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Sun Mahavir Jain AradhanaKendra
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भावार्थ:-यह शरीर विष्ठा के संसर्ग से तथा नव तारों से मल के निकलते रहने से महा अशुद्ध है। यह कच्चे घड़े के समान शीन नष्ट होने वाला है, इसलिये इससे विरक्त होजाना चाहिये ।। ११६ ।।
दो हत्था दो पाया, सीसं उच्चंपियं कबंधमि । कलमल कोट्ठागारं, परिवहसि दुयादुयं वच्चं ॥ ११७॥ छाया-द्वी हस्ती द्वौ पादी, शीर्ष उचम्मितः कबन्धे । कलमलकोष्ठागार, परिवहसि द्रत द्रत वचः ॥ ११७॥
भावार्थ:-दो हाथ दो पैर और शिर इस धड़ में जोड़ा हुआ है। यह मल का कोष्वागार है। तुम विष्ठा को लिये हुए क्यों शीघ्रता पूर्वक विचरते हो? ॥११७॥
तं य किर रूववंत, वचंत रायमग्गमोइण्णं । परगंधेहिं सुगंधयं, मएणतो अप्पणो गंध ॥ ११८ ।। छाया-तण किल रूपबद्, नजद्राजमार्ग प्राप्तम् । परगन्धैः सुगन्धक, मन्यमान आत्मनो गन्धम् ॥११८॥
भावार्थ:-जिसका स्वरूप बताया गया है ऐसे इस शरीर को राजमार्ग के ऊपर जाते हुए देख कर तुम इसे रूपवान मानते हो तथा अन्य पदार्थों के गन्ध से सुगन्धित बने हुए इसके गन्ध को निज का गन्ध मानते हो ।। ११ ।।
पाडलचंपयमल्जिय अगरुयचंदणतुरुकवामीसं । गंध समोयरन्तं, मगणतो अप्पणो गंधं ॥ ११६ ॥ छाया-पाटलचम्पकमक्षिकागुरुकचन्दनतुरुष्क व्यामिश्रम् । गन्धं समास्तरन्तं, मन्वान आत्मनो गन्धम ॥ ११६ ॥
भावार्थ:-गुलाब, चम्पा, चमेली, अगर, चन्दन और कस्तुरी के संयोग से उत्पन्न गन्ध चारों तरफ फैल रहा है, उसे तुम जा अपना गन्ध मान कर प्रसन्न होते हो।। ११६ ॥
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