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________________ SinMahavir dain AradhanaKendra www.kobatirm.org Acharya Sur Kallassagerar Gyanmandir वह खियों चोखा देती हैं। कैसे तीन कोधी को पास में रखना कठिन है उसी तरह नियों का रपामा कठिन है। खियाँ दारा विषाद के कारण है, अथवा अकार्य करने में खियों को जरा भी खेद नहीं होता है। कोई कोई अपने पति को विष देरक मार मालती हैं। जो पुरुष स्त्री में अनुरक्त होता है उसकी दूसरे विषयों में भी भासक्ति उत्पन्न हो जाती है। में अत्यन्त भासक्ति होने से नोक की छठी नरक भूमि तक गति होती है। स्त्रियों को जब अपमी इन्द्रियों की तृप्ति के लिये विषय की प्राप्ति नहीं होती है तब उन्हें विषाद उत्पन्न होता है। कोई कोई खियाँ क्रोधित होकर स्वयं विषभक्षण कर लेती हैं। तीव्र पुण्य वामे मुनियों की दृष्टि में स्त्रियाँ यमराज की तरह प्रतीत होती है। मुनिजन स्त्रियों से घृणा करते हैं। त्रियों की सेवा कठिन होती है। इनमें गम्मीरता नहीं होती है। स्त्रियाँ विश्वास के योग्य नहीं होती हैं। खियाँ एक पुरुष में चित्त नहीं रखती है। युवावस्था में इनका रक्षण करना कठिन है। माझ्यावस्था में इनका पालन भी कठिन है। इस लोक और परलोक में त्रियाँ दुःख उत्पन्न करती हैं। सियों के कारण संसार में दारण बैर की उत्पत्ति होती है। खियाँ रूप और सौभाग्य के गर्व से मत्त रहती हैं। सर्प की गति की तरह इनका हलय कुटिल होता है। जहाँ व्याघ, सिंह और सर्प आदि हिंसक प्राणी निवास करते हैं ऐसे घोर जाल में अकेले जाना और यहाँ निवास करना जैसे महान भय को सत्पन्न करता है। उसी तरह नियों के साथ अकेले जाना या निवास करना दारुण भय का कारण होता है। स्त्रियाँ स्वजन तथा मित्रादि वर्ग में फूट वसन कर देती हैं। अन्य के दोष को मतपट प्रकट करती हैं। सपकार को नहीं मानती हैं। पुरुष के वीर्य का विनाश कर देती हैं। दुराचारिणी खियाँ जार पुरुष को विषय सेवन करने के लिये एकान्त में ले जाती हैं। जैसे जाली सुधर किसी कन्द पावि भच्य पदार्थ को पाकर बसे एकान्त में ले जाकर खाता है उसी तरह खियाँ भी एकान्त में पुरुषों का उपभोग करती हैं। इन सियों में अत्यन्त चञ्चलता होती है। जैसे अग्नि का पात्र अग्मि के संसर्ग से रक पर्श होता है उसी तरह For Private And Personal Use Only
SR No.020790
Book TitleTandulvaicharik Prakirnakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbikadutta Oza
PublisherSadhumargi Jain Hitkarini Samstha
Publication Year1950
Total Pages103
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_tandulvaicharik
File Size12 MB
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