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________________ Sun Mahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Su Kasagarmur Gyarmandir छाया-स्थिरजातमपि रक्षति, सम्यक संरक्षति ततो जननी । संवहति त्वग्वर्तयति रक्षत्यात्मानश्च गर्भश्च ॥१८॥ भावार्थ-जब गर्भ स्थिर होजाता है तब माता उसकी रक्षा करती है। वह उसकी रक्षा के लिये विशेष प्रयत्न करती है। वह उसे लेकर जाती आती है, उसे सुलाती है और आहार खिलाकर अपनी तथा गर्भ की भी रक्षा करती है। अणुसुयह सुयंतीए, जागरमाणीए जागरह गम्भो । सुहियाए होई सुहियो, दुहियाए दुहिनो होइ ॥१६॥ छाया-अनुशेते शयानाया, जापत्या जागर्ति गर्भः । सुखिताया भवति सुखितः, दुःखितायो दुःखितो भवति ॥१६॥ भावार्थ-जब माता सोती है तब गर्भ भी सोता है और माता के जागने पर वह भी जागता रहता है। जब माता दुःखित होती है तब गर्भ भी दुःखित होता है और जब वह सुखी होती है तब गर्भ भी सुखी रहता है ।।१।। उच्चारे पासवणे खेलं, सिंघाणो वि से णस्थि । अट्ठीट्ठी मिज्जणह, केस मंसु रोमेसु परिणामो ॥२०॥ छाया-उधारः प्रभवणं खेलो, सिंघानकोऽपि तस्य नास्ति । अस्भ्यस्थि मज्जा नखकेशश्मश्रु रोमसु परिणामः ॥२०॥ भावार्थ-उस गर्भ के जीव में मल मूत्र थूक नाक का मल नहीं होते हैं। वह जो आहार करता है वह हड्डी, हड़ी की मज्जा, नख, केश, दाढी मूंछ और रोम के रूप में परिणत हो जाता है ॥२०॥ एवं बुदिमइगो, गम्भे संवसइ दुक्खियो जीवो। परम तमिसंधयारे, अमिज्मभरिए पएसम्मि रक्षा For Private And Personal use only
SR No.020790
Book TitleTandulvaicharik Prakirnakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbikadutta Oza
PublisherSadhumargi Jain Hitkarini Samstha
Publication Year1950
Total Pages103
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_tandulvaicharik
File Size12 MB
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