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काम आएगा-इस विचार से जो न सन्निधि (संचय) करता है और न कराता है - वह भिक्षु है।
उवहिम्मि अमुच्छिए अगिद्धे, अन्नायउछपुल निप्पुलाए । कयविक्कय सन्निहिओ विरए, सव्व संगावगए य जे स भिक्खू ॥
जो मुनि वस्त्रादि उपधि में मूच्छित नहीं है, जो अगृद्ध है, जो अज्ञात कुलों से भिक्षा की एषणा करने वाला है, जो संयम को असार करने वाले दोषों से रहित है, जो क्रय-विक्रय और सन्निधि से विरत है, जो सब प्रकार के संगों से रहित है-वह भिक्षु है।
धम्मपद में अकिंचन को भिक्षु कहा है-'अकिंचनं अनादानं अर्थात् जो पूर्व संग्रह रहित और नव संग्रह का अकर्ता है, वही वास्तव में भिक्षु है ।। ४. अनासक्त
आसक्ति दुःखों का मूल कारण है । इसलिए भिक्षु को किसी भी पदार्थ में आसक्त नहीं होना चाहिए । शरीर के प्रति भी ममत्व नहीं करना चाहिए ।
धम्मपद में कहा है ---
आसा यस्स न विज्जन्ति अरिमं लोके परम्हि च । निरासयं विसंयुलं तमहं ब्रूमि.......।"
अर्थात् इह लोक और परलोक की आशा किये बिना अर्थात् विरक्त और अनासक्त रहता है वही भिक्षु । दसवैकालिक के सभिक्खू पाठ में उल्लेख है
चत्तारि वमे सया कसाए, धुवयोगी य हवेज्ज बुद्धवयणे ।
अहणे निज्जायरुवरगए, गिहिजोगं परिवज्जए जे य भिक्खू ।"
जो व्यक्ति चार कषायों का परित्याग कर निर्ग्रन्थ प्रवचन में सदैव रमण करता है और जो अघन, स्वर्ण चांदी से रहित है । गृही-योग का वर्जन करता है, वह भिक्षु
सय
५. संयती
संयत होने का मतलब है-अशुभ प्रवृत्ति से शुभ प्रवृत्ति में रहना । भिक्षु वह होता है जो इन्द्रिय, मन, वचन, काया को वश में रखता है। दसवैकालिक और धम्मपद दोनों में भिक्षु को संयमित रहने का निर्देश दिया है । दसवैकालिक में कहा है
हत्थ संजए पाय संजए, वाय संजए संजइंदिए ।
अज्झप्परए सुसमाहियप्पा, सुत्तत्थं च वियाणई जे स भिक्खू ॥" धम्मपद में भी निम्न गाथा मिलती है
हत्थसंयतो पादसंयतो, वाचायसंयतो संयतुत्तमो।
अज्झत्तरतो समाहितो एको संतुसितो तमाहु भिक्खं ।।१२ ७. अप्रमादी
प्रमाद से तात्पर्य हैं-धर्म के प्रति अनुत्साह । अप्रमादी इसके विपरीत होता खण्ड २१, अंक १
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