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________________ Sun Mahavir Jain AradhanaKendra www.kobatiram.org Acharya Kensgegarn Syarmandir BEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE जंघाबलं भवई । ताणं चेव से उवग्याएणं सीसवेयणा अद्धसीसवेयणा मत्थयमूले अच्छीणि अधिज्जति । छाया-आयुष्मन् ! अस्मिन् शरीर पष्टिाशिराशतं नामिप्रभवाणा मधोगामिनीनी पादतलमपगताना, यासा निरुपधातेन अंधाधलं भवति । तासाथ तस्योपघातेन शिरोवेदना अद्ध शिरोवेदना मस्तकशल अक्षिणी अन्धी भवतः । भावार्थ-हे घायुष्मन् ! इस शरीर में १६० शिराय नाभि से निकल कर नीचे की ओर जाती ह पैर के तल में मिलती हैं। उन शिराओं की सहायता से जंधा का बल पत्पन्न होता है। उन शिराओं में जब किसी प्रकार का विकार पैदा हो जाता है तब शिर में पीया होती है। प्राधे शिर में पीड़ा होती है, मस्तक में शूल रोग हो जाता है और नेत्र अन्धे हो जाते हैं। आउसो ! इमंमि सरीरए सढिसिरासयं नामिप्पभवाणं तिरियगामिणीणं हत्थतलमुवगयाणं जाणंसि निरुवग्घाएणं बाहुबलं हवइ, ताणं चेव से उवग्धाएणं पासवेयणा पुट्टिवेयणा कुच्छिवेयणा कुच्छिसूले हवाइ । छाया-आयुष्मन ! अस्मिन् शरीरे षष्टिः शिराणां शतं नामिप्रभवाणी तिर्यग्गामिनीना हस्ततलमुपगतानां यासां निरुपघातेन बाहुबल भवति । तासाचैव तस्योपघातेन पार्श्ववेदना पृष्ठवेदना कुक्षिवेदना कुक्षिशूलं भवति । ____भावार्थ-हे आयुष्मन् ! इस शरीर में १६० नादियाँ नाभि से निकल कर तिर्की जाती हैं और वे हाथ के तल में जाकर मिल जाती हैं उनके ठीक रहने पर भुजा का बल बढ़ता है और उनमें विकार उत्पन्न होने पर पार्व पीड़ा, पृष्ठ पीड़ा, उदर पीड़ा और सदर में शूल रोग उत्पन्न होता है। REEDEEDEESEISBEE32E3ERESSADESENE For Private And Personal use only
SR No.020790
Book TitleTandulvaicharik Prakirnakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbikadutta Oza
PublisherSadhumargi Jain Hitkarini Samstha
Publication Year1950
Total Pages103
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_tandulvaicharik
File Size12 MB
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