Book Title: Pravachansara Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्दकुन्द-रचित प्रवचनसार (खण्ड-1) (मूलपाठ-डॉ. ए. एन. उपाध्ये) (व्याकरणिक विश्लेषण, अन्वय, व्याकरणात्मक अनुवाद) संपादन डॉ. कमलचन्द सोगाणी अनुवादक श्रीमती शकुन्तला जैन a gramuli লায় তীব্র ভারী जनविद्या संस्थान श्री महावीरजी प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी राजस्थान For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्दकुन्द - रचित प्रवचनसार ( खण्ड - 1 ) (मूलपाठ - डॉ. ए. एन. उपाध्ये) ( व्याकरणिक विश्लेषण, अन्वय, व्याकरणात्मक अनुवाद) संपादन डॉ. कमलचन्द सोगाणी निदेशक जैनविद्या संस्थान - अपभ्रंश साहित्य अकादमी अनुवादक श्रीमती शकुन्तला जैन सहायक निदेशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी णाणु ज्जीवो जोबो जैनविद्या संस्थान श्री महावीरजी प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी राजस्थान For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी श्री महावीरजी - 322 220 (राजस्थान) दूरभाष - 07469-224323 प्राप्ति-स्थान 1. साहित्य विक्रय केन्द्र, श्री महावीरजी 2. साहित्य विक्रय केन्द्र दिगम्बर जैन नसियाँ भट्टारकजी सवाई रामसिंह रोड, जयपुर - 302 004 दूरभाष - 0141-2385247 प्रथम संस्करण : जुलाई, 2013 सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन मूल्य -350 रुपये ISN 978-81-926468-2-4 पृष्ठ संयोजन फ्रेण्ड्स कम्प्यूटर्स जौहरी बाजार, जयपुर - 302 003 दूरभाष - 0141-2562288 • मुद्रक जयपुर प्रिण्टर्स प्रा. लि. एम.आई. रोड, जयपुर - 302 001 For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका पृष्ठ संख्या 117 129 क्र.सं. विषय प्रकाशकीय ग्रंथ एवं ग्रंथकारः सम्पादक की कलम से संकेत सूची ज्ञान-अधिकार मूल पाठ परिशिष्ट-1 (i) संज्ञा-कोश (ii) क्रिया-कोश (iii) कृदन्त-कोश (iv) विशेषण-कोश (v) सर्वनाम-कोश (vi) अव्यय-कोश परिशिष्ट-2 छंद .. परिशिष्ट-3 सम्मतिः द्रव्यसंग्रह सहायक पुस्तकें एवं कोश 132 138 144 146 153 156 159 For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय आचार्य कुन्दकुन्द-रचित 'प्रवचनसार (खण्ड-1)' हिन्दी-अनुवाद सहित पाठकों के हाथों में समर्पित करते हुए हमें हर्ष का अनुभव हो रहा है। आचार्य कुन्दकुन्द का समय प्रथम शताब्दी ई. माना जाता है। वे दक्षिण के कोण्डकुन्द नगर के निवासी थे और उनका नाम कोण्डकुन्द था जो वर्तमान में कुन्दकुन्द के नाम से जाना जाता है। जैन साहित्य के इतिहास में आचार्य श्री का नाम आज भी मंगलमय माना जाता है। इनकी समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार, रयणसार, अष्टपाहुड, दशभक्ति, बारस अणुवेक्खा कृतियाँ प्राप्त होती है। आचार्य कुन्दकुन्द-रचित उपर्युक्त कृतियों में से ‘प्रवचनसार' जैनधर्मदर्शन को प्रस्तुत करनेवाली शौरसेनी भाषा में रचित एक रचना है। इसमें कुल 275 गाथाएँ हैं। इस ग्रन्थ में तीन अधिकार हैं। 