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________________ २. प्रवाहशीलता ऋमिक एवं विकासोन्मुखी होती है। ३. आगम या उपागम ग्रन्थों को हमें ज्ञानविकास की ऐतिहासिक दृष्टि से मान्यता देनी चाहिए । इन्हें "श्रुत केवलि भणितं" की परम्परा के बदले तत्तत् युगीन ज्ञात ज्ञान/अनुभव के अभिलेखों के रूप में मानें। इस आधार पर हम विभिन्न युगों/ कालों में रचित ग्रन्थों के विवरण का तुलनात्मक आधार पर अध्ययन कर अपने बौद्धिक, आध्यात्मिक या अन्य प्रकार के विकास का ज्ञान एवं मूल्यांकन कर सकते हैं । इससे अपने भविष्य के पथ को प्रशस्त भी कर सकते हैं। यहीं कुंदकुंद की नियमसारी गाथा १८४ हमारी मार्गदर्शक बन सकती है । कुंदकुंद समयसार में स्वयं कहते है..-जो मैं कह रहा हूं, वह अपने अनुभव ज्ञान/विभव से कह रहा हूं। यदि इसमें कोई अपूर्णता दिखे, तो उसे मेरा छल मत समझना, अपने अनुभव से उसे पूर्ण/सत्यापित कर लेना। ये वाक्य कुंदकुंद की वैज्ञानिक दृष्टि एवं प्रवृत्ति के प्रतीक हैं । बीसवीं सदी और उससे आगे की पीढ़ी कुंदकुंद के इसी सिद्धांत के अनुकरण की प्रतीक्षा में है। इससे ही हमारे उपागम व अन्य ग्रन्थ सदा काल-सापेक्ष प्रामाणिकता की कोटि में बने रहेंगे। आगम और आगम प्रमाण प्राचीन जैन शास्त्रों में ज्ञान की चर्चा पर्याप्त है, पर प्रमाणों की चर्चा सम्भवतः संकेत या संग्रह रूप में है । ज्ञान की सम्यकता की धारणा के लिए प्रमाण की चर्चा स्वाभाविक है । यद्यपि कुंदकुंद ने अपने ग्रन्थों में प्रमाण की चर्चा तो नहीं की है पर उन्होंने सम्यक्ज्ञान हेतु नियमसार में कहा है :२० ___ संसय-विमोह-विन्ध्रम-विवज्जियं होदि सण्णाणं । लेकिन उमास्वामी ने जान को ही प्रमाणशब्द से निरूपित कर जैन विद्याओं में प्रमाणवाद का समावेश किया एवं मति एवं श्रत (आगम) को परोक्ष प्रमाण माना । बाद में लौकिक समकक्षता हेतु अनुयोगद्वार और अकलंक ने इन्हें सांव्यवहारिक प्रत्यक्षता की मान्यता दी । फलतः इन्द्रिय ज्ञान और आगम ज्ञान भी प्रत्यक्ष माना जाता है । इसकी प्रत्यक्षता से ही इसकी प्रामाणिकता पुष्ट होती है। यह प्रत्यक्षता इन्द्रियदर्शन के अतिरिक्त अनिद्रिय दर्शन, यंत्र दर्शन एवं स्वानुभूति से होती है। कुंदकुंद के युग में विविध दर्शन आगम प्रमाण मानते थे, पर जैनों में इसका विशेष प्रचलन नहीं था। न्यायाचार्य के अनुसार, अपौरुषेयतामूलक वेद की प्रमाणिकता के स्थान पर जैनों ने सर्वज्ञ-पुरुष मूलक आगम की प्रामाणिकता की धारणा विकसित की और उपरोक्त तीन आधारों को उसकी कसौटी बनाया। इस प्रकार परीक्षा-प्रधानी मूल्यांकन पद्धति का विकास जैनों की अतिविशिष्टता है । वस्तुतः जैनों की दृष्टि से आगम या उपागम स्वत: प्रमाण नहीं है, उनकी प्रामाणिकता वक्ता एवं श्रोता के गुणों पर निर्भर करती है । इस दृष्टि से कुंदकुंद के ग्रंथों की आगम प्रमाणता पर विभिन्न आचारों से ऊहापोह अपेक्षित है । नंदीसूत्र में श्रुत की परख का एक और आधार भी बताया गया है-वह है--- दृष्टिकोण । सम्यक् दृष्टि के लिए पर-समय भी सम्यक्श्रुत है और तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524583
Book TitleTulsi Prajna 1995 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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