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________________ Shn Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६ भावार्थ:- श्री तीर्थङ्करों ने स्वयं यह घोषित किया है कि ज्ञान दर्शन और चारित्र मोक्ष के मार्ग हैं, ये ही मनुष्य को पवित्र करने वाले हैं तो भी आप लोग मोदवशीभूत होकर इस धर्म को अङ्गीकार नहीं करते हैं और आत्मज्ञान में प्रवृत्त नहीं होते हैं । आप लोग कर्मभूमि में उत्पन्न हुए हैं। अतः आपको यह अवश्य करना चाहिये ॥ ८० ॥ नईवेगसमं चंचल, जीवियं जुब्बणं य कुसुमसमं । सुक्खं य जमनियतं, तिरिगवि तुरमाणभुआई ।। ८१ ।। ', छाया:- नदीवेगसमं चञ्चलं जीवितं, यौवनञ्च फसुमसमम् । सौख्यञ्च यदनियतं श्रीरायपि त्वरमाणभोग्यानि ॥ ८१ भावार्थ: :- यह जीवन नदी के वेग के समान चञ्चल है और यौवन फूल के समान शीघ्र विनाशी है तथा सुख भी स्थिर नहीं । ये तीनों ही अतिशीघ्र भोगे जाकर क्षय होजाते हैं। एवं खु जरामरणं, परिक्खिबइ वग्गुरा व मयजुहं । न य णं पिच्छह पत्त, सम्मूढा मोहजाले ॥ ८२ ॥ " छाया - एतत्खलु जरामरणं, परिक्षिपति वागुरा इव मृगयूथम् । न च पश्यथ प्राप्त सम्पूढ़ा मोहजालेन ॥ ८३ ॥ भावार्थ:- जैसे मृगयूथ को जाल वेष्टित कर लेता है उसी तरह प्राणवर्ग को जरामरण वेष्टित कर रहा है तथापि मोहजाल से मोहित होकर आप लोग इसे नहीं देख रहे हैं ॥ ८२ ॥ उसो ! जंपि य इमं सरीरं इड कंपियं मगुएणं मणामं मणभिरामं भिज्जं (धिज्जं ) विसासिय संमयं बहुमयं अणुमयं भंडकरंडगसमाणं रयण करंडओविव सुसंगोवियं चेलपेडाविव सुसंपरिवुडं तिलपेडाविव सुसंगोवियं For Private And Personal Use Only ***********
SR No.020790
Book TitleTandulvaicharik Prakirnakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbikadutta Oza
PublisherSadhumargi Jain Hitkarini Samstha
Publication Year1950
Total Pages103
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_tandulvaicharik
File Size12 MB
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