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'रत्नपालचरित' में अलंकार सौन्दर्य
डॉ० हरिशंकर पाण्डेय
निसर्ग-चंगत्तण और सहज-लावण्य-पूर्ण युवति का अंग-सौष्ठव बाह्यालंकार से संपृक्त होकर अत्यधिक विलसित होता है वैसे ही कवि-हृदय से संभूत काव्य-बाला का सौन्दर्य अनुप्रासोपमादि बहुविध अलंकारों का सहयोग पाकर अधिक उत्कृष्ट हो जाता है। ये वाणी के शृंगार एवं सौन्दर्य सम्बर्द्धक माने जाते हैं। इसीलिए भारतीय आचार्यों ने 'सौन्दर्यमलंकारः' कहा है।' अलंकार : अर्थ एवं स्वरूप संधारण
___ अलंकार दो शब्दों के मेल से बना है --अलम् और कार । जिसका अर्थ होता है-शोभाकारक पदार्थ । 'अलंकरोति इति अलंकारः' अर्थात् शोभावर्द्धक तत्त्व को अलंकार कहते हैं । आचार्य वामन के अनुसार अलंकृत करने वाले तत्त्वों से अभिप्राय है उपमादि का---
अलंकृतिः अलंकारः । करण व्युत्पत्या पुनः ।
अलंकार शब्दोऽयंमुपमादिषु वर्तते ॥ राजशेखर ने अलंकारों के महत्त्व को अंकित करते हुए इन्हें वेद का सातवां अंग माना है । उनके अनुसार ये अर्थ के उपकारक होते हैं :---
उपकारकत्वात् अलंकारः सप्तममंगमिति यायावरीयः, ऋते च तत्स्वरूप परिज्ञानात् वेदार्थानवगतिः ।।
आचार्य दण्डी ने काव्यशोभाकारक धर्म को अलंकार कहा है :-काव्यशोभाकरान् धर्मानलंकारान्प्रचक्षते । आनन्द वर्द्धन की दृष्टि में शब्दार्थभूत काव्य साहित्य का आभूषक धर्म अलंकार है-अंगाश्रितास्त्वलंकारः मंतव्या कटकादिवत् ।' आचार्य मम्मट ने बताया है कि अलंकार शब्दार्थ का शोभावर्द्धन करते हुए मुख्यतः रस का उपकारक होता है
उपकुर्वन्ति तं सन्तं येऽङ्गद्वारेण जातुचित ।
हारादिवदलंकारास्तेऽनुप्रासोपमादयः ।। कविराज विश्वनाथ के अनुसार अलंकार शब्दार्थ का अस्थिर या अनित्य धर्म है, जो काव्य-शोभा का उत्कर्षक होता है :----
शब्दार्थयोरस्थिरा ये धर्माः शोभातिशायिनः ।
रसादीनुपकुर्वतोऽलंकारास्तेंगदादिवत् ॥ पंडितराज जगन्नाथ की दृष्टि में काव्य की आत्मा भूत व्यंग्य का रमणीयत्व बंर २१, अंक १
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