1. ज्ञान-अधिकार 2. ज्ञेय-अधिकार 3. चारित्र-अधिकार। पहले ज्ञान-अधिकार में 92 गाथाएँ हैं। इसमें आत्मा और केवलज्ञान, इन्द्रिय और अतीन्द्रिय सुख, शुभ, अशुभ और शुद्ध उपयोग तथा मोहक्षय आदि का प्ररूपण है। दूसरे ज्ञेय-अधिकार में 108 गाथाएँ हैं। इसमें द्रव्य, गुण और पर्याय का स्वरूप, मूर्त और अमूर्त द्रव्यों का विवेचन, जीव का लक्षण, जीव और पुद्गल का संबंध, निश्चय और व्यवहार नय का अविरोध और शुद्धात्मा आदि का प्रतिपादन है। तीसरे चारित्र-अधिकार में 75 गाथाएँ हैं। इसमें आगम ज्ञान का महत्व, श्रमण का लक्षण, मोक्षतत्व आदि का निरूपण है। 'प्रवचनसार' का हिन्दी अनुवाद अत्यन्त सहज, सुबोध एवं नवीन शैली में किया गया हैं जो पाठकों के लिए अत्यन्त उपयोगी होगा। इसमें गाथाओं के For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दों का अर्थ व अन्वय दिया गया है। इसके पश्चात संज्ञा-कोश, क्रिया-कोश, कृदन्त-कोश, विशेषण-कोश, सर्वनाम-कोश, अव्यय-कोश दिया गया है। पाठक 'प्रवचनसार' के माध्यम से शौरसेनी प्राकृत भाषा व जैनधर्म-दर्शन का समुचित ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे, ऐसी आशा है। प्रस्तुत पुस्तक के तीन अधिकारों में से केवल ज्ञान-अधिकार,खण्ड-1 प्रकाशित किया जा रहा है। अपभ्रंश भाषा के दार्शनिक साहित्य को आसानी से समझने और प्राकृत-अपभ्रंश की पाण्डुलिपियों के सम्पादन में प्रवचनसार का विषय सहायक होगा। श्रीमती शकुन्तला जैन, एम.फिल. ने बड़े परिश्रम से प्राकृत-अपभ्रंश भाषा सीखने-समझने के इच्छुक अध्ययनार्थियों के लिए 'प्रवचनसार (खण्ड-1)' का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया है। अतः वे हमारी बधाई की पात्र हैं। आशा है कि वे प्रवचनसार के ज्ञेय-अधिकार व चारित्र-अधिकार को भी इसी प्रकार अनुवाद करके पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करेंगी। . पुस्तक प्रकाशन के लिए अपभ्रंश साहित्य अकादमी के विद्वानों विशेषतया श्रीमती शकुन्तला जैन के आभारी हैं जिन्होंने 'प्रवचनसार(खण्ड-1) का हिन्दीअनुवाद करके प्राकृत के पठन-पाठन को सुगम बनाने का प्रयास किया है। पृष्ठ संयोजन के लिए फ्रेण्ड्स कम्प्यूटर्स एवं मुद्रण के लिए जयपुर प्रिण्टर्स धन्यवादार्ह है। जस्टिस नगेन्द्र कुमार जैन प्रकाशचन्द्र जैन अध्यक्ष मंत्री प्रबन्धकारिणी कमेटी दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी डॉ. कमलचन्द सोगाणी संयोजक जैनविद्या संस्थान समिति जयपुर वीर निर्वाण संवत्-2539 13.07.2013 (vi) For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ एवं ग्रंथकार संपादक की कलम से आचार्यकुन्दकुन्द विश्व प्रसिद्ध आध्यात्मिक दार्शनिक हैं। आध्यात्मिक नैतिक-चारित्रवाद की संभावना को पुष्ट करने के लिए वे दार्शनिक अवधारणा को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि पदार्थ मूलरूप से