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________________ SA.Mahavir Jain AradhanaKendra www.kobatirtm.org Acharya K agerul Syaendir हिसाब उस मनुष्य की अपेक्षा से कहा गया है जिसके निकट खाने पहनने के लिये सामग्री विद्यमान है किन्तु जिसके निकट व सामग्री है ही नहीं उसका हिसाब ही क्या हो सकता है? ववहारगणियदिट्ठ, सुहुमं निच्छयगयं मुणेयव्यं । जइ एवं ण वि एय, विसमा गणणा मुणेयन्वा ॥५६॥ छायां-व्यवहारगणित', सूक्ष्म निश्चयगतं ज्ञातव्यम् । यदय तनाप्यतद् । विषमा गणना ज्ञातव्या ।। ५६॥ भावाथ:-पूर्वोक्त पाठ में जिस गणित के द्वारा सौ वर्ष जीवन धारण करने वाले पुरुष के भोजन और पत्र का हिसाब बतलाया गया है वह व्यवहार गणित समझना चाहिये। इससे भिन्न पक सूक्ष्म गणित होता है जिसको निश्चय गणित कहते हैं। जब निश्चय गणित के अनुसार गणना की जाती है तब व्यवहार गणित का हिसाब नहीं रहता है। अतः इन दोनों गणितों को गणना परस्पर भिन्न समझनी चाहिये ।। ५६ ।। कालो परमणिरुद्धी, अविभज्जो तं तु जाण समयं तु । समया य असंखिज्जा, हयंति उस्सासनिस्सासे ।। ५७ ॥ छाया-कालः परमनिरुद्धः अविभाज्यः तं तु जानीहि समयं तु । समयाश्चासंख्येयाः, भवन्ति उच्छवासनिःश्वासे ।। ५७ ॥ भावार्थ:-जिसका विभाग नहीं किया जा सकता है ऐसे अत्यन्त सूक्ष्म काल को समय समझो। इस प्रकार एक सपछवास निःश्वास में असंख्यात सगय व्यतीत होते हैं ।। ५७ ॥ For Private And Personal use only
SR No.020790
Book TitleTandulvaicharik Prakirnakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbikadutta Oza
PublisherSadhumargi Jain Hitkarini Samstha
Publication Year1950
Total Pages103
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_tandulvaicharik
File Size12 MB
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