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SA.Mahavir Jain AradhanaKendra
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पित्तस्स य सिंभस्स य, सुफस्स य सोणियस्स चि य मज्झे । मुत्तस्स पुरीसस्स य, जायह जह बच्चकिमिउब्ध ॥२८॥ छाया-पियस्य च श्लेष्मणश्व, शुक्रस्य च शोणितस्य च मध्ये । मत्रस्य च पुरीयस्य च, जायते वर्चस्वकृमिरिव ॥२८॥
भावार्थ-जैसे उदर में स्थित विष्ठा में कीड़े उत्पन्न होते हैं उसी तरह यह जीव पित्त, कफ, शुक, शोणित, मूत्र और विष्ठा के मध्य में उत्पन्न होता है।
तं दाणिं सोयकरणं, केरिसर्य होई तस्स जीवस्स । सुकरुहिरागरायो जस्मुप्पत्ती सरीरस्स ।।२६।। छाया-तदिदानी शौच करणां, की दशं भवति तस्य जीवस्य । शक रुधिराकरात यस्योत्पत्तिः शरीरस्य ॥२६॥ भावार्थ:-जिसकी उत्पत्ति शुक्र और रक्त के भण्डार से हुई है उस शरीर की शुद्धि किस तरह की जा सकती है ? एयारिसे सरीरे, कलमलभरिए अमिझ संभृए । णिययं विगणिजंतं, सोयमयं केरिसं तस्स ॥३०॥ छाया-एतादृशे शरीरे, कलमलभृते अमेध्य संभूते । निजके जुगुप्सनीये शौचमद कीदशं तस्य ॥३०॥
भावार्थ-यह शरीर मल से परिपूर्ण है और अपचित्र पदार्थों से उत्पन्न हुआ है। इसमें खुद अपने को और दूसरे को भी घृणा उत्पन्न होती है फिर इसके शुद्ध होने का गर्व करना कैसा ?।
भाउसो! एवं जायस्स जंतुस्स कमेण दस दसा एवमाहिऑति । तंजहाचाला, किड्डा, मंदा, बला य पण्णा य हायणि पवंचा । पम्भारा मुम्मुही, सायणी दसमा य कालदसा ॥३१॥
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