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SinMahavir Jain AradhanaKendra
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Acharya Su Kasagarmur Gyarmandir
EGHAGHEIGISTSHATHRECIGARHGA188451SHRASE
इमो खलु जीवो अम्मापिउ संजोगे माउउयं पिउसुक्कं तं तदुभय संसर्ल्ड कलुसं किञ्चिसं तप्पढमयाए आहारं आहारिता गब्भत्ताए वकमइ ॥ सूत्रम् ॥१॥ छाया- अयं खलु जीयः मातृपितृसंयोगे मातुरारी पितुःशुक्र तत्तदुभयसंसृष्ट कलुष किल्विषं तत्प्रथमतया आहार माहार्य गर्भत्वाय व्युत्क्रामति।।
भावार्थ-माता पिता के संयोग होने पर यह जीव गर्भ में आता है तब पहले पहल तेजस और कार्माण शरीर के द्वारा माता का रज और पिता का शुक इन दोनों से मिश्रित मलिन किल्विष आहार को ग्रहण करता है।
सत्ताह कललं होइ, सत्ताहं होइ अब्बुयं । अब्बुया जायए पेसी, पेसीओय घणं भवे । (१) ॥१७॥
छाया-सप्ताह कलले भवति, सप्ताहं भवति अर्बुदः । अयंदाजायते पेशी, पेशीतन धन भवेत् ॥१६॥ भावार्थ-वह जीव गर्भ में आकर किस प्रकार शरीर तैयार करता है, यह बताया जाता है। सात दिन रात तक वह शुक्र और शोणित का समूह कलल रूप रहता है। उसके बाद कुछ धनभाव को प्राप्त होकर सात अहोरात्र तक अर्बुदरूप में रहता है। उसके बाद वह मांस का खण्ड रूप हो जाता है। उसके पश्चात् वह धन चतुष्कोण मांसपिण्ड बन जाता है।
तो पढमे मासे करिसूणं पलं जायइ । बीए मासे पेसी संजायए घणा । तइए मासे माउए दोहलं जणयइ । चउत्थे मासे माउए अंगाई पीणेइ । पंचमे मासे पंच पिंडियाओ पाणिं पायं सिरं चेव निब्यत्तह। छठे मासे पित्त सोणिय उवचिणेइ । सत्तमे मासे सत्तसिरासयाई ७००, पंच पेसी सयाई ५००, नवधमणीश्रो, नवनउई च रोमकूव सय सहस्साई
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