Book Title: Tandulvaicharik Prakirnakam
Author(s): Ambikadutta Oza
Publisher: Sadhumargi Jain Hitkarini Samstha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100000000000000 For Private And Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shn Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org. श्री वेताम्बर साधुमार्गी जैन हितकारिणी संस्था, बीकानेर द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ १. वृत्तयोध (संस्कृत छन्द शास्त्र विषयक प्रन्ध ) २. जैनागम तवदीपिका (प्रश्नोत्तर के ढंग से जैन सिद्धान्तों का ज्ञान कराने वाला मन्थ ) ३. श्रीलाल नाममाशा (प्रारम्भिक संस्कृत के विद्यार्थियों के लिए जैन पद्धति से रचा हुआ संस्कृत को ४. भावा (बिस्तार सहित ) ५. श्रीमनाचार्य पृष्य श्री जवाहरलालजी म सा का जीवन चरित्र प्रथम भाग ६- जवाहर विचार सार ( श्रीमनाचाहराचार्य के जीवन चरित्र का दूसरा भाग ) ७. तन्दुल बालीय पणा (गर्भ विषयक विचार का विस्तृत वर्णन ) ८. भी जिन जन्माभिषेक ( तीर्थङ्कर भगवान् के जन्म कल्याणक का विस्तृत वर्णन ) प्राप्तिस्थान श्री श्वेताम्बर साधुमार्गी जैन हितकारिणी संस्था, रांगडी चौक, बीकानेर For Private And Personal Use Only मूल्य ) 1=) 1) Acharya Shri Kailassacaruri Gyanmandir ( अप्राप्य ) (४) २) १०) (अप रहा है ) श्री अगरचन्द भैरोदान सोठया जैन पारमार्थिक संस्था, बीकानेर Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sun Mahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Sur Keilassagarmur yamandir 00000000000000000000000000000000-00--000-000000 श्री तन्दुल वेयालिय पइण्णं श्री तन्दुल वैचारिक-प्रकीर्णम् (शुद्ध मूल पाठ, संस्कृत छाया और भावार्थ सहित) अनुबादक पं. अम्बिकादत्त अोझा व्याकरणाचार्य सम्पादक और संशोधक पं० घेवरचन्द्र बाँठिया 'वीरपुत्र' जैन सिद्धान्त शास्त्री, न्याय, व्याकरण तीर्थ प्रकाशक श्री श्वे. माधुमार्गी जैन हितकारिणी संस्था, बीकानेर voवीर संवन २४७६ र प्रथमावृत्ति मूल्य १) पौने दो रुपया विक्रम संवत २००६) CORRECOOPEeeeeeeeee@@ ५०० For Private And Personal use only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Sur Kallastegarul Syarmandir मुद्धक श्री रामशष्य प्रिंटिंग प्रेस, नसीराबाद रोड अजमेर । For Private And Personal use only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SheMahavir Jain AradhanaKendra Acharya Sa Kasagar Gyanmandir दो शब्द जैन सूत्रों में (श्री भगवती सूत्र में तथा दूसरे दूसर सूत्रां में ) भिन्न भिन्न स्थानों पर गर्भ विषयक वन बाया है। इस पइण्णामा (प्रकीर्णको ) में तन्दुलवयाकी पांचवी पदण्णा है । यह मन्य किसी प्राचीन पूर्वधर आचार्य का बनाया हुआ है । इस प्रन्थ में विस्तारपूर्वक गर्भ विषयक वर्णन किया गया है । यह सारा वर्णन एक ही जगह भाजाने के कारण इस विषय को जानने की रुचि रखने वालों की सुविधा के लिए श्री श्वेताम्बर साधुमानी जैन हितकारिणी संस्था बीकानेर क बार से इस पन्ध का हिन्दी अनुवाद करवा कर प्रकाशित किया जा रहा है। ग्रन्थ के अन्तिम भाव में नारायभाय और नारी जाति के सम्बन्ध में वर्णन करते हुए प्रन्धकार ने जो विचार प्रकट किये हैं चे एकपक्षीय है, क्योंकि न तो नारी हो चुरी है और न नर दी, किन्तु बुरी है विकार होष्ट । इसलिए यदि अन्धकार ने बिना किसी लिङ्ग भेद के विकार हांट को बुरा बताया होता और मानवता के दृष्टिकोण से नारी-स्वभाव का विषचन किया होता तो अच्छा होता । इससे प्रन्थ की उपयोगिता बढ़ जाती । नारीश्वभाष का इस प्रकार वर्मान करने में प्रन्यकार का क्या भाशय था यह यथार्थ रूप से कुछ नही कहा जा सकता। इस पुस्तक में प्रूफ सम्बन्धी तथा अन्य कोई अशुद्धि रह गई हो तो पाठक महोदय अवश्य मूचित करें ताकि आगामी भावृत्ति में यथोचित सुधार कर दिया जाय । सम्पादक और मंशोधक For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir dain AradhanaKendra www.kobatirtm.org Acharya.sin.kalinssagarmurnGyanmandir तन्दुल वेयालिय पइण्णं श्री तन्दुल वैचारिक-प्रकीर्णकम् (शुद्ध मूल पाठ, संस्कृत छाया और भावार्थ ) Sataratamata प STEESEENESEAGATE निअरिय जरामरणं, वंदित्ता जिणवरं महावीरं । बुच्छं पयएणयमिणं, तंदुल वेयालियं नाम ॥१॥ छाया-निर्जरित जरा मरणं, बन्दित्वा जिनवरं महावीर । वक्ष्ये प्रकीर्णक मिदं, तन्दुल वैचारिक नाम ।।१।। भावार्थ-जिन्होंने बुढ़ापा और मृत्यु को सर्वथा क्षय कर दिया है तथा जो राग का विजय करने वाले सामान्य केलियों में प्रधान हैं ऐसे श्री भगवान महावीर स्वामी को मन, वचन और काया से वन्दना करके तन्दुल वैचारिक नामक इस प्रकीर्णक को मैं कहूँगा ||१|| सुणह गणिए दह दसा वास सयाउस्स जह विभज॑ति । संकलिए वोगसिए जं चाउं सेसयं होइ ॥२॥ छाया-शगुत गणिते दश दशाः, वर्ष शतायुषो यथा विभज्यन्ते । संकलिते व्युत्कृष्टे, यथायुषः शेष भवति ॥२॥ भावार्थ-जिसकी आयु सौ वर्ष की है, हिसाब करने पर उस मनुष्य की जिस तरह दश अवस्थाएं होती है तथा उन दश ही । SE EI OLE ED UBEZEN गणत गणिते दश दशः, वर्ष शतायो यथा विभज्यन्ते For Private And Personal Lise Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir dain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Sa K asagarmur Gyarmandir अवस्थाओं को एकत्रित करके निकाल देने पर उस मनुष्य की जितनी आयु शेष बच जाती है उसका मैं वर्णन करूँगा, आप उसे सुनें ।।२।। जत्तिय मिले दिवसे, जत्तिय राई मुहुत्त मुस्सासे । गभमि वसइ जीवो, आहारविहि य चुच्छामि ॥३॥ छाया-याधन्मात्रान् दिवसान्, यावदात्री मुहर्लोच्छवासान् । गर्भ यसति जीयः, आहार विधिञ्च वक्ष्यामि ॥३॥ भावार्थ-यह जीव जितने दिन, रात, मुहर्त और उच्छवास तक गर्भ में निवास करता है तथा वहाँ बह जो आहार करता है यह सब विषय में बतलाऊँगा ।।३।। दुरिण अहोरत्त सए संपुगणे, सत्तसत्तरं चेव । गभंमि बसइ जीवो, अद्ध महोरत्त मएणं च ॥४॥ छाया-द्व होरात्रशते सम्पूर्णे, सप्तसप्ततिश्चैव । गर्भे यसति जीवो ऽद्ध महोरात्र मन्यच ॥४॥ भावार्थ-यह जीव २७जा दो सौ साढे सतहत्तर दिन रात तक गर्भ में निवास करता है ॥४।। ए ए उ अहोरत्ता, णियमा जीवस्स गम्भवासंमि । हीणाहिया उ इत्तो उवधायवसेण जायंति ॥५॥ छाया- एते त्वहोरात्राः, नियमतो जीवस्य गर्भवासे । हीनाधिकारिस्थत उपघात यशेन जायन्ते ।।५।। भावार्थ-२७७|| दो सौ साढ़े सतहत्तर दिन रात तो निश्चय ही गर्भचास में लग जाते हैं परन्तु वात पित्तादि दोषों के उत्पन्न होने पर इन से कम या अधिक अहोरात्र भी कभी कभी गर्भवास में गुजर जाते हैं ।।५।। अट्ठ सहस्सा तिरिण उ,सया मुहुत्ताण पण्णवीसा य । गम्भगो वसइ जीओ, णियमा हीणाहिया इत्तो ॥६॥ For Private And Personal use only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sun Mahavir Jain AradhanaKendra www.kobatiram.org Acharya Sa K asagarmur Gyarmandir छाया-अष्टी सहस्राणि श्रीणि तु, शतानि मुहूर्तानां पञ्चविंशतिं च । गर्भगती वसति जीयः, नियमाद् हीनाधिकानीतः ॥६॥ भावार्थ-जीव आठ हजार तीन सौ पचीस मुहूत्त तक निश्चय ही गर्भ में निवास करता है, परन्तु वात आदि के प्रकोप से कम या ज्यादा भी हो सकता है। पहले २७७।। दो सौ साढे सत्तहतर अहोरात्र तक गर्भ में निवास का काल कहा गया है। एक अहोरात्र के ३० मुहत होते हैं, इसलिये २७७।। अहोरात्र को ३० से गुणन करने पर ८३२५ संख्या होती है, यही मुहत्तों की संख्या जाननी चाहिये ॥६॥ तिएणेव य कोडीश्री, चउदस हवंति सयसहस्साई । दस चेव सहस्साई, दुएिण सया पएणवीसा य ॥७॥ उस्सासा निस्सासा, इत्तियमित्ता हवंति संकलिया । जीवस्स गम्भवासे, णियमा हीणाहिया इत्तो ॥॥ छाया-तिखश्च कोटयश्चतुर्दश भवन्ति शतसहस्राणि । दश चैव सहस्राणि, द्रं शते पञ्चविंशतिञ्च ॥७॥ उच्छवासा निःश्वासा, एतावन्मानाः भवन्ति सङ्कषिताः । जीवस्य गर्भवासे, नियमाद् हीनाधिका इतः ।।।। भावार्थ-तीन कोटि चौदह लाख दश हजार दो सौ पचीस ३१४१०२२५ उच्छ्वास निःश्वास तक निश्चय जीव गर्भ में निवास करता है परन्तु वात आदि के दोष से कम ज्यादा होना भी सम्भव है। आशय यह है कि-एक मुहूर्त में ३७४३ उच्छ्वास निःश्वास होते हैं । इसलिये गर्भवास काल के ८३२५ मुहूतों का ३७७३ से गुणन करने पर ३१४१०२२५ उच्छ्वास निःश्वासों की संख्या होती है। इसलिये ३१४१०२२५ उच्छवास निःश्वास तक जीव का गर्भ में निवास कहा गया है | For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shn Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आउसो ! इत्थीए नाभिहिट्ठा, सिरादुगं पुण्फणालियागारं । तस्स य हिड्डा जोखी, अहोमुहा संठिया कोसा ॥६॥ छाया - आयुष्मन् ! स्त्रियाः नाभेरधः, शिराद्विकं पुष्पनालिकाकारम् । तस्य चाघो योनिः, अधोमुखा संस्थिता कोशा ॥६॥ भावार्थ- हे आयुष्मन् गौतम ! स्त्री की नाभि के नीचे फूल की खंडी के समान आकार वाली दो नाडियाँ होती हैं। उन नाडियों के नीचले भाग में योनि होती है। उस योनि का मुख नीचे की ओर होता है और वह तलवार के म्यान के समान होती है || ६ || तस्स य हिट्ठा चूयस्स, मंजरी (जारिसी ) बारिसा उ मंसस्स । ते रिउकाले फुडिया, सोशियलवया विमोयंति ॥१०॥ छाया - तस्याश्चाधः चुतस्य, मजर्यो (यादृश्यः) तादृश्यस्तु मांसस्य । ता ऋतुकाले स्फुटिताः, शोणित लवकान् विमुञ्चन्ति ॥ १०॥ भावार्थ- - उस योनि के नीचे आम की मञ्जरी के समान मांस की मञ्जरी होती है, वह मञ्जरी ऋतुकाल में फूट जाती है, इसलिये उससे रक्त बिन्दु का पतन होता है ||१०|| कसाया जोगि संपत्ता, सुकमीसिया जया । तझ्या जीबुववाए, जुग्गा भणिया जिगिदेहिं ॥ ११५ छाया कोशाकारी योनिं सम्प्राप्ताः शुक्रमिश्रिताः यदा । तदा जीवोत्वादे, योग्या भणिता जिनेन्द्रः ॥११॥ भावार्थ-वे रुधिरविन्दु पुरुष के संयोग से शुक्रमिश्रित होकर जब कोश के समान आकार वाली स्त्री की योनि में प्रवेश करते हैं, तब वह स्त्री जीव के उत्पन्न करने योग्य होती है, यह जिनवरों ने कहा है || ११ || बारस चेव मुहुत्ता, उवरिं विद्वंस गच्छई सा उ । जीवार्ण परिसंखा, लक्खपुहुत्त य उक्कोर्स || १२|| For Private And Personal Use Only 16666666666666.US Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.kobatirth.org. चाया– द्वादश चैव मुहूर्तान् उपरि विध्वंसं गच्छति सा तु । जीवानां परिसंख्या, लक्षपृथक्त्वं चोत्कृष्टम् ॥१२॥ भावार्थ- -पुरुष के वीर्य से संयुक्त स्त्री की योनि बारह मुहूर्त तक ही अध्वस्त यानी गर्भ धारण करने योग्य रहती है, उसके बाद यानी बारह मुहुर्त के पश्चात् उसको गर्भ धारण की योग्यता नष्ट हो जाती है। बो के गर्भ में गर्भ जन्तुओं की संख्या दो लाख से लेकर नौ लाख तक की कही गई है ॥ १२ ॥ पणाय परेण, जोणी पमिलायए महिलियागं पणसत्तरि परओ, पाएण पुमं भवेऽवीओ ॥१३॥ छाया—पञ्चपञ्चाशद्द्भ्यः, परेण योनिः प्रम्लायते महिलानाम् । पञ्चसप्ततिभ्यः परतः, प्रायेण पुमान् भवदेवीर्य्यः ॥ १३॥ भावार्थ१-५५ वर्ष के बाद स्त्री की योनि गर्भधारण करने योग्य नहीं रहती है तथा ७५ वर्ष के बाद पुरुष भी वीर्य हीन हो जाता है || १३|| Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वास सयाउय मेयं, परेण जा होइ पुव्त्रकोडीओ । तस्सद्धे अमिलाया, सव्वाउय वीसभागो य || १४ || छाया - वर्षशतायुष्कमेतद्, परेण या भवति पूर्व कोटिः । तस्याद्वे अम्लाना, सर्वायुर्विंशति भागश्च ||१४|| भावार्थ- पूर्व की गाथा में जो कहा गया है कि- ५५ वर्ष के बाद स्त्री की योनि गर्भ धारण करने के योग्य नहीं रहती है और पुरुष भी ७५ वर्ष के बाद बी हीन हो जाता है यह बात आजकल के सौ वर्ष की आयु के हिसाब से समझनी चाहिये । सौ वर्ष से अधिक जिनकी आयु है उन प्राणियों के विषय में पूर्वोक्त नियम नहीं है किन्तु उनकी आयु के आधे समय तक स्त्री की योनि गर्भ चारण करने योग्य रहती है और पुरुष अपनी आयु के बीसवें भाग में वीर्य्यं हीन होता है यह जानना चाहिये ||१४|| For Private And Personal Use Only 99395 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shn Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रन्त कडा उ इत्थी, लक्खपुहुत्त य बारस मुहुत्ता पिय संख सयपुहुत, बारस वासा उ गन्भस्स ॥ १५ ॥ छाया - रक्तोत्कटायास्तु खियाः, लक्ष पृथक्त्वं च द्वादश मुहूर्तानि । पितृ संख्या शत पृथकत्वं द्वादश वर्षास्तु गर्भस्य || १५ || भावार्थ - इस गाथा में यह बतलाया गया है कि एक स्त्री के गर्भ में एक साथ कितने जीव उत्पन्न होते हैं और कितने पिता का एक पुत्र होता है। मासिक रक्तपात तीन दिन तक होता है। वह जिसका जारी है यानी जिस स्त्री का मासिक धर्म होना बन्द नहीं हुआ है उसकी योनि में जब पुरुष वीर्य का सिञ्चन करता है तो उसके गर्भ में जघन्य एक दो तीन तथा उत्कृष्ट नौ लाख जीव उत्पन होते हैं । उनमें से प्रायः एक या दो ही जन्म धारण करते हैं शेष नहीं, क्योंकि वे अल्पायु होने के कारण उस योनि में ही मर जाते हैं। पुरुष का वीर्य बारह मुहूर्त तक ही सन्तान उत्पादन के योग्य रहता है। उसके बाद उसकी वह शक्ति नष्ट हो जाती है। उत्कृष्ट नी सौ पिता का एक पुत्र हो सकता है। आशय यह कि जिस स्त्री का शरीर अत्यन्त मजबूत है। वह कामातुर होकर बारह मुहूर्त के अन्दर उत्कृष्ट यदि नौ सौ पुरुषों के साथ संयोग करती है तो उसके गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होता है वह नौ सौ पिता का पुत्र होता है। गर्भ की स्थिति उत्कृष्ट बारह वर्ष तक की होती है || १५ || दाहिण कुच्छी पुरिसस, होइ वामा उ इत्थीयाए य। उभयंतरं नपुंसे, तिरिए अट्टेव वरिसाई ।। १६ ।। छाया - दक्षिण कुक्षिः पुरुषस्य, भवति वामा तु खियाश्च । उभयान्तरं नपुंसकस्य, तिरक्षामष्टौ वर्षाणि ॥ १६ ॥ भावार्थ- स्त्री की दक्षिण कुक्षि में बसने वाला जीव पुरुष होता है और बाम कुक्षि में बसने वाला जीव स्त्री होता है तथा कुक्षि के मध्य भाग में बसने वाला जीव नपुंसक होता है। तिर्यखों की गर्भस्थिति उत्कृष्ट आठ वर्ष की होती है || १६|| For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir Jain AradhanaKendra www.koharirm.org Acharya Su Kasagarmur Gyarmandir EGHAGHEIGISTSHATHRECIGARHGA188451SHRASE इमो खलु जीवो अम्मापिउ संजोगे माउउयं पिउसुक्कं तं तदुभय संसर्ल्ड कलुसं किञ्चिसं तप्पढमयाए आहारं आहारिता गब्भत्ताए वकमइ ॥ सूत्रम् ॥१॥ छाया- अयं खलु जीयः मातृपितृसंयोगे मातुरारी पितुःशुक्र तत्तदुभयसंसृष्ट कलुष किल्विषं तत्प्रथमतया आहार माहार्य गर्भत्वाय व्युत्क्रामति।। भावार्थ-माता पिता के संयोग होने पर यह जीव गर्भ में आता है तब पहले पहल तेजस और कार्माण शरीर के द्वारा माता का रज और पिता का शुक इन दोनों से मिश्रित मलिन किल्विष आहार को ग्रहण करता है। सत्ताह कललं होइ, सत्ताहं होइ अब्बुयं । अब्बुया जायए पेसी, पेसीओय घणं भवे । (१) ॥१७॥ छाया-सप्ताह कलले भवति, सप्ताहं भवति अर्बुदः । अयंदाजायते पेशी, पेशीतन धन भवेत् ॥१६॥ भावार्थ-वह जीव गर्भ में आकर किस प्रकार शरीर तैयार करता है, यह बताया जाता है। सात दिन रात तक वह शुक्र और शोणित का समूह कलल रूप रहता है। उसके बाद कुछ धनभाव को प्राप्त होकर सात अहोरात्र तक अर्बुदरूप में रहता है। उसके बाद वह मांस का खण्ड रूप हो जाता है। उसके पश्चात् वह धन चतुष्कोण मांसपिण्ड बन जाता है। तो पढमे मासे करिसूणं पलं जायइ । बीए मासे पेसी संजायए घणा । तइए मासे माउए दोहलं जणयइ । चउत्थे मासे माउए अंगाई पीणेइ । पंचमे मासे पंच पिंडियाओ पाणिं पायं सिरं चेव निब्यत्तह। छठे मासे पित्त सोणिय उवचिणेइ । सत्तमे मासे सत्तसिरासयाई ७००, पंच पेसी सयाई ५००, नवधमणीश्रो, नवनउई च रोमकूव सय सहस्साई For Private And Personal use only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavirdain ArmdhanaKendra www.kobatiram.org Acharya Sur Kellegagamur yanmandir १६००००० निव्वत्तइ विणा केसमंसुणा, सहकेसमंसुणा अट्ठाओ रोम कूवकोडीओ ३५०००००० निव्वत्तइ । अट्ठमे मासे वित्तीकप्पो इवई ।। मूत्रं ।।२।। छाया-तत्प्रथमे मासे कोंन पले जायते । द्वितीये मासे पेशी सजायते धना। तृतीये मासे मातुदोहदं जनयति । चतुर्थे मासे मातुरङ्गानि पीणयति । पञ्च पिण्डिकाः पाणी पादौ शिरश्चैव निर्वर्तयति । षष्ठे मासे पित्तशोणित मुपचिनोति । सप्तमे मासे सप्तशिराशतानि पञ्च पेशीशतानि नब धमनीः नवनवतिश्च रोमकूपशत सहस्राणि निवर्तयति विना केश श्मभिः । सह केशश्मश्रुभिःसा ः रोमकूपकोटी: निर्वर्तयति, अष्टमे मासे निष्पन्नप्रायो भवति । भावार्थ-वह शुक और शोणित दिनोदिन बदलता हुआ प्रथम मास में एक कर्ष कम एक पल का होजाता है। पाँच गुजा का एक मासा होता है और सोलह मासा का एक कर्ष होता है एवं चार कर्ष का एक पल होता है। इस प्रकार वह शुक शोणित प्रथम मास में तीन कर्ष का होता है यह जानना चाहिये। दूसरे मास में बह मांसपिण्ड बन कर धन और समचतुरस्र हो जाता है। तीसरे मास में वह माता को दोहद उत्पन्न करता है। चौथे मास में वह माता के अङ्गों को पुष्ट करता है। पाचवे मास में दो हाथ दो पैर और शिर उत्पन्न होते हैं। छठे मास में पित्त और रक्त पुष्ट होता है। सातवें मास में १०० नसें, ५०० पेशी और नौ धमनी उत्पन्न होती हैं तथा शिर के बाल और दाढी मूछ के रोम कूपों को छोड़कर ६६००००० रोम कूप उत्पन्न होते हैं। यदि शिर के बाल और दाढी मूंछ के कूपों को शामिल करलें तो साढे तीन कोटि रोमकूप उत्पन्न होते हैं। आठवें मास में वह गर्भ प्रायः पूर्ण होजाता है ।। सूत्र २ ॥ 328382333333333333333333333333333333333 For Private And Personal use only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir dain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Sur Kellegagamur yanmandir जीवस्स यं भंते ! गम्भगयस्स समाणस्स अस्थि उच्चारेइ वा पासवणेइ वा खेलेइ वा सिंघाणेइ वा तेइ वा पित्तेइ वा सुक्केइ वा सोणिएइ वा ? णो इणडे समढे । से केण?णं भंते ! एवं बुच्चइ जीवस्स णं गभगयस्स समाणस्स नस्थि उच्चारह चा जाव सोणिएइ वा । गोयमा ! जीवेणं गम्भगए समाणे जं आहारं आहारे त चिणाइ सोईदियत्ताए चक्खुरिदियत्ताए घाणिदियत्ताए जिभिदियत्ताए फासिंदियत्ताए अद्विअद्विमिंजकेसमंसुरोमनहत्ताए। से एएणं अट्ठणं गोयमा! एवं बुबह जीवस्स णं गम्भगयस्स समाणस्स नत्थि उच्चारेह वा जाव सोणि एह वा ॥ सूत्र ३॥ 38EUNESSERESESSUESE ESMESES छाया-जीवस्य भदन्त ! गर्भगतस्य सतोऽस्ति उच्चारो वा प्रश्रवणं वा खेलो वा सिंघानो का वान्तं वा पिरा वारा वा शोणितं वा ? नायमर्थः समर्थः । तत्केनार्थेन भदन्त एव! मध्यते जीवस्य गर्भगतस्य सतो नास्ति उच्चारो वा यावत् प्रक्यवणं वा ? गौतम ! जीवः गर्भगतः सन् यमाहारमाहारयति स चिनोति श्रोत्रेन्द्रियतया चक्षुरिन्द्रियतया घाणेन्द्रियतया जिव्हेन्द्रियतया स्पर्शन्द्रियतया अस्श्यस्थि मज्जा केशश्मश्रु रोमनस तया । तद् एतेनार्थे न गौतम ! एव मुच्यते जीवस्य गर्भगतस्य सतो नास्ति उच्चारो यावत्शोणितं या ॥३॥ भावार्थ:-हे भगवन ! गर्भवासी जीव मल मूत्र करता है या नहीं ? तथा उसके खंखार, नाक का मल, वमन, पित्त, वीर्य और रक्त होते हैं या नहीं ? हे गौतम ! ये सब गर्भवासी जीव के नहीं होते। हे भगवन् ! क्यों नहीं होते ? हे गौतम ! गर्भगत जीव जो आहार करता। बहभाहार भोत्र,चनु, प्राणा, रसन, स्पर्शेन्द्रिय तथा हट्टी, मजा, केश, दादी, मूंछ, रोम और नखरूप में परिगात हो जाता है। इसलिए गर्भगत जीव के पूर्वोक्त विधा भादि नही होते हैं ।। ३ ।। For Private And Personal use only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir dain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Sa K asagarmur Gyarmandir जीवेणं भंते ! गम्भगए समाणे पर मुहेणं कावलियं आहारं आहारित्तए ? गोयमा ! णो णडे समझे। से | केण्डेणं भंते ! एवं बुच्चइ ? गोयमा ! जीवेणं गब्भगए समाणे णो पहू मुहेणं कावलियं आहारं पाहारित्तए ? गोयमा ! जीवेणं गभगए समाणे सव्वो आहारेइ सम्बो परिणामेइ सब्बो ऊससेइ सबो नीससेइ, अभिक्खणं आहारेइ अभिक्खणं परिणामेइ अभिक्खणं ऊससेइ अभिक्खणं नीससेइ, पाहच्च आहारेइ आहच्च परिणामेइ आहच्च ऊससेइ श्राहच्च नीससेह। माउजीवरसहरणी पुत्तजीवरसहरणी माउजीवपडिपदा पुत्तजीवं फुडा तम्हा आहारेइ तम्हा परिणामेइ अवरा वि णं पुत्तजीवपडिबद्धा माउजीव फुडा तम्हा चिणाइ । से एएणं अट्ठणं गोयमा ! एवं बुचइ-जीवेणं गभगए समाणे णो पहू मुहेणं कावलियं आहारं पाहारित्तए । सूत्र ४ ॥ छाया-जीबो भदन्त ! गर्भगतः सन् प्रभुम खेन कालिक माहार माहातुम् ! गौतम ! मायमर्थः समर्थः । अथ फेनार्थेन भदन्त ! एव मुध्यते गौतम ! जीवो गर्भगतः सन् न प्रभुः मुखेन काबलिक माहार माहतुम् ? गौतम ! जीवो गर्भगतः सन् सर्वत । श्राहारयति सर्वतः परिणामयति सर्वतः उच्छ वसिति सर्वतः निःश्वसिति, अभीक्ष्णमाहारयति अभीक्ष्णं परिणामयति अभीक्ष्ण मुच्छ वसिति अभीषणं निःश्वसिति। आहत्य (कदाचित् ) आहारयति आहत्य परिणामयति आहत्य उच्छ वसिति आहत्य निःश्वसिति मातृजीवरसहरणी पुत्रजीवरसहरणी मातृजीय प्रतिबद्धा पुत्रजीवं स्पृष्टा तस्मादाहारयति तस्मात् परिणामयति अपरापि पुत्रजीवप्रतिबद्धा मातृ जीवस्पृष्टा, तस्मात् चिनोति । अथानेनार्थेन गौतम ! एव मुच्यते जीवः गर्भगतः सन् न प्रभुः मुखन कायलिक माहारमाहतुम ॥ ४ ॥ भावार्थ-हे भगवन ! गर्भगत जीव मुख द्वारा कबलाहार को प्रहण करने में समर्थ है या नहीं ? हे गौतम ! यह बात नहीं हो सकती For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है। हे भगवन् ! क्या कारण है कि गर्भगत जीव मुख से कबलाहार प्रदा करने में समर्थ नहीं होता है ? हे गौतम! गर्भगत जीव सब प्रकार से आहार महा करता है तथा वह सब प्रकार से उसका परिणमन करता है। सब प्रकार से वह ऊपरका श्वास लेता है, सब प्रकार से श्वास को छोड़ता है। वह सदा ही आहार करता रहता है, सदा ही उसका परिणमन करता रहता है, सदा ही ऊर्ध्वं श्वास लेता है और सदा ही श्वासको छोड़ता रहता है । वह कभी आहार करता है और कभी नहीं भी करता है। कभी उसका परिणमन करता है। और कभी नहीं करता है । कभी श्वास लेता है और कभी नहीं भी लेता है। कभी श्वास छोड़ता है और कभी नहीं छोड़ता है। माता की जो रसदरणी यानी रसको महण करने वाली नाभि की नालो है वहीं पुत्र की भी नाभि की नाली है। वह माता के शरीर में बँधी हुई रद्द कर पुत्र के जीव को स्पर्श करती है अथवा माता की रसहरणी और पुत्र की रसहरणी ये दो नाड़ियाँ होती हैं। इनमें माता की रसहस्रणी नाही माता के शरीर में बँधी हुई रह कर पुत्र के जीव को स्पर्श करती है इसलिये यह गर्भगत जीव उस माता की रसरणी नाड़ी द्वारा आहार को महण करता है और उसी के द्वारा उसे पचाता है। माता की रसधरणी नाड़ी के समान ही पुत्र जीव की रसहरणी नाड़ी भी होती है। वह पुत्र के जीव में बँधी रह कर माता के जीव को स्पर्श करती है, उस नाड़ी के द्वारा वह अपने शरीर की पुष्टि करता है। हे गौतम! इसी हेतु से ऐसा कहा है कि गर्भगत जीत्र मुख द्वारा कवलादार को पहण करने में समर्थ नहीं है ॥ ४ ॥ जीवेणं गन्भगए समाणे किमाहारं आहारेइ ? गोयमा ! जं से माया गायाविहाओ नवरसबिगहओ तित्तकडुय कसायंबिल महुराई दव्बाई आहारे । त ओ एगदेसेणं ओयमाहारेह, तस्स फलविंट सरिसा उप्पल नालोवमा भवइ नाभिरसहरणी जगणीए सपाई नाभीए पडिबद्धा नाभीए तीए गन्भो ओयं आइयइ । अएहयंतीए ओगाए लीए गन्भो विवद जाव जाउति ।। सूत्रं ५ ॥ For Private And Personal Use Only ११ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Sa Kasagaran yamandir EEIGHEACHEMESTERESISEASEASESEGESHSHESISATE छाया-जीबो गर्भगतः सन् किमाहार माहारयति । गौतम! या तस्य माता नानाविधाः नवरसविकृतीः तिक्त कटु कषायाम्ल मधुराणि द्रव्याणि आहारयति तत एक देशेन प्रोज आहारयति । तस्य फलन्यत सरशी उत्पलनालोपमा भवति नाभिरसहरणी जनन्याः सदा नाभ्या प्रतिपदा भाभ्या तया गर्भःभोजमाद। भुजानायां श्रीजसा तस्यां गभों विवधी याचाजात इति ॥ ५॥ भावार्थ-दे भगवान् ! गर्भ का जीव क्या आहार खाता है ? हे गौतम ! गर्भधारण करनेवाली माता जो दूध भावि रसीले पदार्थ तथा तिक्त, कटु, कसैले, खट्टे और मोठे पदार्थों का माहार करती है उसके अंशभूत शुक और शोणित समूह को अथवा माता के माहार से मिले हुए शोणित को वह गर्भ भवाण करता है। उस गर्भ का नाभिनाल फल की इंटी और कमल की नाल के समान होता है। वह नाभि नाल माता की नाभि से सदा ही जुटा हुआ रहता है। उस नाल के द्वारा ही वह गर्भ ओज आहार को ग्रहण करता है। जब उसकी माता आहार खाने लगती है तब वह गर्भ भी माता के आहार से मिले हुए शुक और शोणित रूप ओज आहार को प्रहण करके वृद्धि को प्राप्त होता है और वृद्धि को प्राप्त होफर जन्म लेता है।॥५॥ करणं भंते ! माउभंगा पण्णता ? गोयमा ! तो माउअंगा पएणत्ता, तं जहा-मंसे, सोणिए, मत्थुलुंगे। करणं भने पिउभंगा पएणता' गोयमा ! तो पिउगा पराणत्ता, तं जहा-अट्टिमट्ठि मिजा, केस मंसुरोम नहा ॥ सत्र ६ ॥ S431918181994SHOTSITISISISEGISSISISISESARIES छाया-कति भदन्ता ! मातुरनानि प्रशसानि ? गौतम! त्रीणि मातुरङ्गानि प्रजातानि तद्यथा मास, शोणितं मस्तुलुग। कति भदन्त । पितुरमानि प्राप्तानि ? गौतम ! श्रीणि पितुरङ्गानि प्राप्तानि तयथा-अस्थि, अस्थिमिजा, केशश्मत्रु रोमनसाः ॥६॥ For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir Jain AradhanaKendra www.kobatiram.org Acharya Sur Kassegarmur Gyarmandir भावार्थ-हे भगवन ! बालक के कितने अङ्ग माता के अंश से उत्पन्न माने जाते हैं ? हे गौतम ! बालक के तीन अङ्गा माता के अंश से उत्पन्न माने जाते हैं जैसे कि-मांस, रक्त और मस्तिष्क । कोई कोई मेद और फिरिफस आदि को मस्तुलुग कहते हैं, मस्तिष्क को नहीं । हे भगवन । बालक के कितने अङ्ग पिता के अंश शुक्र से उत्पन्न माने जाते हैं ? हे गौतम ! तीन अङ्ग पिता के अंश से उत्पन्न माने जाते हैं। जैसे कि-हड्डी और हड्डी के मध्य मे रहने वाली मज्जा एवं शिर के बाल, दाढी, मूल, रोम और नख। बाकी के अङ्ग सब माता और पिता दोनों के अंश से मिश्रित माने जाते हैं।६।। जीवेणं भंते ! गभगए समाणे नेरइएस उववमिजा? गोयमा ! अत्थेगहए उववजिआ अत्थेगइए णो उववजिजा से केणटेणं भंते एवं वुच्चइ-जीवेणं गभगए समाणे नेरइएसु अत्थेगइए उववअिजा, अत्थेगइए णो उववज्जिज्जा । गोयमा ! जेणं जीवे गब्भगए समाणे सरणी पंचिंदिए सब्बाहि पज्जत्तीहिं पज्जत्तए वीरियलद्धीए विभंगणाणलद्धीए विउब्बियलद्धीए विउबियलद्धीपत्ते पराणीयं आगयं सुच्चा णिसम्म पएसे निच्छुहइ निच्छुहिता विउब्बियसमुग्घाएणं समोहणइ समोहणित्ता चाउरंगिणी सिएणं सरणाहेइ सण्णाहित्ता पराणीएणं सद्धिं संगाम संगामेइ, सेणं जीवे अत्थकामए रज्जकामए भोगकामए कामकामए, अथर्कखिए रज्जकंखिए भोगकंखिए कामकंखिए अत्थपिवासिए भीग रज्जकाम पिवासिए तश्चिचे तम्मणे तन्लेस्से तयज्वसिए तत्तिव्बज्मवसाणे तयट्ठोवउत्ते तदप्पियकरणे तब्भावणा भाविए एयसि च णं (चे) अंतरंसि कालं करिज्जा रइएसु उववज्जिज्जा । से एएणं अटेणं एवं बुच्चइ जीवेणं गभगए समाणे णेरइएसु अत्थेगइए उववज्जिज्जा अत्थेगइए णो उववज्जिज्जा गोयमा ! ॥ सूत्रम् ७॥ For Private And Personal use only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ San Mahan Archana Kendra Acharya ShriKalassagarsunGyanmandir छाया-जीवो भदन्त ! गर्भगतः सन् नरकंकृत्पदधते ? गौतम ! अस्त्येकक उत्पदयते अरत्येकको नोत्पदयते । अथ केनार्थन भदन्त ! एवमुच्यते जीवः गर्भगतः सन् नरकेषु अस्त्येकक उत्पदयते अस्त्येकको नोत्पदधते ? गौतम ! जीवः गर्भगतः सन् संशी पम्चेन्द्रियः सर्वाभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तः वीर्यलन्ध्या विभङ्ग ज्ञानलब्ध्या चैकियलन्धिप्राप्त; परानीकमागतं श्रुत्वा निशम्य प्रदेशान निःक्षम्नाति बैंक्रियसमुद्घातेन समवहन्ति समयहत्य चतुरहिणी सेना सबाहयति, सबाह्य परानीकेन साध संग्राम संग्रामयति, स जीवोऽर्थकामुकः राज्यकामुकः भोगकामुक कामकामकः, अर्थकानिक्षतः भोगकाकि क्षतः कामकाङि क्षतः, अर्थ पिपासितः भोग राज्य काम पिपासिता, तचियः तन्मनाः तल्लेश्यः तदध्यवसितः तचीमाध्यवसानः तदर्थोपयुक्तः तार्पितकरणः तद्भावनाभावितः एतस्मिनन्तर काल फारपिके घपदयते । कौतेनार्थेन एकमुच्यते जीवः गर्भगतः सन् नरकेषु अस्येकक उत्पदचते अत्येकको नोत्पदयते गौतम ॥७॥ भावार्थ-हे भगवन् ! गर्भवासी जीव मर कर क्या नरक में उत्पन्न होता है? हे गौतम ! कोई कोई जीव उत्पन्न होता है और कोई नहीं उत्पन्न होता है। हे भगवन ! गर्भवासी जीव कोई कोई मर कर नरक में उत्पन्न होता है और कोई नहीं होता है इसका क्या कारण है? गौतम ! गर्भवासी संशी पन्चेन्द्रिय जीव जो सभी पर्याप्तियों से पूर्ण होगया है वह पूर्वभव की वीर्यलब्धि, विभङ्गज्ञान लब्धि और बैंक्रियलब्धि को प्राप्त करके शत्रु की सेना को भाई हुई सुन कर तथा मन से निश्चय करके अपने प्रदेशों को गर्भ से बाहर निकालता है और बैंक्रियलब्धि समुद्रात के द्वारा हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेना तैयार करता है। इस प्रकार यह शत्रु की सेना के साथ संग्राम करता है। उस मनुष्य की द्रव्य में इच्छा है तथा राज्य, भोग और काम में इच्छा है। वह द्रव्य, राज्य, भोग और काम में आसक्त है। उसकी धन, राज्य, भोग और काम में तृप्ति नहीं है। उसका धन, राज्य, भोग और काम में उपयोग है तथा इन्हीं में उसका विशेष For Private And Personal use only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SA.Mahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Sa K asagarmur Gyarmandir E 3333ESEDES MESSEESEEBILES ESS उपयोग है। उसका अर्थ, राज्य, काम और भोग में परिणाम है। वह अर्थ, राज्य, भोग और काम के सम्पादन का ही विचार रखता है। वह इन्हीं के लिये तीन प्रयत्न करता है तथा इन्हीं के लिये सदा तैयार रहता है। वह अपनी समस्त इन्द्रियों को इन्हीं में अर्पित किया हुआ इनकी भावना से ही भावित रहता है। उस समय यदि उसकी मृत्यु होजाय तो वह अत्यन्त दुःख पूर्ण नरक में उत्पन्न होता है। हे गौतम ! यही कारण है कि-गर्भवासी जीव कोई नरक में उत्पन्न होता है और कोई नहीं होता है। जीवेणं भंते ! गभगए समाणे देवलोएसु उववज्जिज्जा ? गोयमा ! अत्थेगहए उववज्जिज्जा, अस्थगइए णो उवयज्जिज्जा। से केणढणं भंते ! एवं वुच्चइ अत्थेगइए उववज्जिज्जा अत्थेगइए णो उववज्जिज्जा ? गोयमा ! जे णं जीवे गभगए समाणे सगणी पंचिदिए सव्वाहि पज्जत्तीहिं पज्जत्तए वेउब्बियलद्धीए ओहिणाणलद्धीए तहारूवस्स समणस्स बा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं सुच्चा णिसम्म तयो से हवइ तिब्ध संवेग संजायसढे तिब्बधम्माणुरागरते से णं जीवे धम्मकामए पुगणकामए सग्गकामए मुक्खकामए धम्मकंखिए पुगणकंखिए सग्गर्कखिए मुक्खकंखिए धम्मपिवासिए पुण्णपिवासिए सग्गपिवासिए मुक्खपिवासिए तच्चिचे तम्मणे तल्लेस्से तयज्झवसिए तत्तिब्यज्झवसाणे तदप्पियकरणे तयट्ठोवउत्तं तब्भावणाभाविए एयसि णं (चे) अंतरंसि कालं करिज्जा देवलोएसु उववज्जिज्जा, से एएणं अद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ अत्थे गइए उववज्जिज्जा अत्थेगइए णो उववज्जिज्जा ॥ सूत्र ८ ॥ छाया-जीवो है भदन्त ! गर्भगतः रुन् देवलोकेषत्पदयते । हे गौतम ! अस्त्वेकक उत्पदयते, अस्त्येकको नौत्पदघते । अथ केनार्थेन हे भदन्त ! एवमच्यते अस्त्येकक उत्पदयते, अस्त्येकको नोत्पदयते । हे गौतम ! यो जीवो गर्भगतः सन् संशी पञ्चेन्द्रियः सर्वाभिः पर्याप्तिभिः For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shn Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पर्याप्तः पूर्वभाविक वैक्रियलब्धिक्क्रः पूर्वभविकावधिज्ञान लब्धिकस्तथारूपस्य श्रमणस्य माहनस्य वा अन्तिकं एकमपि आर्यं धार्मिकं सुवचनं श्रुखा निशम्य ततः स भवति संवेगसञ्जातश्रद्धः तीव्रधर्मानुरागरक्तः । स जीवो धर्मकामुकः पुण्यकामुकः स्वर्गकामुकः मोक्षकामुकः धर्मकाक्षितः पुण्य काङ क्षितः स्वर्गकाङ क्षितः मोक्षकाङ क्षितः धर्मपिपासितः पुण्यपिपासितः स्वर्गपिपासितः, मोक्षपिपासितः तचित्तः तन्मनाः तल्लेश्यः तदध्यवसितः माध्यवसायः तदर्पितकरणः तदर्थोपयुक्तः, तद्भावनाभावितः एतस्मिन्नन्तरे कालं कुर्यात् तदा देवलोकेषूत्पद्यते । तेनार्थेन हे गौतम ! एवमुच्यते अस्त्येक उत्पदधते, अस्त्येकको नोत्पदद्यते । भावार्थ - हे भगवन् ! क्या गर्भवासी जीव मर कर देवलोक में उत्पन्न होता है ? हे गौतम! कोई उत्पन्न होता है और कोई नहीं होता है। हे भगवन् ! इसका क्या कारण है कि—कोई उत्पन्न होता है और कोई नहीं होता है ? हे गौतम! जो जीव संशी पश्च ेन्द्रिय है और समस्त पर्याप्रियों से पूर्ण हो गया है वह पूर्व भव की वैक्रियलब्धि तथा अवधिज्ञानलब्धि के द्वारा तथारूप के श्रमण माहन के निकट एक भी आर्य धार्मिक सुन्दर वचन को सुनकर उसके प्रभाव से धर्म का श्रद्धालु हो जाता है और सांसारिक लाखों दुःखों को जानकर उनसे विरक्त हो जाता है। धर्म में तीव्र अनुराग होने से वह उस रङ्ग में रञ्जित हो जाता है। वह जीव धर्म की इच्छा करता है, वह पुण्य की इच्छा करता है। वह स्वर्ग तथा मोक्ष की इच्छा करता है। वह धर्म, पुण्य, स्वर्ग और मोक्ष में आसक्त हो जाता है एवं धर्म, पुण्य, स्वर्ग और मोक्ष में उसकी तृप्ति नहीं होती है। उसका मन धर्म पुण्य स्वर्ग और मोक्ष में लगा रहता है एवं इन्हीं विषयों का वह विशेष उपयोग रखता है तथा इन्हीं विषयों के सम्पादन करने का उसका अध्यवसाय होता है । वह तीव्र रूप से इनके लिये प्रयत्न करता है वह इन्हीं विषयों में सदा उपयोग रखता है, वह इन्हीं में अपनी इन्द्रियों को अर्पण कर देता है एवं इनकी भावना से ही वह सदा रञ्जित रहता For Private And Personal Use Only १६ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SA.Mahavir Jain AradhanaKendra www.kohatiram.org Acharya Sa K asagarmur Gyarmandir है। ऐसे समय में मृत्यु को प्राप्त हो कर बह जीव देवलोक में उत्पन्न होता है इसी कारण मैंने यह कहा है कि-हे गौतम ! कोई गर्भगत जीव स्वर्ग लोक में उत्पन्न होता है और कोई नहीं होता है ॥८॥ जीवेणं भंते ! गभगए समाणे उत्ताणए वा पासिन्लए वा अंबसुज्जएवा अच्छिज्ज वा चिट्ठिज्ज वा निसीज्ज वा तुयट्टिज्ज वा आसइज्ज वा माउए सुयमाणीए सुयइ जागरमाणीए जागरइ सुहियाए सुहिमओ हवइ दुहियाए दुहिओ (दुक्खिो ) हवइ ? हंता गोयमा ! जीवेणं गभगए समाणे उताणए वा जाव दुहियो (दुक्खियो) हवइ ।। सूत्र'६॥ छाया-जीवो भदन्त । गर्भगतः सन् उत्तानको वा पार्थशायी बा आम्रकुन्जको था आसीत या तिष्ठेद्वा निषीदेवा त्यग्वर्तयेद्वा भापयति या शयीत या मातरि शयानात्यां शते जाया जागतिं था सुखितायो सुखितो भवति दुःखिताया दुःखितो भपति । हन्त । गौतम । जीवो गर्भगतः सन् उत्तानको वा यावत् दुःखितो भयति ॥६॥ भावार्थ-हे भगवान् ! गर्भ में रहा हुआ जीव कभी उत्तान होकर रहता है या नहीं तथा यह कभी बगल से सोकर रहता है या नहीं एवं वह कभी आम्रफल की तरह झुककर रहता है या नहीं ? वह कभी बैठता है या नहीं ? कभी लेटता है या नहीं तथा वह कभी करवटें बदलता है या नहीं ? वह गर्भ के मध्यप्रदेश में आता है या नहीं ? वह कभी सोता है या नहीं ? वह माता के शयन करने पर सोता है या नहीं तथा उसके जागने पर जागता है या नहीं ? वह माता के सुख से सुखी और दुःख से दुःखी होता है या नहीं ? उत्तरहाँ, गौतम ! गर्भगत जीव ये पूर्वोक्त सभी बातें करता है। थिरजाय विहु रक्खइ, सम्म सारक्खई तो जणथी। संवाहई तुपद, रक्खइ अप्पय गभ य॥१०॥ For Private And Personal use only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sun Mahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Su Kasagarmur Gyarmandir छाया-स्थिरजातमपि रक्षति, सम्यक संरक्षति ततो जननी । संवहति त्वग्वर्तयति रक्षत्यात्मानश्च गर्भश्च ॥१८॥ भावार्थ-जब गर्भ स्थिर होजाता है तब माता उसकी रक्षा करती है। वह उसकी रक्षा के लिये विशेष प्रयत्न करती है। वह उसे लेकर जाती आती है, उसे सुलाती है और आहार खिलाकर अपनी तथा गर्भ की भी रक्षा करती है। अणुसुयह सुयंतीए, जागरमाणीए जागरह गम्भो । सुहियाए होई सुहियो, दुहियाए दुहिनो होइ ॥१६॥ छाया-अनुशेते शयानाया, जापत्या जागर्ति गर्भः । सुखिताया भवति सुखितः, दुःखितायो दुःखितो भवति ॥१६॥ भावार्थ-जब माता सोती है तब गर्भ भी सोता है और माता के जागने पर वह भी जागता रहता है। जब माता दुःखित होती है तब गर्भ भी दुःखित होता है और जब वह सुखी होती है तब गर्भ भी सुखी रहता है ।।१।। उच्चारे पासवणे खेलं, सिंघाणो वि से णस्थि । अट्ठीट्ठी मिज्जणह, केस मंसु रोमेसु परिणामो ॥२०॥ छाया-उधारः प्रभवणं खेलो, सिंघानकोऽपि तस्य नास्ति । अस्भ्यस्थि मज्जा नखकेशश्मश्रु रोमसु परिणामः ॥२०॥ भावार्थ-उस गर्भ के जीव में मल मूत्र थूक नाक का मल नहीं होते हैं। वह जो आहार करता है वह हड्डी, हड़ी की मज्जा, नख, केश, दाढी मूंछ और रोम के रूप में परिणत हो जाता है ॥२०॥ एवं बुदिमइगो, गम्भे संवसइ दुक्खियो जीवो। परम तमिसंधयारे, अमिज्मभरिए पएसम्मि रक्षा For Private And Personal use only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sun Mahavir Jain AradhanaKendra www.koharirm.org Acharya.sin.kalinssagarmurnGyanmandir छाया-एवं शरीर मतिगतो, गर्ने संवसति दुःखितो जीवः परमतमिसान्धकार अमेध्यभृते प्रदेशे ॥२१॥ भावार्थ-इस प्रकार शरीर को प्राप्त होकर जीव गर्भ में बहुत कष्ट के साथ निवास करता है। गर्भ में घोर अन्धकार रहता है और वह अपवित्र पदार्थों से भरा हुआ होता है। आउसो! तो नवमे मासे तीए वा पडुपएणे वा अणागए वा चउएहं माया अण्णयरं पयायइ । तंजहा-इत्थिं वा इस्थिरूपेणं । पुरिस वा पुरिसरूवेणं । नपुंसर्ग चा नपुंसगरूत्रेणं । विंचं वा बिंबरूवेणं ।। सूत्र १०॥ छाया-आयुष्मन् । ततो नवमे मासेऽतीते वा प्रत्युत्पन्ने या अनागते वा चतुर्णा माता अन्यतर प्रजायते तद् यथा-खियं या खीरूपेण, पुरुष वा पुरुष रूपेण, नपुंसक वा नपुसक रूपेण, विम्ब वा विम्बरूपेण । भावार्थ-हे आयुष्मन् ! माठ मास के पश्चात् जब नवम मास व्यतीत होजाता है अथवा जब वर्तमान रहता है अथवा जब माने बाला होता है तब माता चार में से किसी एक को उत्पन्न करती है। जैसे कि-त्री के रूप में स्त्री को, अथवा पुरुष के रूप में पुरुष को अथवा नपुसक के रूप में नपुसक को अथवा मांस पिण्ड के रूप में मांस पिण्ड को। अप्प सुक बहु उउयं, इत्थी तत्थ जायइ । अप्पं उयं बहु सुकं पुरिसो तत्थ जायइ ॥२२॥ छाया-अल्प एक बहु आर्तर्व, श्री तत्र जायते । अल्पमार्तवं बहु शुकै पुरुषस्तत्र जायते ॥२२॥ भावार्थ-जब स्त्री का मार्तव यानी रक्त अधिक और पुरुष का वीर्य अल्प होता है तब स्त्री की उत्पत्ति होती है और जब EBASTIEN GEESE STESSE SISESEADUSES S For Private And Personal use only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir dain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Su Kasagarmur Gyarmandir स्त्री का रक्त अल्प और पुरुष का वीर्य अधिक होता है तब पुरुष की उत्पत्ति होती है। दुण्हं वि रत्तसुकाणं, तुल्लभाचे नपुंसगो। इत्थिउपसमाओगे, विवं तरथ जायइ ॥२३॥ छाया-द्वयोरपि रक्त शुकयोः, तुल्यभावे नपुसकः । त्योजः समायोगे बिम्ब तत्र जायते । भाथ-जब शुक्र और शोणित दोनों ही बराबर होते हैं तब नपुंसक उत्पन्न होता है तथा जब स्त्री का रक्त वायु के कारण जम जाता है तब विम्ब यानी मां सके पिण्ड की तरह बिम्ब उत्पन्न होता है। अहणं पसवणकाल समयम्मि सीसेण वा पाएहिं वा आगच्छद समागच्छइ तिरियमागच्छह विणिग्याय मावजइ ।।सूत्रं ११॥ काया-अथ प्रसवकालसमये शीर्षण वा पादाभ्यां वा आगच्छति समागच्छति तिर्यगागच्छति पिनिपात मापदयते । भावार्थ-जो जीव प्रसव के समय शिर से या पैरों से निकलता है वह बिना बाधा के निकल जाता है परन्तु जो तिरछा होकर निकलता है वह मर जाता है। कोई पुण पावकारी, चारस संबच्छराई उक्कोस । अच्छइ उ गम्भवासे, असुइप्पभवे असुइयम्मि ॥२४॥ छायाकोऽपि पुनः पापकारी, द्वादशसंवत्सराणि उत्कृष्ट । तिष्ठति तु गर्भवासे, अशपिप्रभवेऽशुपिके ॥२४॥ HE80281672227823878181818222332312233 For Private And Personal use only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Straitsegarul Gyarmandir 353VIEMBRESSIERESSEERESROSESS! भावार्थ-जिसमें प्रयुचि उत्पन्न होती है और जो अशुचिरूप है ऐसे गर्भ में कोई पापी जीव उत्कृष्ठ बारह वर्ष तक निवास करता है। जायमाणस जं दुक्खं, मरमाणस्स वा पुणो । तेण दुक्खेण संमूढो, जाई सरह णाप्पणी ॥२५॥ छाया-जायमानस्य यदुःख, नियमाणस्य वा पुनः । तेन दुःसेन समूढी, जाति स्मरति नात्मनः ॥२५।। भावार्थ-गर्भ से बाहर निकलते समय तथा मरगण के समय प्राणी को जो दुःख होता है उससे मूढ बना हुआ पाणी अपने पूर्व जन्म को स्मरण नहीं कर सकता है। वीसरसरं रसंतो जो सो, जोगी मुहायो निष्फिडइ । माऊए अप्पणोऽवि य वेयणमउलं जणेमाणो ॥२६॥ छाया-विस्वरस्वर रसन यः स, योनिमुखानिष्कामति । मातुरात्मना बेदनामतुला अन्यन् ॥२६॥ भावार्थ-करुणाजनक शब्दों में रुदन करता हुआ जीव योनिवार से बाहर निकलता है। वह माता को लास्यन्त पीड़ा उत्पन्न करता है तथा स्वयं भी पीड़ा अनुभव करता है। गम्भघरयम्मि जीवो, कुंभीपागम्मि गरयसंकासे । वुत्थो अमिझमज्झे, असुइप्पभवे असुल्यम्मि ||२७|| छाया-गर्भरहे जीवा, कुम्भीपाके नरकसंकाशे । स्थितोऽमेध्यमध्ये, अशुचिप्रभवे अशुचिके ॥२७॥ भावार्थ-गर्भ रूप गृह कुम्भीपाक नरक के समान है। वह स्वयं अशुचि है और अशुचि को ही उत्पन्न करता है। उसमें जीव अपवित्र पदार्थों के मध्य में निवास करता है। For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SA.Mahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Sur Kallassagerar Gyanmandir पित्तस्स य सिंभस्स य, सुफस्स य सोणियस्स चि य मज्झे । मुत्तस्स पुरीसस्स य, जायह जह बच्चकिमिउब्ध ॥२८॥ छाया-पियस्य च श्लेष्मणश्व, शुक्रस्य च शोणितस्य च मध्ये । मत्रस्य च पुरीयस्य च, जायते वर्चस्वकृमिरिव ॥२८॥ भावार्थ-जैसे उदर में स्थित विष्ठा में कीड़े उत्पन्न होते हैं उसी तरह यह जीव पित्त, कफ, शुक, शोणित, मूत्र और विष्ठा के मध्य में उत्पन्न होता है। तं दाणिं सोयकरणं, केरिसर्य होई तस्स जीवस्स । सुकरुहिरागरायो जस्मुप्पत्ती सरीरस्स ।।२६।। छाया-तदिदानी शौच करणां, की दशं भवति तस्य जीवस्य । शक रुधिराकरात यस्योत्पत्तिः शरीरस्य ॥२६॥ भावार्थ:-जिसकी उत्पत्ति शुक्र और रक्त के भण्डार से हुई है उस शरीर की शुद्धि किस तरह की जा सकती है ? एयारिसे सरीरे, कलमलभरिए अमिझ संभृए । णिययं विगणिजंतं, सोयमयं केरिसं तस्स ॥३०॥ छाया-एतादृशे शरीरे, कलमलभृते अमेध्य संभूते । निजके जुगुप्सनीये शौचमद कीदशं तस्य ॥३०॥ भावार्थ-यह शरीर मल से परिपूर्ण है और अपचित्र पदार्थों से उत्पन्न हुआ है। इसमें खुद अपने को और दूसरे को भी घृणा उत्पन्न होती है फिर इसके शुद्ध होने का गर्व करना कैसा ?। भाउसो! एवं जायस्स जंतुस्स कमेण दस दसा एवमाहिऑति । तंजहाचाला, किड्डा, मंदा, बला य पण्णा य हायणि पवंचा । पम्भारा मुम्मुही, सायणी दसमा य कालदसा ॥३१॥ BESBIASHASISESEIREESEENESESMESES For Private And Personal use only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SA.Mahavir Jain AradhanaKendra www.kohatirtm.org Acharya.sinKARRssagartun syanmandir छाया-आयुष्मन् ! एवं जातस्य जन्तोः कमेण दश दशा एवमारच्यायन्ते । तद्यथा थाला, कीडा, मन्दा, बला च प्रज्ञा, हापनी, प्रपञ्चा । प्रारभारा, मुन्मुखी, शायिनी दशमी च कालदशा ॥३१॥ भावार्थ-हे आयुष्मन् ! पहले कहे अनुसार गर्भ से उत्पन्न जीव की क्रमशः दश दशाएं होती हैं उनके नाम ये है-(१) याला (२) क्रीडा (३) मन्दा (४) चला (५) प्रज्ञा (६) हापनी (७) प्रपश्चा (-) प्रारभारा (६) मुन्मुखी (१०) और शायिनी। ये प्रत्येक दशाएं दश दश वर्ष की होती हैं। जायमित्तस्स जंतुस्य, जा सा पदमिया दसा । न तत्थ सुई दुक्खं वा, न हु जाति वालया ।। ३२ ।। छाया-जातमात्रस्य जन्तोर्यासा प्राथमिकी दशा । न तत्र सुख दुःख था, न हि जानन्ति पालकाः ॥३२॥ भावार्थ-उत्पन्न होने के समय से लेकर दश वर्ष पर्यन्त जो जीव की पहली दशा होती है उसमें बालक अपने तथा दूसरे के सुख दुःख को नहीं जानते हैं। परन्तु जातिस्मरण ज्ञान जिनको होता है वे जानते हैं। बीईयं य दस पत्तो, णाणा कीलाहि कीडइ । ण य से काम भोगेसु, तिब्बा उप्पज्जई रई ॥३॥ लाया-द्वितीयाच दशा प्राप्ती, नानाकीडाभिः कीड़ति । न च तस्य काम भोगेषु, तीनोत्पद्यते रतिः ॥३३॥ भावार्थ-जीव जब दूसरी अवस्था को प्राप्त होता है तब नाना प्रकार की क्रीड़ाओं में पासक्त होकर कीड़ा करता है। उस समय रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द रूप विषयों के भोग की इच्छा उसकी तीव्र नही होती है। For Private And Personal use only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir dain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya.seKailassagarsunGyanmandir २४ तइयं य दसं पत्तो, पंच काम गुणे गरो । समत्थो भुजिउं भोए, जह से अस्थि घरे धुवा ॥३४॥ छाया-तृतीयाच दशा प्राप्ता, पञ्च कामगुणान्नरः । समर्थो भोक्तु भोगान , यदि तस्यास्ति रहे धुधा ॥३४॥ भावार्थ-तृतीय अवस्था को प्राप्त होकर जीव रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द इन पाँच ही विषयों में आसक्त होता है और वह इन्हें भोग सकता है यदि उसके घर में समृद्धि विद्यमान हो। चउत्थी उ बला णाम, जं णरो दसमस्सियो । समत्थो बलं दरिसेउं, जइ भवे निरुबद्दवो ॥३॥ छाया-चतुथीं तु बला नाम, यो नरो दशा माश्चितः । समर्थों बलं दर्शयितु, यदि भवेनिरुपद्रवः ॥३५॥ भावार्थ-चौथी दशा का का नाम बला है, उसको प्राप्त होकर जीव अपना बल दूसरे को दिखा सकता है, यदि वह नीरोग हो। पंचमी उ दस पत्तो, आणुपुबीए जो सरो। समत्थोऽत्थं विचिंतेउं, कुडवं चाभिगच्छह ॥३६॥ छाया–पञ्चमी तु दशा प्राप्तः, आनुपूल्यों यो नरः । समथाँऽथ विचिन्तयितु', कुटुम्बञ्चाभिगच्छति ॥३६॥ भावार्थ-मनुष्य पाचवी दशा को प्राप्त होकर द्रव्य की चिन्ता करता है और कुटुम्ब की चिन्ता में निमग्न होता है। छट्ठी उ हापणी णामा, जं गरो दसमस्सियो। विरज्जइ उ कामेसु, ईदिएसु य हायडू ॥३७॥ छाया-षष्ठी त हापनी नाम्नौं, या नरो दशामाश्रितः । विरज्यते च कामेषु, इन्द्रियेषु च हीयते।। भावार्थ-ठी दशा का नाम हापनी है। इस दशा को प्राप्त होकर मनुष्य विषय भोग से विरक्त हो जाता है और उसकी इन्द्रियाँ | भी बलहीन हो जाती हैं। For Private And Personal use only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shn Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सत्तमीय पवंचा उ, जं नरो दसमस्सियो । निच्छुभइ चिक्कणं खेलं, खासई य खणे खणे ||३८|| छाया - सप्तमी च प्रपञ्चा तु या नरो दशा माश्रितः । निक्षिपति चिक्वणं श्लेष्मारणं, कासते च क्षणे क्षणे ॥ २८ ॥ भावार्थ- सातवीं दशा प्रपचा कहलाती है। इसके आने पर मनुष्य चिकना कफ मुख से बाहर फेंकता रहता है और क्षण क्षण में खांसता रहता है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संकुइयवली चम्मो, संपत्तो अट्टमीं दसं । नारीणं य श्रणिट्टो य, जराए परिणामिओ || ३६ || छाया - सङ्कचित बलिचर्मा, सम्प्राप्तोऽष्टमी दश । नारीणाञ्चानिष्टश्च जरया परिणामितः ॥ ३६ ॥ भावार्थ- - यह मनुष्य जब आठवीं दशा को प्राप्त होता है तब उसके शरीर का चमड़ा संकुचित हो जाता है और अत्यन्त वृद्धता को प्राप्त होकर त्रियों का अप्रिय होजाता है। नवमी मुम्ही नाम, जं नरो दसमस्सिओ । जराघरे विणस्संते, जीवो वसह अकाम 3 ||४०| छाया - नवमी मुन्मुखी नाम्नी या नरो दशा माश्रितः । जरागृहे विनश्यति, जीवो वसत्यकामतः ॥ ४० ॥ भावार्थ-नवमी दशा का नाम मुन्मुखी है। इस दशा को प्राप्त होकर जीव विषय की इच्छा से रहित हो जाता है और शरीर वृद्धता का घर होकर नष्ट प्राय हो जाता है 1 हीण भिण्णसरो दीणो, विवरीयो विचित्तओ । दुब्बलो दुक्खिओ सुयई, संपत्तो दसमीं दस ॥४१॥ छाया - हीन भिक्षस्वरो दीनो, विपरीतो विचित्तकः । दुर्बलो दुःखितः स्वपिति, सम्प्रातो दशमी दशाम् ॥४१॥ For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ san Manavi din Aranana Kendre www.kobatirm.org Acharya Sur Kassegarmur Gyarmandir भावार्थ-दशवी दशा के आने पर मनुष्य का स्वर, हीन और दूसरी तरह का हो जाता है । वह दीन बन जाता है तथा उसका चित्त भी पहले के समान नहीं रहता। वह दुर्बल और दुःखी होकर सोता रहता है। दसगस्स उपक्खेवो, बीसइवरिसो उ गिण्हई विजं । भोगा य तीसगस्स य, चत्तालीसस्स विएणाणं ॥४२॥ छाया-दशकस्योपत्तेपः, विशतिवर्षस्तु गहणाति विदधा । भोगाश्च त्रिंशत्कस्य, चत्वारिंशकस्य विज्ञानम् ॥४२॥ भावार्थ-मनुष्य जब दश वर्ष का होता है तब उसका मुण्डन एवं उस अवस्था के योग्य दूसरे उत्सव आदि किये जाते हैं। जब वह बीस वर्ष का होता है तब विद्या का प्रहण करता है एवं तीस वर्ष का होने पर भोगों को भोगता है और चालीस वर्ष का होकर विज्ञान से युक्त होता है। पण्णासगस्स चक्खू हायइ, सढिकयम्स बाहुबलं । भोगा य सत्तरिस्स य, असीइगस्स य विएणायं ॥४३॥ छाया-पञ्चाशत्कस्य चत्तहीयते, षष्टिकस्य बाहुबलं । भौगाश्च सप्ततिकस्य, अशीतिकस्य च विज्ञानम् ।।४३।। भावार्थ-मनुष्य जब पचास वर्ष का होता है तब उसकी दृष्टि कमजोर हो जाती है और जब साठ वर्ष का होता है तब उसका बाहुबल घट जाता है। जब वह सत्तर वर्ष का होता है तब भोग भोगने की शक्ति जाती रहती है और अस्सी वर्ष का होने पर ज्ञान शक्ति अल्प हो जाती है। नउई नमइ सरीरं, बाससए जीवि चयइ । कित्तिभो ऽत्थ सुदो भागो, दुहो भागो य कित्तियो॥४४॥ छाया-नयतिकस्य नमति शरीरं, वर्ष शते जीवितं त्यजति । कीर्तितोऽत्र सुखभागः, दुःखभागश्च कीर्तितः ॥४४॥ भावार्थ-यह मनुष्य जब नब्वे वर्ष का होता है तब उसका शरीर नम जाता है यानी झुक जाता है और सौ वर्ष का होकर मर JERRIERHEACHEHEREHEASTERSHSHESTEHSSCIASISASARTESE For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya.sin.kalinssagarmurnGyanmandir जाता है । इस सौ वर्ष की आयु में कितना भाग सुख का है और कितना दुःख का है यह बतला दिया गया है। जो वाससय जीचड, मुही भोगे पभुजइ । तस्साचि सेविसेश्रो, धम्मो य जिगणदेसियो ॥४५॥ छाया-या वर्षशत जीवति, सुखी भौगान भुङ ते । तस्यापि सेवितु' श्रेया, धर्मश्च जिनदेशितः ।। भावार्थ-जो मनुष्य सौ वर्ष तक जीता है और सुखी है तथा भोगों को भोगता है उसको भी जिनभाषित धर्म का सेवन करना ही कल्याणकारक है। किं पुण सपनवाए, जो नरो निश्चदुक्खियो । सुट्ठ यरं तेण कायव्यो, धम्मो य जिणदेसिओ ॥४६॥ छाया-कि पुनः सप्रत्यनाये, यो नरो नित्य दुःखितः । सुष्ठुतरस्तेन कर्त्तव्यः, धर्मश्च जिनदेशितः ॥४६॥ भावार्थ-जिनकी आयु कष्ट से पूर्ण है तथा जो सदा दुःखी रहता है उसके लिये तो कहना ही क्या है ? उसको तो भलीभाँति जिनभाषित धर्म का आचरण करना ही चाहिये। णंदमाणी चरे धर्म, वरं मे लढतरं भवे । अणंदमाणो वि चरे धम्म, मा मे पावयरं भवे ॥४७॥ छाया-गन्दमानश्परेचर्म, घर मे लएतरं भवेत् । अनन्दनपि चरेद्धम,मा मे पापतर भवेत् ॥४७॥ भावार्थ-सांसारिक सुख का उपभोग करता हुआ भी मनुष्य कल्याणकारी जिनभाषित धर्म का आरचण करे। वह यह विचार करे कि-यह धर्म आचरण मुझको इस भव में तथा परभव में सुख देगा। एवं दुःख भोगते समय भी मनुष्य धर्म का आचरण करे। वह यह विचार करे कि-मैंने धर्म का आचरण नहीं किया था इसलिये मुझको यह दुःख भोगना पड़ता है। अब यदि धर्म नहीं करूंगा तो For Private And Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ san Manavi din Aranana Kendre www.kobatirtm.org Acharya ganun yonmandir २८ आगे चलकर फिर वहाँ दुःख भोगना पड़ेगा। णवि जाई कुलं वावि, विजा वावि सुसिक्खिया । तारे नरं व नारी वा, सव्वं पुराणेहिं षड्ढई ॥४८॥ छाया-नापि जातिः कल' वापि, विद्या वापि सुशिक्षिता । तारयेजरं वा नारौं वा, सर्व पुण्येन वर्धते ॥४८॥ भावार्थ-जाति, कुल तथा परिश्रम के साथ सीखी हुई विद्या ये कोई भी नर और नारी को संसार से पार करने में समर्थ नहीं होते किन्तु सब प्रकार का सुख पुण्य से प्राप्त होता है। पुण्णेहिं हीयमाणेहिं, पुरिसागारो वि हायई । पुण्णेहि वड्डमाणेहिं पुरिसागारो वि बढई ॥४६॥ छापा--पुरायैहीयमाना, पुरुषकारोऽपि हीयते । पुण्यैर्वर्धमानः, पुरुषकारोऽपि यी ॥४६॥ भावार्थ-पुण्य के क्षय होने पर यश, कीर्ति, लक्ष्मी और पुरुष का अभिमान ये सभी नष्ट हो जाते हैं और पुण्य की वृद्धि होने पर इन सब की वृद्धि होती है। पुण्णाई खलु उसो ! किच्चाई करणिज्जाई पीइकराई वएणकराई धएणकराई कित्तिकराई, णो य खलु आउसो ! एवं चिंतियव्वं-एस्सति खलु बहवे समया, श्रावलिया, खणा, प्राणपाण , थोवा, लवा, मुहुत्ता, दिवसा, अहोरत्ता, पक्खा, मासा, रिऊ, अयणा, संबच्छरा, जुग्गा, वाससया, वाससहस्सा, वाससयसहस्सा, वासकोडीओ, वासकोडाकोडीओ। जत्थ णं अम्हे पहुई सीलाई वयाई' गुणाई बेरमणाई पच्चक्खाणाई पोसहोववासाई पडिवज्जिस्सामो, पट्ठविस्सामो OBESENCICESIMESE33EEZEDSIMERI For Private And Personal use only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shn Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करिस्सामोता किमत्थं आउसो ! नो एवं चिंतेयब्वं भवः १ अंतरायबहुले खलु अयं जीविए इमे बहवे वाइयपित्तिय सिंमिय संनिवाइया विविधा रोगायका फुसंति जीवियं ।। सूत्र १३ ॥ छाया - पुण्यानि खलु आयुध्मन् ! कृत्यानि करणीयानि प्रीतिकराणि वर्णकराणि धनकराणि कीर्तिकराणि । न च खल आयुष्मन् ! एवं चिन्तितव्यं - एष्यन्ति खलु बहवः समया आवलिकाः क्षरणाः आणप्राणाः स्तोकाः लवा मुहूर्ताः दिवसाः अहोरात्राः पक्षाः मासाः ऋतवः अथनाः संवत्सराः युगाः वर्षशतं वर्षसहस्रं वर्षशतसहस्र वर्षकोटि : वर्षकोटिकोटिः । यत्र वयं बहूनि शीलानि व्रतानि गुणान् विरमणानि प्रत्याख्यानानि पौषधोपचासान् प्रतिपत्स्यामहे प्रस्थापयिष्यामः करिष्यामः । तत् किमर्थ मायुष्मन् ! नो एवं चिन्तितव्यं भवति । अन्तरायबहुले सज्जीवित] इमे वः वातिक पैतिक श्लेष्मिक साचिपातिकाः विविधाः रोगातङ्काः स्पृशन्ति जीवितम् । भावार्थ- हे आयुष्मन् ! पुण्य कार्य्यं करना चाहिये, वह करने योग्य है पुण्य करने से मित्र आदि के साथ प्रेम की वृद्धि होती है। जगत् में प्रशंसा होती है धन की वृद्धि होती है, कीर्ति होती है। यह कभी नहीं सोचना चाहिये कि बहुत समय, आवलिका, क्षण. श्वासोच्छवास, स्तोक, लव, मुहूर्त्त दिन, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष, युग, सौ वर्षं, हजार वर्ष, लाख वर्ष, कोटि वर्ष, कोटि-कोटि वर्ष आने वाले हैं, उनमें हम बहुत शील, व्रत, गुण, बिरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास अङ्गीकार कर लेंगे और आचरण कर लेंगे। हे आयुध्मन ! ऐसा नहीं सोचने का कारण यह है कि यह जीवन विघ्नों से भरा हुआ है। ये वात, पित्त, कफ और सन्निपात से उत्पन्न होने वाले रोग सभी मनुष्यों को उत्पन्न होते रहते हैं। For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ san Manavi din Aranana Kendre www.kobatirm.org Acharya Sur Kassegarmur Gyarmandir पासीय खलु पाउसो ! पुचि मणुया ववगयरोगायंका बहुवाससयसहस्सजीविणो, तंजहा-जुयलधम्मिया, अरिहंता वा चकवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा चारणा विज्जाहरा। तेणं मणुया अणइवरसोमचारुरूवा भोगुत्तमा भोगलक्षणधरा सुजायसव्वंगसुदरा रत्त प्पलपउम कर चरण कोमलंगुलितला नगनगरमगर सागरचक्क धरंकलक्खणंकियतला सुप्पइट्ठियकुम्मचारुचलणा आणुपुचि सुजायपीवरंगुलिया उन्नयतणुतंबनिद्धनहा संठियसुसिलिट्ठगूढगुप्फा एणी कुरुर्विदावत्त वट्टाणुपुब्वजंघा समुग्गनिमग्ग गूढजाण गयस सण सुजायसंनिभोरू परवारणमत्ततुल्लविकमविलासियगई सुजायपरतुरय गुज्म देसा आइएण हयच निरुवलेवा पमुइयवरतुरय सीह अइरेगवट्टियकडी साहय सोगंद मुसलदप्पण निगरियवरकणगच्छरु सरिसवरवडरवलिय मज्झा गंगावर पयाहिणावर तरंगभंगुर रविकिरण तरुणबोहियविकोसायंत पउमगंभीरवियडनामी उजुयसमसहिय सुजायजायजच्च तणुकसिण निद्ध आइज्जलाह सुकुमाल मउयरमणिजरोमराई झसविहगसुजायपीण कुच्छीझसोयरा पउमवियडनामी संगयपासा सन्नयपासा सुंदरपासा सुजायपासा मियमाईयपीणरईयपासा अकरंड्यकणय रुयगनिम्मल सुजायनिरुवहयदेहधारी पसत्थवचीसलक्खणधरा कणगसिलायलुञ्जल पसत्थ समतल उबचियविच्छिन्नपिहुलवच्छा सिरिवच्छं कियवच्छा पुरवरफलिहवट्टिय भुया भुयगीसरउिउल भोग आयाणफलिह उच्छूढदीहवाहू जुगसंनिम पीणरहय पीवरपउट्ठा संठियउवचिय घणथिरसुबद्ध सुवट्टसुसिलिट्ठ लट्ठपन्चसंधी रसतलोबचिय मउय मंसल सुजाय लक्खणपसत्थ अच्छिद जालपाणी पीवरवट्टियमुजाय कोमलवरंगुलिया तंबतलिण मुहरुहरनिद्वनक्खा चंदपाणिलेहा सूरपाणिलेहा संखपाणिलेहा चकपाणिलेहा सुत्थियपाणिलेहा ससिरविसंखचकसुत्थियसुविभत्तसुविरइयपाणिलेहा BSIDUE BABIESE ERESSE EMNE For Private And Personal use only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shn Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वरमहिसवराह सौह सद्दल उसभनागवर विउल उन्नय मउपक्खंधा चउरंगुल सुप्पमाण कंबुवर सरिस गीवा अवट्टियसुविच मं मंसल संठियपसत्य सद्दल विउल हणुया ओयविय सिलप्पवाल बिंबफल सन्निभावरुडा पंडुर ससिसगलविमल निम्मल संखगोक्खीर कुंद दगरयमणालियाधवलदंतसेही अखंड दंता अफुडियदंता अविरलता सुगिद्धदंता सुजायदंता एगदंता सेढीविव अगदंता हुयवहनितधोय तत्त तवणिज्ज रक्ततलतालुजीहा सारसनवथणिय महूगभीर कुचनिग्घोसदु दुहिसरा गरुलायय उज्जुतु गनासा व्यवदारियपुंडरीयवयणा को कासियधवलपुंडरीय पचलच्छा आनामियचावरुहल किएह चिहरराई सुसंठिय संगय आयय सुजाय भ्रमया अल्लीणपमाण जुरासवणा सुसवणा पीणमंसल कवोल - देसभागा अरुग्गाय समग्गसुनिद्र चंदद्ध संठियनिडाला उडुबइपडिपुनसोमवयणा छनागारुतमंगदेसा घणनिचिय सुबद्धलक्खणुनयकूडागारनिभ निरुवमपिंडियग्गसिरा हुयवहनित धोयतत्ततवणिज्ज केसंत केसभूमी सामली बोंडघणनिचिच्छोडिय मिडविसय सुहुमलक्खण पसत्य सुगंधि सुंदरभुयमोयगभिंगनीलकज्जल पहट्टभ मरगण निद्धनि उरं बनि चियकुंचिय पयाहिगावत्तमुद्ध सिरया लक्खणचंजण गुणवत्रेया माणुम्माणपमाण पडिपुन सुजायसव्वंगसुंदररंगा ससिसोमागारकंत पियदंसणा सम्भावसिंगार चारुरूवा पासाईया दरिस णिज्जा अभिरुवा पडिरूवा, तेणं मणुया ओहस्सरा मेहस्सरा हंसस्सरा कोंचस्सरा बंदिस्सरा मंदिघोसा सीहस्सरा सीह घोसा मंजुस्सरा मंजुघोसा सुस्सरा सुस्सर घोसा अणुलोमवाउ वेगा कंकरगहणी कवोयपरिणामा सउणीप्फोस पितरोरुपरिख्या परमुप्पल सुगंधिसरिसनीसास सुरभिवगणा छवी निरायंका उत्तमपसत्था अइसेसनिरुवमतणू जल्ल मल्लकलंक सेयरयदो सवज्जियसरीर निरुवलेवा, छाया उज्जो वियंगमंगा, बज्जरसह For Private And Personal Use Only ******INGSADOKASSAPAASA ३१ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shn Mahavir Jain Aradhana Kendra 2018 MEGHNABHAND www.kobatirth.org. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२ नाराय संघयणा समचउरंस संठाण संठिया धणुसहस्साई उड्ढं उच्चतेगं पण्णत्ता, तेणं मणुया दो अप्पमपिट्टिक रंडयसया पण्णत्ता | समणाउसो ! तें मणुया पगहमद्दया पगइविणीया पगहउवसंता पगहपयणुकोह माणमायालोभा मिउमदवसंपन्ना अलीया भद्दया विणीया अपिच्छा असंनिहिसंचया अचंडा असिम सिक्किसि वाणिज्जविवज्जिया विडमंतरनिवासियो इच्छिय कामकामिणो गेहागार रुक्खकयनिलया पुढविपुप्फफलाहारा तेयं मणुयगणा पण्णत्ता ॥ (सूत्र १४ ) छाया - सँध खल्वायुध्मन् ! पूर्व मनुजा व्यपगतरोगातङ्काः बहुवर्षशतसहस्र जीविनः तद्यथा— युगल धार्मिकाः अर्हन्तो वा चक्रवर्तिनो बलदेवा वा वासुदेवा या चारणाः विद्याधराः । ते मनुजाः अनतिवरसौम्यचारुरूपाः भोगोत्तमाः भोगलक्षणघराः सुजातसर्वाङ्ग सुन्दराः रक्तोत्पलपद्म कर चरणकोमलाङ्ग ुलितलाः नगनगरचक्रधराङ्कलक्षणाङ्किततलाः सुप्रतिष्ठित कूर्मचारुचरणाः आनुपूर्व्या सुजातपीवराङ्गलिकाः उन्नततनुताग्रस्निग्धनखाः संस्थितसुश्लिष्टगूढगुल्फा एणी कुरुविन्दवरा वृशानुपूर्वजा समुद्गनिमग्न गुढजानवः गजश्वसन सुजात सनिभोरवः वरवारणमरातुल्यविक्रम विलासितगतयः सुजातवरतुरगगुह्यदेशाः आकीर्णहया इव निरुपलेपाः प्रमुदितचरतुरंगसिंहातिरेक वर्तितकटय संहत सोनन्दमुशलदर्पण निगीर्णयरकनकत्सरुसदृश वरयजूयतितमध्या गङ्गावर्त प्रदक्षिणावर्त तरङ्गभङ्गर रवि किरण तरुण बोधितविकशायत पद्मगम्भीर चिकट नाभयः ऋजुकसम संहित सुजात जात्य तनु कृष्णस्निग्धदेयलट सकुमारमृदुक रमणीय रोमराजयः झष विहग सुजातपीनकुक्षयः झषोदराः पद्मविकटनाभय सङ्गतपाः सन्नत पाश्र्वः सुन्दरपार्श्वः सुजातपाश्र्र्थ्याः मित मातृकपीन रतिदपाश्र्व: अकरण्डुक कनकरुचक निर्मल सुजातftover देहधारिणः प्रशस्तद्वात्रिशंक्षक्षणधराः कनकशिलातलोज्ज्वल समतलोपचितविच्छिन पृथुलयासः श्रीवत्साङ्कतवक्षसः For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुरवरपरिघावर्तितभुजाः भुजगेश्वरविपुल भोगादानपरिधावक्षिप्तदीर्घबाहवः युगसन्निभपीनरतिद पीवर प्रकोष्ठाः संस्थितोपचित घनस्थिर सुबद्ध सुवृत्तसुश्लिट लष्टपर्वसन्धयः रक्ततलोपचित मृदुकमांसल सुजातलक्षण प्रशस्ताचिद्रजालपाणयः पीवरवर्तितसुजात कोमल वराङ्गलिकाः ताम्रतलिनचिरुचिर स्निग्धनखाः चन्द्रपाणिरेखाः सूर्य्यपाणिरेखाः शंखपाणिरसाः चक्रपाणिरेखाः सुस्थितपाणिरेखाः शशिरविशंखचक सुस्थित सुविभक्त सुविरचितपाणिरेखाः वरमहिषवराहसिंह शार्दूल वृषभ नागघरविपुलोचत मृदुकरकन्धाः चतुरनल सुप्रमाण कंबुवर सदृशग्रीवाः अवस्थित सुविमक्कचित्रश्मश्रवः मसिलसंस्थित प्रशस्त शार्दूल हनवः परिकर्मितशिलाप्रवालबिम्लफल सहशाधरोष्ठाः पाण्डुरशशिकलविमल निर्मलशेख गोक्षीरकुन्द दकरजोऽनाविल घवलदन्तरायः असण्डदन्ताः अस्फुटितदन्ताः सुस्निग्धदन्ताः सुजातदन्ता एकदन्ताः श्रय इव अनेकदन्ताः हुतवहनिर्मात चौत तपनीयरक्त तलताल जिल्हा: सारसनव स्तनित मधुर गम्भीर कौच निर्घोषदुन्दुभिस्वराः गरुडायतर्जतुङ्गनासिकाः अवदारित पुण्डरीकवदनाः, विकसितघवलपुण्डरीक पत्रलाक्षाः अवनामित चापरुचिरकृष्णा चिकुरराजि सुसंस्थितसङ्गतायत सुजात स्रुवः अलीनप्रमाणयुक्तश्रवणाः सुश्रवणाः पीनसमासल कपोलभागाः अचिरोद्गत समय सुस्निग्धचन्द्रार्धसंस्थितललाटाः उडुपति प्रतिपूर्णसौम्पवदनाः छत्राकारोरामान्नदेशः घननिचितसुबद्ध लक्षणोत्रत कुटागार निर्मभिरुपमपिण्डिकाशिरसः हुतवहनित धौत तप्ततपनीय केशान्तकेशभूमयः शाल्मली बोण्ड घननिचितच्छोटितम् दुविशदप्रशस्त सूक्ष्मलक्षण सुगन्धि सुन्दर भुजमोचक भृङ्गनील कज्जल प्रहृष्टभ्रमरगणस्निग्धनिकरम्ब निचितप्रदक्षिणावर्तमर्ध शिरोजाः लक्षणव्यञ्जनगुणोपपेताः मानोन्मानप्रमाण प्रतिपूर्ण सुजातसर्वाङ्गसुन्दराङ्गाः शशिसौम्याकार कान्तप्रियदर्शनाः स्वभाव शृङ्गारचारुरूपाः प्रासादीयाः दर्शनीयाः अभिरूपाः प्रतिरूपा ते मनुजा ओघस्वराः मेघस्वराः हंसस्वराः कश्चिस्वराः नन्दिस्वराः नन्दिघोषाः सिंहस्वराः सिंहघोषाः मञ्जु स्वराः मञ्जु घोषाः सुस्वराः सुस्वरघोषाः अनुलोमवायुवेगाः कङ्कग्रहणयः कपोतपरिणामाः शकुनिष्फोस पृष्ठान्तरोरु परिणताः पद्मोत्पलसुगन्ध सहशनिश्वास सुरभिवदनाः छविमन्तः निरातङ्काः उत्तमप्रशस्ताः अतिशेषनिरुपमतनवः जल्लमल कलस्वेद रजोदोष For Private And Personal Use Only ३३ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sun Mahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirtm.org Acharya Sur Kallassagerar Gyanmandir वजि तनिरुलेपाः छायोद्योतितालागाः वनऋषभनाराचसंहननाः समचतुरस्त्र संस्थान संस्थिताः षड़धनुः सहस्राण्यव॑मच्चत्वेन प्रज्ञप्ता: ते मनजाः द्विषट्पञ्चाशत् पृष्टकरण्डकशताः प्रज्ञप्ताः श्रमणायष्मन ! ते मनुजाः प्रकृतिभद्रकाः प्रक्रतिविनीताः प्रकृत्यूपशान्ताः प्रकृतिप्रतनुकोधमानमायालोमाः मृदुमार्दव सम्पन्नाः बालीनाः भद्रकाः विनीताः अल्पच्छा: असनिधि सञ्चयाः अचण्डाः असिमषिकृषिवाणिज्य विवर्जिताः विडिमान्तरनिवासिनः ईप्सितकामकामिना गेहाकारवक्ष कृतनिलयाः पृथिवीपुष्पफलाहाराः ते मनुजगणाः प्रज्ञाप्ताः ।। भावार्थ-हे आयुष्मन श्रमण ! प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ श्रारा में मनुष्य नीरोग होते थे । उनको न तो कभी ज्वर आदि व्याधियाँ उत्पन्न होती थी और न कभी तत्काल प्राणों को हरण करने वाले शूल आदि पातक ही सत्पन्न होते थे। वे कई लाख वर्ष तक जीते रहते थे । जैसे कि जगलिये, तीर्थक्कर, चक्रवर्ती, बलदेव वासुदेव, चारण और विद्याधर । इन मनुष्यों का रूप बहुत ही मनोहर तथा दृष्टि को लोभित करने वाला श्री । ये लोग उत्तमोत्तम भोगों को भोगने वाले होते थे। उनके अङ्गों में भोगों की सूचना देने वाले स्वस्तिक आदि शुभ लक्षण विद्यमान होते थे। इनके सभी अज सुन्दरता से उत्पन्न और परम सुन्दर होते थे। इनके हाथ और पैर की अङ्गलियाँ लाल कमल की तरह रक्तवर्ण और कोमल होती थी। उनके हाथ और पैर के तलवे कमल के समान कोमल और पर्वत, नगर, माली, समुद्र, चक्र, चन्द्रमा और मा के समान आकार वाली रेखाओं से युक्त होते थे। इनके चरण कछुए की तरह बराबर और कमशः वृद्धि को प्राप्त होते थे। इनके पैर की अङ्गलियाँ सुन्दर और स्थूल होती थी इनके नख रक्तवर्ण उमत सूक्ष्म और चमकीले होते थे। इनके पैर के गुल्फ छिपे हुए, जुत्तम आकृति वाले और सन्दरता पूर्ण जमे हुए होते थे। जैसे हरिणी की जा और कुरूचिन्द नामक तृण क्रमशः स्थूल और गोल होते हैं उसी तरह इसकी जवायें गोल और क्रमशः स्थूल For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ShaMahavir Jain AradhanaKendra Acharya Sa Kasagarmur yamandir SHESHCHRISTERSHRESTSESEGESTERNAGISTRISISE होती थीं। इनके घुटने समुदगक पक्षी के घुटनों की तरह पुष्ट और अन्दर घुसे हुए होने के कारण लक्षित नहीं होते थे। इनके एक हाथी की सूंड की तरह सन्दर और स्थल होते थे। ये लोग गजगज की तरह पराक्रम के सहित सबिलास गमन करते थे। इनकी शिश्न इन्द्रिय सन्दर घोड़े की इन्द्रिय के समान होती थी। जैसे जातिवान अश्व मन मे उपलिप्त नहीं होता है उसी तरह ये लोग मल के लेप से रहित होते थे। प्रसन्न घोड़ा एवं सिंह की कटि से भी बढ़कर इनकी कटि वर्तुल होती थी। जैसे विकाष्टिका का मध्य भाग तथा मुशल, दर्पण और सोने की बनी हुई तलवार की मुष्ट पतली होती है उसी तरह इनका उदरप्रदेश पतला होता था और उसमें तीन रेखाएँ होती थी। इनकी नाभि गङ्गा केसावर्त की तरह दक्षिणावर्त और तरल की तरह रेखाओं से युक्त एवं सूर्य की किरणों द्वारा तत्काल विकसित कमल की तरह सन्दर और गम्भीर होती थी। इनके शरीर की रोम श्रेणी समान, धन, सुन्दर, सूचम, काली, सुकुमार और मनोहर होती थी। नका जबर महली और पक्षी के उदर की तरह सुन्दर और पुष्ट होता था। इनकी नाभि कमन के समान गहरी होती थी। इनके पार्श्वभाग युक्त, नम्र, सुन्दर, परिमाणयुक्त पुष्ट और आनन्द दायक होते थे। इनका शरीर मांस से पूर्ण होने के कारण पीठ की हड़ी से रहित सा प्रतीत होता था । और सुवर्ण के समान गौर एवं मलरहित तथा रोग आदि के कारण उत्पन्न विकारों से रहित सुन्दर होता था । इनके शरीर में बत्तीस प्रकार के उत्तम लक्षण विद्यमान होते थे। इनकी छाती सोने की शिला के समान प्रशस्त समतल पुष्ट और चौड़ी होती थी तथा उसके ऊपर श्रीवत्स का चिह्न होता था। नगर की अर्गला के समान जम्बी और पतुभ इनकी भुजाएँ होती थी। वह सर्पराज के शरीर की तरह दीर्घ तथा अपने स्थान से निकाल कर रखे हुए परिष दण्ड के समान विशाल और सुन्दर होती थीं। इनके हाथ की कलाई यूप की तरह मोटी, बढ़ी और सुन्दर होती थी। इनकी भुजाओं की सन्धियाँ मनोहर भाकृति वाली स्नायुओं से दृढ बँधी हुई गोल घन और मनोज्ञ होती थी। इनके हाथ के तलते रक्त वर्ण पुष्ट, For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Sur Kallassagerar Gyanmandir GENIERREARRELECHERECEMESAREEHEHERBERIESENAME कोमल और शुभ लक्षणों को धारण करने वाले छिद्ररहित और जाल के समान तथा सुन्दर होते थे। इनकी अङ्गलियाँ मोटी, वर्तुल, कोमल उत्तम और सुन्दर होती थीं। इनके नख रक्तवर्ण चमकीले समतल निर्मल और सुन्दर होते थे। इनके हाथ में चन्द्रमा के आकार वाली रेखा होती थी। तथा उसमें सूर्य, शंख, स्वस्तिक और चक्र के आकार की रेखा भी होती थी। एवं उसमें चन्द्रमा, सूर्य, शंख स्वस्तिक और चक्र की रेखायें होती थी । इनके हाथ की सभी रेखायें अलग अलग स्पष्ट बनी हुई होती थीं। इनके स्कन्ध, उत्तम मैंसा, सूर, सिंह, व्याघ, सौह, श्रेष हाथी के कन्धे के समान उन्नत और कोमल होते थे । इन के कण्ठ में तीन रेखाएं होती थीं। और