज के संबंधों को विच्छिन्न कर इस मार्ग को अपनाता है ? उसके क्या कर्त्तव्य हैं ? क्या नियम हैं ? -... इन सबका उल्लेख उपर्युक्त ग्रंथों में मिलता है । यहां हम ‘दसवैकालिक' एवं 'धम्मपद' के परिप्रेक्ष्य में 'भिक्षु कौन होता है' ? इस पर विचार करेंगे। १. अहिंसक भिक्षु वह होता है जो किसी भी प्राणी को मन, वचन, काया से पीड़ित नहीं करता । प्राणियों को पीड़ित नहीं करना ही अहिंसा है । 'अहिंसा' मुनि का परम धर्म है। महाभारत (शान्ति पर्व) में कहा है-'अहिंसा सकलो धर्म:-अहिंसा ही संपूर्ण धर्म है । दसवै कालिक और धम्मपद में भी कहा है---भिक्षु को अहिंसक होना चाहिए। धम्मपद में उल्लिखित है खण्ड २१, अंक १ ३९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524583
Book TitleTulsi Prajna 1995 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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