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SA.Mahavir Jain AradhanaKendra
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स्थाढर्फ, पुरीषस्य प्रस्था, पिरास्य कुडयः । श्लेष्मणः कुडवः, शुकस्याद्ध कुडवः । यद् यदा दुष्ट भवति तत् तदा अतिप्रमाणं भवति । पञ्चकोष्ठः पुरुषः, षट्कोष्ठा स्त्रियः, नवस्रोताः पुरुषः, एकादशस्रोतसः स्त्रियः, पञ्च पेशीशतानि पुरुषस्य, त्रिशदूनानि खियाः, विशत्यूनानि पंडगस्य॥१६॥
भावार्थ हे आयुष्मन् ! इस जन्तु के शरीर में पित्त को धारण करने वाली नाड़ियाँ २५ होती हैं । २५ ही कफ को धारण करने वाली होती है, शुक्रधारिणी नाड़ियाँ दश होती हैं । ७०० शिरायें पुरुषों के शरीर में और ३० कम ७०० स्त्रियों के शरीर में और २० कम सात सौ नपुसक के शरीर में होती हैं। हे आयुष्मन् इस मनुष्य के शरीर में रक्त एक आढक होता है। चर्षी आधा ढक होती है। फिफिस एक प्रस्थ होता है। मूत्र एक आढक होता है । पुरीष एक प्रस्थ होता है। पित्त एक कुडव होता है। श्लेष्म एक कुडव होता है। शुक्र आधा कुडव होता है। इनमें से जो जब विकृत होता है तब उनके प्रमाण में न्यूनाधिकता होती है। पुरुष के शरीर में पांच कोष्ठक और स्त्री के शरीर में या कोष्ठक होते हैं। पुरुष के शरीर में नौ छिद्र और स्त्री के शरीर में ११ छिद्र होते हैं। पुरुष के शरीर में ५०० पेशियाँ होती हैं और स्त्री के शरीर में ३० कम ५०० एवं नपुसक के शरीर में २० कम ५०० पेशियाँ होती हैं।
अभिंतरंसि कुणिमं जो, परिअउ बाहिरं कुजा । तं असुई दट्ठणं, सयावि जणणी दुगुछिया ॥३॥ छाया-अभ्यन्तरे कुणिमं यत, परावर्त्य बहिः कुर्यात् । तमशुचिं दृष्ट्वा, स्वकापि जननी जुगुप्सेत ॥३॥
भावार्थ-इस शरीर में जो अपवित्र मांस है उसको यदि शरीर में से बाहर निकाला जाय तो अपनी माता भी उसे देख कर घृणा करेगी, दूसरे की तो बात ही क्या है ? ||८||
माणुस्सयं सरीरं, पूइयमं मंससुक्कट्ठणं । परिसंडवियं सोहइ, अच्छायणगंधमल्लेणं ॥८४ ॥
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