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SinMahavir Jain AradhanaKendra
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जाता है । इस सौ वर्ष की आयु में कितना भाग सुख का है और कितना दुःख का है यह बतला दिया गया है।
जो वाससय जीचड, मुही भोगे पभुजइ । तस्साचि सेविसेश्रो, धम्मो य जिगणदेसियो ॥४५॥ छाया-या वर्षशत जीवति, सुखी भौगान भुङ ते । तस्यापि सेवितु' श्रेया, धर्मश्च जिनदेशितः ।।
भावार्थ-जो मनुष्य सौ वर्ष तक जीता है और सुखी है तथा भोगों को भोगता है उसको भी जिनभाषित धर्म का सेवन करना ही कल्याणकारक है।
किं पुण सपनवाए, जो नरो निश्चदुक्खियो । सुट्ठ यरं तेण कायव्यो, धम्मो य जिणदेसिओ ॥४६॥ छाया-कि पुनः सप्रत्यनाये, यो नरो नित्य दुःखितः । सुष्ठुतरस्तेन कर्त्तव्यः, धर्मश्च जिनदेशितः ॥४६॥
भावार्थ-जिनकी आयु कष्ट से पूर्ण है तथा जो सदा दुःखी रहता है उसके लिये तो कहना ही क्या है ? उसको तो भलीभाँति जिनभाषित धर्म का आचरण करना ही चाहिये।
णंदमाणी चरे धर्म, वरं मे लढतरं भवे । अणंदमाणो वि चरे धम्म, मा मे पावयरं भवे ॥४७॥ छाया-गन्दमानश्परेचर्म, घर मे लएतरं भवेत् । अनन्दनपि चरेद्धम,मा मे पापतर भवेत् ॥४७॥
भावार्थ-सांसारिक सुख का उपभोग करता हुआ भी मनुष्य कल्याणकारी जिनभाषित धर्म का आरचण करे। वह यह विचार करे कि-यह धर्म आचरण मुझको इस भव में तथा परभव में सुख देगा। एवं दुःख भोगते समय भी मनुष्य धर्म का आचरण करे। वह यह विचार करे कि-मैंने धर्म का आचरण नहीं किया था इसलिये मुझको यह दुःख भोगना पड़ता है। अब यदि धर्म नहीं करूंगा तो
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