SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ SinMahavirdain ArmdhanaKendra Achse Keserun yendir www.kobatirm.org माहारो उच्छासो, संधि सिराश्री य रोमकूबाई । पिचं रुहिर सुक', गणियं गणियप्पहाणेहि ॥ १३७ ॥ छाया-माहार उच्छवासः सन्धिः, शिराव रोमकूपाः । पित्त रुधिर शुक, गणितं गणितप्रधान ॥१३७॥ भावार्थ-यह मनुष्य सौ वर्ष की आयु पाकर कितना अन्न खाता है तथा कितने श्वास लेता है और इसके शरीर में कितनी सम्धियाँ, कितनी नसे, कितने रोम कूप, तथा कितने पित्त, रक्त, और शुक्र होते हैं यह गणित करके पहले बता दिया गया है॥१३७।। एवं सोउं सरीरस्स, वासाणं गणियप्पागडमहत्थं । मुक्खपउमस्स ईहह, समत्तसहस्स पत्तस्स ॥ १३॥ छाया-एतत श्र त्या शरीरस्य, वर्षाणां गणित प्रकट महार्थम । मोक्षपद्मस्य ईहवं, सम्यक्त्वसहस्र पत्रस्य ॥१३८॥ भावार्थ-गणित के हिसाब से जिसका कार्य प्रकट कर दिया है ऐसे शरीर की आयु के वर्षों को सुन कर मोक्षरूपी कमल पुष्प के लिये प्रयत्न करना चाहिये। उस मोक्षरूपी कमल के सम्यक्त्व ही सहस्र पत्ते हैं ॥ १३८ ।। एयं सगड सरीरं, जाह जरा मरण वेयणा बहुलं । तह पत्तह काउं, जे जह मुचह सम्बदुक्खाणं ॥ १३ ॥ छाया-एतत् शकटशरीर, जातिजरामरणवेदना बहुलं । तथा गृहणीत कार्य, यदयथा मुश्चत सर्वदुःखेभ्य ॥१३॥ भावार्थ-यह शरीर जन्म, जरा, मरण और वेदनामों से भरा हुआ एक प्रकार का शकट (गाडी) है। इस को पाकर ऐसा कार्य करो जिससे समस्त दुःखों से मुक्ति मिले ।। १३६ ।। इति 'तन्दुलवेयालिय' समच। - श्री रामकृष्ण प्रिंटिंग प्रेस, नसीराबाद रोड अजमेर । For Private And Personal Use Only
SR No.020790
Book TitleTandulvaicharik Prakirnakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbikadutta Oza
PublisherSadhumargi Jain Hitkarini Samstha
Publication Year1950
Total Pages103
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_tandulvaicharik
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy