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________________ SA.Mahavir Jain AradhanaKendra www.kohatiram.org Acharya Sur Kallassagerar Gyanmandir SENASISIMEENSHEMMAUMBUK छाया-जहाना वृद्धाना, निर्विज्ञानाना निर्विशेषाणाम् । संसारशकराणा, कथितमपि निरर्थकं भवति ॥ १३०॥ भावार्थ-जो द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से मूर्ख हैं, जो अत्यन्त वृद्ध हैं, जो विशिष्ट ज्ञान से हीन है, जो विशेष (भेव) को नहीं जानते हैं, ऐसे जो लोग सांसारिक विषयों में शूकर की तरह आसक्त हैं उनके प्रति अच्छी शिक्षा देना निरर्थक होजाता है ।। १३० ।। किं पुरोहिं पियाहिं वा, अत्थेणवि पिंडएण बहुएणं । जो मरणदेसकाले, न होइ आलंबणं किंचि ।। १३१ ।। चाया-कि पुत्री पितृभिर्वा, अर्थेनाऽपि पिण्डितेन बहुकेन । यद् मरण देशकाले, न भवत्यालम्बन किश्चित ॥१३१॥ भावार्थ-पुत्र, पिता अथवा बहुत संग्रह किये हुए धन से ही क्या लाभ है? जो मरण समय उपस्थित होने पर कोई भी सहायक नहीं होता है ।। १३१ ॥ पुत्ता चयंति मित्ता चयंति, भजा वि णं मयं चयइ । तं मरणदेसकाले, न चयइ सुविधज्जियो धम्मो ॥ १३२॥ छाया-पुत्रास्त्यजन्ति मित्राणि त्यजन्ति, भार्यापि मृतं त्यजति । तस्मिन मरणदेशकाले, न त्यजति सुन्यर्जितो धर्मः॥१३२॥ भावार्थ-जब मरणकाल भाजाता है तब प्राणी को पुत्र, मित्र और स्त्री सभी छोड़ देते हैं, एक धर्म ही ऐसा है जो भली भाँति भाचरण किया हुआ नहीं छोड़ता है। धम्मो ताणं धम्मो सरणं, धम्मो गई पाडा य । धम्मेण सुचरिएण य, गम्मइ अयरामरं ठाणं ॥ १३३ ॥ छाया-धर्मखाणे धर्मः शरणं, धो गति प्रतिष्ठा च । धर्मेण सुपरितेन प, गम्यतेऽजरामर स्थानम् ॥ १३३ ॥ For Private And Personal use only
SR No.020790
Book TitleTandulvaicharik Prakirnakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbikadutta Oza
PublisherSadhumargi Jain Hitkarini Samstha
Publication Year1950
Total Pages103
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_tandulvaicharik
File Size12 MB
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