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san Manavi din Aranana Kendre
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Acharya
ganun yonmandir
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आगे चलकर फिर वहाँ दुःख भोगना पड़ेगा।
णवि जाई कुलं वावि, विजा वावि सुसिक्खिया । तारे नरं व नारी वा, सव्वं पुराणेहिं षड्ढई ॥४८॥ छाया-नापि जातिः कल' वापि, विद्या वापि सुशिक्षिता । तारयेजरं वा नारौं वा, सर्व पुण्येन वर्धते ॥४८॥
भावार्थ-जाति, कुल तथा परिश्रम के साथ सीखी हुई विद्या ये कोई भी नर और नारी को संसार से पार करने में समर्थ नहीं होते किन्तु सब प्रकार का सुख पुण्य से प्राप्त होता है।
पुण्णेहिं हीयमाणेहिं, पुरिसागारो वि हायई । पुण्णेहि वड्डमाणेहिं पुरिसागारो वि बढई ॥४६॥ छापा--पुरायैहीयमाना, पुरुषकारोऽपि हीयते । पुण्यैर्वर्धमानः, पुरुषकारोऽपि यी ॥४६॥
भावार्थ-पुण्य के क्षय होने पर यश, कीर्ति, लक्ष्मी और पुरुष का अभिमान ये सभी नष्ट हो जाते हैं और पुण्य की वृद्धि होने पर इन सब की वृद्धि होती है।
पुण्णाई खलु उसो ! किच्चाई करणिज्जाई पीइकराई वएणकराई धएणकराई कित्तिकराई, णो य खलु आउसो ! एवं चिंतियव्वं-एस्सति खलु बहवे समया, श्रावलिया, खणा, प्राणपाण , थोवा, लवा, मुहुत्ता, दिवसा, अहोरत्ता, पक्खा, मासा, रिऊ, अयणा, संबच्छरा, जुग्गा, वाससया, वाससहस्सा, वाससयसहस्सा, वासकोडीओ, वासकोडाकोडीओ। जत्थ णं अम्हे पहुई सीलाई वयाई' गुणाई बेरमणाई पच्चक्खाणाई पोसहोववासाई पडिवज्जिस्सामो, पट्ठविस्सामो
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