परिवर्तन स्वभाववाला होता है। जब जीव शुभ, अशुभ या शुद्ध भाव से रूपान्तर को प्राप्त होता है तो वह शुभ, अशुभ और शुद्ध होता है। इस लोक में परिवर्तन के बिना पदार्थ नहीं है और पदार्थ के बिना परिवर्तन नहीं है। पदार्थ द्रव्य-गुण-पर्याय में स्थित रहता है और वह अस्तित्ववान कहा गया है। आत्म द्रव्य पर इस अवधारणा को प्रयुक्त करते हुए आचार्य कहते हैं कि जब आत्मा शुद्ध क्रियाओं के संयोग से युक्त होता है तो मोक्ष सुख को प्राप्त करता है तथा जब वह शुभ क्रियाओं (देव, मुनि, गुरु भक्ति, दान, श्रेष्ठ आचरण, उपवासादि) में संलग्न होता है तो लौकिक, अलौकिक सुख प्राप्त करता है। जब वही आत्मा अशुभ क्रियाओं में संलग्न होता है तो परिणामस्वरूप खोटा मनुष्य और पशु होकर असहनीय दुःखों से घिर जाता आध्यात्मिक-चारित्रवाद और शुद्धोपयोग समानार्थक है। आचार्यकुन्दकुन्द का कहना है कि शुद्धोपयोगी आत्माओं का सुख श्रेष्ठ, आत्मोत्पन्न, इन्द्रिय विषयों से परे, अनुपम, अनंत और शाश्वत होता है। शुद्धोपयोगी श्रमण की जीवन दृष्टि की व्याख्या करते हुए आचार्य का कथन है कि वह आसक्ति रहित (विगदरागो), सुख-दुःख में सम (समसुहदुक्खो), पदार्थ और आगम के प्रवचनसार (खण्ड-1). (1) For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहस्य को जाननेवाला होता है (सुविदिदपयत्थसुत्तो)। ऐसे श्रमण में एक विशेषता और उत्पन्न होती है कि वह ज्ञेय पदार्थों के अंत को प्राप्त कर लेता है (जादि परं णेयभूदाणं) अर्थात् वह सर्वज्ञ हो जाता है। अपने सामर्थ्य की अनाश्रित अभिव्यक्ति के कारण वह स्वयंभू' होता है, अपने मूलस्वरूप को प्राप्त कर लेता है (सो लद्धसहावो सव्वण्हू, हवदि सयंभू)। शुद्धोपयोग को दार्शनिक रूप से पुष्ट करते हुए आचार्य का प्रतिपादन है कि शुद्धोपयोग की उत्पत्ति विनाश-रहित और अशुद्धोपयोग का विनाश उत्पत्ति-रहित होता है। इस तरह से शुद्धोपयोग पर्याय की उत्पत्ति, अशुद्धोपयोग पर्याय का विनाश और आत्म द्रव्य की ध्रौव्यता उपदिष्ट है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि शुद्धोपयोगी आत्मा अतीन्द्रिय, सर्वज्ञ और अनंत सुखमय हो जाता है। केवलज्ञान की अवधारणा जैसा उपर्युक्त कहा गया हैः शुद्धोपयोगी आत्मा केवलज्ञानी हो जाता है। प्रश्न यह है कि केवलज्ञान का स्वरूप क्या है? केवलज्ञान में समस्त द्रव्य-पर्यायें प्रत्यक्ष होती है, केवली उनको अवग्रह आदि क्रियाओं से नहीं जानते हैं। केवली के कुछ भी परोक्ष नहीं है (णत्थि परोक्खं किंचि)। केवली का ज्ञान सर्वव्यापक होता है, क्योंकि आत्मा ज्ञान प्रमाण हैं और ज्ञान ज्ञेय प्रमाण कहा गया है (णाणं तु सव्वगयं)। ज्ञानमय होने के कारण केवली को सर्वव्यापक कहा गया है और जगत के सब पदार्थ उनमें स्थित कहे गये हैं। यहाँ यह समझने योग्य है कि केवलज्ञानी के लिए पदार्थ ऐसे ही हैं, जैस रूपों के लिए चक्षु। ज्ञानी सब ज्ञेयों को जानता-देखता है, जैसे चक्षु रूपों को। सच तो यह है