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________________ अन्य व्यक्ति रक्षा के लिए धन का वितरण करते हैं, और मैं पीने के लिए जल देता हूं, इसीलिए राजा मुझे यहां विशाल स्थान दे रहा है। यहां 'अहं तदा जीवनमर्पयामि' कारण तथा 'विशालं कायं सदनं ददाति, कार्य है। उपर्युक्त श्लोक में श्लेष, व्यतिरेक मीर काव्यलिङ्ग अलंकार तथा तीनों के तिलतण्डुलन्याय से उपस्थिति होने के कारण संसृष्टि का सौन्दर्य रमणीय बना है। उपर्युक्त उदाहरणों के अतिरिक्त २.१५, २.४६, ३.१, ५.८, ५.२४ भी द्रष्टव्य है। ७. अर्थापत्ति इसका अर्थ है -अर्थ की आपत्ति-आ पड़ना या गिर पड़ना। इस अलंकार में एक कार्य की सिद्धि या वर्णन के साथ अन्य अशक्य कार्य की सिद्धि या वर्णन किया जाता है । यह वाक्यन्यायमूलक अलंकार है। इसमें दण्डापूपिकान्याय एवं “कौमुतिक न्याय' के आधार पर अन्य कार्य की सिद्धि का उल्लेख होता है। रुय्यक ने कहा है-- 'दण्डापूपिका न्याय' से अन्य अर्थ की प्रतीति अर्थापत्ति अलंकार है-दंडापूपिकयार्थीतरापतनमापत्तिः । अप्पय दीक्षित के अनुसार कै मुत्यन्याय से अर्थ-सिद्धि अर्थापति कैमुत्येनार्थसंसिद्धिः काव्यार्थापत्तिरिष्यते । तांत्रिकाभिमतार्थापत्ति व्यावर्तनाय काव्येति विशेषणम् ।।६० रत्नपालचरित का महाकवि इस अलंकार के प्रयोग में कुशल है। अनेक स्थलों पर महनीय एवं उदात्त भावों के अभिव्यंजन के लिए इस अलंकार का प्रयोग किया गया :तथाधिरूढा नवराङ्गमाज्ञा, नारोक्ष्यते किं मम राजमौलिम् ॥ मनुष्यों के शिर पर आरूढ़ होने वाली मेरी आज्ञा क्या राजाओं के शिर पर आरूढ़ नहीं होगी अर्थात् अवश्य होगी। यहां कौमुतिक न्याय से 'मेरी आज्ञा सबको बस में करने में समर्थ है' इस तथ्य का प्रतिपादन किया गया है। लुण्टाकवत्या परकीयवस्तु वाते विधत्तेऽनधिकारचेष्टाम् । असह्यमेवेति मया प्रकृत्या सिन्धुन कि प्लावयति स्म काकम् ॥ जो व्यक्ति परायी वस्तु को लूटने की वृत्ति से उस पर अधिकार करता है, यह अनधिकार चेष्टा है । स्वभावतः यह मेरे लिए असह्य है। क्या समुद्र कौए को नहीं बहा देता? यहां कौमुतिक न्याय से राजा के प्रबल सामर्थ्य का निरूपण किया गया है। क्या समुद्र कौए को नहीं बहा देता ?' अर्थात् अवश्य बहा देता है-इससे यह स्पष्ट हो रहा है कि राजा लुण्टाकों का दमन करने में समर्थ है। सुनसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524583
Book TitleTulsi Prajna 1995 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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