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रन्त कडा उ इत्थी, लक्खपुहुत्त य बारस मुहुत्ता पिय संख सयपुहुत, बारस वासा उ गन्भस्स ॥ १५ ॥ छाया - रक्तोत्कटायास्तु खियाः, लक्ष पृथक्त्वं च द्वादश मुहूर्तानि । पितृ संख्या शत पृथकत्वं द्वादश वर्षास्तु गर्भस्य || १५ || भावार्थ - इस गाथा में यह बतलाया गया है कि एक स्त्री के गर्भ में एक साथ कितने जीव उत्पन्न होते हैं और कितने पिता का एक पुत्र होता है। मासिक रक्तपात तीन दिन तक होता है। वह जिसका जारी है यानी जिस स्त्री का मासिक धर्म होना बन्द नहीं हुआ है उसकी योनि में जब पुरुष वीर्य का सिञ्चन करता है तो उसके गर्भ में जघन्य एक दो तीन तथा उत्कृष्ट नौ लाख जीव उत्पन होते हैं । उनमें से प्रायः एक या दो ही जन्म धारण करते हैं शेष नहीं, क्योंकि वे अल्पायु होने के कारण उस योनि में ही मर जाते हैं। पुरुष का वीर्य बारह मुहूर्त तक ही सन्तान उत्पादन के योग्य रहता है। उसके बाद उसकी वह शक्ति नष्ट हो जाती है। उत्कृष्ट नी सौ पिता का एक पुत्र हो सकता है। आशय यह कि जिस स्त्री का शरीर अत्यन्त मजबूत है। वह कामातुर होकर बारह मुहूर्त के अन्दर उत्कृष्ट यदि नौ सौ पुरुषों के साथ संयोग करती है तो उसके गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होता है वह नौ सौ पिता का पुत्र होता है। गर्भ की स्थिति उत्कृष्ट बारह वर्ष तक की होती है || १५ ||
दाहिण कुच्छी पुरिसस, होइ वामा उ इत्थीयाए य। उभयंतरं नपुंसे, तिरिए अट्टेव वरिसाई ।। १६ ।।
छाया - दक्षिण कुक्षिः पुरुषस्य, भवति वामा तु खियाश्च । उभयान्तरं नपुंसकस्य, तिरक्षामष्टौ वर्षाणि ॥ १६ ॥
भावार्थ- स्त्री की दक्षिण कुक्षि में बसने वाला जीव पुरुष होता है और बाम कुक्षि में बसने वाला जीव स्त्री होता है तथा कुक्षि के मध्य भाग में बसने वाला जीव नपुंसक होता है। तिर्यखों की गर्भस्थिति उत्कृष्ट आठ वर्ष की होती है || १६||
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