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भावार्थ-धर्म ही अनर्थ का नाशक और अर्थ का सम्पादक है। धर्म ही रक्षक है, धर्म ही गति और आधार है। धर्म का भलीभाँति पाचरण करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।॥ १३३ ॥
पीइकरो वपणकरो, भासकरो जसकरो य अभयकरो। निव्वुइकरी य सययं, पारित बिइअभी धम्मो ।। १३४॥ छाया-प्रीतिकरो वर्ण करो, भाकरी (भाषाफरो) यशस्करश्वाभयकरः। निशिकरच सतत, परत्र द्वितीयो धर्मः ॥ १३४॥
भावार्थ-धर्म प्रीति को नत्पन्न करता है,एक दिशा में फैलने वाली कीर्ति उत्पन्न करता है अथवा शरीर में उत्तम वर्ण उत्पन्न करता है, कान्ति सत्पन्न करता है, वचन की पटुता तथा मधुरता आदि गुणों को उत्पन्न करता है, समस्त विशाथों में फैलने वाली कीर्ति उत्पन्न करता है, निर्भयता एवं कर्मक्षय रूप परमानन्द को उत्पन्न करता है तथा मनुष्यों को परलोक मे सदा सहायता करता है॥१३४ ।।
अमरवरेसु अणोवमरूवं, भोगीवभोगरिद्धी य । विएणाणकायमेव य, लब्भइ सुकरण धम्मेण ॥१३५ ॥ छाया-अमरपरषु अनुपमरूप, भीगोपभोगऋद्धीश्च । विज्ञानज्ञानमेव च, लभ्यते सुकतंन धर्म ॥१३५॥
भावार्थ-विधिपूर्वक धर्माधारण करने से मनुष्य महान् ऋद्धि वाले देवताओं में जाकर सुन्दर रूप तथा भोग, उपभोग, द्धि और ज्ञान विज्ञान का लाभ करता है
देविंदचकवाद्वित्तणाह, रजाई इच्छिया भोगा । एयाई धम्मलाभा, फलाई जं चापि निम्बाण ॥ १३६ ॥ छाया-देवेन्द्ररकरित्यानि, राज्यानि इप्सिता भोगाः । एतानि धर्मलाभात् , फलानि यथापि निर्वाणम् ॥१३६॥ भावार्थ-देवेन्द्र पद, चकवत्ती पद, राज्य, ईसित भोग, ये सब धर्माचरण के फल है तथा निर्माण भी इसी का फल ।। १३६ ।।
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