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San Mahavir Jain Aradhana Kendre
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भावार्थ:--शीत, उष्ण, मार्गगमन, क्षुधा, पिपासा, भय, शोक और नाना प्रकार के रोग इनके द्वारा तीस वर्ष में से आधे १५ वर्ष व्यर्थ नष्ट होजाते हैं ॥ ७॥
एवं पंचासीई पट्ठा, पण्णरसमेव जीवंति । जे हुँति वाससइया, न य सुलहा वास सयजीवा ।। ७८ ॥
लायाः-एवं पञ्चाशीतिर्नष्टानि, पञ्चदश एवं जीवन्ति । ये भवन्ति वर्षशतिकाः, न च सुलभा वर्षशतजीवाः ।। ७८॥
भावार्थ:--पूर्वोक्त प्रकार से पचासी वर्ष तो व्यर्थ ही व्यतीत होजाते हैं, इसलिये जो सौ वर्ष तक जीता है वह वस्तुतः १५ ही वर्ष जोता है और सौ वर्ष तक जीने वाला पुरुष भी विरला ही होता है । ७८ ॥
एवं हिस्सारे माणुसत्तणे, जीविए अहिवडते । न करेह धम्मचरणं, पच्छा पच्छाणुताहे हा ।। ७६ ॥
छाया:-एवं निस्सारे मानुषत्वे, जीवितेऽधिपतति । न कुरुत धर्मचरणं, पश्चात् पश्चादनुतप्स्यथ हा / ॥ ७६. ।
भावार्थ:--पूर्वोक्त प्रकार से यह मानुष जीवन साररहित है और जीवन व्यतीत होता हुआ चला जा रहा है तो भी आप लोग धर्म का पाचरण नहीं करते हैं यह दुःख का विषय है। आपको अन्त में पश्चात्ताप करना पड़ेगा ।। ७६ ॥
घुटुंमि सयं मोहे, जिणेहिं बरधम्मतित्थमग्गस्स । अत्ताणं य न जाणह, इह जाया कम्मभूमीए ।। ८० ॥ हाया:-पुष्टे स्वयं मोहे, जिनपरधर्मतीर्थमार्गे । आत्मानं च न जानीत, इह जाता कर्मभूमी ॥ ८०॥
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