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________________ SA.Mahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Sur Kallassagerar Gyanmandir ६६ निकलता रहता है। इसके सिवाय नाक आदि छिद्रों से भी मल निकलता रहता है। यह शरीर स्वभाव से ही अपवित्र और दुर्गन्धि से परिपूर्ण है। इसमें कलेजा, आँतड़ी, पित्त, हृदय, फेफड़ा, सीहा और उपर ये गुप्त मांस पिण्ड होते हैं एवं नव छिद्र होते हैं। इस शरीर में हृदय बराबर धड़कता रहता है। यह पित्त, श्लेष्म और मूत्र आदि दुर्गन्ध वाले पदार्थों से तथा खाये हुए औषधों से परिपूर्ण होता है । इस शरीर के सभी भागों में अन्त का भाग बुरा होता है तथा इस का विनाश बहुत ही बुरी तरह होता है। गुदा, नरू, जानु, जा और पैरों के समूह से यह शरीर जुड़ा हुआ है। यह अशुचि तथा मांस के गन्ध से युक्त है। यद्यपि यह अज्ञानवश अच्छा दीखता है तथापि विचार करने पर भयङ्कर रूप युक्त है। यह अनव, अशाश्वत और अनियत है यानी विनाशी है। कुष्ट आदि व्याधि उत्पन्न होने पर इसकी अंगुलियाँ गल कर गिर जाती हैं तथा तलवार आदि का घात होने पर भुजा आदि अङ्ग कट जाते हैं एवं क्षय दोजाना इसका स्वभावतः सिद्ध है। यह कुछ दिन के पश्चात् या पूर्व किसी दिन अवश्य ही नष्ट हो जाता है। यह मनुष्य शरीर आदि और अन्त वाला है। जैसा पहले वर्णन किया गया है वैसा ही इसका स्वभाव ।। सुकम्मि सोणियमि य, संभूयो जणणि कुच्छि मज्झमि । तं चेव अमिज्झरसं, नवमासे घुटियं संतो ।।८। शुके शोणिते च सम्भूतः जननी कुक्षिमध्ये । तम्चैवामेध्यरसं, नबसु मासेषु पिवन् सन ॥८५ ॥ भावार्थ-माता के बदर में शुक्र और शोणित के संयोग से यह उत्सन्न होकर उसी अपवित्र रस का पान करता हुआ नव मास तक गर्भ में स्थिर रहता है ।। ८५॥ जोणीमुह निष्फिडिओ, थणगच्छीरेण वद्धिो जाओ। पगई अमिज्झमइओ, कह देहो धोइउं सको ॥८६॥ HEISSWEISEBBENUSENE For Private And Personal Use Only
SR No.020790
Book TitleTandulvaicharik Prakirnakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbikadutta Oza
PublisherSadhumargi Jain Hitkarini Samstha
Publication Year1950
Total Pages103
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_tandulvaicharik
File Size12 MB
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