________________
San Mahavir Jain Arhana Kendra
www.koharirm.org
Acharya Sur Kassegarmur Gyarmandir
भावार्थ-तुम तिलक और कुकुम आदि के लेपन से सुशोभित तथा पान की लालिमा से रजित भोष्ठ से मनोहर युवती स्त्री के मुख को काम विकार के साथ सकटाक्ष और चन्चल नेत्रों द्वारा देखते हो ।। ६६ ॥
पिच्छसि बाहिरमहूं, न पिच्छसि उजरं कलिमलस्स । मोहेण नच्चयंती, सीसघडी कंजियं पियसि ॥१७॥
छाया-पश्यसि बाबमर्थ, न पश्यसि मध्यगतं कलिमलस्य । मोहेन नृत्यन शीर्षघटी काजिक पिबसि ॥७॥
भावार्थ- भाई ! तुम बाहर के पदार्थ को देखते हो, परन्तु अन्दर अपवित्र मल भरा हुमा है उसे नहीं देखते। विषय के मोहवश नाचने लगते हो और अपवित्र मस्तक के रस को चुम्बनादि द्वारा पान करते हो ।। ६७ ॥
सीसपडी निग्गाल, जं निहसि दुगुकसि जंय । तं चेव रागरत्तो मृढो, अश्मच्छिी पियसि ||८||
छाया-शीर्षघटी निर्गाल, यनिष्ठीयसि जुगुप्ससे यच । तच व रागरक्तो, मूढोऽतिमूपिछतः पिवसि ॥८॥
भावार्थ-जिस मुख के थूक को तुम स्वयं बाहर थूक देते हो और जिससे घृणा करते हो उसी निन्दित पदार्थ को कामासक्त तथा अत्यन्त मोहित होकर तीव्र आसक्ति के साथ पान करते हो॥१८॥
पूल्य सीसकवालं, पूइयनास य पूइदेहं य । पुइयछिड्डविछि', पुइयचम्मेण य पिणद्ध ।। ६६ ॥ छाया-पूतिकशीर्षकपाल, पूतिफनासाथ पूतिदेहञ्च । पूतिकरिद्रविवृद्ध', पतिकधर्मणा च पिनद्धम् ॥६६
भावार्थ-शिर की खोपड़ी अपवित्र है, नासिका अपवित्र है, सभी अङ्ग प्रत्यक्ष अपवित्र हैं तथा छोटे छोटे छिद्र भी अपवित्र हैं तथा अपवित्र चमड़ में यह समस्त शरीर ढका हुआ है | |
For Private And Personal use only