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________________ Son Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri K agarur Gyarmandir ESBEEEEEEEEEEEEEEEEEEE! मा णं उण्हं मा शं मौयं मा गं वाला मा णं सुहा माणं पिवासा मा णं चोरा मा णं दंसा मा णं मसगा माणं वाहि य पित्तिय संभिय संनिवाइय विविहा रोगायंका फुसंतु तिकट्ट एवं पियाई अधुवं अणिययं असासयं चयावचइयं विपणासधर्म पच्छा व पुरा व अवस्म विपञ्चायब्वं । छाया-पायुष्मन यदपि च इदं शरीरं ' कान्तं प्रियं मनोज्ञ मनोऽम मनोऽभिराम स्थिर चश्वासिकं सम्मतं बहुमतं अनुमत भागडकरराडकसमानं रत्नकरण्ड कमिय सराहोपित चेलपेटेव संपरिचत नेलपेटेव ससंगोपितं मा उपयो, मा शीतं, मा व्याला, मा राधा, मा पिपासा, मा चौराः, मा देशा!, मा मशकार, मा व्याधिः, पैतिक श्लैष्मिक साजिपातिक विविधा रोगातका स्पृशन्तु इति कृत्या, एवमप्यधुषमनियतमशाश्वत चयापचयिक विपणाशधर्मक पवाद था पूर्व था अवश्य विप्रत्यक्तव्यम् । भावार्थ:-हे आयुष्मन् ! यह जो शरीर है, यह बहुत ही इष्ट है, यह बहुत ही कमनीय है। यह बहुत ही प्रिय है, यह मन को बहुत ही प्रिय है। मन इसमें सदा लगा रहता है। यह मन को बहुत ही रमणीय मालूम होता है, यह स्थिर है, विश्वसनीय है। इसके समस्त कार्य अच्छे मालूम होते हैं। यह बहुत ही माननीय है। इसका कभी भी अप्रिय नहीं किया जाता है। जैसे जेवर के भाण्ड की यत्नपूर्वक रक्षा की जाती है। जैसे रत्न की पेटी की बहुत हिफाजत के साथ रक्षा की जाती है उसी तरह इस शरीर की रक्षा की जाती है। जैसे कपड़े से भरी हुई पेटी जाब्ते के साथ रखी जाती है एवं जिस तरह तेल और घी के भाजन गोपनपूर्वक रखे जाते हैं उसी तरह इस शरीर की हिफाजत की जाती है। सर्दी, गर्मी, सर्प आदि जानवर, क्षुधा, पिपासा, चोर, देश, मशक, व्याधि तथा वात, पित्त, कफ और सन्निपात से उत्पन्न होने वाले अनेक प्रकार के रोग और आतङ्क से इस शरीर की रक्षा की जाती For Private And Personal Use Only
SR No.020790
Book TitleTandulvaicharik Prakirnakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbikadutta Oza
PublisherSadhumargi Jain Hitkarini Samstha
Publication Year1950
Total Pages103
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_tandulvaicharik
File Size12 MB
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