वह कण्ठ अपनी अगली के प्रमाण से चार अङ्गल का होता था तथा उत्तम शंख के समान उसकी आकृति होती थी। उनकी मूंछ, न तो बड़ी और न छोटी ही होती थी। किन्तु उचित प्रमाण युक्त सुन्दर और अलग अलग रहने वाले केशों से भरी हुई होती थी। उनकी छुट्टी सिंह की ठुड़ी के समान सुन्दर आकृति वाली और पुष्ट होती थी। उनका अधरोष्ठ साफ किये हुए मूंगे की तरह रक्त होता था। इनके दाँतों की श्रेणी चन्द्रमा के खण्ड की तरह निर्मल एवं मल रहित शंख, गाय के दूध का फेन, कुन्द पुष्प और कमलिनी के मूल के समान शुक्ल होती थी। इनके दाँत वण्ड रहित और रेखा हीन घन और अरूक्ष तथा सुन्दर होते थे। इनके दाँतों की श्रेणी एक एक दाँतों की होती थी। दांत के पीछे दूसरा वांत नहीं होता था। इनके दांत पूरे बत्तीस होते थे। इनके दांतों की श्रेणी एक आकार की होती थी। और दांतो का सङ्गठन इतना धन होता था कि-जनका परस्पर पार्थक्य लक्षित नहीं होता था । इनकी जीभ और तालु अग्नि में तपाकर निर्मल किये हुए लष्ण सुवर्ण की तरह रक्त वर्ण होते थे। इनके करठ का शब्द सारस पक्षी के शब्द की सरह मधुर और नवीन मेघ के शब्द की तरह गम्भीर एवं कोच पक्षी तथा दुन्दुभि के शब्द की तरह गम्भीर और मधुर होता था। इनकी नासिका गरुड़ की नासिका के समान सीधी और ऊँची होती थी। इनका मुख सूर्य की किरणों BH2E3HEESE B2B3AE32E3E25 For Private And Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir dain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Sur Kallassagerar Gyanmandir बारा विकसित श्वेत कमल के समान सुन्दर और रोमावली से युक्त होता था । इनकी भौहें नम्र धनुष के आकार की होती थीं और मनके केश काले और सुन्दर श्रेणी में स्थित होते थे। वे दीर्घ और सुनिष्पन्न होने थे। इनके कान पचित प्रमाण वाले यानी न तो बहुत बड़े और न बहुत छोटे होते थे। वे कानों के ताग भली भौति शब्दों को सुन सकते थे। इनके गाल मोटे होते थे। इनका ललाट अष्टमी के चन्द्रमा के समान विस्तृत और सुन्दर होता था । इनका मुख पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान पूर्ण और सुन्दर होता था । इनका शिर छत्ता के ममान वल होता था । इनके शिर का अमभाग लोहे के मुदगर की तरह घन और स्नायुभों मे मजबूत बँधा हुआ शुभलक्षणों से पूर्ण कूटागार के तुल्य नपमारहित और वर्तुल होता था। इनके मस्तक का चर्म, अग्नि में तपाये हुए सुवर्ण की तरह रक्त वर्ण होता था। इनके शिर के केश शामली वृक्ष के फल की तरह छोटे और घन होते थे तथा कोमल, निर्मल, सूक्ष्म, चिकने, अत्यन्त सुगन्ध, सुन्दर और लक्षण युक्त होते थे। एवं भुजमोचक रत्न, भृङ्ग, नीलमणि, फजल और प्रसन्न भ्रमर की तरह वे काले होते थे। वे परस्पर जुड़े हुए कुछ वक्र और वाहिनी ओर फिरे हुए होते थे। वे पुरुष स्वस्तिक आदि शुभ लक्षण तथा माष तिल आदि व्यञ्जन एवं क्षमा आदि गुणों से युक्त होते थे। उनके शरीर तथा अङ्गों के मान और उन्मान पूर्ण रूप में होते थे। तथा वे जन्म सम्बन्धी दोषों से वर्जित होते थे। उनकी आकृति सौम्य होती थी और नके दर्शन से प्रेम सत्पन्न होता था। उनका वेष स्वभाव से ही उत्तम होता था। उनके दर्शन से चित्त में प्रसन्नता होती थी। तथा नेत्र देखने में परिश्रम अनुभव नहीं करते थे। वे अत्यन्त कमनीय होते थे। उनका रूप असाधारण होता था। उनका रूप देखने वाले को प्रतिक्षण नया नया प्रतीत होता था। उनके कराठ का स्वर नदी के प्रवाह के समान गम्भीर और मेघ की तरह दीर्घ होता था। वह हंस के स्वर की तरह मधुर और कौरव पक्षी के स्वर की तरह दीर्घदेश व्यापी होता था। तथा नन्दी यानी बीणा समूह के शब्द की तरह मधुर होता For Private And Personal use only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SheMahavir.Jain AradhanaKendra www.kobairm.org Acharya Sri Kasagar Gyanmandir था। उनका स्वर सिंह के शब्द के समान दूर तक जाने वाला और मधुर होता था। उनके शरीर में विचरने वाले वायु का वेग शरीर के अनुकूल होता था इसलिए उनके उदर में वायु के वेग से उत्पन्न होने वाला गुल्म रोग उत्पन्न नहीं होता था। उनका गुदाशय कपक्षी के गुवाशय के समान नीरोग होता था। उनकी जाठराग्नि कबूतर की जाठराग्नि के समान भोजन किये हुए माहार को शीघ्र पचाने वाली अतिती होती थी । अतः उनको अजीर्ण रोग कभी उत्पन्न नहीं होता था। जैसे पक्षी की गुदा में मल का लेप नहीं लगता है उसी तरह उनकी गुदा में भी मल विसर्जन करते समय उसका लेप नहीं लगता था। उनकी पीठ, दोनों पाव भाग और ठरू उचित परिमाण वाले होते थे। उनके मुख से निकलने वाला वायु कमन, पद्म और कुछ नामक गन्ध द्रव्य के समान सुन्दर गन्धयुक्त होता था। उनके शरीर की छवि मनोहर होती थी तथा चमढ़ी कोमल होती थी। वे नीरोग तथा उत्तम लक्षणों से युक्त एवं अनुपम शरीर वाले होते थे। उनके शरीर में शीघ्र निवृत्त होने वाला मक्ष तथा विलम्ब से मिटने वाला मन, प्रस्वेद, कलङ्क, धूलि एवं मलिनता उत्पन्न करने वाली चेष्टा ये सब नहीं होते थे। तथा मनभीर विष्ठा का लेप भी उनमें नहीं लगता था। उनके माया सनके शरीर की शोभा से चमकते रहते थे। उनका संहनन वन ऋषभ नाराच होता था । उनका संस्थान समचतुरन होता था। वे बः हजार धनुष बम्ये होते थे। वे मनुष्य स्वभाव से दी भव, स्वभाव से ही विनीत, स्वभाव से ही उपशान्त होते थे। उनके कोष मान माया और लोभ स्वभाव से ही पतले होते थे। वे मनोहर और परिणाम में सुख देने वाली मृदुता से सम्पन्न होते थे। उनमें कपट पूर्ण मृदुता नही होती थी। बे समस्त क्रियाओं में शान्ति पूर्वक चेष्टा करने वाले होते थे। वे उस क्षेत्र के योग्य समस्त कल्याणों के पात्र भीर बड़े लोगों का विनय करने वाले और अल इच्छा वाले होते थे। वे धन धान्य आदि का सवय नहीं करते थे तथा तीन कोष नही करते थे। ये तलवार चला कर तथा लेखन कला द्वारा तथा कृषि कर्म से एवं वाणिज्य कर्म से जीविका का साधन नहीं करते थे। वे फल्प वृक्ष For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir dain AradhanaKendra www.kobatirtm.org Acharya Sur Keilassagarmur yamandir की शाखाएं जो कि प्रासाद की तरह आकृति वाली होती थी, उनमें निवास करते थे। वे इच्छानुसार विषयों की कामना करने वाले होते थे। ये घर की तरह आकार वाले वृक्षों के अन्दर निवास करते थे। वे पृथिवी और कल्प वृक्षों के फूल और फल का आहार करते थे। वे मनुष्य इस प्रकार के कहे गये हैं। सूत्र १४ ॥ पासी य समणाउसो! पुचि मणुयाण छबिहे संघयणे, तंजहा (१) वज्जरिसह नाराय संघयणे, (२) रिसह नारायसंघयणे, (३) नारायसंघयणे, (४) अद्ध नारायसंघयणे, (५) कीलियसंघयणे, (६) छेवट्ट संघयणे । संपइ खलु भाउसो ! मणुयाणं छेवट्ट संघयणे बट्टा । आसी य ाउसो! पुब्बि माया छबिहे संठाणे, तंजहा (१) समचउरसे, (२) गग्गोह परिमण्डले, (३) साइ, (४) कुज्जे, (५) वामणे, (६)हुँ । संपद खनु उसो ! मणुयाणं हुडे संठाणे वट्टा ॥ सूत्र १५॥ संघयणं संठाणं, उच्च पाउयं य मणुयायं । अणुसमयं परिहायइ, मोसप्पिणी काल दोसेणं ॥५०॥ कोह मय माय लोहा, उस्सगणं बड्ढए य मणुयाणं । कूड तुल कूडमाणा, तेणाणुमाणेण सवंति ॥५१॥ विसमा अज्ज तुलाओ, विसमाणि य जणवएसु माणाणि । विसमा राजकुलाई, तेण उ विसमाई वासाई ॥५२॥ विसमेसु य वासेसु, ति असाराई' प्रोसहिवलाई । भोसहिदुब्बन्लेण य, भाउं परिहायह राणं ॥५३॥ एवं परिहायमाणे, लोए चंदुब्व काल पक्खम्मि । जे धम्मिया मणुस्सा, सुजीवियं जीवियं तेर्सि ॥ ५४॥ For Private And Personal use only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Sur Kallassagerar Gyanmandir छाया-संश्च श्रमणायुष्मन् ! पूर्व मनुजाना पड़ विधानि संहननानि । तद्यथा वर्षभनाराचं, ऋषभनाराचं, नारा, अर्धनागचं, कीलिका, सेवार्शम् । सम्प्रति खलु आयुष्मन् ! मनुजाना सेवा संहननं वर्तते । श्रासश्च आयुष्मन् । पूर्व मनुजाना पड विधानानि संस्थानानि, तद्यथा-समचतुरस्र', न्यपोधपरिमण्डल, सादि, कुब्ज, वामन, हुण्डम् । सम्प्रति खल्वायुष्मन् ! मनजाना हुण्डं संस्थानं वर्तते ॥१५॥ संहनने संस्थान मुथत्यमायुश्च मनुजानाम् । अनुसमयं परिहीयते, अथसर्पिणीकाल दोषेण ।। ५०॥ कोध मद माया लोभायोत्सर्व वर्धन्ते च मनुजानाम | कूटत्ला फूटमानानि, तेनानुमानेन समिति ।। ५१ ॥ विषमा अध तुला, विषमाणि च जनपदेषु मानानि । विषमाणि राजकुलानि, तेन तु विषमाणि वर्षाणि ।। ५२ ।। विषमेषु च वर्षेषु, भवन्त्यसाराण्यौषधिचलानि । औषधिदुर्बलत्वेग च, श्रायुः परिहीयते नराणाम् ।। ५.३ ॥ एवं परिहीयमाने लोके, चन्द्र इव कृष्ण पक्षे । ये धार्मिकाः मनुष्याः, सुजीवितं जीवितं तेषाम् ।। ५४ ।। हे आयुष्मन् श्रमण ! पूर्व काल में मनुष्यों का संहनन छः प्रकार का होता था। जैसे कि-बऋषभनाराच, ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिका और सेवातं । परन्तु हेमायुष्मन् ! आज कल मनुष्यों का सेवात संहनन है। हे आयुष्मन ! पूर्व समय में मनुष्यों का संस्थान छः प्रकार का होता था । जैसे कि-समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल, सादि, कुब्ज थामन और हुण्डक । परन्तु भाज कल मनुष्यों का एक मात्र हुण्डक संस्थान होता है। सूत्र १५ ॥ भवसर्पिणी काम के प्रभाव से आज कल प्रति क्षण मनुष्यों का संहनन संस्थान, उच्चता और आयु घटते जा रहे हैं। क्रोध मान माया और लोभ की भविशिष्ट न पृद्धि होती जा रही है । कूट तुला और कूटमान भी बढ़ता जाता है तथा उसी के अनुसार 13SSEEE2E82E38223233EERIUS: 38383816 For Private And Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sun Mahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Sur Kallassagerar Gyanmandir सभी बुराइयाँ बढ़ती जा रही है। आज कल लेने के लिये दूसरा और देने के लिये दूसरा तुला यानी वाट (तोलने का परिमाण) बनाया जाता है तथा लेने के लिए दूसरा और देने के लिए दूसरा माप भी निर्माण किया जाता है, एवं राजकुल भी विविध प्रकार का अन्यायकारी होगया है इस कारण वर्ष भी दुःखद हो गये हैं। वर्ष जच दुःखद हो जाते हैं तो औषधि थानी गेंहू आदि अन्न भी बलहीन होजाते हैं और अन्न के बलहीन होने से प्राणियों की आयु शीघ्र ही क्षीण हो जाती है। इस प्रकार कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा के समान निरन्तर क्षीण होते हुए प्राणि-समाज में धार्मिक मनुष्यों का ही जीवन सफल समझना चाहिये ।। ५०-५४ ।। आउसो ! से जहा नामए केइ पुरिसे यहाए कयबलिकम्मे कयकोऊय मंगलपायच्छित्ते सिरसिराहाए कंठे मालाकडे आविद्धमणि सुवराणे अहय सुमहग्धवस्थ परिहिए चंदणोकिएणगायसरीरे सरससुरहिगंध गोसीस चंदणाणुलित्तगचे सुइमालावरणगविलेवणे कम्पियहारदहार तिसरयपालंब पलंबमाणे कडिसुत्तयसुकयसीहे पिणगेविज्जअंगुलिज्ज गललियंगयज्ञलियकयाभरणे णाणामणि कणगरयणकडगतुडियर्थभियभुए अहियरूवसस्सिरीए कुंडलुज्जीवियाणणे मउडदिएणसिरए हारुत्थयसुकयरइयवच्छे पालंब पलंबमाण सुकयपडउत्तरिज्जे मुहियापिंगलंगुलिए गाणामणिकरणगरयण विमल महरिहनिउणोविय मिसिमिसंत विरइयसुसिलिट्टविसिठ्ठलड आविद्धवीर बलए । किं पहुणा कप्परुक्खोविव अलंकिय विभूसिए सुइपयए भवित्ता अस्मापियरो अभिवाययिज्जा । तएणं तं पुरिसं अम्मापियरो एवं वइज्जा जीव पुत्ता ! वाससयं ति, तंपियाई तस्स नो बहुयं हवइ । कम्हा ? वाससयं जीवतो बीसं जुगाई जीवइ, वीसई जुगाई जीवंतो दो अयण सयाई जीवइ, दो अयणसयाई जीवंतो छ उउसयाई जीवइ, छ उउसयाई जीवंतो बारस मास सयाई 130333233333333333333333314351628329125 For Private And Personal use only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir dain AradhanaKendra www.kobatirtm.org Acharya Sur Kassegarmur Gyarmandir ४२ जीवह, वारस मास सयाई जीवंतो चउवीसं पक्ख सयाई जीवइ, चउवीसं पक्खसयाई जीवंतो छत्तीसं राईदियसहस्साई जीवइ, छत्तीसं राइंदियसहस्साई जीवंतो दस असीयाई मुहुत्त सयसहस्साई जीवइ, दस असीयाई सहुत्त सय सहस्साई जीवतो चत्तारि उस्सासकोडीसए सच य कोडीश्री अडयालीसं य सयसहस्साई चचालीसं य सहस्साई जीवइ । चत्तारि उस्सासकोडीसए जाच चत्तालीसं य उस्साससयसहस्साई जीवंतो अद्धतेवीसं तंडुलवाहे भुजह । कहमाउसो ! अद्धतेवीस तंड लषाहे झुंजह १ गोयमा ! दुब्बलाए खंडियाणं बलियाए छडियाणं खयरमुसलपच्चाइयाणं ववगयतुसकणियाणं अखंडाणं अफुडियाणं फलगसरियाणं एक कवीयाणं अद्धतेरसपलियाणं पत्थएणं, सेवियणं पत्थए मागहए कल्लं पत्थो सायं पत्थो चउसट्ठी तंडलसाहस्सीओ मागहो पत्थो । विसाहस्सिएणं कवलेणं बचीसा कवला पुरिसस्स आहारो, अट्ठावीसं इत्थीयाए, चउवीसं पण्णगस्स । एवामेव पाउसो ! एयाए गाणाए दो असइयो पसई, दो पसईओ सेइया होइ, चत्तारि सेइया कुलो, चचारि कुलया पत्थो, चत्वारि पत्था भादगं, सट्ठीए पाढयाणं जद्दएणए कुभे, असीइए आढयाणं मज्झिमे कुभे, पाढयसयं उकासए कुभ, भट्ठव आढग सयाई वाही। एएणं पाहप्पमाणेणं अद्भुतेवीसं तंडुलवाह भुजह । आयुष्मन् । स यथानामकः कश्चित् पुरुषः स्नातः कृतवलिकर्मा कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तः शिरसि स्नातः कण्ठे मालाकृतः आविद्यमणिसुवर्णः महतसुमहावखपरिहितः चन्दनोलिलच गानशरीरः सरससुरभिगन्धः गोशीर्षचन्दनानुलिप्तगात्रः शुचिमालावर्णकविलेपनः कल्पितहाराहार त्रिसरक पालम्प प्रलम्बमानः कटिसूत्रकसुकृतशोमः पिनद्ध चेयकान लीयक ललिताणदललितकृताभरणः नानामणिकनकरत्नकटकत्रुटितस्तम्भितमुजः अधिकरूपसश्रीकः कुण्डलोद्योतिताननः मुकुटदचशिराः हारावस्तृतसुकृतरतिद वक्षाः पालम्ब प्रलम्बमानसुकृतपटोतरीयः SAGESEREESHOTSANEESHAMISHESTEHSS345134ENSE For Private And Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya.seKailassagarsunGyanmandir ४३ मुद्रिकापिङ्गलाश लिकनानामणि कनक रत्न विमलमहाहं निपुणपरिकर्मित देदीप्यमानविरचित सुश्लिष्ट विशिष्ट लष्टाविद्धवीरवलयः। किंबहुना ? कल्पवृक्षाइव अलङ्क,तविभूषितः शुचिपदं भूत्वा मातापितरावभिवादयेन । ततस्तं पुरुष मातापितरावेयं वदेता, जीव पुत्र ! वर्षशत मिति । तदपि च तस्य नो बहुक भवति । वर्षशत जीयन विशति युगानि जीवति । विंशति युगानि जीवन्न भयनशते जीवति । वे अपनशते जीवन षड ऋतुशतानि जीवति । षड ऋतुशतानि जीवन् द्वादशमासशतानि जीवति, द्वादशमासशतानि जीवन् चतुर्विशतिपक्षशतानि जीयति, चतुर्विशतिपक्षशतानि जीवन षडत्रिंशत् रानिन्दिवससहस्राणि जीवति । षट्त्रिंशत्रात्रिदिवससहस्राणि जीवन् दशाशीतिमहशतसहसाणि जीवति, दशाशीति मुहूर्चशतसहसाणि जीवन चत्वाप्युछ वासकोटिशतानि सप्त च कोटी: अष्टचत्वारिंशश्च शतसहसाणि चत्वारिंशच सहसाणि जीवति । चत्वायुच्छवासकोटिशतानि यावत् चत्वारिंशच उच्छवास सहसाणि जीवन सार्द्ध द्वाविंशति तन्दुलवाहान भङ । कथमायुष्मन् । अर्दत्रयोविंशति तन्दुलवाहान् भुङक्त ? गौतम ! दुर्बलया खण्डि ताना बलवत्या छटितानां सदिरमुसलप्रत्याहतानां व्यपगततुषकणिकाना अखएडानां अस्फुटिताना पृथक् सारिताना मकैकबीजाना मर्दश्योदशपलाना प्रस्थकः । सोऽपि प्रस्थका मागधः । कल्ये प्रस्थः सायं प्रस्थः चतुः षष्टि तन्दुल साहसिको मागधः प्रस्थकः, द्विसाहसिकेण कवलेन द्वात्रिंशत् कबलाः पुरुषस्याहारः, अष्टाविंशतिः स्त्रियाः, चतुर्विशतिः पण्डकस्य । एवमेवायुष्मन ! एतया गणनया, द्वे असत्यौ प्रसृतिः, द्वे प्रसृती सेतिका भवति । चतसूः सेतिकाः कुडयः । चत्वारः कुडवाः प्रस्थः । चत्वारः प्रस्थाः आढक, पथ्या आठकाना जघन्यकुम्भः, अशोत्या आढकानां मध्यमः कुम्भः, आढकशत मुस्कष्टः कुम्भः । अष्टावादकशतानि याहः । एतेन वाहप्रमाणेन अर्धत्रयोविशति तन्दुलवाहान भुङक्त। अर्थ-जैसे कोई पुरुष स्नान करके गृहदेवताओं की पूजा करता है और तुःस्वप्न का नाश करने के लिये तिजक धारण और BE3313 SESSUESEENMESSERE For Private And Personal use only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir dain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Sur Kallassagerar Gyanmandir मङ्गल कार्य करता है। उसके पश्चात् सशीर्षस्नान करके करठ में फूलों की माला धारण करता है। उसके पश्चात् मणि और सुवर्ण के भूषणों को धारण करके निर्मल और बहुमूल्य वस्त्र पहनता है तथा अगों में चन्दन का लेपन एवं उत्तम गन्धयुक्त गोशीपचन्दन का तिलक लगा कर पवित्र पुष्पों की माला धारण करता है एवं शरीर की शोभा वृद्धि के लिए केशर का भी लेपन करता है। इसके पश्चात् पाठलद और तीन जड़ वाले हारों को पहन कर उनके ऊपर एक नम्बा हार पहनता है तथा कमर में कटिसूत्र को धारण कर गोप तथा अंगुठियों को धारण करता है। इसी तरह हाथ और भुजाओं में भूपणों को धारण कर के भुजाओं को भर देता है और कानों में कुपहल धारण करके मुख की शोभा को बढ़ाता है, शिर के ऊपर मुकुट धारण करके शिर को दीप्त करता हुआ छाती को हारों से ढंक कर उसको अत्यधिक शोभनीय कर देता है । लम्बे वक्ष की चादर धारण करके अँगुठियों द्वारा अपनी अङ्गलियों को पीतवर्ण कर देता है। वह अपने हाथ में वीर कटक धारण करता है। वह वीरकटक निर्मल और श्रेष्ठ शिल्पी द्वारा रचित तथा स्वच्छ किया हुआ चमकदार, मनोहर और उत्तम सन्धिभाग वाला होता है और अधिक कहाँ तक वर्णन किया जाय ? जैसे कल्पवृक्ष पत्र पुष्प और फलों द्वारा विभूषित होता है, उसी तरह वह सब प्रकार से पवित्र होकर अपने माता पिता के पास जाकर उनके चरणों में प्रणाम करता है। उसको माता पिता आशीर्वाद देते हुए कहते हैं कि हे पुत्र! तुम सौ वर्ष तक जीवन धारण करो। परन्तु उसकी आयु यदि सौ वर्ष की होती है तो वह सौ वर्ष तक जीता है, नहीं तो नहीं जीता है। वह सौ वर्ष की आयु भी कोई अधिक नहीं है। क्योंकि जो सौ वर्ष जीता है वह भी बीस युग ही जीता है। युग ५ वर्ष का माना जाता है, इसलिये सौ वर्ष में २० युग होते हैं। जो पुरुष बीस युग जीता है वह दो सौ अयन तक जीता है। छः मास का एक अयन होता है। जो दो सौ अयन तक जीता है यह सौ ऋतु तक जीता है और छ: सौ ऋतु तक जीने वाला मनुष्य बारह सौ मास तक जीता है। जो बारह सौ For Private And Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1 मास तक जीता है वह चोवीस सौ पक्ष तक जीता है जो चौवीस सो पक्ष तक जीता है वह ३६००० छत्तीस हजार अहोरात्र तक जीता है जो छत्तीस हजार अहोरात्र तक जीता है दइ दस लाख और अस्सी हजार मुहूर्त्त तक जीता है जो दस लाख और अस्सी हजार मुद्दत्त तक जीता है वह चार अरब सात फोटि अड़तालीस लाख और चालीस हजार उवास तक जीता है। जो मनुष्य इतने समय तक जीता है वह साढ़े बाईस तन्दुलवाद जो आगे कहा जाने वाला अन्न का प्रमाण है उतना अन खा जाता है । प्रश्न - हे भगवन् ! सौ वर्ष तक जीने वाला संसारी मनुष्य सौ वर्ष में साढ़े बाईस तन्दुलवाह अन्न किस तरह खा जाता है सो बतलाइये । उत्तर - हे गौतम! दुर्बल स्त्री ने जिसे खण्डन किया है और बलवती स्त्री ने सूत्र के द्वारा जिसको साफ किया है तथा जो खदिर (खैर) के मुसल से कूट कर विना तुप का कर दिया गया है एवं जिसके दाने टूटे हुए नहीं हैं तथा जिसमें से कडुन आदि चुन कर बाहर निकाल दिये गये हैं ऐसे साढ़े बारह पल चावलों का एक प्रस्थक होता है। पक्ष का प्रमाण इस प्रकार समझना चाहियेपाँच का एक माप होता है और सोलह मापों का एक कर्पं होता और चार कर्पे का एक पल होता है। इस प्रकार ३२० गुजा के प्रमाण को एक पल कहते हैं। ऐसे साढ़े बारह पलों का एक प्रस्थक होता है जो मागध भी कहा जाता है। उस प्रस्थक या मागध के प्रमाण से प्रतिदिन प्रातः काल के भोजन के लिये एक प्रस्थक तथा सायंकाल के भोजन के लिए एक प्रस्थक अन्न की आवश्यकता होती है। एक प्रस्थक में ६४ हजार चावल के दाने होते हैं। दो हजार चावल के दानों का एक For Private And Personal Use Only ४५ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ShaMahanirain AradhanaKendra Acharya Shri Kasagarur amander कवन होता है। ऐसे बत्तीस कवलों में एक पुरुष का आहार पूर्ण होता है और अठाईस कवलों में स्त्री का माहार पर्याप्त होता है। तथा चौबीस कवनों में नपुसक का आहार पूर्ण होता है। धान्य से पूर्ण और नीचे की घोर किया हुआ मनुष्य का हाथ ( मुट्ठी) असती कहलाता है। ऐसे दो असती का एक प्रमृति प्रमाण होता है और दो प्रमृति प्रमाण का एक सेतिका प्रमाण होता है और चार सेतिका प्रमाण का कुडव होता है। चार कुडव का एक प्रस्था होता है भीर चार प्रस्था का एक मादक होता है। साठ बाढक का एक जघन्य कुम्भ भीर अस्सी पाढक का मध्यम कुम्भ एवं सौ यातक का सत्कृष्ट कुम्भ होता है और पाठ सौ थाढकों का एक पाह प्रमाण होता है। इस पाह प्रमाण से मनुष्य सी वर्ष में साढ़े बाईस वाह भनखा जाता है। ते य गणिय निदिहाचत्तारिय कोडीसया, सदिचेव य हवंति कोडीयो। असीई य तंदुलसयसहस्सा (४६०८०.००००), हवंति त्ति मक्खाय।। ५५ ॥ तं एवं अद्भतेवीसं तंदुलबाहे भुजतो अद्धछ8 मुग्गभे भुजह, अद्धछठे मुग्गकु'भे भुजंतो चउवीसं नेहाढग सयाई झुंजइ, चउत्रीसं नेहादगसयाई भुजतो छत्तीसं लवण पलसहस्साई भुंजइ । छत्तीसं लवण पलसहस्साहं भुजंतो छप्पडग साडगसयाई नियंसेह दो मासिएण परियट्टएणं, मासिएण वा परियङ्कएण वारसपड साडग सयाई नियंसेह। एवामेव थाउसी! बास सयाउयस्स सव्वं गणियं तुलियं मवियं ,नेह लवण भोयण बायणं वि ॥ एवं गणियप्पमाणं दुविहं भणियं महरिसीहिं जस्सस्थि तस्स गुणिजह जस्स नस्थि तस्स किं गणिजद For Private And Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ San Mahavirin Aradhana Kendre छाया-तानि च गणितनिर्दिशनि “चत्वारि च कोटिशतानि यष्टिश्च व भवन्ति कोटयः। अशीतिक तन्दुलशत सहस्राणि, भवन्तीत्या त्यातम्" ॥ तदेव मर्धषट्क मुद्गकुम्भान् भुङक्त । अर्धषट् मुद्गकुम्भान् भुजानः चतुर्विशति स्नेहादकशतानि मुक्त। चतुर्विशति स्नेहाटक शतानि भुानः पत्रिंशत् लवणपल सहस्राणि भुङ त । पतिशत लवणपल सहसूाणि भुजाना पटू पट्टक शाटकशतानि परिदधाति । द्विमासिकेन परिवर्तनेन, मासिकेन वा परिवर्तनेन द्वादश पटशाटकशतानि परिदधाति । एष मैच आयुष्मन् ! वर्षशतायुषः सर्व गणितं नलितं मवितं स्नेह लवण भोजनाच्छादनानामपि । एतद्गणितप्रमाणे विविध भणितं महर्षिभिः । यस्यास्ति तस्य गुण्यते यस्थ नास्ति तस्य किं गण्यते । भावार्थः-पूर्वपाठ में कहा गया कि-सी वर्ष जीवन धारण करने वाला मनुष्य साहे बाईस वाह तन्दुल का भोजन करता है। अब इस पाठ में यह बताया जाता है कि-एक पाह तन्दुल में कितने तन्दुल के दाने होते है। गणित करने से एक वाह तन्दुलके ४६०६०००००० चार बरपसाठ करोग भीर अस्सी लाख दाने होते हैं। इस प्रकार जो मनुष्य सी वर्ष के जीवन काल में साढे बाईस बाह तन्दुलों का भोजन करता है वह साढे पाँच मग का घडा अर्थात् साढे पाँच घड़ा मग भी खा जाता है तथा चौवीस सौ आठक स्नेह यानी पृत और तेल खा जाता है एवं छत्तीस हजार पल नमक खा जाता है तथा वह सौ वर्ष में ६०० कपडे पहिनता है। यदि वो मास पर नूतन कपड़ा पहिनता है तो सो वर्ष में ६०० कपड़े पहनता है और यदि प्रतिमास नूतन वक्ष धारण करता है तब तो बह सौ वर्ष में १२०० कपड़े पहनता है। हे आयुष्मन सौ वर्ष तक जीवन धारण करने वाले मनुष्यों के उपभोग में आने वाले तन्दुल, वन, नमक तेक्ष और घृत का हिसाब पूर्वक्ति प्रकार से महर्षियों ने बताया है। यह 233ESAUDE BESTE ESSERE CHERCEDESES! For Private And Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SA.Mahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirtm.org Acharya K agerul Syaendir हिसाब उस मनुष्य की अपेक्षा से कहा गया है जिसके निकट खाने पहनने के लिये सामग्री विद्यमान है किन्तु जिसके निकट व सामग्री है ही नहीं उसका हिसाब ही क्या हो सकता है? ववहारगणियदिट्ठ, सुहुमं निच्छयगयं मुणेयव्यं । जइ एवं ण वि एय, विसमा गणणा मुणेयन्वा ॥