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________________ SinMahavir dain AradhanaKendra www.kobatirtm.org Acharya Sur Keilassagarmur yamandir की शाखाएं जो कि प्रासाद की तरह आकृति वाली होती थी, उनमें निवास करते थे। वे इच्छानुसार विषयों की कामना करने वाले होते थे। ये घर की तरह आकार वाले वृक्षों के अन्दर निवास करते थे। वे पृथिवी और कल्प वृक्षों के फूल और फल का आहार करते थे। वे मनुष्य इस प्रकार के कहे गये हैं। सूत्र १४ ॥ पासी य समणाउसो! पुचि मणुयाण छबिहे संघयणे, तंजहा (१) वज्जरिसह नाराय संघयणे, (२) रिसह नारायसंघयणे, (३) नारायसंघयणे, (४) अद्ध नारायसंघयणे, (५) कीलियसंघयणे, (६) छेवट्ट संघयणे । संपइ खलु भाउसो ! मणुयाणं छेवट्ट संघयणे बट्टा । आसी य ाउसो! पुब्बि माया छबिहे संठाणे, तंजहा (१) समचउरसे, (२) गग्गोह परिमण्डले, (३) साइ, (४) कुज्जे, (५) वामणे, (६)हुँ । संपद खनु उसो ! मणुयाणं हुडे संठाणे वट्टा ॥ सूत्र १५॥ संघयणं संठाणं, उच्च पाउयं य मणुयायं । अणुसमयं परिहायइ, मोसप्पिणी काल दोसेणं ॥५०॥ कोह मय माय लोहा, उस्सगणं बड्ढए य मणुयाणं । कूड तुल कूडमाणा, तेणाणुमाणेण सवंति ॥५१॥ विसमा अज्ज तुलाओ, विसमाणि य जणवएसु माणाणि । विसमा राजकुलाई, तेण उ विसमाई वासाई ॥५२॥ विसमेसु य वासेसु, ति असाराई' प्रोसहिवलाई । भोसहिदुब्बन्लेण य, भाउं परिहायह राणं ॥५३॥ एवं परिहायमाणे, लोए चंदुब्व काल पक्खम्मि । जे धम्मिया मणुस्सा, सुजीवियं जीवियं तेर्सि ॥ ५४॥ For Private And Personal use only
SR No.020790
Book TitleTandulvaicharik Prakirnakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbikadutta Oza
PublisherSadhumargi Jain Hitkarini Samstha
Publication Year1950
Total Pages103
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_tandulvaicharik
File Size12 MB
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