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________________ SA.Mahavir Jain AradhanaKendra www.kohatirtm.org Acharya.sinKARRssagartun syanmandir छाया-आयुष्मन् ! एवं जातस्य जन्तोः कमेण दश दशा एवमारच्यायन्ते । तद्यथा थाला, कीडा, मन्दा, बला च प्रज्ञा, हापनी, प्रपञ्चा । प्रारभारा, मुन्मुखी, शायिनी दशमी च कालदशा ॥३१॥ भावार्थ-हे आयुष्मन् ! पहले कहे अनुसार गर्भ से उत्पन्न जीव की क्रमशः दश दशाएं होती हैं उनके नाम ये है-(१) याला (२) क्रीडा (३) मन्दा (४) चला (५) प्रज्ञा (६) हापनी (७) प्रपश्चा (-) प्रारभारा (६) मुन्मुखी (१०) और शायिनी। ये प्रत्येक दशाएं दश दश वर्ष की होती हैं। जायमित्तस्स जंतुस्य, जा सा पदमिया दसा । न तत्थ सुई दुक्खं वा, न हु जाति वालया ।। ३२ ।। छाया-जातमात्रस्य जन्तोर्यासा प्राथमिकी दशा । न तत्र सुख दुःख था, न हि जानन्ति पालकाः ॥३२॥ भावार्थ-उत्पन्न होने के समय से लेकर दश वर्ष पर्यन्त जो जीव की पहली दशा होती है उसमें बालक अपने तथा दूसरे के सुख दुःख को नहीं जानते हैं। परन्तु जातिस्मरण ज्ञान जिनको होता है वे जानते हैं। बीईयं य दस पत्तो, णाणा कीलाहि कीडइ । ण य से काम भोगेसु, तिब्बा उप्पज्जई रई ॥३॥ लाया-द्वितीयाच दशा प्राप्ती, नानाकीडाभिः कीड़ति । न च तस्य काम भोगेषु, तीनोत्पद्यते रतिः ॥३३॥ भावार्थ-जीव जब दूसरी अवस्था को प्राप्त होता है तब नाना प्रकार की क्रीड़ाओं में पासक्त होकर कीड़ा करता है। उस समय रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द रूप विषयों के भोग की इच्छा उसकी तीव्र नही होती है। For Private And Personal use only
SR No.020790
Book TitleTandulvaicharik Prakirnakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbikadutta Oza
PublisherSadhumargi Jain Hitkarini Samstha
Publication Year1950
Total Pages103
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_tandulvaicharik
File Size12 MB
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