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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है। हे भगवन् ! क्या कारण है कि गर्भगत जीव मुख से कबलाहार प्रदा करने में समर्थ नहीं होता है ? हे गौतम! गर्भगत जीव सब प्रकार से आहार महा करता है तथा वह सब प्रकार से उसका परिणमन करता है। सब प्रकार से वह ऊपरका श्वास लेता है, सब प्रकार से श्वास को छोड़ता है। वह सदा ही आहार करता रहता है, सदा ही उसका परिणमन करता रहता है, सदा ही ऊर्ध्वं श्वास लेता है और सदा ही श्वासको छोड़ता रहता है । वह कभी आहार करता है और कभी नहीं भी करता है। कभी उसका परिणमन करता है। और कभी नहीं करता है । कभी श्वास लेता है और कभी नहीं भी लेता है। कभी श्वास छोड़ता है और कभी नहीं छोड़ता है। माता की जो रसदरणी यानी रसको महण करने वाली नाभि की नालो है वहीं पुत्र की भी नाभि की नाली है। वह माता के शरीर में बँधी हुई रद्द कर पुत्र के जीव को स्पर्श करती है अथवा माता की रसहरणी और पुत्र की रसहरणी ये दो नाड़ियाँ होती हैं। इनमें माता की रसहस्रणी नाही माता के शरीर में बँधी हुई रह कर पुत्र के जीव को स्पर्श करती है इसलिये यह गर्भगत जीव उस माता की रसरणी नाड़ी द्वारा आहार को महण करता है और उसी के द्वारा उसे पचाता है। माता की रसधरणी नाड़ी के समान ही पुत्र जीव की रसहरणी नाड़ी भी होती है। वह पुत्र के जीव में बँधी रह कर माता के जीव को स्पर्श करती है, उस नाड़ी के द्वारा वह अपने शरीर की पुष्टि करता है। हे गौतम! इसी हेतु से ऐसा कहा है कि गर्भगत जीत्र मुख द्वारा कवलादार को पहण करने में समर्थ नहीं है ॥ ४ ॥ जीवेणं गन्भगए समाणे किमाहारं आहारेइ ? गोयमा ! जं से माया गायाविहाओ नवरसबिगहओ तित्तकडुय कसायंबिल महुराई दव्बाई आहारे । त ओ एगदेसेणं ओयमाहारेह, तस्स फलविंट सरिसा उप्पल नालोवमा भवइ नाभिरसहरणी जगणीए सपाई नाभीए पडिबद्धा नाभीए तीए गन्भो ओयं आइयइ । अएहयंतीए ओगाए लीए गन्भो विवद जाव जाउति ।। सूत्रं ५ ॥ For Private And Personal Use Only ११
SR No.020790
Book TitleTandulvaicharik Prakirnakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbikadutta Oza
PublisherSadhumargi Jain Hitkarini Samstha
Publication Year1950
Total Pages103
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_tandulvaicharik
File Size12 MB
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