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________________ Shn Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पर्याप्तः पूर्वभाविक वैक्रियलब्धिक्क्रः पूर्वभविकावधिज्ञान लब्धिकस्तथारूपस्य श्रमणस्य माहनस्य वा अन्तिकं एकमपि आर्यं धार्मिकं सुवचनं श्रुखा निशम्य ततः स भवति संवेगसञ्जातश्रद्धः तीव्रधर्मानुरागरक्तः । स जीवो धर्मकामुकः पुण्यकामुकः स्वर्गकामुकः मोक्षकामुकः धर्मकाक्षितः पुण्य काङ क्षितः स्वर्गकाङ क्षितः मोक्षकाङ क्षितः धर्मपिपासितः पुण्यपिपासितः स्वर्गपिपासितः, मोक्षपिपासितः तचित्तः तन्मनाः तल्लेश्यः तदध्यवसितः माध्यवसायः तदर्पितकरणः तदर्थोपयुक्तः, तद्भावनाभावितः एतस्मिन्नन्तरे कालं कुर्यात् तदा देवलोकेषूत्पद्यते । तेनार्थेन हे गौतम ! एवमुच्यते अस्त्येक उत्पदधते, अस्त्येकको नोत्पदद्यते । भावार्थ - हे भगवन् ! क्या गर्भवासी जीव मर कर देवलोक में उत्पन्न होता है ? हे गौतम! कोई उत्पन्न होता है और कोई नहीं होता है। हे भगवन् ! इसका क्या कारण है कि—कोई उत्पन्न होता है और कोई नहीं होता है ? हे गौतम! जो जीव संशी पश्च ेन्द्रिय है और समस्त पर्याप्रियों से पूर्ण हो गया है वह पूर्व भव की वैक्रियलब्धि तथा अवधिज्ञानलब्धि के द्वारा तथारूप के श्रमण माहन के निकट एक भी आर्य धार्मिक सुन्दर वचन को सुनकर उसके प्रभाव से धर्म का श्रद्धालु हो जाता है और सांसारिक लाखों दुःखों को जानकर उनसे विरक्त हो जाता है। धर्म में तीव्र अनुराग होने से वह उस रङ्ग में रञ्जित हो जाता है। वह जीव धर्म की इच्छा करता है, वह पुण्य की इच्छा करता है। वह स्वर्ग तथा मोक्ष की इच्छा करता है। वह धर्म, पुण्य, स्वर्ग और मोक्ष में आसक्त हो जाता है एवं धर्म, पुण्य, स्वर्ग और मोक्ष में उसकी तृप्ति नहीं होती है। उसका मन धर्म पुण्य स्वर्ग और मोक्ष में लगा रहता है एवं इन्हीं विषयों का वह विशेष उपयोग रखता है तथा इन्हीं विषयों के सम्पादन करने का उसका अध्यवसाय होता है । वह तीव्र रूप से इनके लिये प्रयत्न करता है वह इन्हीं विषयों में सदा उपयोग रखता है, वह इन्हीं में अपनी इन्द्रियों को अर्पण कर देता है एवं इनकी भावना से ही वह सदा रञ्जित रहता For Private And Personal Use Only १६
SR No.020790
Book TitleTandulvaicharik Prakirnakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbikadutta Oza
PublisherSadhumargi Jain Hitkarini Samstha
Publication Year1950
Total Pages103
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_tandulvaicharik
File Size12 MB
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