५६॥ छायां-व्यवहारगणित', सूक्ष्म निश्चयगतं ज्ञातव्यम् । यदय तनाप्यतद् । विषमा गणना ज्ञातव्या ।। ५६॥ भावाथ:-पूर्वोक्त पाठ में जिस गणित के द्वारा सौ वर्ष जीवन धारण करने वाले पुरुष के भोजन और पत्र का हिसाब बतलाया गया है वह व्यवहार गणित समझना चाहिये। इससे भिन्न पक सूक्ष्म गणित होता है जिसको निश्चय गणित कहते हैं। जब निश्चय गणित के अनुसार गणना की जाती है तब व्यवहार गणित का हिसाब नहीं रहता है। अतः इन दोनों गणितों को गणना परस्पर भिन्न समझनी चाहिये ।। ५६ ।। कालो परमणिरुद्धी, अविभज्जो तं तु जाण समयं तु । समया य असंखिज्जा, हयंति उस्सासनिस्सासे ।। ५७ ॥ छाया-कालः परमनिरुद्धः अविभाज्यः तं तु जानीहि समयं तु । समयाश्चासंख्येयाः, भवन्ति उच्छवासनिःश्वासे ।। ५७ ॥ भावार्थ:-जिसका विभाग नहीं किया जा सकता है ऐसे अत्यन्त सूक्ष्म काल को समय समझो। इस प्रकार एक सपछवास निःश्वास में असंख्यात सगय व्यतीत होते हैं ।। ५७ ॥ For Private And Personal use only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ San Mahavir Jain Aradhana Kendre www.kabatirtm.org SHORMAGICHADESHODHISTORGES4540451010101DHDHSE हट्ठस्स अणवगन्धस्स, निरुवकिट्ठस्स जंतुणो। एगे उस्सासनिस्सासे, एस पाणुचि बुच ॥ ५८ ।। छाया-हएस्थानवगलस्य, निरूपक्लिष्टस्य जन्तोः । एक उच्छ्वासनिःश्वासा, एष प्राण इत्युच्यते ॥ ५८॥ भावार्थ:-जो पुरुष पुष्ट है तथा रोग और कश से रहित है उसके एक उच्वास निःश्वास को प्राण कहते है |॥ ५ ॥ सत्त पाणणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लवे । लवाणं सत्चहत्तरीए, एस मुदत्त वियाहिये ।। ५६ ।। लाया-सप्त प्राणाः स स्तोका, सप्त स्तोकाः स लवः। लवानां सप्त सप्तत्या, एष महों व्याख्यातः ॥ ५ ॥ भावार्थः-पूर्वोक्त सात प्राणों का एक स्तोक काल कहा जाता है और सात स्तोकों का एक लव और ४७ सत्तहत्तर वो का एक मुहूर्त काल कहा गया है ॥४॥ एग मेगस्स में भंते ! महत्तस्स केवइया उस्सासा वियाहिया १ गोयमा ! तिमिण सहस्सा सत्त य, सयाण तेवत्तरि य उस्सासा । एस मुहूत्तो भणियो, सहि अर्णत नाणीहिं ।। ६० ।। छाया-एफैकस्य हे भदन्त । मुहर्तस्य कियन्त उच्छ्वासा व्यापाता । गौतम ! श्रीणि सहसाणि, सप्त च शतानि त्रिसप्ततिश्च उच्छ्वासाः। एष मुहूत्रों भणितः, सरनन्तजानिमिः॥६॥ भावार्थ:-(प्रश्न ) हे भवगन् । एक मुहूर्त में कितने उच्छ्वास कहे गये हैं?हे गौतम ! एक मुद्दत्त में तीन हजार सात सौ और ७३ उच्छ्वास कहे गये हैं। सभी अनन्तशानियों ने यही मुहूर्त का प्रमाण बतलाया है॥६॥ 1E32E3E3BREASI B35351232233232 DIEGUEE For Private And Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SA.Mahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirtm.org Acharya Sur Kallassagerar Gyanmandir HEATRESHCHERCHOIENCHAHESHETSESEDIESIDESHSEHLESSES दो नालिया मुहूत्तो, सढि पुण नालिया अहोरत्तो। पन्नरस अहोरत्ता पक्खो, पक्खा दुवे मासो ॥ ६१ ॥ छाया-द्वे नालिके मुहर्राः, षष्टिः पुनर्नालिकाः अहोरात्रः । पञ्च दशाहोरात्राः पक्षः, पक्षौ द्वौ मासः ॥ ६१ ॥ भावार्थः-दो घड़ी का एक मुहूत्त होता है और साठ घड़ी का दिन रात होता है। पन्द्रह दिन रात का एक पक्ष और दो पक्षों का एक मास होता है ।। ६१ ॥ दाडिमपुप्फागारा लोहमई, नालिया उ कारब्वा । तीसे तलम्मि छिदं, छिद्दप्पमाणं पुणो वुच्छं ।। ६२ ।। छाया-दाडिमयुप्पाकारा लोहमयी, नालिका तु कारयितव्या । तस्यास्तले छिद्र, छिद्रप्रमाणं पुनर्वक्ष्ये ॥२॥ भावार्थ:-दाहिम के फूल के समान आकार वाली एक घड़ी बनवानी चाहिये और उसके तल में एक बिद्र बनवाना चाहिये । उस छिद्र का प्रमाण मैं आगे बताऊंगा ।। ६२ ।। छन्नउइ पुच्छवाला, तिवासजायाए गोतिहाणीए । असंवलिया उज्जाय, णायब्बं नालिया छिदं ।। ६३ ।। छाया-पण्ण्यति: पुण्याला, त्रिवर्षजातायाः गोवत्सायाः। असंवलिता: ऋतुकार, ज्ञातव्य नालिकाछिद्रम् ।। ६३ ।। भावार्थ:-तीन वर्ष की बागड़ी के पूछ के ६६ छयानवे बाल, जो सीधे और मुड़े हुए नहीं है उनके समान घड़ी का छिद्र होना चाहिये ॥६३ ॥ महवा उ पुच्छवाला, दुवासजायाए गयकरणए। दो वाला भम्भग्गा, णायचं नालियाच्छिदं ॥ ६ ॥ EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE For Private And Personal use only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shn Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छाया - अथवा तु पुच्छ्वाला, द्विवर्ष जातायाः गज करेणोः । द्वौ बालावभनौ, ज्ञातव्यं नालिकाच्छिद्रम् ॥ ६४ ॥ भावार्थ:-दो वर्ष के हाथी के बच्चे के पूँछ के दो बाल जो टूटे हुए नहीं हैं उनके समान घड़ी का छिद्र होना चाहिये ।। ६४ ।। अहवा सुवण मासा, चत्तारि सुवट्टिया घणा सूई । चउरंगुलप्पमाणा, वायव्वं नालियाच्छिदं ॥ ६५ ॥ छाया - अथवा सुवर्णमाषाश्चत्वारः सुवर्तिता घना सूचिः । चतुरङ गुलप्रमाणा, ज्ञातव्यं नालिकाद्रिम् ।। ६५ ।। भावार्थ:- अथवा चार मासा सोना के बराबर एक वर्तुलाकर (गोल) और पन सुई होती है। उस सुई का प्रमाण चार अङ्गल का होता है। उसके समान घड़ी का छिद्र होना चाहिये ।। ६५ ।। उदगस्स नालियाए, इवंति दो आढयाश्र पमाणं । उदगं य भाणियव्यं, जारिसयं तं पुणो वुच्छं ॥ ६६ ॥ छाया - उदकस्य नालिकायाः भवतो द्वावादको प्रमाणम् । उदकच गणितव्यं, यादृशकं तत्पुनर्वक्ष्ये ॥ ६६ ॥ भावार्थ - घड़ी के अन्दर दो आढक जल भरना चाहिये। वह जल जिस तरह का होना चाहिये वह बताया जाता है ॥ ६६ ॥ उदगं खलु खायचं, कायव्यं दूसपट्टपरिपूयं । मेहोदगं पसरणं, सारहयं वा गिरिगईए ॥ ६७ ॥ छाया - उदकं खलु ज्ञातव्यं कर्त्तव्यं दूष्यपट्टपरिपूतम् । मेचोदकं प्रसन्नं, शारदिकं वा गिरिनद्याः ॥ ६७ ॥ For Private And Personal Use Only **********ESS.EDKEBEARD ५१ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SA.Mahavir Jain AradhanaKendra www.kobatiram.org Acharya Sur Kallassagerar Gyanmandir भावार्थः-घड़ी में भरने के लिये जल को वख द्वारा छान लेना चाहिये । वह जन या तो मेघ का निर्मल जल हो अथवा शरतकाल की पर्वतीय नदी का हो॥६७ ॥ बारस मासा संवच्छरो य, पक्खा उ ते उ चउवीसं । तिएणेव य सट्टिसया, हवंति राईदियाणं य ॥ ६८ ॥ छाया-द्वादशभिर्मासैः संवत्सरब, पक्षास्तु ते तु पतुर्षिशतिः। श्रीण्येव च पटिशतानि, भवन्ति रानिन्दिवानि ॥६८॥ भावार्थ:-बारह मास का एक वर्ष होता और एक वर्ष के चौवीस पक्ष होते हैं। चौवीस पक्षों के तीन सौ साठ दिन रात होते हैं ॥ ६ ॥ एग य सयसहस्स, तेरस चेव य भवे सहस्साई । एग य सयं नउयं, हुति अहोरत्त उस्सासा ॥६६॥ छाया-एकच शत सहस', त्रयोदश नैव च भवेयुः सहस्राणि । एकच शतं नवति भवन्ति अहोराने उच्छवासाः॥६६॥ भावार्थ:-एक दिन रात में एक लाख तेरह हजार और एक सौ नब्वे उच्छवास होते हैं।। ६६ ॥ तिचीस सय सहस्सा, पंचाणउई भचे सहस्साई । सत्त य सया अणणा, हवंति मासेण उस्सासा ॥ ७० ॥ छाया-प्रयत्रिशच्छत सहस्राणि, पचनवतिश्च भवेयुः सहस्राणि । सप्तशलान्यनूनानि, भवन्ति मासेनोच्छ्वासाः ॥ ७० ॥ भावार्थ:-एक मास में ३३ लाख १५ हजार और पूरे सात सौ उच्छ्वास होते हैं॥७॥ For Private And Personal use only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भावार्थ: चत्तारि य कोडीओ, सत्तेव य हुति सय सहस्साई अडयालीस सहस्सा, चत्तारि मया य वरिसेा ॥ ७१ ॥ छाया - चतसः कोटयः, सप्त च भवन्ति शतसहस्राणि । चत्वारिंशत्सहस्राणि चत्वारि शतानि च वर्षे ॥ ७१ ॥ : एक वर्ष में चार कोटि सात लाख अड़तालीस हजार और चार सौ उच्छ्वास होते हैं ।। ७१ ।। चचारि य कोडिसया, सच य कोडिओ हुति अवराओ । अडयाल सयसहस्सा, चचालीसं सहस्साई ।। ७२ ।। छाया - चत्वारि कोटिशतानि सा च कोटयः भवन्ति अपराः । अष्टचत्वारिंशच्छतसहसाणि चत्वारिंशत्सह ।। ७२ ।। भावार्थ:—२०७४=२०००० चार अर्बुद सात कोटि अड़तालीस जख और चालीस हजार उच्छवास सौ वर्ष की आयु वाले प्राणी के होते हैं ॥ ७२ ॥ वासस्याउस्से उसासा, इत्तिया मुणेयच्चा । पिच्छह आउस खयं, अहोगिस झिज्झमाणस्स ।। ७३ ।। छाया — वर्षशतायुष्कस्योच्छवासाः इयन्तो ज्ञातव्याः । पश्यतायुषः क्षय, महर्निशं क्षीयमाणस्य ॥ ७३ ॥ भावार्थ:- हे भव्य जीवो! सौ वर्ष की आयु वाले पुरुष के इतने ही होते हैं। रात दिन तय होते हुए आयु के क्षय की ओर दृष्टिपात करो ।। ७३ ।। " राइदिए तीसं तु मुहुत्ता, नव सयाई मासेणं । हायंति पमत्ताणं, न य णं अबुद्दा विवाति ॥ ७४ ॥ छाया - रात्रिन्दिवेन त्रिंशन्मुहूचीः, नय शतानि मातेन । हीयन्ते प्रमशानों, न चाबुधाः विजानन्ति ॥ ७४ ॥ For Private And Personal Use Only ५३ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir dain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya ganun yonmandir BESTA 33 WE BEEEEEEEEEEEASI 633202 भावार्थ:-दिन रात में तीस और एक मास में नौ सौ मुहुर्त प्रमादो के नष्ट होते हैं परन्तु अज्ञानी जीवों को इसका ज्ञान नहीं होता है।॥ ७४ ॥ तिएिण सहस्से सगले, छच सए उडुपरो हरइ आउं । हिमंते गिम्हासु य, वासासु य होई णापब्वं ।। ७५ ।। छाया-श्रीणि सहस्राणि सकलानि, पशतानि उडुवरो हरत्वायुः । हेमन्ते प्रीष्मासु च, वर्षासु न भवति तातव्यम् ।। ७५ ॥ भावार्थ:-हेमन्त ऋतु में सूर्य छ: सौ तीन हजार मुहूर्त आयु को हरण करता है। इसी तरह पीष्म ऋतु और वर्षा त्रातु जानना चाहिये ॥५॥ बाससयं परमाऊ, इत्तो पराणास हरइ निदाए । इत्तो बीसइ हावा, पालतं बुड्ढभावे य ।। ७६ ।। छाया-वर्षशतं परमायुः, इती पञ्चाशत हरति निद्रया । इतो विंशतिहीयते, पालखे युद्धमाये च ॥ ७ ॥ भावार्थः-मनुष्यों की परम आयु सौ वर्ष की होती है, उसमें से पचास वर्षे तो वह सोने में नष्ट कर देता है। बाकी ५० वर्ष में से १० वर्ष पाल्यकाल में और दस वर्ष वृद्धावस्था में नष्ट करता है। इस प्रकार ५० में से २० वर्ष निकल कर शेष ३० वर्ष की आयु के बचते हैं ।। ७६ ॥ सीउराह पंथ गमणे, सुहापिवासा भयं य सोगे य । णाणा विहा य रोगा, हवंति तीसाए पच्छद्धे ॥ ७७ ।। छाया-शीतोष्ण पथिगमनानि, क्षतिपासे भयञ्च शोकश्च । नानाविधाश्च रोगाः, भवन्ति निशतः पवाद ।। ७७ ।। For Private And Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ San Mahavir Jain Aradhana Kendre www.kabatirtm.org 91930313233333333333333333333333SODIGIE: भावार्थ:--शीत, उष्ण, मार्गगमन, क्षुधा, पिपासा, भय, शोक और नाना प्रकार के रोग इनके द्वारा तीस वर्ष में से आधे १५ वर्ष व्यर्थ नष्ट होजाते हैं ॥ ७॥ एवं पंचासीई पट्ठा, पण्णरसमेव जीवंति । जे हुँति वाससइया, न य सुलहा वास सयजीवा ।। ७८ ॥ लायाः-एवं पञ्चाशीतिर्नष्टानि, पञ्चदश एवं जीवन्ति । ये भवन्ति वर्षशतिकाः, न च सुलभा वर्षशतजीवाः ।। ७८॥ भावार्थ:--पूर्वोक्त प्रकार से पचासी वर्ष तो व्यर्थ ही व्यतीत होजाते हैं, इसलिये जो सौ वर्ष तक जीता है वह वस्तुतः १५ ही वर्ष जोता है और सौ वर्ष तक जीने वाला पुरुष भी विरला ही होता है । ७८ ॥ एवं हिस्सारे माणुसत्तणे, जीविए अहिवडते । न करेह धम्मचरणं, पच्छा पच्छाणुताहे हा ।। ७६ ॥ छाया:-एवं निस्सारे मानुषत्वे, जीवितेऽधिपतति । न कुरुत धर्मचरणं, पश्चात् पश्चादनुतप्स्यथ हा / ॥ ७६. । भावार्थ:--पूर्वोक्त प्रकार से यह मानुष जीवन साररहित है और जीवन व्यतीत होता हुआ चला जा रहा है तो भी आप लोग धर्म का पाचरण नहीं करते हैं यह दुःख का विषय है। आपको अन्त में पश्चात्ताप करना पड़ेगा ।। ७६ ॥ घुटुंमि सयं मोहे, जिणेहिं बरधम्मतित्थमग्गस्स । अत्ताणं य न जाणह, इह जाया कम्मभूमीए ।। ८० ॥ हाया:-पुष्टे स्वयं मोहे, जिनपरधर्मतीर्थमार्गे । आत्मानं च न जानीत, इह जाता कर्मभूमी ॥ ८०॥ For Private And Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shn Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६ भावार्थ:- श्री तीर्थङ्करों ने स्वयं यह घोषित किया है कि ज्ञान दर्शन और चारित्र मोक्ष के मार्ग हैं, ये ही मनुष्य को पवित्र करने वाले हैं तो भी आप लोग मोदवशीभूत होकर इस धर्म को अङ्गीकार नहीं करते हैं और आत्मज्ञान में प्रवृत्त नहीं होते हैं । आप लोग कर्मभूमि में उत्पन्न हुए हैं। अतः आपको यह अवश्य करना चाहिये ॥ ८० ॥ नईवेगसमं चंचल, जीवियं जुब्बणं य कुसुमसमं । सुक्खं य जमनियतं, तिरिगवि तुरमाणभुआई ।। ८१ ।। ', छाया:- नदीवेगसमं चञ्चलं जीवितं, यौवनञ्च फसुमसमम् । सौख्यञ्च यदनियतं श्रीरायपि त्वरमाणभोग्यानि ॥ ८१ भावार्थ: :- यह जीवन नदी के वेग के समान चञ्चल है और यौवन फूल के समान शीघ्र विनाशी है तथा सुख भी स्थिर नहीं । ये तीनों ही अतिशीघ्र भोगे जाकर क्षय होजाते हैं। एवं खु जरामरणं, परिक्खिबइ वग्गुरा व मयजुहं । न य णं पिच्छह पत्त, सम्मूढा मोहजाले ॥ ८२ ॥ " छाया - एतत्खलु जरामरणं, परिक्षिपति वागुरा इव मृगयूथम् । न च पश्यथ प्राप्त सम्पूढ़ा मोहजालेन ॥ ८३ ॥ भावार्थ:- जैसे मृगयूथ को जाल वेष्टित कर लेता है उसी तरह प्राणवर्ग को जरामरण वेष्टित कर रहा है तथापि मोहजाल से मोहित होकर आप लोग इसे नहीं देख रहे हैं ॥ ८२ ॥ उसो ! जंपि य इमं सरीरं इड कंपियं मगुएणं मणामं मणभिरामं भिज्जं (धिज्जं ) विसासिय संमयं बहुमयं अणुमयं भंडकरंडगसमाणं रयण करंडओविव सुसंगोवियं चेलपेडाविव सुसंपरिवुडं तिलपेडाविव सुसंगोवियं For Private And Personal Use Only *********** Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Son Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri K agarur Gyarmandir ESBEEEEEEEEEEEEEEEEEEE! मा णं उण्हं मा शं मौयं मा गं वाला मा णं सुहा माणं पिवासा मा णं चोरा मा णं दंसा मा णं मसगा माणं वाहि य पित्तिय संभिय संनिवाइय विविहा रोगायंका फुसंतु तिकट्ट एवं पियाई अधुवं अणिययं असासयं चयावचइयं विपणासधर्म पच्छा व पुरा व अवस्म विपञ्चायब्वं । छाया-पायुष्मन यदपि च इदं शरीरं ' कान्तं प्रियं मनोज्ञ मनोऽम मनोऽभिराम स्थिर चश्वासिकं सम्मतं बहुमतं अनुमत भागडकरराडकसमानं रत्नकरण्ड कमिय सराहोपित चेलपेटेव संपरिचत नेलपेटेव ससंगोपितं मा उपयो, मा शीतं, मा व्याला, मा राधा, मा पिपासा, मा चौराः, मा देशा!, मा मशकार, मा व्याधिः, पैतिक श्लैष्मिक साजिपातिक विविधा रोगातका स्पृशन्तु इति कृत्या, एवमप्यधुषमनियतमशाश्वत चयापचयिक विपणाशधर्मक पवाद था पूर्व था अवश्य विप्रत्यक्तव्यम् । भावार्थ:-हे आयुष्मन् ! यह जो शरीर है, यह बहुत ही इष्ट है, यह बहुत ही कमनीय है। यह बहुत ही प्रिय है, यह मन को बहुत ही प्रिय है। मन इसमें सदा लगा रहता है। यह मन को बहुत ही रमणीय मालूम होता है, यह स्थिर है, विश्वसनीय है। इसके समस्त कार्य अच्छे मालूम होते हैं। यह बहुत ही माननीय है। इसका कभी भी अप्रिय नहीं किया जाता है। जैसे जेवर के भाण्ड की यत्नपूर्वक रक्षा की जाती है। जैसे रत्न की पेटी की बहुत हिफाजत के साथ रक्षा की जाती है उसी तरह इस शरीर की रक्षा की जाती है। जैसे कपड़े से भरी हुई पेटी जाब्ते के साथ रखी जाती है एवं जिस तरह तेल और घी के भाजन गोपनपूर्वक रखे जाते हैं उसी तरह इस शरीर की हिफाजत की जाती है। सर्दी, गर्मी, सर्प आदि जानवर, क्षुधा, पिपासा, चोर, देश, मशक, व्याधि तथा वात, पित्त, कफ और सन्निपात से उत्पन्न होने वाले अनेक प्रकार के रोग और आतङ्क से इस शरीर की रक्षा की जाती For Private And Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Sur Keilassagarmur yamandir है तो भी यह शरीर स्थिर नही रहता है किन्तु क्षण क्षण में नष्ट होता रहता है । इष्ट आहार आदि के लाभ होने से वृद्धि को प्राप्त होता है और नहीं प्राप्त होने से क्षीण होजाता है। यह स्वभावतः विनाशशील है। पहले या पीछे यह अवश्य ही जीव के द्वारा छोड़ दिया जाता है। एअस्स वियाई पाउसो! पाणुपुब्वेणं अट्ठारस्सा य पिटकरण्डगसंधिो पारस पंसलिया करंडा छप्पंसुलिए कडाहे विहत्थिया कुच्छी चउरंगुलिया गीषा चउ पलिया जिब्भा दुपलियाणि अच्छीणि चउ कवालं सिरं बत्तीसं दंता सत्गुलिया जीहा अधुट्ठपलियं हिययं पणवीसं पलाई कालिज्जं दो अंता पंच वामा पण्णता, तं जहा-धूलंते य, तणुयंते य, तत्थणं जे से थूलते तेण उच्चारे परिणमइ । तत्थ णं जे से तणुयंते तेणं पासवणे परिणमइ, दो पासा पएणत्ता तं जहा-बामे पासे दाहिणपासे य । तत्थ णं जे से वामे पासे से सुहपरिणामे, तत्थ णं जे से दाहिणे पास से दुहपरिणामे । 11EEEEEEEEEEEEEEEEEEEE! छाया-एतस्यापि आयुकन् । आनुपूव्या अष्टादश च पृष्टिकरण्डक सन्धयः, द्वादश पाशुलिकाः करण्डकाः, पट् पांशुलिकाः फटाहाः, वितस्तिका कुक्षिः, चतुरालिका ग्रीवा, चतुपलिका जिव्हा, विपलिके अक्षिणी, चतुष्कपाले शिरः, द्वात्रिंशदन्ताः, सप्तान लिका जिव्हा, साद्ध त्रिपलं हृदयं, पञ्चविंशतिपलानि कालज, द्व अन्त्रे, पञ्च वामे प्रज्ञप्ते, तद्यथा स्थूलान्त्रच तन्वन्त्रञ्च । तत्र यत् स्थूलान्त्र तेनोचारः परिणामति । तत्र यत् सन्वन्त्र तन प्रसूबा परिणमात । देपावें प्रशतं तद्यथा वाम पाच, दणिपाश्चञ्च । तत्र यत् वाम पाश्च तत् सुखपरिणाम, तत्र यत् दक्षिणं पार्श्व तत दुःखपरिणामम । For Private And Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirtm.org Acharya Sur Kallassagerar Gyanmandir EE भावार्थ:-हे आयुष्मन् ! इस शरीर में पीठ की हड्डी में क्रमशः अठारह सन्धियाँ हैं। उनका आकार बाँस की गाँठ के समान है। उन अठारह सन्धियों में से बारह इड़ियाँ निकली हुई हैं जो पसली कहलाती हैं। वे पसलियाँ छाती के मध्य में ऊपर की ओर जाने वाली दही में लगकर स्थित हैं। पीठ की हड्डी में जो छः सन्धियाँ शेष हैं, उनमें से छः हड्डियों निकल कर दोनों पाश्वभागों को घेर कर स्थित है। वे हृदय के दोनों तरफ छाती से नीचे रहती हैं। जिन लोगों का कुक्षि (पेट) ढीली होती है उनकी ये हड़ियाँ परस्पर मिली हुई नहीं होती हैं। इन इड़ियों को कडाह कहते हैं। मनुष्यों की कुक्षि दो वितस्ती का होती है और गर्दन चार अङ्गन की एवं जीभ चार पल की होती है। नेत्र के दोनों गोलक दो पल के होते हैं। हांडयां के चार खंडा से शिर बना होता है। मुख में बत्तीस दाँत होते हैं। जोभ अपनी अपनी अङ्गलि के प्रमाण से सात अङ्गल की हाता है। हृदय का मास खण्ड साढे तीन पल का होता है। छाती के भीतर का मांस खण्ड जिसे कलेजा कहते हैं वह पचीस पल का होता है। अंतडियाँ दो होती हैं। वे दोनों पाँच पाँच वाम प्रमाण की होती हैं। उनमें से एक स्थूल होती है और दूसरी सूक्ष्म होता है। जो स्थूल अंतडी होती उसके द्वारा मल बनता है और जो सूचम है उसके जास मन्त्र बनता है। पाश्वे दो होते है एक बाम और दूसरा दक्षिण। इनमें से वाम पार्श्व सुख से अन्न पचाता है और दक्षिण पार्श्व दुःख से पचाता है। उसो! इमम्मि सरीरए सहि संधिसय सत्तु त्तरं मम्मसयं तिषिण अविदामसयाई नव पहारुसयाई सत्त सिरा सयाई पंच पेसी सयाई नव धमणीओ नवनउई य रोमकूब सयसहस्साई विणा केस मंसुणा, सह केसमंसुणा अदुआट्ठो रोमकूवकोडीओ। उसी ! इमम्मि सरीरए सट्टि सिरासयं नाभिप्पभवाणं उड्ढगामिणीणं सिरमुवगयाणं जामो रसहरणीओत्ति 5197510EN DIESES E ESSERE BEES For Private And Personal use only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Sur Kallassagerar Gyanmandir खुर्चति जाणंसि निरुवग्याएणं चक्खुसोयघाणजीहाबलं य भवइ, जाणंसि उवग्याएणं चक्खुसोयघाणजीहावलं उपहम्मइ ॥ छाया-आयुष्मन् ! अस्मिन शरीरे षष्टिः सन्धिशतं, सप्लोरारं मर्मशतं भवति। श्रीण्यस्थिदामशतानि, नव स्नाय शतानि, सप्तशिराशतानि, पञ्च पेशीशतानि भव धमन्यः, नवनवतिश्च रोमपशतसहस्राणि विनाकेशश्मश्रुभिः, सह केशश्मथ मिा सास्तिसी रोमकूपकोटयः । आयुष्मन ! अस्मिन शरीरे षष्टिः शिराणा, शतं नाभिप्रभवाणा उर्ध्वगामिनीना शिरस्युपगताना याः रसहरण्य इत्युच्यन्ते । यासा निरुपपातेन चक्षुःश्रोत्रधारा जिहाबलख भवति । यासाञ्चोपघातेन चक्षःश्रोत्रमाणजिहाथलमुपहन्यते । भावार्य-हे यायुष्मन ! इस शरीर में १६० सन्धिस्थान होते हैं। अंगुलि आदि साड़ियों के मिलने का जो स्थान है नसे सन्धिस्थान कहते हैं। एवं १०७ मर्मस्थान होते हैं। तथाड़ियों की ३०० मालायें होती है। इलियों को बन्धन करने वाली शिराये जो स्नायु कहलाती हैं वे १०० होती हैं। तथा सात सौ नसे होती हैं। पांच सौ पेशी होती हैं । जिन में रस बहता रहता है ऐसी गाड़ियाँ नी होती हैं। दाढी मुंछ के केशों के बिना निमागावे लाख रोम कूप होते हैं। और दाढी मूड के केशों को मिला कर साढे तीन कोटि रोमकूप होते हैं। पुरुष के हम शरीर में नाभि से सत्पन्न होने वाली सात सौ शिराय (नसे होती हैं उनमें से एक मी माठ शिराय नाभि से निकल कर शिर में जाकर मिलती है। पनको सहरणी कहते हैं। ऊपर जाने वाली जन नाड़ियों की महायता से मनुष्य के नेत्र, मोच, प्राण और जिल्हा का बल बुद्धि को प्राप्त होता है। तथा लन नाहियों के नष्ट होने से नेत्र, श्रोत्र, प्राण और जिला का यल नष्ट हो जाता है। पाउसो! इमम्मि सरीरए सहि सिरासयं नाभिप्पभवाणं अहोगामिणीण पायतलमुवगयाणं जाणंसि निरुवग्याए 38183333333333RBE EBEJAUSERS For Private And Personal use only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sun Mahavir Jain AradhanaKendra www.kobatiram.org Acharya Kensgegarn Syarmandir BEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE जंघाबलं भवई । ताणं चेव से उवग्याएणं सीसवेयणा अद्धसीसवेयणा मत्थयमूले अच्छीणि अधिज्जति । छाया-आयुष्मन् ! अस्मिन् शरीर पष्टिाशिराशतं नामिप्रभवाणा मधोगामिनीनी पादतलमपगताना, यासा निरुपधातेन अंधाधलं भवति । तासाथ तस्योपघातेन शिरोवेदना अद्ध शिरोवेदना मस्तकशल अक्षिणी अन्धी भवतः । भावार्थ-हे घायुष्मन् ! इस शरीर में १६० शिराय नाभि से निकल कर नीचे की ओर जाती ह पैर के तल में मिलती हैं। उन शिराओं की सहायता से जंधा का बल पत्पन्न होता है। उन शिराओं में जब किसी प्रकार का विकार पैदा हो जाता है तब शिर में पीया होती है। प्राधे शिर में पीड़ा होती है, मस्तक में शूल रोग हो जाता है और नेत्र अन्धे हो जाते हैं। आउसो ! इमंमि सरीरए सढिसिरासयं नामिप्पभवाणं तिरियगामिणीणं हत्थतलमुवगयाणं जाणंसि निरुवग्घाएणं बाहुबलं हवइ, ताणं चेव से उवग्धाएणं पासवेयणा पुट्टिवेयणा कुच्छिवेयणा कुच्छिसूले हवाइ । छाया-आयुष्मन ! अस्मिन् शरीरे षष्टिः शिराणां शतं नामिप्रभवाणी तिर्यग्गामिनीना हस्ततलमुपगतानां यासां निरुपघातेन बाहुबल भवति । तासाचैव तस्योपघातेन पार्श्ववेदना पृष्ठवेदना कुक्षिवेदना कुक्षिशूलं भवति । ____भावार्थ-हे आयुष्मन् ! इस शरीर में १६० नादियाँ नाभि से निकल कर तिर्की जाती हैं और वे हाथ के तल में जाकर मिल जाती हैं उनके ठीक रहने पर भुजा का बल बढ़ता है और उनमें विकार उत्पन्न होने पर पार्व पीड़ा, पृष्ठ पीड़ा, उदर पीड़ा और सदर में शूल रोग उत्पन्न होता है। REEDEEDEESEISBEE32E3ERESSADESENE For Private And Personal use only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उसो ! इमस्स जंतुस्स सडिसिरासयं नाभिप्यभवाणं अहो गामिणीयं गुदप्पविद्वाणं जाणंसि निरुवग्घाएणं पुरीसवाउ कम्मं पचतइ | ताणं चेव उवग्याएणं मुत्त पुरीसवाउनिरोहेणं अरिसा खुन्भंति पंडु रोगी हवइ । छाया - आयुष्मन् ! अस्य जन्तोः षष्टिः शिराणां शतं नाभिप्रभवाणा मधोगामिनीना गुदप्रविष्टानां यासां निरुपघातेन मूत्रपुरीष कर्म प्रवर्तते । तासाचीपपातेन गुरुपुरीषवायु निरोधेन अशसि क्षुभ्यन्ति पाण्डुरोगश्च भवति । भावार्थ - हे आयुष्मन् ! इस जन्तु की नाभि से उत्पन्न होकर नीचे की ओर जाकर गुदा में मिलने वाली १६० नाड़ियाँ होती हैं। जिनके ठीक रहने पर मूत्र, मन और वायु का निकलना उचित रूप में होता है और इनके विकृत होने पर मूत्र मल और वायु के निरोध हो जाने से बवासीर की व्याधि और पाण्डुरोग उत्पन्न होता है । आउसो ! इमस्स जंतुस्स पणवीसं सिराओ पित्तवारिणीओ पणवीसं सिराओ सिंभघारिणीओ दस सिराओ सुकधारिणीओ सत्तसिरासयाई पुरीसस्स तीसूणाई इत्थियाए वीसूणाई पंडगस्स । आउसो ! इमस्स जंतुस्स सहिरस्स आढयं वसाए श्रद्धाढयं मत्थुलु'गस्स पत्थो मुत्तस्स आइयं पुरीसस्स पत्थो पित्तस्स कुडवो सिंभस्स कुडवी सुकस्स अद्धकुडवो, जं जाहे दुई भवइ तं ताहे अइप्यमाणं भवइ, पंचकोडे पुरिले छ कोट्टा इत्थिया, नवसोए पुरिसे, इक्कारस सोया इत्थिया, पंच पेसीसयाई पुरिसस्स, तीसूणाई इत्थिया वीभ्रूणाई पंडगस्स । ( सूत्र १६ ) छाया - आयुष्मन् ! अस्य जन्तोः पंचविशतिः शिराः पित्राधारिण्यः पंचविंशतिः शिराः श्लेष्मधारिण्यः दशशिराः शुकधारिण्यः सप्त शिराशतानि पुरुषस्य, त्रिंशदूनाः स्त्रियाः, विंशत्यूनाःपंडकस्य । आयुष्मन् ! अस्य जन्तोः रुधिरस्याटकं, वसाया अर्द्धाढकं, मस्तुलुङ्गस्य प्रस्थः, मूत्र For Private And Personal Use Only ६२ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SA.Mahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirtm.org Acharya Sur Kallassagerar Gyanmandir स्थाढर्फ, पुरीषस्य प्रस्था, पिरास्य कुडयः । श्लेष्मणः कुडवः, शुकस्याद्ध कुडवः । यद् यदा दुष्ट भवति तत् तदा अतिप्रमाणं भवति । पञ्चकोष्ठः पुरुषः, षट्कोष्ठा स्त्रियः, नवस्रोताः पुरुषः, एकादशस्रोतसः स्त्रियः, पञ्च पेशीशतानि पुरुषस्य, त्रिशदूनानि खियाः, विशत्यूनानि पंडगस्य॥१६॥ भावार्थ हे आयुष्मन् ! इस जन्तु के शरीर में पित्त को धारण करने वाली नाड़ियाँ २५ होती हैं । २५ ही कफ को धारण करने वाली होती है, शुक्रधारिणी नाड़ियाँ दश होती हैं । ७०० शिरायें पुरुषों के शरीर में और ३० कम ७०० स्त्रियों के शरीर में और २० कम सात सौ नपुसक के शरीर में होती हैं। हे आयुष्मन् इस मनुष्य के शरीर में रक्त एक आढक होता है। चर्षी आधा ढक होती है। फिफिस एक प्रस्थ होता है। मूत्र एक आढक होता है । पुरीष एक प्रस्थ होता है। पित्त एक कुडव होता है। श्लेष्म एक कुडव होता है। शुक्र आधा कुडव होता है। इनमें से जो जब विकृत होता है तब उनके प्रमाण में न्यूनाधिकता होती है। पुरुष के शरीर में पांच कोष्ठक और स्त्री के शरीर में या कोष्ठक होते हैं। पुरुष के शरीर में नौ छिद्र और स्त्री के शरीर में ११ छिद्र होते हैं। पुरुष के शरीर में ५०० पेशियाँ होती हैं और स्त्री के शरीर में ३० कम ५०० एवं नपुसक के शरीर में २० कम ५०० पेशियाँ होती हैं। अभिंतरंसि कुणिमं जो, परिअउ बाहिरं कुजा । तं असुई दट्ठणं, सयावि जणणी दुगुछिया ॥३॥ छाया-अभ्यन्तरे कुणिमं यत, परावर्त्य बहिः कुर्यात् । तमशुचिं दृष्ट्वा, स्वकापि जननी जुगुप्सेत ॥३॥ भावार्थ-इस शरीर में जो अपवित्र मांस है उसको यदि शरीर में से बाहर निकाला जाय तो अपनी माता भी उसे देख कर घृणा करेगी, दूसरे की तो बात ही क्या है ? ||८|| माणुस्सयं सरीरं, पूइयमं मंससुक्कट्ठणं । परिसंडवियं सोहइ, अच्छायणगंधमल्लेणं ॥८४ ॥ For Private And Personal use only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shn Mahavir Jain Aradhana Kendra 3100130 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छाया - मानुष्यकं शरीरं, पूतिमद् मासशुक्रास्थिभिः । परिसंस्थापितं शोभते, अच्छादन] गन्धमाल्येन ||८४|| भावार्थ- -यह मनुष्य का शरीर अपवित्र है। मांस, शुक्र और हड्डी से बना हुआ है। यह वस्त्र, गन्ध और माला धारण करने से सुशोभित होता है ॥४॥ इमं चैव य सरीरं सीसघडीमेय मज्जमंसट्टियमत्थुलुंग सोणियवालु' डयचम्मकोसनासियसिंघाणयधीमलालयं अमगुणगं सीसघडी भंजियं गलंतरायणं करणो गंडतालुयं अवालुयाखिल्ल चिकणं चिलिचिलियं दंतमलमइलं बीभच्छदरिसणिज्जं अंसलगबाहुलगअंगुली अंगुट्ठगनहसंधि संघाय संधियमिगं बहुरसियागारं नालखंधच्छिरा अरोग एहारु बहुधमणिसंधिन पागडउदरकवालं कक्खनिक्खुडं कक्खगकलियं दुरंतं अद्विधमणि संताण संतयं सब्बओ समंता परिसवंतं य रोमक्रूवेहिं सयं असुई सभावओ परमदुग्गंधि कालिञ्जय अंतपित्तजर हियं य फोप्फस फेफस पिलिहोदर गुज्झकुणिम नवबिधिविधिवंतहिययं दुरहिपित्त सिंभमुत्तोसहाययणं सव्वच दुरंतं गुज्झोरुजाणुजंघापाय संघाय संघियं असुर कुणिम गंधि, एवं चितिजमागं बीभच्छदरिसणिजं अधुवं अनिययं असासयं सडण पडणविद्धंसाधम्मं पच्छा व पुराव अवस्स चइयव्वं निच्छयओ सुट्टुजाण एवं आइनिहणं एरिसं सव्वमणुयाणं देहं एस परमत्थओ सभाओ । (सूत्रम् १७ ) छाया - इदचैव शरीरं शीर्षघटी मेदोमज्जा मौसमस्तुलुङ्गशोणितयालुण्डक धर्मकोश नासिकाम लधिङ मलालयं अमनोज्ञकं शीर्षपटभजितं गलनयनं कर्णोष्टगण्टतालुकं अवालुल्लिचिकणं चिगचिगायमानं दन्तमलमलिनं बीभत्सदर्शनीयं अंसबाङ गुल्यङगुष्ठनसमन्धिसङ्घातसन्धितमिदं बहुर सिकागारं वालस्कन्धशिराऽनेक स्नायु बहुधमनि सन्धिनद प्रकटोदर कपाल कक्षनिष्कुटं कक्षागफलितं For Private And Personal Use Only ६४ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SA.Mahavir Jain AradhanaKendra www.kobatiram.org Acharya ShriKailassagarsunGyanmandir 165888310EWE EEEEEEEEEE दुरन्त अस्थिधमनि सन्तान सन्ततं सर्वतः समस्तात् परिखवञ्च रोमकः स्वयमशचि स्वभावतः परमदुर्गन्धि कालिजकान्प्रपित्त ज्वरदय फोप्फस फिफ्फिस सीहोदरगृह्य करिणम नबछिद्र द्रिग द्विगाय मान हृदयं दुर्गन्ध पिरासिभमूऔषधायतनं सर्वतो दुरन्तं गुह्योरुजानजछापाद सञ्चातसन्धितम् अशुचिकुणिमगन्धि एवं चिन्त्यमानं बीभत्सदर्शनीयं अध व मनियतमशाश्वतं शटनपटनविध्वंसनधर्म पश्चादा पूर्व वा अवश्य त्यक्तव्यं निश्चयतः सुष्टु जानीहि एतद् आदिनिधनम् । इदृशः सर्वमनुजाना देहः । एष परमार्थतः खभावः ॥ सूत्र १७॥ भावार्थ-यह मनुष्य का शरीर शिर की खोपड़ी, मेद, मज्जा, मांस, शिर का स्नेह, रक्त, बालुर हक (शरीर के भीतर का एक अवयव) चर्मकोश, नाक का मल और विष्ठा आदि क्षित मलों का घर है। यह सुन्दरता से वर्जित है। यह शिर की खोपड़ी के मल तथा नेत्र, कान, ओष्ठ, कपोल और तालु के मलों से परिपूर्ण है इसलिये यह अभ्यन्तर प्रदेश में अत्यन्त पिच्छिल है तथा धूप आदि लगनेपर चादर भी पसीना होजाने से पिच्छिल होजाता है। दांतों के मल से यह और अधिक मलिन है। जब रोग आदि के द्वारा मनुष्य कृश हो जाता है उस समय इस शरीर का दृश्य और अधिक बीभत्स (घृणासद) हो जाता है। भुजा, अङ्गलियाँ, अङ्ग प्ठ और नखों की सन्धियों से यह शरीर जोड़ा हुआ है। अनेक प्रकार के तरल रसों से यह परिपूर्ण है। तथा कंधे फी नसें और हड़ियों को बाँध रखने वाली अनेक शिरायें एवं हड़ियों की सन्धियों से यह शरीर बैंधा हुआ है। इस शरीर का उदर कडाह के समान है, जिसे सभी लोग प्रत्यक्ष देखते हैं। जैसे पुराने सूखे वृत्त में कोटर होता है उसी तरह दोनों भुजाओं के मूल में कक्ष प्रदेश है। उस कक्ष प्रदेश में बुरे लगने वाले बाल भरे होते हैं। इसका विनाश बहुत बुरी तरह होता है। यह हड़ियों और शिराओं के समूह से भरा हुआ है। जिस तरह सच्छिद्र घडे से जल सदा निकलता रहता है इसी तरह इस शरीर के रोम कूपों से हमेशा पसीने का जल For Private And Personal use only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SA.Mahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Sur Kallassagerar Gyanmandir ६६ निकलता रहता है। इसके सिवाय नाक आदि छिद्रों से भी मल निकलता रहता है। यह शरीर स्वभाव से ही अपवित्र और दुर्गन्धि से परिपूर्ण है। इसमें कलेजा, आँतड़ी, पित्त, हृदय, फेफड़ा, सीहा और उपर ये गुप्त मांस पिण्ड होते हैं एवं नव छिद्र होते हैं। इस शरीर में हृदय बराबर धड़कता रहता है। यह पित्त, श्लेष्म और मूत्र आदि दुर्गन्ध वाले पदार्थों से तथा खाये हुए औषधों से परिपूर्ण होता है । इस शरीर के सभी भागों में अन्त का भाग बुरा होता है तथा इस का विनाश बहुत ही बुरी तरह होता है। गुदा, नरू, जानु, जा और पैरों के समूह से यह शरीर जुड़ा हुआ है। यह अशुचि तथा मांस के गन्ध से युक्त है। यद्यपि यह अज्ञानवश अच्छा दीखता है तथापि विचार करने पर भयङ्कर रूप युक्त है। यह अनव, अशाश्वत और अनियत है यानी विनाशी है। कुष्ट आदि व्याधि उत्पन्न होने पर इसकी अंगुलियाँ गल कर गिर जाती हैं तथा तलवार आदि का घात होने पर भुजा आदि अङ्ग कट जाते हैं एवं क्षय दोजाना इसका स्वभावतः सिद्ध है। यह कुछ दिन के पश्चात् या पूर्व किसी दिन अवश्य ही नष्ट हो जाता है। यह मनुष्य शरीर आदि और अन्त वाला है। जैसा पहले वर्णन किया गया है वैसा ही इसका स्वभाव ।। सुकम्मि सोणियमि य, संभूयो जणणि कुच्छि मज्झमि । तं चेव अमिज्झरसं, नवमासे घुटियं संतो ।।८। शुके शोणिते च सम्भूतः जननी कुक्षिमध्ये । तम्चैवामेध्यरसं, नबसु मासेषु पिवन् सन ॥८५ ॥ भावार्थ-माता के बदर में शुक्र और शोणित के संयोग से यह उत्सन्न होकर उसी अपवित्र रस का पान करता हुआ नव मास तक गर्भ में स्थिर रहता है ।। ८५॥ जोणीमुह निष्फिडिओ, थणगच्छीरेण वद्धिो जाओ। पगई अमिज्झमइओ, कह देहो धोइउं सको ॥८६॥ HEISSWEISEBBENUSENE For Private And Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ San Mahavir Jan Adana Kendra www.kobatirtm.org Acharya Su Kasagar Gyanmandir छाया-योनिमुखनिफिटितः, स्तनकक्षीरण वर्धितो जातः । प्रकृत्या मेध्यमयः कर्ष देही धावित्' शक्यः ॥८६॥ भावार्थ-यह माता की योनि से निकल कर बाहर आया है और स्तन पान के द्वारा वृद्धि को प्राप्त हुभा। यह स्वभाव से ही अपवित्रतामय है, इसे धोकर शुद्ध करना शक्य नहीं है॥८६॥ हा अमुइसमुप्पण्णा य, निग्गया य जेण चेव दारेणं । सत्ता मोह पसत्ता, रमंति तत्थेव असुइ दारंमि ॥७॥ छाया-हाशचि समुत्पनाच, निर्गताश्च येग चैव द्वारेण । सत्त्वाः, मोहप्रसक्ताः रमन्ते तत्रैवाशचिद्वारे ॥ ८७ ॥ भावार्थ-दा, शोक १ यह प्राणो अपवित्रतामय स्थान में उत्पन्न होकर जिस द्वार से निकल कर बाहर भाया है, मोहवश युवा अवस्था में उसी अशुचि बार में रमण करता है ।। ८७ ॥ किह ताव घर कुडीरी, कविसहस्सहिं अपरितंतेहिं । वरिणजइ असुरविल, जपणंति सकलमूढेहिं || छाया-कयन्तावत् गृहकुख्याः , कविसहसू रपरितान्तः । वण्यते ऽशुचि बिल, जघनमिति स्थकार्यमढैः ॥८॥ भावार्थ:-जो अपवित्रता से परिपूर्ण बिल (योनि) से संयुक्त है ऐसे स्त्री के जघन को कविजन अचान्त भाव से क्यों कर वर्णन करते हैं ? वस्तुतः वे अपने स्वार्थवश मूढ़ हो रहे हैं ॥ ८॥ रागेण न जाणंति, वराया कलमलस्स निद्धमणं । ताणं परिणदंता, फुल्लं नीलुप्पलवणं व ॥६॥ छाया-रागेण न जानन्ति, वराकाः कलमलस्य निर्धमनम् । तत् परिनन्दन्ति, फुल्ल नीलोत्पलयनमिव ।। ८६ ॥ भावार्थ:-विचारे कपि रागवशीभूत होकर नहीं जानते हैं कि- यह स्त्री का अपन अपवित्र मन की बैनी है। इसीलिये अत्यन्त For Private And Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir dain AradhanaKendra www.koharirm.org Acharya.sin.kalinssagarmurnGyanmandir ६० विषयासक्त वे इसका वर्णन करते हैं और प्रफुल्लित नील कमल के समान इसको मनोहर बतलाते हैं ।। ६ ।। कित्तियमियं वराणे, अमिज्झमइयंमि वच्चसंघाए । रागो हुन कायव्यो, विरागमूले सरीरंमि 1800 छाया-कियन्मानं वर्णये, अमेध्यमये वर्चस्कसचाते । रागो हि न कर्त्तव्यः, चिरागमले शरीरे ॥६॥ भावार्थ:-कहां तक वर्णन किया जाय, यह शरीर अपवित्रता से भरा है, यह विष्ठा की राशि है तथा घृणा के योग्य है। अतः बुद्धिमान पुरुष को इसमें राग नहीं करना चाहिये ।। ६०॥ किमिकलसय संकिराणे, असुइमचुक्खे असासयमसारे । सेय मल पुन्वडंमी, निब्बेयं बच्चह सरीरे ॥६१|| छाया-मिकलशतसङ्कीरों, अशुच्यचक्षे अशाश्वतासारे । स्वेदमलपूर्वके, निवेदं मजत शरीरे ॥१॥ भावार्थ:-यह शरीर सैकड़ों कृमिकुल यानी कीदों से भरा हुआ है तथा अपवित्र मल से परिपूर्ण परम अशुद्ध है। एवं विनाशी और साररहित है। दुर्गन्धपूर्ण स्वेद से भीगा हुआ है। अतः मनुष्य को इससे विरक्त रहना चाहिये ।। ११ ॥ दंत मल करणगूहगसिंघाण मले य, लालमलबहुले । एयारिसे बीमच्छ, दुगुणिज्जमि को रागो ॥२॥ खाया-दन्तमल कर्णगूथफ सिधाण मले च, लालमलबहुले । एतादृशे वीभत्से, जगप्सनीये की रागः ।। ६२॥ भावार्थ:-यह शरीर दाँतों के मल, कान के मल, नाक के मन और विष्ठा के मल से परिपूर्ण है। तथा लाला यानी मुख के मलसे भरा हुआ है। अत: इस प्रकार बीभत्स (घृणास्पद) और निन्दनीय शरीर में क्या प्रेम किया जाय. को सडण पडण विद्ध किरिण, विसण चयण मरण धम्ममि । देहमि अहिलासो, कुहिय कडिण कट्ठभूयंमि।।३।। SE3333333333333 EUISESEIEN 2008 For Private And Personal use only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir dain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya.sin.kalinssagarmurnGyanmandir छाया-कः शटन पतन विकिरण विध्वंसन च्यवन मरणध । देहेऽभिलापः, कथित कठिन काष्ठ भूते ॥३॥ भावार्थ:-यह शरीर कुष्ट आदि व्याधि होने पर गल कर गिर जाता है। तलवार आदि के प्रहार होने पर कट कर गिर जाता है। यह स्वभाव से ही नश्वर है। रोग बादि होने पर क्षीण हो जाता है। इसके हाथ पैर आदि अवयव नष्ट हो जाते हैं तथा एक दिन पूर्ण रूपेण यह मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार सड़े हुए कठिन काष्ठ की तरह इस शरीर में अभिलाष रखना क्या है ? ॥ १३ ॥ कागसुणगाण भक्खे, किमिकुलभते य बाहिमचे या देहमि मच्छभत्ते, सुसाणभत्तम्मि को रागो ॥६४|| छाया-काकवानयोर्भक्ष्ये, कृमिकुल भक्तेच व्याधिभक्ते च । देहे मत्स्यभक्ते, श्मशानभने च को रागः ॥४॥ भावार्थ:-यह शरीर काक और कुत्तों का भक्ष्य है तथा कीड़े, व्याधि और मछलियों का भी भोजन है तथा श्मशान में रहने वाले गीध भादि का भय है रोमे शरीर में राग रखना क्या है॥४॥ असुइ अमिज्म पुगणं कुणिमकलेवर कुडिं परिसवंति । आगंतुयसं ठवियं, नवछिडमसासयं जाणे । ॥शा छाया-अशुचि अमेध्यपूर्ण, कुणिम कलेवर कुटी परिसवदिति । आगन्तुकसंस्थापितं, नवच्छिद्रमशाश्वतं जानीहि ॥६५॥ भावार्थ:-यह शरीर अपवित्र है, अपवित्र वस्तुभों से पूर्ण है। मांस और हड्डी का घर है। चारों ओर इस शरीर में मत्त निकलता रहता है। माता पिता के रज वीर्य से सपन्न हुआ है। नव छिद्रों से यह युक्त है। यह स्थिर नहीं हैं ऐसा जानो ॥ ५ ॥ पिच्छसि मुहं सतिलयं, सविसेसं रायएण अहरेणं । सकडक्खं सवियार, तरलच्छिं जुब्बणिस्थीए ॥१६॥ छाया–पश्यसि मुख सतिलक, सविशेषं रागवताधरेण । सकटाक्षं सविकार, तरलाक्षं युवस्त्रियाः ॥ ६ ॥ BEESUSESBEHEERESETESEBESESSERE For Private And Personal use only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ San Mahavir Jain Arhana Kendra www.koharirm.org Acharya Sur Kassegarmur Gyarmandir भावार्थ-तुम तिलक और कुकुम आदि के लेपन से सुशोभित तथा पान की लालिमा से रजित भोष्ठ से मनोहर युवती स्त्री के मुख को काम विकार के साथ सकटाक्ष और चन्चल नेत्रों द्वारा देखते हो ।। ६६ ॥ पिच्छसि बाहिरमहूं, न पिच्छसि उजरं कलिमलस्स । मोहेण नच्चयंती, सीसघडी कंजियं पियसि ॥१७॥ छाया-पश्यसि बाबमर्थ, न पश्यसि मध्यगतं कलिमलस्य । मोहेन नृत्यन शीर्षघटी काजिक पिबसि ॥७॥ भावार्थ- भाई ! तुम बाहर के पदार्थ को देखते हो, परन्तु अन्दर अपवित्र मल भरा हुमा है उसे नहीं देखते। विषय के मोहवश नाचने लगते हो और अपवित्र मस्तक के रस को चुम्बनादि द्वारा पान करते हो ।। ६७ ॥ सीसपडी निग्गाल, जं निहसि दुगुकसि जंय । तं चेव रागरत्तो मृढो, अश्मच्छिी पियसि ||८|| छाया-शीर्षघटी निर्गाल, यनिष्ठीयसि जुगुप्ससे यच । तच व रागरक्तो, मूढोऽतिमूपिछतः पिवसि ॥८॥ भावार्थ-जिस मुख के थूक को तुम स्वयं बाहर थूक देते हो और जिससे घृणा करते हो उसी निन्दित पदार्थ को कामासक्त तथा अत्यन्त मोहित होकर तीव्र आसक्ति के साथ पान करते हो॥१८॥ पूल्य सीसकवालं, पूइयनास य पूइदेहं य । पुइयछिड्डविछि', पुइयचम्मेण य पिणद्ध ।। ६६ ॥ छाया-पूतिकशीर्षकपाल, पूतिफनासाथ पूतिदेहञ्च । पूतिकरिद्रविवृद्ध', पतिकधर्मणा च पिनद्धम् ॥६६ भावार्थ-शिर की खोपड़ी अपवित्र है, नासिका अपवित्र है, सभी अङ्ग प्रत्यक्ष अपवित्र हैं तथा छोटे छोटे छिद्र भी अपवित्र हैं तथा अपवित्र चमड़ में यह समस्त शरीर ढका हुआ है | | For Private And Personal use only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir dain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Sur Keilassagarmur yamandir अंजण गुण सुविसुद्धं, रहाणुब्बट्टणगुणेहिं सुकुमालं, पुप्फुम्मीसियकेसं, जणेइ बालस्स तं राग ॥ १०॥ छाया-अजनगुणसुविशुद्ध', स्नानोद्वर्तनगुणेः सुकुमार । पुष्पोन्मिश्रितकेशं, जनयति बालस्य तद्रागम् ॥१०॥ भावार्थ:-आँखें अञ्जन लगाने से तथा अङ्ग प्रत्यङ्गों में भूषण धारण करने से एवं स्नान उवर्तन आदि शरीर के संस्कारों से तथा केशों में पुष्प धारण करने से कृत्रिम सुन्दरता से पूर्ण नायिका का मुख अज्ञानी जीव को राग उत्पन्न करता है ।। १०० ।। जं सीसपूरउत्ति य, पुफाई भणंति मंदविमाणा। पुष्पाई चिप ताई, सीसस्स य पूरय सुणह ॥१०१।। छाया-यानि शीर्षपूरकानीति च, पुष्पाणि भणन्ति मन्दविज्ञानाः । पुष्पाण्येव तानि, शीर्षस्य च पूरकं शृणत ॥११॥ भावार्थ:-कामासक्त पुरुष जिन पुष्पों को मस्तक का प्रक यानी भूषण बतलाते हैं वे पुष्प वस्तुत: मस्तक के परक नहीं हैं ये तो पुरुष ही हैं। मस्तक के पूरक यानी पूर्ण करने वाले क्या पदार्थ हैं? सो मैं बतलाता आप सुने ।। १०१।। मेश्रो बसा य रसिया, खेल सिंघाण ए य छुभ एयं । अह सीस पूरओ भे, नियग सरीरंमि साहीणो॥ १०२ । छाया-मैदो वसा च रसिका, खेल सिंघानकच क्षिपैतान । अथ शीर्षपूरको भवता, निजक शरीरे स्थाधीनः ।।१०२॥ भावार्थ:-मेंद, चर्बी, रसिका (पीव), खंखार और नाक का मन ये सब आपके शिर को पूरण करने वाले है, ये सब आपके आधीन हैं अतः अपने शरीर के ऊपर इन्हें नठा उठा कर आप डाल लीजिये । बस इससे अपने शिर को भूषित हुआ समझ लीजिये ॥ १०२॥ सा किर दुप्पडिपूरा, वञ्चकुटी दुप्पया नवच्छिद्दा । उकडगंधविलित्ता, बालजणो अइमुच्चियं गिद्धो ॥१३॥ For Private And Pemanat Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ san Manavi din Aranana Kendre www.kobatirtm.org Acharya Sur Kassegarmur Gyarmandir छाया-सा सलु दुष्प्रतिपूरा, वर्चस्कुटी द्विपदा नयछिद्रा । उत्कटगन्धविलिप्ता, बालजनोऽतिमर्छितं गृद्धः ॥१०॥ भावार्थ-यह शरीर विष्ठा की कुटी है। इसका पूरण करना अशक्य है। यह दो पैर और नव छिद्रों से युक्त है। इसमें असहा दुर्गन्ध भरा हुभा तथापि भवानी जन इस कुत्सित शरीर में अत्यन्त श्रासक्त हो रहे हैं ॥१०३।। जं पेमरागरतो, अवयासेऊण गूढमुत्तोलि । दैतमलचिकणंग, सीसघड़ीकजियं पियसि ॥१०४ ॥ छाया-यस्मात् प्रेमरागरक्तः, अवकाश्य पुनः गढ मुसोलिम । दन्तमलपिकणाझ', शीर्षपटीकाम्जिकं पिबसि ॥१०४॥ भावार्थ-अज्ञानी जीव कामगग से अनुरञ्जित होकर नायिका की योनि और अपने लिंग को उघाड़ कर दाँत तथा शरीर के मन से चिकण शरीर का पालिंगन करते हैं। तथा शिर के ख? अपवित्र रस को पान करते हैं ॥ १०४ ।। दंतमुसलेसु गहणं, गयाण मंसे य ससयमीयाणं । बालेसु चमरीणं, चम्मणहे दीवियाणं य ॥१०५॥ छाया-दन्तमुशलेषु प्रहयां, गजाना मासे च शशकमृगाण।। बालेषु च चमरीणा, चर्मनसे दीपिकानाञ्च ॥१०५॥ भावार्थ-मनुष्य गण दाँतों के लिये हाथी को और मांस के लिये शशक और मग को तथा बाल के लिये चमरी गाय को और धर्म नख के लिये व्याघ्र को प्रहण करते हैं। अतः इनके अंग तो सर्वसाधारण के भोग के काम में आते हैं परन्तु मनुष्य के अङ्ग प्रत्यङ्ग भोग में नहीं आते हैं। इसलिए मनुष्य को इस शरीर में आदर न रखते हुए धर्म का आचरण करना चाहिये ।। १०५ ।। पूइयकाए य इह, चवणमुहे निचकालावीसत्थो । आइक्खसु सम्भावं, किम्मिसि गिद्धी तुम मूढ ॥१०६।। छाया-पूतिक कार्य चेह, ब्यवनमुखे नित्य कालविश्वस्तः । आख्याहि सद्भाव, किमसि राखस्त्वं मूढ़ ! ॥१०६॥ SEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE For Private And Personal use only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Son Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Sari K a rl Gymrandir 39393000300002393323333333333333333 भावार्थ-मुर्ख ! यह शरीर अपवित्र पदायों का घर है तथा मरयाशील है। इसमें सदा विश्वास करते हुए तुम क्यों आसक्त हो रहे हो ?इसका सत्य कारण बताओ ॥ १०६ ॥ दंताबि अकज्जकरा, बाला वि य वड्डमाण वीभच्छा | चम्म॑वि य बीमच्छ, भण किं तंसि तं गो रागं ॥१०७॥ छाया-दन्ता अप्य कार्यकराः, बाला अपि वर्धमानाः बीभत्साः। चर्माऽपि बीभत्स, मण कि तस्मिन् त्वं गतो रागम् ।।१०७॥ भावार्थ:-दाँत भी किसी काम के नही है यानी अपवित्र हैं तथा बाल भी बढ़े हुए घृणा के योग्य ही हैं एवं चर्म भी पृणास्पद है फिर बतलायो तुम इस शरीर में क्यों राग रखते हो ? ॥ १०७ ।। सिंभे पित्तं मुत्ते, गृहमि य वसाइ दंत कुडीसु । भणसु किमत्थं तुज्झ, असुइमि विवढिओ रागो॥ १० ॥ छाया-सिम्भे पित्त, मूत्र, गूथे व पसाया दन्तकुड्यासु । भण किमर्थ तथाशनी, विवर्षिता रागः ॥ १०८॥ भावार्थः-यह शरीर कफ, पित्त, मूत्र, विष्ठा, चर्थी और हड़ियों का घर है। बतलायो इस अपवित्र वस्तु में तुम्हारा राग क्यों अधिक हुआ है ॥१०८ ।। जंघडियासु ऊरू, पइडिया तडिया कडी पिट्ठी । कडियट्टिवेढियाई, अट्ठारसपिट्टि अट्ठीणि ॥ १०६ ।। छाया-जङ घास्थितयोरूरू, प्रतिष्ठितो तत्स्थिता कटिपृष्ठिः । कटचस्थि वेष्ठितान्यष्टादश पृष्ठ्यस्थीनि ॥ १०६ ॥ भावार्थः-जङ था की हड़ियों के कार ऊरु स्थित है और ऊक के ऊपर कटिभाग स्थित है तथा कटि के ऊपर पृष्ठभाग स्थित है और पृष्ठ में अठारह दहियाँ वेष्ठित हैं। शरीर का यही स्वरूप है ।। १०१।। THEHRESERSTATERITTENNISESENTSHRISTSHASTROH For Private And Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SA.Mahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Sa K asagarmur Gyarmandir दो अच्छि अट्टियाई, सोलस गीवट्ठिया मुणेयव्वा । पिट्ठी पइट्ठियायो, वारस किल पंसुली हुँति ॥ ११०॥ छाया-बै अचयस्थिनी, षोडशचीवास्थीनि ज्ञातव्यानि । पृष्ठिप्रतिष्ठिताः द्वादश, किल पंशुल्यो भवन्ति ।।११०॥ भावार्थ:- दो नेत्र की हड्डियाँ होती हैं और सोलह प्रोवा की हड़ियाँ होती हैं। एवं पीठ में स्थित बारह पसलियाँ होती हैं। अट्टिय कविणे, सिरणहारुबंधणे मंस चम्मलेव मि । विट्ठाकोडागारे, को. वष परोवमे रागी ॥ १११ ॥ छाया-अस्थि कठिने, शिरास्नायुबन्धने गौपचर्मलेपे । विष्ठाकोष्ठागारे, को वोरहोपमे रागः ॥११॥ भावार्थ:-हहियों के होने से जो कठिन है यथा शिरा और नसों के द्वारा जो बैंधा हुआ है एवं चमड़ा और मांस से जो लिप्त तथा विद्या का जो कोठागार है ऐसे पाखाने के घर के तुल्य इस शरीर में राग करना क्या है ? ॥ १११ ।। जह नाम वच्च कूवो, णिचं भिणिभिणिभणंतकायकली। किमिएहिं सुलुसुलायइ, सोएहिं य पूइयं वह ॥ ११२ ॥ छाया-यथानाम वर्च:कुपो, नित्यं भिणिभिरिएभएकाकलि | कृमिभिः सुलसुलायते, सोतीभिश्च पूतिकं वहति ॥१२॥ भावार्थ:-जैसे विष्ठा से भरा हुमा कुनों होता है, उसके पास काँव काँव करते हुए कौए परस्पर लड़ते रहते हैं और विष्ठा के कीड़े उसके अन्दर चलते रहते हैं जिससे सुन सुन शब्द होता रहता है तथा बदबूदार स्रोत बहते रहते हैं। उस कूप के समान ही इस शरीर की दशा रोगी अवस्था में और मरने पर होती है ।। ११२॥ उद्धियणयणं खगमुहविकट्टियं, विपहरणबाहुलयं । अंत विकट्टयमालं, सीस घडी पागडी घोरं ॥ ११३ ॥ छाया-उद्वतनयन, खगमुखविकर्शित विप्रकीर्णबाहुलतम् । अन्तर्विकर्षितमालं, शीर्षघटी प्रकटघोरम ॥१३॥ For Private And Personal use only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Sur Kallassagerar Gyanmandir भावार्थी-मरने के बाद इस शरीर के नेत्र को निकाल कर पक्षी अपनी चोंच से नोच लेते हैं। बता की तरह भुना प्रथिवी पर पड़ी रहती है। गीवन अँतमी निकाल लेते हैं। खोपड़ी घड़े के समान पड़ी रहती।सस समय यह शरीर बहुत ही भयङ्कर दिखाई देता है। ११३ ॥ भिणिभिणिभणं तसद, विसपियं सुलुसुलित ममोड । मिसिमिसिमिसंतकिमियं, थिविथिविथिवियंतचीमच्छ॥११४॥ छाया--भिणिमिणिभणच्छन्द, विसर्पितं सुलसुलत्मासपुटम् । मिसिमिसिमिसत्कमिक, विविविविधिवदन्त्रबीभत्सम । ११४॥ भावार्थ:-जब यह प्राणी मर जाता है तब इसके मृत कलेवर के ऊपर मक्खियाँ भिन् भिन् करती हैं, और अङ्ग प्रत्या ढीले होकर सूज जाते है। मांस समूह सड़ कर सल सल करता है और उसमें कीड़े उत्पन्न होकर चलते हैं जिससे मिसमिस का शन्न होता है और तड़ी सब कर सलसल करती है। इस कारण वह कलेवर बहुत ही घृणितरूप में दीखता है ।। ११५ ।। पागडियपंसुलीयं, विगराल सुकसंधिसंघायं । पडियं निच्चेयणयं, सरीर मेयारिस जाण ॥ ११५ ॥ छाया-प्रकटित पाशुलिक, विकराल शकसन्धिसक घातम् । पतितं निश्चेतनकं, शरीर मेताहर्श जानीहि ॥ १५ ॥ भावार्थ:-मरण के पश्चात् यह शरीर किसी स्थान में अचेतन होकर पड़ा रहता है, इसकी सारी पसलियाँ स्पष्ट दिखाई देती हैं। सन्धियाँ सूखी हुई होती है इसलिये यह बहुत ही भयङ्कर दिखाई देता है। हे भाई ! तुम शरीर को इसी तरह का समझो ।। ११५ ॥ बचाउ असुइयरं, नवहिं सोएहिं परिगलंतेहिं । आमगमनगरूवे, निव्वेयं वच्चह सरीरे ॥ ११६ ।। छाया-वर्चस्कादशुचितरं, नवमिः सोतीभिः परिगलभिः । आमक मञ्जकरूपे, निवेदं बजत शरीरे ॥ ११६॥ For Private And Personal use only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sun Mahavir Jain AradhanaKendra www.kobatiram.org Acharya Sur Kaliassagerar Gyanmandir भावार्थ:-यह शरीर विष्ठा के संसर्ग से तथा नव तारों से मल के निकलते रहने से महा अशुद्ध है। यह कच्चे घड़े के समान शीन नष्ट होने वाला है, इसलिये इससे विरक्त होजाना चाहिये ।। ११६ ।। दो हत्था दो पाया, सीसं उच्चंपियं कबंधमि । कलमल कोट्ठागारं, परिवहसि दुयादुयं वच्चं ॥ ११७॥ छाया-द्वी हस्ती द्वौ पादी, शीर्ष उचम्मितः कबन्धे । कलमलकोष्ठागार, परिवहसि द्रत द्रत वचः ॥ ११७॥ भावार्थ:-दो हाथ दो पैर और शिर इस धड़ में जोड़ा हुआ है। यह मल का कोष्वागार है। तुम विष्ठा को लिये हुए क्यों शीघ्रता पूर्वक विचरते हो? ॥११७॥ तं य किर रूववंत, वचंत रायमग्गमोइण्णं । परगंधेहिं सुगंधयं, मएणतो अप्पणो गंध ॥ ११८ ।। छाया-तण किल रूपबद्, नजद्राजमार्ग प्राप्तम् । परगन्धैः सुगन्धक, मन्यमान आत्मनो गन्धम् ॥११८॥ भावार्थ:-जिसका स्वरूप बताया गया है ऐसे इस शरीर को राजमार्ग के ऊपर जाते हुए देख कर तुम इसे रूपवान मानते हो तथा अन्य पदार्थों के गन्ध से सुगन्धित बने हुए इसके गन्ध को निज का गन्ध मानते हो ।। ११ ।। पाडलचंपयमल्जिय अगरुयचंदणतुरुकवामीसं । गंध समोयरन्तं, मगणतो अप्पणो गंधं ॥ ११६ ॥ छाया-पाटलचम्पकमक्षिकागुरुकचन्दनतुरुष्क व्यामिश्रम् । गन्धं समास्तरन्तं, मन्वान आत्मनो गन्धम ॥ ११६ ॥ भावार्थ:-गुलाब, चम्पा, चमेली, अगर, चन्दन और कस्तुरी के संयोग से उत्पन्न गन्ध चारों तरफ फैल रहा है, उसे तुम जा अपना गन्ध मान कर प्रसन्न होते हो।। ११६ ॥ 2E313EBEESBEEBIE3B3323333 For Private And Personal use only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Sa Kesegaran Gymandir सुहवाससुरहिगंध, बायसुह अगरुगंधियं अंगं । केसा एहाससुगंधा, कवरो से अप्पणो गंधो ॥ १२० ॥ छाया-शुभवाससुरभिगन्धं, घातसुखमगुरुगन्धितमङ्गम् । केशाः स्नानसुगन्धाः, कतरस्ते आत्मनी गन्धः ॥ १२०॥ मावार्थ:-तुम्हारा असुगन्धित चूर्ण लगाने से तथा अगर के धूप से धूपित होने से पर-निमित्तवश उत्तम गन्ध युक्त प्रतीत होता है। पवन के संयोग से पद शीतल सुखदायी प्रतीत होता है एवं तुम्हारे केश स्नान करने के पश्चात् सुगन्ध तैनादि के लेपन से सुगन्धित हो रहे हैं। बताओ इनमें तुम्हारा कौनसा अपना गन्ध है ॥ १२० ।। अच्छिमलो कएणमलो, खेलो सिंघाणो य पूओ य । असुई मुत्त पुरीसो, एसो ते अप्पणी गंधो ।। १२१ ॥ छाया-अक्षिमला फर्णमला, संला सिंहानकश्व पूतिकश्च । अशुची मत्रपुरीपी, एष ते भारमनी गन्धः ॥ १२१॥ भावार्थ:-आँखों का मल, कानों का मल, खंखार, नाक का मल, पीव ( रस्सी) पौर अशुचि मूत्र और विष्ठा ये ही सब तुम्हारे अपने गन्ध हैं ।। १२१ ।। जाओ चिय इमायो इत्थियायो अमोगेहि कइवर सहस्सेहिं विविहपासपडिबद्धं हि कामरागमोहहिं वएिणयाश्री लामो वि एरिसाओ, तंजहा, १ पगइविसमायो, २ पियवयणवल्लरीयो, ३ कइयवपेमगिरितडीओ, ४ अवराहसहस्स घरणीओ, ५ पभवो सोगस्स, ६ विखासो बलस्स,७सूणा पुरिसाणं, ८ पासो लजाए, 8 संकरो अविणयस्स,१० शिलयो थियडीणं, ११खणी पइरस्स, १२ सरीरं सोगस्स, १३ भेयो मज्जायाणं, १४ आसानो-रागस्स, १५ णिलो दुश्चरियाणं, १६ माईए For Private And Personal use only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sun Mahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Sur Kellegagamur yanmandir संमोहो, १७ खलणा गाणस्स, १८ चलणं सीलस्स, १६ विग्यो धम्मस्स, २० भरी साहूणं, २१ दूसणं आयारपत्ताणं, २२ भारामो कम्मरयस्स, २३ फलिहो सुखमग्गस्स, २४ भवणं दरिद्दस्स, २५ अवि याश्रो इमाश्रो श्रासीविसो विव कुवियानो, २६ मत्तगो विव मयणपरवसामो, २७ वाग्घीव दुट्ठहिययात्री २८ तणच्छन्न कूवो विव अप्पगासहिययाओ, २६ मायाकारो विव उवयारसयबंधश पउत्तीओ, ३० आयरियसविहि विव बहुगिज्झ सम्भावाओ, ३१ फुफुया विव अंतोदहण सीलाओ, ३२ नग्गयमग्गो विव अणबट्टियचित्चाओ, ३३ अंतो दुट्ठवणो विव कुहियहिययाओ, ३४ किएहसप्पो विष अविस्ससणिज्जाओ, ३५ संघारी विव छामायामो, ३६ संज्झम्भरागो विव मुहुत्तरागाओ, ३७ समुह वीचि विव चलस्सम्भावाप्रो, ३८ मच्छो विव दुप्परियतण सीलाओ, ३६ वाणरो विव चलचित्चाओ, ४० मच्च विव निबिसेसाओ, ४१ कालो विव हिरणुकंपाओ, ४२ वरुणो विव पास इत्थाओ,४३ सलिल मिव णिएणगामिणीयो, ४४ किवणो विष उत्ताण हत्थाओ, ४५ गरमी विव उत्चासणिज्जाओ, ४६ खरो विव दुस्सीलाओ, ४७ दुहृस्सो विव दुद्दमाओ, ४८ बालो विव मुहत्तहिययायो, ४६ अंधयारमिव दुप्पवेसाओ, ५० विसवल्ली विव अणल्लियणिजाओ, ५१ दुट्टगाहा विव वावी अणवगाहाओ, ५२ ठाणमट्ठो विव इस्सरो अप्पसंसणिजाओ, ५३ किंपागफलमिव मुहमहुराभो, ५४ रित्त मुट्ठी विव बाललोभणिजामो, ५५ मंस पेसी गहणमिव सोवहवामो, ५६ जलियचुडिली विव अमुच्चमाण दहया सीलाओ, ५७ अरिदृमिव दुलं घणिजाओ, ५८ कूड करिसावणो विष कालविसंवायण सीलाओ, ५६ चंडसीलो विव दुक्खरक्खियामो, ६० अइविसाओ, ६१ दुगुच्छियामो, ६२ दुरुषचाराभो, ६३ अगंभीराभो, ६४ अविस्ससणिजामो, ६५ प्रणवस्थियामो, ६६ दुक्ख KUSH BROER BESKENOSNEK For Private And Personal use only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Son Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Sri Kanagarmur Gyarmandir रक्खियामो, ६७ दुक्खपालियामो, ६८ अरइकरामो, ६६ ककसामो, ७० दड्ड्वेरामो, ७१ रूप सोहग्गमभोमचाभो, ७२ भुयगगइकुडिलहिययाओ, ७३ कतारगइट्ठाण भूयाओ, ७४ कुलसयणमित्तभेयणकारियाओ, ७५ परदोस परगासियामो, ७६ कयग्धामो, ७७ बलसोहियाओ, ७८ एगतहरणकोलायो, ७६ चंचलायो, ८० जोइ मंडोवरागो विव सहराग विरागाभो, ८१ अवि याई ताभो अंतरंग मंगसयं, ८२ अरज्जुश्रो पासो, ८३ भदारुया अडबी, ८४ अणलस्स शिलो, ८५ भइक्खा चेयरणी, ८६ अणामिया वाही, ८७ प्रवियोगो विप्पलामो, ८८ अरूब उबसग्गो, ८६ रहवंतो चित्त विम्भमो, ६. सवंगभो दाहो, ६.१ प्रणम्भया बजासणी, ६२ असलिल प्ववाहो, ६३ समुदरभो। छाया-या एव इमाः खियः अनेक कवियर सहस्र: विविधपाश प्रतिबदी कामरागमोहै। वर्णिताः । ता अपि ईदृश्यः तद् यथाप्रकृतिविषमाः, प्रियवचनववर्म्यः, केतवप्रेमगिरितटयः, अपराधसहस्रगृहाणि, प्रभवः शोकस्य, विनाशी बलस्य, शना पुरुषाणाम् , भाशो लज्जाया, संकरोऽपिनयस्य, निलयो निरुतीनाम , खनिरस्य, शरीरं शोकस्य, भेदो मादायाः, आचासो रागस्य, निलयो दुश्चरितानाम् । मातृकायाः समूह, स्खलना भानस्य, चलने शीलस्य, विनो धर्मस्व, अरिः साधूनाम , दूषणमाचारोपपमानाय . भारामा फर्मरजसा, परियो मोक्षमार्गस्य, भवन दारिद्रयस्य, अपि चेमाः माशीविष इव कुपिताः, मत्तगज इव मदनपरवशाः, व्याधीव दुष्टहृदयाः, तृणवरकूप इवाप्रकाशहदयाः, मायाकारकइयोपचारशतबन्धनप्रयोकयः, प्राचार्य सविधमिव पहु मापसभायाः, फुफक स्यान्तर्दहनशीला, नगमार्ग वानवस्थितपिता, अन्तदुटमण व कुभितहदयाः, कृष्णसर्प इवाविश्वसनीयाः, संहार इव परमाया:, सन्ध्यामराग इव मुखर्च रागा, समुद्रबीचीव चलस्वभावाः, मत्स्य व दुष्परिवर्तनशीलाः, वानर इव चलचित्साः, मृत्युरिव निर्षिशेषा, काल व निरनुकम्पाः, वरुण व पाशहरतार, BASHESHBASHISHTISTSTSESSISTARTHRITISHSS181 For Private And Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SA.Mahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirtm.org Acharya Sur Kallassagerar Gyanmandir सलिलमिव निम्नगामिन्या, कैपण योचान हस्ताः, नरक इव अस्त्रासमीयाः, खर इव दुशीला: दुष्टाव इव दुर्दमाः, बाल इव मुहर्गहृदयाः, अन्धकार इव दुष्प्रवेशार, विषयलीच अनाश्रयणीयाः, दुष्टयाहा वापी इव अनवगायाः, स्थानम्रप्ट ईश्वर इव अप्रशंसनीयाः, किंपाकफलमिव मुखमधुराः, रिक्तमुष्टिरिथ बाललोभनीया, मांसपेशीग्रहण मिव सोपद्रवाः, ज्वलितचुटिलीच अमुच्यमान दहनशीलाः, अरिष्टमिव दुर्लचनीयाः, कूटकार्षापण इय कालविसंवादनशीला, चराडशील इव दुःखरक्षिताः, अतिविषादा, जुगुप्सनीयाः, दुरुपचारा, अगम्भीरा, अविश्वसनीयाः, अमवस्थिताः, दुःखरक्षिताः, दुःसपालिताः, भरतिकराः, कर्कशा, दृढवैराः, रूपसौभाग्यमदोन्मताः, भुजगगतिकटिलहदया:, कान्तारगतिस्थागभूताः, कुलस्वजन मित्र भेदनकारिकाः, परदोषप्रकाशिका, तमाः, बलशोधिकाः, एकान्तहरणकोलाः, चम्बला, ज्योतिर्भागदोपराग इव मसरागविरागः, पिचतान्तरजभाशत, अरज्जुका पाशः, दासका अटवी, अनलस्य निलयः, अमीच्या पैतरणी, अनामिको व्याधिः, अवियोगो विषलापः, अरुप उपसर्गः, रतिमान् चिराविभ्रमः, सर्वाङ्गको दाहः, अनप्रका बजाशनिः, असलिलप्रवाहः, समुद्रयः। भावार्थ-अनेक प्रकार के सांसारिक बन्धनों के द्वारा जो बँधे हुए थे तथा कामानुराग से जो अत्यन्त मोहित थे ऐसे हजारों कवियों ने अपने अपमे काव्यों में स्त्रियों का वर्णन विस्तार के साथ किया है परन्तु मनका वर्णन सत्य नहीं है । अतः स्त्रियों का यथार्थ स्वरूप बतलाया जाता है स्त्रियों का हृदय स्वभाव से ही बक (कुटिल) होता है। वे मधुर वचन बोलती हैं परन्तु उनका हृदय मधुर नहीं होता, जैसे वर्षा ऋतु में पहाड़ी नदियाँ बड़ी तेजी के साथ बहती हैं उसी तरह इनमें कपटमय प्रेम का प्रवाह बड़ी तेजी के साथ वहता रहता है। खियाँ शोक की उत्पत्ति भा क्षेत्र है। खियाँ पुरुषों के बल को नाश करने वाली हैं और पुरुषों को वध करने के लिये वध्यशाम के समान हैं। For Private And Personal use only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Kesegaran Samander ८१ ENGISESSETTISITIESENRITTENEMIESTEE विद्वानों ने कहा है कि नियों दर्शन मात्र से चित को हर लेती हैं और स्पर्श करने से बल को हरण करती हैं तथा सा करने से। वीर्य का हरण करती।मता स्त्रियाँ प्रत्यक्ष हीराक्षसी है। खियाँ लजा का नाश कर देती हैं। खियाँ सविनय की राशि चौर कपट तथा पाखण्ड के घर है। खियों के कारण जगत में पैर होता हुआ देखा जाता है इसालये नियों और की खान है। खियाँ शोक का तो शरीर ही हैं। स्त्रियों के कारण मनुष्य कुल की मर्यादा का नाश कर देता है। एवं स्त्री के कारण मनुष्य अपनी संयम मर्यादा का भी नाश कर देता है। सियाँ राग और तुष के आधार हैं इनके कारण ही मनुष्यों में राग भौर ष उत्पन्न होते हैं। स्त्रियाँ दुश्चरित्र के घर हैं। इनके कारया मनुष्य का चरित्र प्रष्ट होजाता है। ये साक्षात् कपट की राशि हैं। हम साथ अधिक संसर्ग होने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र का भयंस हो जाता है। जो ब्रह्मचारी पुरुष इन खियों के साथ अधिक संसर्ग रखता है उसका प्राचयं व्रत अवश्य ही नष्ट होजाता है। अतः स्त्रियाँ प्रयचयं को नष्ट करने वाली हैं। स्त्रियां श्रत और चारित्र धर्म के बिघ्न स्वरूप हैं । जो महापुरुष मोक्षमार्ग के पथिक हे स्त्रियाँ उनके लिये लो महान् शत्रु हैं क्योंकि उनके चारित्र का नाश करने वाली हैं तथा उन्हें नरक आदि गतियों में गिराने वाली हैं। जो लोग प्रमचयं मावि उत्तम आचारों से सम्पन्न हैं, पन्हें खियाँ कलङ्कित कर देती हैं। जैसे बगीचे में पुष्पों का पराग अधिक होता है ससी तरह नियों के संसर्ग से पुरुषों में कर्मरूपी पराग अधिक होता है। इसलिये खियाँ कर्म रूपी पराग के लिये बगीचे के समान हैं। जैसे धर्मक्षा लगा देने से बार बन्द हो जाता है इसी तरह स्त्रो में मासक्त होने से मोक्ष का द्वार बन्द हो जाता है। इसलिये स्त्रियाँ मोक्ष मार्ग के लिये अर्गला स्वरूप हैं। जैसे सर्प महान् क्रोधी होता है इसी तरह स्त्रियाँ भी अत्यन्त कोधिनी होती हैं। जैसे पामज हावी अपने वश में नहीं होता है उसी तरह खियाँ काम के वशीभूत होती हैं। जैसे बाघिन का हृदय दुष्ट होता है, उसी तरह For Private And Personal use only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Son Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya S a garmur yamandir खियों का दय भी दुष्ट होता है। जैसे तृणों से ढका हुआ कूप मप्रकाश युक्त होता है ससी तरह माया से ढका हुमा इन का हदय पुरुषों के द्वारा जाना नहीं जाता है। जैसे मृग को पकड़ने वाला व्याध अनेक कपटों का प्रयोग करके मृग को पा लेता है उसी तरह विविध प्रकार के कपटों का प्रयोग करके खियाँ पुरुषों को फँसा लेती हैं। स्त्रियों का हृदय किसी भी प्रकार से जाना नहीं जा सकता है। जैसे फण्डे को अग्नि वाहक होती है उसी तरह स्त्रियाँ भी पुरुष के अन्तः करण को दुःखाग्नि द्वारा जलाने वाली होती है। जैसे पर्वत का विषम मार्ग समतल नहीं होता है उसी तरह इनका हदय भी सम नहीं होता है किन्तु विषम यानी अत्यन्त चश्चल होता है। जैसे भूतों से प्रस्त पुरुष का आचरण चञ्चल होता है, कहीं भी वह ठहरता नहीं है। इसी तरह इन त्रियों का चित्त भी किसी एक वस्तु पर स्थिर नही रहता है। जैसे दुष्ट व्रण के अन्दर का प्रदेश दूषित होता है उसी तरह इनका भी हत्य पित होता है। कृष्या सर्प के तुल्य ही खियाँ भी विश्वास के योग्य नहीं हैं। खियाँ अपने कपट को छिपा कर रखती है जैसे महामारी अपनी मारकशक्ति को छिपाये रखती है। सन्ध्याकाल में जैसे बोकी देर तक मेघों में रक्त वर्ण उत्पन्न होता है, उसी तरह इनमें भी थोड़ी देर के लिये राग नत्पन्न होता। जैसे समुद्र की तरंगें स्वभावतः चन्चल होती हैं इसी तरह खियों का चित्त भी स्वभावतः चञ्चल होता है। जैसे मछली को पीछे की भोर लौटाना सरल नहीं होता उसी तरह स्त्रियों को भी उनके हठ से निवृत्त करना सरल नहीं होता है। वानर के समान स्त्रियों का चित्त चनक्ष होता है। मृत्यु में और स्त्री में कोई भेद नही है। जैसे दुर्भिक्षकाल दया से शन्य होता अथवा सर्प जैसे निर्दय होता है उसी तरह स्त्रियाँ भी निर्दय होती हैं। जैसे परुणदेवभपने हाथ में पाश लिये रहता है, उसी तरह खियाँ पुरुषों को फंसाने के लिए सदा ही काम का पाश लिये रहती है। जन जिस तरह स्वभाव से ही नीचगामी होता है उसी तरह स्त्रियाँ भी नीचानुरागिणी होती हैं। For Private And Personal use only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SA.Mahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Suur Klasagarmur Gyarmandir ८३ जैसे दोन जन सदा ही द्रव्य के लाभ से हाथ पसारे रखते हैं उसी तरह स्त्रियाँ भी सदा ही लोभ वश हाथ पसारे रहती हैं। दुष्ट कर्म करने वाली स्त्रियाँ सदा ही नरकवत् भय उत्पन्न करती रहती हैं। विष्ठा भक्षण करने वाले गर्दभ के समान त्रियों का भाचरण दुष्ट होता है। दुष्ट घोड़ा जैसे वश में नहीं किया जा सकता है उसी तरह खियाँ भी वश नहीं की जा सकती हैं। बालक की तरह इनका राग क्षणिक होता है। अन्धकार में प्रवेश करना जैसे कठिन होता है उसी तरह खियों के कपट पूर्ण व्यवहार को जानना कठिन होता है। विष की लता के समान ही खियाँ आश्रय लेने योग्य नहीं हैं। दुष्ट प्राह से सेवित बावड़ी जैसे प्रवेश के योग्य नहीं होती है उसी तरह त्रियाँ भी सेवन करने के योग्य नहीं हैं। अपने पद से भ्रष्ट प्राम तथा नगर का स्वामी अथवा चारित्र से भ्रष्ट साधु अथवा तत्सूत्र प्ररूपमा करने वाला आचार्य जैसे प्रशंसा के योग्य नहीं होता है उसी तरह खियाँ प्रशंसा के योग्य नहीं होती। जैसे किंपाकक्ष का फल, खाते समय मधुर प्रतीत होता है परन्तु शीघही प्राण को हरण कर लेता है उसी तरह नियाँ विषय भोग करते समय मधुर प्रतीत होती हैं परन्तु परिणाम में दुख स्पन्न करती हैं। जैसे खाली मुट्ठी को देख कर बालक को लोभ सत्पन्न होता है उसी तरह त्रियों को देख कर अज्ञानी जीव ही लुब्ध होते हैं। जैसे किसी पक्षी ने कही मांस का टुकड़ा पाया हो तो दूसरे दुष्ट पक्षी उस मांस खण्ड को ले लेने के लिये बहुत सपब करते हैं उसी तरह सुन्दर स्त्री के कारण नाना प्रकार के उपद्रव हुमा करते हैं। जैसे मछलियों के लिये मांस का प्रहण उपद्रव युक्त होता है इसी तरह खियों का प्रण सपतव युक्त होता है। जैसे जलती हुई तृण की पूली जलाने पानी होती है उसी तरह त्रियाँ स्वभाव ही जलाने वाली होती है। घोर पाप जैसे चलान करने योग्य नहीं होता है किन्तु ससका फल दुःख भोग करना ही पड़ता है उसी | तरह सी में भासक्त पुरुष को स्त्री द्वारा उत्पादित दुःख भोग करना ही पड़ता है। जैसे नकली पैसा समय पर धोखा देता है उसी For Private And Personal use only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir dain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Sur Kallassagerar Gyanmandir वह खियों चोखा देती हैं। कैसे तीन कोधी को पास में रखना कठिन है उसी तरह नियों का रपामा कठिन है। खियाँ दारा विषाद के कारण है, अथवा अकार्य करने में खियों को जरा भी खेद नहीं होता है। कोई कोई अपने पति को विष देरक मार मालती हैं। जो पुरुष स्त्री में अनुरक्त होता है उसकी दूसरे विषयों में भी भासक्ति उत्पन्न हो जाती है। में अत्यन्त भासक्ति होने से नोक की छठी नरक भूमि तक गति होती है। स्त्रियों को जब अपमी इन्द्रियों की तृप्ति के लिये विषय की प्राप्ति नहीं होती है तब उन्हें विषाद उत्पन्न होता है। कोई कोई खियाँ क्रोधित होकर स्वयं विषभक्षण कर लेती हैं। तीव्र पुण्य वामे मुनियों की दृष्टि में स्त्रियाँ यमराज की तरह प्रतीत होती है। मुनिजन स्त्रियों से घृणा करते हैं। त्रियों की सेवा कठिन होती है। इनमें गम्मीरता नहीं होती है। स्त्रियाँ विश्वास के योग्य नहीं होती हैं। खियाँ एक पुरुष में चित्त नहीं रखती है। युवावस्था में इनका रक्षण करना कठिन है। माझ्यावस्था में इनका पालन भी कठिन है। इस लोक और परलोक में त्रियाँ दुःख उत्पन्न करती हैं। सियों के कारण संसार में दारण बैर की उत्पत्ति होती है। खियाँ रूप और सौभाग्य के गर्व से मत्त रहती हैं। सर्प की गति की तरह इनका हलय कुटिल होता है। जहाँ व्याघ, सिंह और सर्प आदि हिंसक प्राणी निवास करते हैं ऐसे घोर जाल में अकेले जाना और यहाँ निवास करना जैसे महान भय को सत्पन्न करता है। उसी तरह नियों के साथ अकेले जाना या निवास करना दारुण भय का कारण होता है। स्त्रियाँ स्वजन तथा मित्रादि वर्ग में फूट वसन कर देती हैं। अन्य के दोष को मतपट प्रकट करती हैं। सपकार को नहीं मानती हैं। पुरुष के वीर्य का विनाश कर देती हैं। दुराचारिणी खियाँ जार पुरुष को विषय सेवन करने के लिये एकान्त में ले जाती हैं। जैसे जाली सुधर किसी कन्द पावि भच्य पदार्थ को पाकर बसे एकान्त में ले जाकर खाता है उसी तरह खियाँ भी एकान्त में पुरुषों का उपभोग करती हैं। इन सियों में अत्यन्त चञ्चलता होती है। जैसे अग्नि का पात्र अग्मि के संसर्ग से रक पर्श होता है उसी तरह For Private And Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Suur Klasagarmur Gyarmandir -खियाँ वन और भूषण आदि के संयोग से गग उत्पन्न करने वालो यानी सुन्दरी प्रतीत होती हैं। खियाँ पुरुषों में परस्पर की मैत्री को विविध प्रकार से नष्ट कर देती हैं अथवा पुरुषों में प्राचर्य तथा चारित्र के प्रति जो राग होता है उसे अनेक प्रकार से नष्ट करती है। स्त्रियाँ बिना रस्सी का बन्धन है तथा वृक्ष आदि से शून्य घोर कान्तार यानी अटबीस्वरूप हैं अथवा काष्ठ रहित अटवी जैसे मृगतृष्णा का कारण होती है उसी तरह स्त्रियां भ्रान्ति का कारण होती हैं अथवा जैसे काष्ठ रहित अटवी कभी जलती नहीं है उसी तरह खियाँ पाप करके पश्चात्ताप नहीं करती हैं। खियाँ पुरुष को अकर्तव्य करने में प्रवृत्त कर देती हैं। स्त्रियां अदृश्य यानी जो देखने में नहीं आती। ऐसी वैतरणी नदी हैं। स्त्रियाँ असाध्य रोग के समान पीड़ा देने वाली हैं। खियाँ माता पिता आदि के वियोग हुए बिना ही रुदन के समान हैं। खियाँ रूप रहित उपसर्ग हैं। त्रियाँ काम भोग में सुख बुद्धि नत्पन्न करती हैं जो वस्तुतः भ्रान्ति । त्रियाँ समस्त शरीर को जलाने वाली दाहनामक व्याधि हैं। खियाँ बिना मेध के वनपात हैं। स्त्रियाँ चाहे विवाहित हों या अविवाहित हों, अलङ्कत हों या अलङ्कार रहित हों, मुण्डित हों या अमुण्डित हों, किसी भी अवस्था में हों, मोक्ष की इच्छा करने वाले ब्रह्मचारी मुनियों को सवा बर्जित करने योग्य हैं। खियाँ जलशुन्य प्रवाह हैं। अतएव कामी जन बिना ही जल के इन में हुए मरते हैं। जैसे समुद्र के वेग को कोई भी सहन नहीं कर सकता, इसी तरह इनके उपद्रव को भी कोई सहन नहीं कर सकता है। स्त्रियाँ परमस्ने हियों को भी जुदा करा देती हैं। अवि याई तासि इत्थियाणं अणेगाणि नामनिरुत्ताणि पुरिसे कामरागपडिबद्धे गाणपबिहेहि उवायसयसहस्से हिं वह बंधण माणयंति, पुरिसाणं नो अएणो एरिसी भरी अस्थिति णारीयो, तंजहा गारीसमा न पराणं अरीमो SEBESEBBSIDIEEBIESSE EE2E330353SSESSE For Private And Personal use only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sun Mahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Sa K asagarmur Gyarmandir XHHEEEEEEEEEEEEHASESSERE णारीओ, णाणाविहहिं कम्मेहि सिप्पियाईहिं पुरिसे मोह तित्ति महिलायो, पुरिसे मते करंतित्ति पमयाश्री, महंतं कलिं जणयंतित्ति महिलियामी, पुरिसे हावभावमाईहिं रमंतित्ति रामाश्रो. पुरिसे अंगाणुराए करंतित्ति अंगणाओ, खाणाबिहेसु जुद्धभंडण संगामाडवीसु मुहाण गिराहणसीउएह दुक्खकिलेसमाईएसु पुरिसे लालंतित्ति ललणामी, पुरिस जोगणिोएहिं बसे ठावंतित्ति जोसियायो, पुरिसे णाणाविहेहिं भावहिं बएणतित्ति बणियाश्री, काई पमतभावं, काई पणय सविब्भम, काई ससई सासिब्ब ववहरंति. काई सच ब्ब, रो रो इव काई पयएसु पणमंति, काई उवणएसु उवणमंति, काई कोउयणमंति, काई सुकडक्खांणरिक्खिएहि सविलासमहुरेहि उवहसिएहिं उपग्गहिएहिं उबसद्देहिं गुरुगदरिसणेहिं भूमिलिहण विलिहणेहि य आरुहण णतणेहि य बालय उवगृहणेहि य अंगुलिफोडणथणपीलणकडितडजायणाहिं तज्जणाहिं य मवि याई तानो पासो व ववसिउ, जे पंकुव्व सुप्पिउं, जे मच्चु ब्व मरिलं, जे अगणिञ्च डहिउं, जे असिब्ब छिज्जिउं जे ॥ सूत्र १६ ॥ छाया-अपि च तासाखी अनेकानि नामनिरुक्तानि, पुरुष कामराग प्रतिबद्ध नानाविधैरुपायसहसं वध बन्धनमानयन्ति, पुरुषाणानान्य ईहशोऽरिरस्तीति नार्यः | नारी समाः न नराणा मरयः सन्तीति नार्यः। नानाविधैः कर्मभिः शिल्पकादिभिश्च पुरुषान् मोहयन्तीति महिलाः । पुरुषान् मत्तान कुर्वन्तीति प्रमदाः। महान्तं कलिं जनयन्तीति महिलिकाः। पुरुषान् हावभावादिभी रमयन्तीति रामाः। पुरुषान् अशानुरागान् कुर्वन्तीति अमगा। नानाविषेषु युद्धभण्डनसंग्रामाढवीष मधार्णग्रहणशीतोष्णदुरूवलेशादिष पुरुषान लालयन्तीति ललनाः। पुरुषान् योगनियोगः वशे स्थापयन्तीति योषितः । पुरुषान नानाविधैर्भायः वर्णयन्तीति वनिताः। काश्चित प्रमतभावं, काश्चित् प्रणतं सविनम, काश्चित् सशब्दं For Private And Personal use only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir dain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Sur Keilassagarmur yamandir METERSIMIRESTMINISTERSTRESSENSEENE भासीव व्यवहरन्ति । कश्चित् शत्ररिव, रोर इव काश्चित् पादयोः प्रणमन्ति, काश्चित् उपनतेषु नमन्ति, काश्चित् कौतुकं नमन्ति, काश्चित् | सुकटाक्षनिरीक्षितः सविलासमधुरैः उपहसितैः उपगृहीतः उपशम्दै गुरुकदर्शन भूमिलेखनविलखनैश्च आरोहणनर्तनैश्च बालकोपगृहनैश्च अङ्ग लिस्फोटनस्तनपीडन कटितटयातनाभिः तर्जनाभिश्व, अपि च ताः पाशवत् व्यवसितु, याः पङ्कपत् क्षेप्तु, या मृत्युरिच मारितु, याः अग्निरिव दग्धु मसिरिवच्छेच, याः॥१७॥ ___ भावार्थ:-जिनका स्वरूप पहले कहा गया है और आगे भी कहा जाने वाला है उन खियों में जो अत्यन्त अधम दासी और दुराचारिणी स्त्रियाँ है उनके नामों की व्याख्या अनेक प्रकार से की जाती है। अधम स्रियाँ पुरुषों को, जो उनमें भासक हैं, हजारों उपायों द्वारा वध और बन्धन का भाजन बनाती हैं, इसलिये उनके बराबर पुरुषों का दूसरा शत्र न होने से वे 'नारी' कहलाती हैं। पुरुषों का खियों के तुल्य दुसरा शत्रु नहीं है इसलिये वे नारी कहलाती है। खियाँ विविध प्रकार के कम तथा शिल्प के द्वारा पुरुषों को मोहित कर लती है इसलिये उन्हें 'महिला' कहते है। खियाँ पुरुष को पागन की तरह बना देती हैं इसलिये वे 'प्रमदा' कहलाती है। स्त्रियाँ महान् कलह उत्पन्न करती हैं इसलिये वे महिलिका' कही जाती हैं। ये हाव भाव आदि लीलाओं द्वारा पुरुषों को रमण कराती है इसलिये 'रामा' कही जाती है। वे अपने आज प्रत्यङ्गों में पुरुषों को आसक्त करती हैं इसलिये 'अना' कही जाती हैं। पुरुषगण नियों के कारण परस्पर मार पीट करते हैं, गालागाजी करते हैं, परस्पर शस्त्र का प्रहार करते हैं, घोर जङ्गलों में भ्रमण करते हैं, बिना प्रयोजन ऋण लेते हैं, सर्दी और गर्मी का कष्ट सहन करते हैं। इसी तरह वे अनेक प्रकार के क्लेशों का अनुभव करते हैं। त्रियाँ पुरुषों को उक्त कार्यों में प्रवृत्त करती हैं इसलिये वे 'ललना' कहलाती हैं। ललनाएँ कामातुर करके पुरुष को अपने परा में कर लेती हैं। वे अपने वचन, शरीर, हास्य और अङ्गविक्षेप बादि द्वारा तथा मन में कामविकार उत्पादन द्वारा पुरुषों को For Private And Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Sur Kallassagerar Gyanmandir अपने वश में कर लेती है एवं कितनी ही खियाँ वशीकरण विद्या द्वारा पुरुषों को अपने अधीन कर लेती है इसलिये ये योषित' कहलाती हैं। वे अनेक प्रकार की चेष्टाओं द्वारा पुरुषों के मन में कामाग्नि को प्रदीप्त करती हैं इसलिये 'वनिता' कहलाती हैं। कोई श्री पुरुषों के पतन के लिये उन्मत्त की तरह व्यवहार करती है। कोई पुरुषों को अपने पाश में फंसाने के लिये विलास के साथ प्रवृत्ति करती है और कामीजन को झुका लेती है। कोई शब्द पूर्वक श्वासरोगी की तरह अपनी चेष्टा दिखलाती है और इसके द्वारा पुरुषों को स्नेहयुक्त करना चाहती है। कोई अपने पति को भयभीत करने के लिये शत्र की तरह प्रवृत्ति करती है। जैसे दरिद्र पुरुष दुसरे के पैरों पर पड़ता है नसी तरह कोई स्त्री कामातुर होकर पुरुषों के पैरों में गिर जाती है। कोई हास्य उत्पन्न करने के लिए वाणी और नेत्र को विकृत करती है। कोई कटाक्ष तारा अवलोकन करती हुई मूखों को पतित करती है। कोई बिलास के साथ मधुर वचन बोल कर पुरुषों को मोहित करती है। कोई हास्यजनक चेष्टा द्वारा पुरुषों कों हास्य उत्पन्न करती है। कोई मालिशन और लिङ्गमहरण द्वारा पुरुष में अपना प्रेम दिखलाती है। कोई सुरतकाल में अत्यन्त मधुर ध्वनि करती हुई कामियों के कामराम की वृद्धि करती है। कोई स्त्री अपने मोटे स्तन और विशाल नितम्ब आदि दिखा कर दूर रहने वाले पुरुष को भी वश में कर लेती है। स्त्रियाँ अपने गुरु जन को भी धोखा देकर अकर्तव्य में प्रवृत्त कर देती है। वे रुदन वाग पुरुष में स्नेह सत्पन्न करती है तथा अपने पिता के घर में जाने के अवसर पर पुरुष का राग अत्यन्त पढ़ानी हैं। वे अपने दाँतों को दिखा कर पुरुषों को वशीभूत कर लेती हैं। वे रति कलह द्वारा पुरुषों को रमण कगती हैं। वे शृङ्गार प्रधान गीत गाकर साधुओं को भी वश में कर लेती हैं। वे काजल, विकार तथा सजल नेत्रों द्वारा कामी पुरुष को मोहित कर लेती हैं। वह मोहित पुरुष उन स्त्रियों की गुलामी करने लगता है और इसके लिये अपराध का पात्र भी बनता है। खियाँ पैरों द्वारा पृथ्वी पर अक्षर लिखती हैं और स्वस्तिक आदि चिन्ह बनाती है। वनके द्वारा वे पुरुषों को अपने गोपनीय विषयों की | SARESEA2EEEEEEEEEEEE2 For Private And Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir dain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya.seKailassagarsunGyanmandir SEHEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE! सूचना करती हैं। कोई बाँस पर चढ़ कर नाचती है, कोई पृथ्वी पर नृत्य करती है और इनके द्वारा पुरुषों में पाश्चय उत्पन्न करती हैं। बिगड़ी हुई खियाँ गुप्त रूप से का मियों के साथ दोस्ती करके अपनी कामपिपासा को शान्त करती हैं। अथवा वे अपने केशों को विभूषित करके तथा 0 वनों को पहिन करके काम के गुलाम अधम पुरुषों को वश में करके उनके द्वारा बैल की तरह अपना कार्य कराती हैं तथा बन्दर की तरह कामियों को बचाती है। कोई कोई खियाँ स्वार्थ की पूर्णि न होने पर अपने प्राणों का भी त्याग कर देती है। स्त्रियाँ अपने अङ्ग और अङ्गलियों का स्फोटन तथा स्तनों का पीढ़न एवं नितम्ब का पीड़न, अपने हाथों से अथवा वक्रगति नारा करती और इनके द्वारा कामियों के चित्त को कम्पित करती हैं। कोई अपनी अङ्गलियों को, मस्तक को तथा तृण धादि को चञ्चल करती हुई उनके द्वारा पुरुषों में काम पोड़ा उत्पन्न करती है। कोई वन भूषण आदि के द्वारा उज्वल वेष बना कर तथा भूषणों का शब्द उत्पन्न करके एवं मार्ग में विलास के साथ गमन द्वारा तथा दूसरे भी विविध उपायों द्वारा पुरुषों को आकर्षित कर लेती हैं। इसलिये संयमचारियों को इनका सङ्ग सर्वथा त्याग देना चाहिये। इस संसार में बहुत बिगड़ी हुई स्त्रियाँ है, जो पुरुषों को नागपाश की तरह बन्धन में डालने के लिए प्रवृत्ति करती हैं। वे इस भव में तथा परभव में पुरुषों के बन्धन का कारण बनती हैं। एवं पुरुषों को घोर कीचड में फंसा देती हैं। स्वच्छन्द आचरण करने वाली खियाँ मृत्यु की तरह अपने पति को मार डालने का प्रयत्न करती हैं। वेश्याएं अग्नि की तरह कामियों को जला देती हैं। युवती परिवाजिकाएं भी कई ऐसी होती हैं जो कपट करने में बड़ी निपुण होती और तलवार के समान साधुओं को छिन्न भिन्न करने में प्रवृत्त रहती है। असिमसि सारच्छीयं, कंतारकवाडचारय समाणं । घोर निउर्रवकंदुरचलंत बीमच्छ भावार्थ ॥ १२२ ॥ For Private And Personal use only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir dain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Sur Kellegagamur yanmandir छाया-असिमपिसदृशाणा, कान्तारकपाट चारकसमानाम् । घोरनिकुरम्बकन्दर चलद् बीभत्स भावना ॥१२२ ॥ भावार्थ:-खियाँ तलवार के समान तीक्ष्ण और कज्जल के समान मलिन होती हैं। जैसे तलवार निर्दयता के साथ मनुष्यों कोदन करती है, इसी तरह खियाँ मनुष्यों के लिए इस लोक तथा परलोक में दारण दुःख उत्पन्न करती हैं। जैसे काजल श्वेत वस्तु को काला कर देता है, उसी तरह खियाँ कुलीन सवाचारी पुरुषों को कलङ्कित कर देती हैं। खियाँ गहन वन, कपाट तथा कारागृह के तुल्य होती हैं। जैसे गहन वन व्याघ्र आदि हिंसक प्राणियों का पाश्रय होने से भयदायक होता है, ससी तरह स्त्रियाँ पुरुषों के धन जीवन भादि के विनाश के कारण होने से भयदायक होती है। जैसे किसी मकान या गली का फाटक बन्द कर देने से उसके भीतर कोई प्रवेश नहीं कर सकता है। इसी तरह खियाँ धर्म रूपी मार्ग को बन्द कर देती हैं। अतः स्त्री में भासक्त पुरुषों का धर्म मार्ग में प्रवेश करना अशक्य है। जैसे कारागृह (जेल) में रहने वाले दुःख भोगते हैं। उसी तरह स्त्रियों में आसक्त जीच दुःका भोगते हैं। इसलिये खियाँ पुरुषों के लिए कारागृह के तुल्य हैं। खियों के हृदय का भाव कपट से परिपूर्ण होता है। वह इस प्रकार भयदायक है जैसे अगाधजल चलता हुमा भयकर होता है। अत: बुद्धिमानों को इनका विश्वास नही करना चाहिये ।। १२३ ।। दोस सयगागरीणं, अजससय विसप्पमाण हिययाणं । कइयव पएणत्तीणं, ताणं अण्णायसीलाणं ।। १२३ ।। छाया-दोषशत गर्गरिकाणा, अयशः शतविसर्पहृदयाणाम । कैतव प्रज्ञप्तीना, तासा मशातशीलानाम् ॥ १२३॥ भावार्थ-त्रियों सैकड़ों प्रकार के दोषों का पड़ा है। इनके हृदय में सैकड़ों बुराइयाँ चलती रहती है। इनका विचार कपट से पूर्ण होता और बड़े बड़े विद्वान् भी इनके स्वभाव को नहीं जान सकते है ।। १२३ ।। For Private And Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SA.Mahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Sur Keilassagarmur yamandir भएणं स्यंति अण्णं स्मंति, अएणस्स दिति उन्लावं । अण्णो कडअंतरिओ, अण्णो पयर्डतरे ठविओ ॥ १२४ ।। छाया-अन्य रजयन्ति अन्य रमयन्ति, अन्यस्य ददत्युल्लापं । अन्यः कटान्तरितः, अन्यः पटकान्तरे स्थापितः।।१२४॥ भावार्थ-कई नियाँ दो तीन या इससे भी अधिक पुरुषों के साथ प्रेम रखती हैं, एक को प्रेम के साथ देख कर काम उत्पन्न करती हैं और अन्य के साथ कीड़ा करती हैं एवं तीसरे के साथ वार्तालाप करती हैं एवं किसी को चटाई के पर्दे के अन्दर छिपा कर रखती हैं और किसी को कपड़े के पर्दे के अन्दर छिपा देती हैं। उनके दुराचार का ज्ञान जब होजाता है तब जानने वाले पति भादि को विष देकर मार डालती हैं। वे अपने भाव को समझाने के लिये अपने जार के सम्मुख पृथ्वी पर कुछ लिखती हैं अथवा तृण नखारती ॥ १२४ ॥ गंगाए वालुयाए, सायरे जलं हिमवयो य परिमाणं । उग्गस्स तवस्स गई, गम्भुप्पत्तिं य विलयाए ॥ १२५॥ सीहे कुडवुयारस्स, पुट्टलं कुकुहाईयं अस्से । जाणंति बुद्धिमंता, महिला हिययं ण जाणंति ॥ १२५ ॥ छाया-गमाया वालुका, सागरे जलं हिमवतः परिमाणम् । उपस्य तपसः गति, गोत्परिश्च वनितायाः ॥ १२ ॥ सिहे कुएब्युकार, पुदद्दल कुक हादिकमश्वे । जानन्ति बुद्धिमन्त, महिलाहदर्य न जानन्ति ।। १२६॥ भावार्थ-गङ्गा नदी की बालुका को, समुद्र के जल को एवं हिमवान पर्वत के परिमाण को बुद्धिमान् पुरुष जानते हैं, तवा तीव्र तपस्या का फल, स्त्री के गर्भ का बालक, सिंह के पीठ का बाल, अपने पेट के पदार्थ तथा गमन के समय भश्व का शब्द, इनको भी बुद्धिमान पुरुष जानते हैं परन्तु स्त्री के अन्तःकरण को नहीं जान सकते हैं। For Private And Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ san Manavi din Aranana Kendre www.kobatirm.org Acharya Sur Keilassagarmur yamandir SAHNEDENSTANDES परिस गुणजुचाणं, तायं कझ्यच्चसंठियमणाणं । ण हु मे बीससियव्वं, महिलाणं जीवलोगम्मि ॥ १२७ ।। छाया-दशगुणयुक्ताना, तासां कपिवदस्थितमनसाम् । न हि भवद्भिर्विश्वासितव्यं, महिलाना जीवलोके ॥१२७॥ भामर्थ-ऐसे गुणों वाली स्त्रियाँ होती हैं। उनका मन वानर की तरह चश्चल होता है। इसलिये इस जीवलोक में आप लोगों को त्रियों का विश्वास कदापि नहीं करना चाहिये ॥ १२७ ॥ निएणयं यखलयं, पुप्फेहि विवक्षियं व आरामं । निद्धियं य घेणु, लोएवि अतिल्लियं पिंडं ।। १२८ ।। छाया-निर्धान्यकच खलक, पुष्पैर्विवर्जित चारामम । निदग्धिका च धेनुः, लोकेऽपि अतैलकं पिण्डम् ॥ १२८॥ भावार्थ-जैसे बिना अन्न का स्खल आनी अन्न के शोधन का स्थान एवं बिना पुष्प के बगीचा और बिना दूध की गाय तथा बिना तेल का पिण्ड शोभनीय नहीं होता है, इसी तरह स्त्रियाँ भी सुखहीन होने से अशोभनीय होती है ।। १२८॥ जेणंतरेणं निमिसंति, लोषणा तक्खणं य विगसंति । तेणंतरे वि हियर्य, चित्त सहस्साउलं होई॥ १२६ ॥ छाया-नान्तरेण निमिषन्ति, लोचनानि तत्क्षणच विकसन्ति । तेनान्तरेण हृदयं, पिरासहस्राकुल भवति ॥ १२६ ।। भावार्थ-जो प्रियतम नियों का स्वार्थ प्राणपण से पूरा करता है ससके बिना उसके प्रफुल्लित नेत्र सङ्कचित होजाते हैं परन्तु जब बह सनका स्वार्थ सम्पादन नहीं करता है तब सस के बिना उसके नेत्र प्रफुल्लित होजाते हैं। जो श्रियाँ कुशीला होती हैं उनका चित्त अपने पति में कभी नहीं रहता है किन्तु हजारों अन्य पुरुषों में घूमता रहता है॥ १२६ ।। जहाणं पहाणं, निविण्णाणं निविसेसाणं । संसार मूयराणं, कहियपि निरत्थर्य होइ ॥१३॥ For Private And Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SA.Mahavir Jain AradhanaKendra www.kohatiram.org Acharya Sur Kallassagerar Gyanmandir SENASISIMEENSHEMMAUMBUK छाया-जहाना वृद्धाना, निर्विज्ञानाना निर्विशेषाणाम् । संसारशकराणा, कथितमपि निरर्थकं भवति ॥ १३०॥ भावार्थ-जो द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से मूर्ख हैं, जो अत्यन्त वृद्ध हैं, जो विशिष्ट ज्ञान से हीन है, जो विशेष (भेव) को नहीं जानते हैं, ऐसे जो लोग सांसारिक विषयों में शूकर की तरह आसक्त हैं उनके प्रति अच्छी शिक्षा देना निरर्थक होजाता है ।। १३० ।। किं पुरोहिं पियाहिं वा, अत्थेणवि पिंडएण बहुएणं । जो मरणदेसकाले, न होइ आलंबणं किंचि ।। १३१ ।। चाया-कि पुत्री पितृभिर्वा, अर्थेनाऽपि पिण्डितेन बहुकेन । यद् मरण देशकाले, न भवत्यालम्बन किश्चित ॥१३१॥ भावार्थ-पुत्र, पिता अथवा बहुत संग्रह किये हुए धन से ही क्या लाभ है? जो मरण समय उपस्थित होने पर कोई भी सहायक नहीं होता है ।। १३१ ॥ पुत्ता चयंति मित्ता चयंति, भजा वि णं मयं चयइ । तं मरणदेसकाले, न चयइ सुविधज्जियो धम्मो ॥ १३२॥ छाया-पुत्रास्त्यजन्ति मित्राणि त्यजन्ति, भार्यापि मृतं त्यजति । तस्मिन मरणदेशकाले, न त्यजति सुन्यर्जितो धर्मः॥१३२॥ भावार्थ-जब मरणकाल भाजाता है तब प्राणी को पुत्र, मित्र और स्त्री सभी छोड़ देते हैं, एक धर्म ही ऐसा है जो भली भाँति भाचरण किया हुआ नहीं छोड़ता है। धम्मो ताणं धम्मो सरणं, धम्मो गई पाडा य । धम्मेण सुचरिएण य, गम्मइ अयरामरं ठाणं ॥ १३३ ॥ छाया-धर्मखाणे धर्मः शरणं, धो गति प्रतिष्ठा च । धर्मेण सुपरितेन प, गम्यतेऽजरामर स्थानम् ॥ १३३ ॥ For Private And Personal use only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sun Mahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirtm.org Acharya Sur Kallassagerar Gyanmandir SEESSESES DEBESANSESESSESESESSE भावार्थ-धर्म ही अनर्थ का नाशक और अर्थ का सम्पादक है। धर्म ही रक्षक है, धर्म ही गति और आधार है। धर्म का भलीभाँति पाचरण करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।॥ १३३ ॥ पीइकरो वपणकरो, भासकरो जसकरो य अभयकरो। निव्वुइकरी य सययं, पारित बिइअभी धम्मो ।। १३४॥ छाया-प्रीतिकरो वर्ण करो, भाकरी (भाषाफरो) यशस्करश्वाभयकरः। निशिकरच सतत, परत्र द्वितीयो धर्मः ॥ १३४॥ भावार्थ-धर्म प्रीति को नत्पन्न करता है,एक दिशा में फैलने वाली कीर्ति उत्पन्न करता है अथवा शरीर में उत्तम वर्ण उत्पन्न करता है, कान्ति सत्पन्न करता है, वचन की पटुता तथा मधुरता आदि गुणों को उत्पन्न करता है, समस्त विशाथों में फैलने वाली कीर्ति उत्पन्न करता है, निर्भयता एवं कर्मक्षय रूप परमानन्द को उत्पन्न करता है तथा मनुष्यों को परलोक मे सदा सहायता करता है॥१३४ ।। अमरवरेसु अणोवमरूवं, भोगीवभोगरिद्धी य । विएणाणकायमेव य, लब्भइ सुकरण धम्मेण ॥१३५ ॥ छाया-अमरपरषु अनुपमरूप, भीगोपभोगऋद्धीश्च । विज्ञानज्ञानमेव च, लभ्यते सुकतंन धर्म ॥१३५॥ भावार्थ-विधिपूर्वक धर्माधारण करने से मनुष्य महान् ऋद्धि वाले देवताओं में जाकर सुन्दर रूप तथा भोग, उपभोग, द्धि और ज्ञान विज्ञान का लाभ करता है देविंदचकवाद्वित्तणाह, रजाई इच्छिया भोगा । एयाई धम्मलाभा, फलाई जं चापि निम्बाण ॥ १३६ ॥ छाया-देवेन्द्ररकरित्यानि, राज्यानि इप्सिता भोगाः । एतानि धर्मलाभात् , फलानि यथापि निर्वाणम् ॥१३६॥ भावार्थ-देवेन्द्र पद, चकवत्ती पद, राज्य, ईसित भोग, ये सब धर्माचरण के फल है तथा निर्माण भी इसी का फल ।। १३६ ।। For Private And Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavirdain ArmdhanaKendra Achse Keserun yendir www.kobatirm.org माहारो उच्छासो, संधि सिराश्री य रोमकूबाई । पिचं रुहिर सुक', गणियं गणियप्पहाणेहि ॥ १३७ ॥ छाया-माहार उच्छवासः सन्धिः, शिराव रोमकूपाः । पित्त रुधिर शुक, गणितं गणितप्रधान ॥१३७॥ भावार्थ-यह मनुष्य सौ वर्ष की आयु पाकर कितना अन्न खाता है तथा कितने श्वास लेता है और इसके शरीर में कितनी सम्धियाँ, कितनी नसे, कितने रोम कूप, तथा कितने पित्त, रक्त, और शुक्र होते हैं यह गणित करके पहले बता दिया गया है॥१३७।। एवं सोउं सरीरस्स, वासाणं गणियप्पागडमहत्थं । मुक्खपउमस्स ईहह, समत्तसहस्स पत्तस्स ॥ १३॥ छाया-एतत श्र त्या शरीरस्य, वर्षाणां गणित प्रकट महार्थम । मोक्षपद्मस्य ईहवं, सम्यक्त्वसहस्र पत्रस्य ॥१३८॥ भावार्थ-गणित के हिसाब से जिसका कार्य प्रकट कर दिया है ऐसे शरीर की आयु के वर्षों को सुन कर मोक्षरूपी कमल पुष्प के लिये प्रयत्न करना चाहिये। उस मोक्षरूपी कमल के सम्यक्त्व ही सहस्र पत्ते हैं ॥ १३८ ।। एयं सगड सरीरं, जाह जरा मरण वेयणा बहुलं । तह पत्तह काउं, जे जह मुचह सम्बदुक्खाणं ॥ १३ ॥ छाया-एतत् शकटशरीर, जातिजरामरणवेदना बहुलं । तथा गृहणीत कार्य, यदयथा मुश्चत सर्वदुःखेभ्य ॥१३॥ भावार्थ-यह शरीर जन्म, जरा, मरण और वेदनामों से भरा हुआ एक प्रकार का शकट (गाडी) है। इस को पाकर ऐसा कार्य करो जिससे समस्त दुःखों से मुक्ति मिले ।। १३६ ।। इति 'तन्दुलवेयालिय' समच। - श्री रामकृष्ण प्रिंटिंग प्रेस, नसीराबाद रोड अजमेर । For Private And Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SinMahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Sur Kallastegarul Syarmandir एक का वेलाम्बर साजानी जैन पुस्तक मिलने का पता:श्री श्वेताम्बर साधुमार्गी जैन हितकारिणी संस्था, रांगड़ी चौक, बीकानेर (राजपूताना) श्री अगरचन्द भैरोदान सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था, टठारों की गवाह, बीकानेर ( राजपूताना) For Private And Personal use only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SALMahavir-Jain ArmananaKendra www.kobalirm.org Acha Kansacar url Gyarmandir श्री श्वेताम्बर साधुमार्गी जैन हितकारिणी संस्था, बीकानेर द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ १. वृत्तबोध (संस्कृत छन्द शास्त्र विषयक अन्ध) R.माराम सचबीपिका परमोधरके बैग से जन सिवान्ताकाशान कराने वालामन्धा 10) ३. मोक्षाक्ष नाममाक्षा (प्रारम्भिक संस्कृत के विद्याथियों के लिए मेन पद्धति से रचा हुथा संस्कृत कोष ) ४. भाकोबा (विस्तार सहित) (अप्राप्य) ५.श्रीमानाचार्य पूण्य भी जवाहरनाशजी म.सा का जीवन चरित्र प्रथम भाग छ. जवाहर विचार सार (बीमाहराचार्य के जीवन चरित्र का बसरा भाग) ७. चन्दुल बयालीय पश्णा (गर्भ विषयक विचार का विस्तृत वर्णन) ) ८ श्री जिन जम्माभिषेक (तीर्थकर भगवान् के जन्म कल्याणक का विस्तृत वर्गान) (इप रहा हे) प्राप्तिस्थान श्री श्वेताम्बर साधुमार्गी जैन हितकारिणी संस्था, श्री अगरचन्द भैरोवान सोठया रांगड़ी चौक, बीकानेर जैन पारमार्थिक संस्था, बीकानेर FORPIVAHEAndpermararuseurry Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www kat .org ARENS Kelegacaranmandir