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________________ San Mahavir Jain Aradhana Kendre www.kabatirtm.org SHORMAGICHADESHODHISTORGES4540451010101DHDHSE हट्ठस्स अणवगन्धस्स, निरुवकिट्ठस्स जंतुणो। एगे उस्सासनिस्सासे, एस पाणुचि बुच ॥ ५८ ।। छाया-हएस्थानवगलस्य, निरूपक्लिष्टस्य जन्तोः । एक उच्छ्वासनिःश्वासा, एष प्राण इत्युच्यते ॥ ५८॥ भावार्थ:-जो पुरुष पुष्ट है तथा रोग और कश से रहित है उसके एक उच्वास निःश्वास को प्राण कहते है |॥ ५ ॥ सत्त पाणणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लवे । लवाणं सत्चहत्तरीए, एस मुदत्त वियाहिये ।। ५६ ।। लाया-सप्त प्राणाः स स्तोका, सप्त स्तोकाः स लवः। लवानां सप्त सप्तत्या, एष महों व्याख्यातः ॥ ५ ॥ भावार्थः-पूर्वोक्त सात प्राणों का एक स्तोक काल कहा जाता है और सात स्तोकों का एक लव और ४७ सत्तहत्तर वो का एक मुहूर्त काल कहा गया है ॥४॥ एग मेगस्स में भंते ! महत्तस्स केवइया उस्सासा वियाहिया १ गोयमा ! तिमिण सहस्सा सत्त य, सयाण तेवत्तरि य उस्सासा । एस मुहूत्तो भणियो, सहि अर्णत नाणीहिं ।। ६० ।। छाया-एफैकस्य हे भदन्त । मुहर्तस्य कियन्त उच्छ्वासा व्यापाता । गौतम ! श्रीणि सहसाणि, सप्त च शतानि त्रिसप्ततिश्च उच्छ्वासाः। एष मुहूत्रों भणितः, सरनन्तजानिमिः॥६॥ भावार्थ:-(प्रश्न ) हे भवगन् । एक मुहूर्त में कितने उच्छ्वास कहे गये हैं?हे गौतम ! एक मुद्दत्त में तीन हजार सात सौ और ७३ उच्छ्वास कहे गये हैं। सभी अनन्तशानियों ने यही मुहूर्त का प्रमाण बतलाया है॥६॥ 1E32E3E3BREASI B35351232233232 DIEGUEE For Private And Personal Use Only
SR No.020790
Book TitleTandulvaicharik Prakirnakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbikadutta Oza
PublisherSadhumargi Jain Hitkarini Samstha
Publication Year1950
Total Pages103
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_tandulvaicharik
File Size12 MB
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