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SinMahavir dain AradhanaKendra
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विषयासक्त वे इसका वर्णन करते हैं और प्रफुल्लित नील कमल के समान इसको मनोहर बतलाते हैं ।। ६ ।।
कित्तियमियं वराणे, अमिज्झमइयंमि वच्चसंघाए । रागो हुन कायव्यो, विरागमूले सरीरंमि 1800
छाया-कियन्मानं वर्णये, अमेध्यमये वर्चस्कसचाते । रागो हि न कर्त्तव्यः, चिरागमले शरीरे ॥६॥
भावार्थ:-कहां तक वर्णन किया जाय, यह शरीर अपवित्रता से भरा है, यह विष्ठा की राशि है तथा घृणा के योग्य है। अतः बुद्धिमान पुरुष को इसमें राग नहीं करना चाहिये ।। ६०॥
किमिकलसय संकिराणे, असुइमचुक्खे असासयमसारे । सेय मल पुन्वडंमी, निब्बेयं बच्चह सरीरे ॥६१||
छाया-मिकलशतसङ्कीरों, अशुच्यचक्षे अशाश्वतासारे । स्वेदमलपूर्वके, निवेदं मजत शरीरे ॥१॥ भावार्थ:-यह शरीर सैकड़ों कृमिकुल यानी कीदों से भरा हुआ है तथा अपवित्र मल से परिपूर्ण परम अशुद्ध है। एवं विनाशी और साररहित है। दुर्गन्धपूर्ण स्वेद से भीगा हुआ है। अतः मनुष्य को इससे विरक्त रहना चाहिये ।। ११ ॥
दंत मल करणगूहगसिंघाण मले य, लालमलबहुले । एयारिसे बीमच्छ, दुगुणिज्जमि को रागो ॥२॥
खाया-दन्तमल कर्णगूथफ सिधाण मले च, लालमलबहुले । एतादृशे वीभत्से, जगप्सनीये की रागः ।। ६२॥
भावार्थ:-यह शरीर दाँतों के मल, कान के मल, नाक के मन और विष्ठा के मल से परिपूर्ण है। तथा लाला यानी मुख के मलसे भरा हुआ है। अत: इस प्रकार बीभत्स (घृणास्पद) और निन्दनीय शरीर में क्या प्रेम किया जाय.
को सडण पडण विद्ध किरिण, विसण चयण मरण धम्ममि । देहमि अहिलासो, कुहिय कडिण कट्ठभूयंमि।।३।।
SE3333333333333 EUISESEIEN 2008
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