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________________ Shn Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करिस्सामोता किमत्थं आउसो ! नो एवं चिंतेयब्वं भवः १ अंतरायबहुले खलु अयं जीविए इमे बहवे वाइयपित्तिय सिंमिय संनिवाइया विविधा रोगायका फुसंति जीवियं ।। सूत्र १३ ॥ छाया - पुण्यानि खलु आयुध्मन् ! कृत्यानि करणीयानि प्रीतिकराणि वर्णकराणि धनकराणि कीर्तिकराणि । न च खल आयुष्मन् ! एवं चिन्तितव्यं - एष्यन्ति खलु बहवः समया आवलिकाः क्षरणाः आणप्राणाः स्तोकाः लवा मुहूर्ताः दिवसाः अहोरात्राः पक्षाः मासाः ऋतवः अथनाः संवत्सराः युगाः वर्षशतं वर्षसहस्रं वर्षशतसहस्र वर्षकोटि : वर्षकोटिकोटिः । यत्र वयं बहूनि शीलानि व्रतानि गुणान् विरमणानि प्रत्याख्यानानि पौषधोपचासान् प्रतिपत्स्यामहे प्रस्थापयिष्यामः करिष्यामः । तत् किमर्थ मायुष्मन् ! नो एवं चिन्तितव्यं भवति । अन्तरायबहुले सज्जीवित] इमे वः वातिक पैतिक श्लेष्मिक साचिपातिकाः विविधाः रोगातङ्काः स्पृशन्ति जीवितम् । भावार्थ- हे आयुष्मन् ! पुण्य कार्य्यं करना चाहिये, वह करने योग्य है पुण्य करने से मित्र आदि के साथ प्रेम की वृद्धि होती है। जगत् में प्रशंसा होती है धन की वृद्धि होती है, कीर्ति होती है। यह कभी नहीं सोचना चाहिये कि बहुत समय, आवलिका, क्षण. श्वासोच्छवास, स्तोक, लव, मुहूर्त्त दिन, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष, युग, सौ वर्षं, हजार वर्ष, लाख वर्ष, कोटि वर्ष, कोटि-कोटि वर्ष आने वाले हैं, उनमें हम बहुत शील, व्रत, गुण, बिरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास अङ्गीकार कर लेंगे और आचरण कर लेंगे। हे आयुध्मन ! ऐसा नहीं सोचने का कारण यह है कि यह जीवन विघ्नों से भरा हुआ है। ये वात, पित्त, कफ और सन्निपात से उत्पन्न होने वाले रोग सभी मनुष्यों को उत्पन्न होते रहते हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.020790
Book TitleTandulvaicharik Prakirnakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbikadutta Oza
PublisherSadhumargi Jain Hitkarini Samstha
Publication Year1950
Total Pages103
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_tandulvaicharik
File Size12 MB
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