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________________ San Mahavir Jan Adana Kendra www.kobatirtm.org Acharya Su Kasagar Gyanmandir छाया-योनिमुखनिफिटितः, स्तनकक्षीरण वर्धितो जातः । प्रकृत्या मेध्यमयः कर्ष देही धावित्' शक्यः ॥८६॥ भावार्थ-यह माता की योनि से निकल कर बाहर आया है और स्तन पान के द्वारा वृद्धि को प्राप्त हुभा। यह स्वभाव से ही अपवित्रतामय है, इसे धोकर शुद्ध करना शक्य नहीं है॥८६॥ हा अमुइसमुप्पण्णा य, निग्गया य जेण चेव दारेणं । सत्ता मोह पसत्ता, रमंति तत्थेव असुइ दारंमि ॥७॥ छाया-हाशचि समुत्पनाच, निर्गताश्च येग चैव द्वारेण । सत्त्वाः, मोहप्रसक्ताः रमन्ते तत्रैवाशचिद्वारे ॥ ८७ ॥ भावार्थ-दा, शोक १ यह प्राणो अपवित्रतामय स्थान में उत्पन्न होकर जिस द्वार से निकल कर बाहर भाया है, मोहवश युवा अवस्था में उसी अशुचि बार में रमण करता है ।। ८७ ॥ किह ताव घर कुडीरी, कविसहस्सहिं अपरितंतेहिं । वरिणजइ असुरविल, जपणंति सकलमूढेहिं || छाया-कयन्तावत् गृहकुख्याः , कविसहसू रपरितान्तः । वण्यते ऽशुचि बिल, जघनमिति स्थकार्यमढैः ॥८॥ भावार्थ:-जो अपवित्रता से परिपूर्ण बिल (योनि) से संयुक्त है ऐसे स्त्री के जघन को कविजन अचान्त भाव से क्यों कर वर्णन करते हैं ? वस्तुतः वे अपने स्वार्थवश मूढ़ हो रहे हैं ॥ ८॥ रागेण न जाणंति, वराया कलमलस्स निद्धमणं । ताणं परिणदंता, फुल्लं नीलुप्पलवणं व ॥६॥ छाया-रागेण न जानन्ति, वराकाः कलमलस्य निर्धमनम् । तत् परिनन्दन्ति, फुल्ल नीलोत्पलयनमिव ।। ८६ ॥ भावार्थ:-विचारे कपि रागवशीभूत होकर नहीं जानते हैं कि- यह स्त्री का अपन अपवित्र मन की बैनी है। इसीलिये अत्यन्त For Private And Personal Use Only
SR No.020790
Book TitleTandulvaicharik Prakirnakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbikadutta Oza
PublisherSadhumargi Jain Hitkarini Samstha
Publication Year1950
Total Pages103
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_tandulvaicharik
File Size12 MB
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