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मन्ये शङ्क ध्रुवंप्रायो नूनमित्येव मादयः ।
उत्प्रेक्षा व्यंज्यते शब्दः इव शब्दोऽपि तादृशः ॥ __ आचार्य मम्मट ने प्रकृत (उपमेय) की अप्रकृत (उपमान) के साथ एकरूपता या तादात्म्य की संभावना को उत्प्रेक्षा कहा है :---
संभावन मथोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य समेन यत् । यह अलंकार उपमा से भिन्न इसलिए है कि उपमा में उपमेय-उपमान में सादृश्य की स्थापना की जाती है परन्तु उत्प्रेक्षा में उपमेय में उपमान की संभावना की जाती है। यह संदेह अलंकार से भिन्न है, क्योंकि संदेह अलंकार का संशय दोलायमान होता है, लेकिन उत्प्रेक्षा में उत्कट कोटिक या उपमान के प्रति संशय होता है।
रत्नपाल चरित में अनेक स्थलों पर वर्णनीय के उत्कृष्ट प्रतिपादन के लिए इस अलंकार का प्रयोग किया गया है, कुछ उदाहरणों का विवेचन अधो-विन्यस्त है :राज्ञी तदीयाऽर्जान चन्द्रकान्ता
यत्सौकुमार्येग विडम्बितानि । पद्मान्यऽगुर्वारिणि धावितुं स्व
मकीर्तिमालिन्यमिति प्रतीतिः ॥१२ उसकी रानी का नाम चन्द्रकान्ता था। उसने अपनी सकुमारता से सारे कमलों को विडम्बित कर दिया था। मानो उस बिडम्बना से प्रताड़ित होकर वे पद्म अपनी अकीर्ति रूपी मलिनता को धोने के लिए पानी में चले गए हों। यहां पर 'अकीर्तिमालिन्यमिति प्रतीति:' में उत्प्रेक्षालंकार है। व्यतिरेक के योग से इसका रमणीयत्व बढ़ गया है।
मन्ये धरित्रीत्यनुरुद्धय चक्रे,
तं रत्नपालं महिपालमत्र ॥७ मानता हूं कि भूमि ने यह सोचकर उस रत्नपाल को राजा के रूप में स्थापित किया था। 'मन्ये' उत्प्रेक्षावाचक शब्द है। ५. व्यतिरेक
व्यतिरेक का अर्थ है-विशेष प्रकार का अतिरेक या आधिक्य—'व्यतिरेको विशेषणातिरेकः आधिक्यम् । कबि जब उपमान की अपेक्षा उपमेय को अधिक सबल एवं प्रौढ़ सिद्ध करना चाहता है, तब व्यतिरेक अलंकार का प्रयोग करता है। भामह ने उपमान की अपेक्षा उपमेय के गुणोत्कर्ष वर्णन को व्यतिरेक कहा है :--
उपमानवतोऽर्थस्य यद्विशेषनिदर्शनम् ।
व्यतिरेके तमिच्छति विशेषापादनाद्यथा ।।५ मम्मट ने उपमेय के गुणाधिक्य वर्णन को व्यतिरेक कहा है :--
उपमानाद्यन्यस्य व्यतिरेकः स एव सः ।
अन्यस्योपमेयस्य व्यतिरेक आधिक्यम् ॥५९ उपर्युक्त परिभाषाओं के विश्लेषण से निम्नलिखित तथ्य प्रकट होते हैं :१. इसमें उपमेय के उत्कर्ष का प्रतिपादन तथा उपमान का अपकर्ष सिद्ध किया
खण्ड २१, अक १
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