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Sun Mahavir Jain AradhanaKendra
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छाया-एवं शरीर मतिगतो, गर्ने संवसति दुःखितो जीवः परमतमिसान्धकार अमेध्यभृते प्रदेशे ॥२१॥
भावार्थ-इस प्रकार शरीर को प्राप्त होकर जीव गर्भ में बहुत कष्ट के साथ निवास करता है। गर्भ में घोर अन्धकार रहता है और वह अपवित्र पदार्थों से भरा हुआ होता है।
आउसो! तो नवमे मासे तीए वा पडुपएणे वा अणागए वा चउएहं माया अण्णयरं पयायइ । तंजहा-इत्थिं वा इस्थिरूपेणं । पुरिस वा पुरिसरूवेणं । नपुंसर्ग चा नपुंसगरूत्रेणं । विंचं वा बिंबरूवेणं ।। सूत्र १०॥
छाया-आयुष्मन् । ततो नवमे मासेऽतीते वा प्रत्युत्पन्ने या अनागते वा चतुर्णा माता अन्यतर प्रजायते तद् यथा-खियं या खीरूपेण, पुरुष वा पुरुष रूपेण, नपुंसक वा नपुसक रूपेण, विम्ब वा विम्बरूपेण ।
भावार्थ-हे आयुष्मन् ! माठ मास के पश्चात् जब नवम मास व्यतीत होजाता है अथवा जब वर्तमान रहता है अथवा जब माने बाला होता है तब माता चार में से किसी एक को उत्पन्न करती है। जैसे कि-त्री के रूप में स्त्री को, अथवा पुरुष के रूप में पुरुष को अथवा नपुसक के रूप में नपुसक को अथवा मांस पिण्ड के रूप में मांस पिण्ड को।
अप्प सुक बहु उउयं, इत्थी तत्थ जायइ । अप्पं उयं बहु सुकं पुरिसो तत्थ जायइ ॥२२॥ छाया-अल्प एक बहु आर्तर्व, श्री तत्र जायते । अल्पमार्तवं बहु शुकै पुरुषस्तत्र जायते ॥२२॥ भावार्थ-जब स्त्री का मार्तव यानी रक्त अधिक और पुरुष का वीर्य अल्प होता है तब स्त्री की उत्पत्ति होती है और जब
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