कि ज्ञान पदार्थों में व्याप्त होकर रहता है, जैसे दूध में डाला हुआ इन्द्रनील रत्न अपनी आभा से दूध ( 2 ) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में व्याप्त होकर रहता है। यह कहा गया है कि ज्ञानी पर पदार्थों को न तो ग्रहण करते हैं न छोड़ते हैं और न ही बदलते हैं। वे तो पदार्थों को जानते-देखते हैं (सो जाणदि पेच्छदि) । यहाँ यह नहीं कहा जा सकता है कि आत्मा ज्ञान के द्वारा जाननेवाला ज्ञायक होता है। किन्तु आत्मा स्वयं ही ज्ञान में रूपान्तरित होता है और समस्त पदार्थ ज्ञान में स्थित रहते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द निःसंकोच यह बात कहते हैं कि - यदि अनुत्पन्न हुई और नष्ट हुई पर्याय ज्ञान में प्रत्यक्ष नहीं होती है (तो) निश्चय ही इस कारण उस ज्ञान को दिव्य कौन प्रतिपादन करेगा ? केवलज्ञान अतीन्द्रिय होता है। प्रश्न है कि अरिहंत अवस्था में केवली की क्रियाएँ कैसी होती है ? उत्तर में कहा गया है कि अरहंत अवस्था में अरिहंतों का उठना, बैठना, खड़े रहना और उपदेश देना स्वाभाविक रूप से घटित होता है, जैसे स्त्रियों में मातृत्व स्वाभाविक रूप से घटित होता है। यद्यपि अरिहंत पुण्य के प्रभाव से होते हैं, किन्तु उनकी क्रियाएँ आसक्ति-रहित कर्मक्षय के निमित्त होती है, इसलिए उनको क्षायिकी क्रिया कहते हैं। यहाँ यह समझना चाहिये कि यदि ज्ञानी का ज्ञान पदार्थों को अवलम्बन करके क्रम से उत्पन्न होता है तो वह ज्ञान न ही नित्य, न क्षायिक और न ही सर्वव्यापक होता है। आश्चर्य है कि! दिव्य ज्ञान तीन काल में चिरस्थायी असमान सभी जगह स्थित नाना प्रकार के समस्त पदार्थों को एक साथ जानता है। यह दिव्य ज्ञान की ही महिमा है। आत्मा उन पंदार्थों को जानता हुआ भी उन पदार्थों को न ही रूपान्तरित करता है, न ग्रहण करता है और न ही उन पदार्थों में उत्पन्न होता है, इसलिए वह आत्मा अबंधक (कर्मबंध नहीं करनेवाला) कहा गया है। यहाँ यह जानना आवश्यक है कि जैसे ज्ञान अतीन्द्रिय और इन्द्रिय भेदवाला होता है, उसी प्रकार सुख भी अतीन्द्रिय और इन्द्रिय भेदवाला होता प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only (3) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। जो ज्ञान स्वयं ही उत्पन्न हुआ है, पूर्ण है, शुद्ध है, अनन्त पदार्थों में फैला हुआ है, इन्द्रियों से जानने की पद्धति अवग्रह आदि के प्रयोग से रहित है वह निश्चय ही अद्वितीय सुख कहा गया है। निश्चय ही जो केवलज्ञान है वह स्वयं में सुख है और उसका लोक में प्रभाव भी सुखरूप ही होता है। चूँकि उन केवली 'के घातिया कर्म विनाश को प्राप्त हुए हैं इसलिए उनके किसी प्रकार का दुःख नहीं कहा गया है। केवली का ज्ञान पदार्थों (ज्ञेय) के अंत को पहुँचा हुआ है, उसका दर्शन लोक और अलोक में फैला हुआ है, उनके द्वारा समस्त अनिष्ट समाप्त किया गया है, परन्तु जो वांछित है, वह प्राप्त कर लिया गया है। शुभोपयोग से उत्पन्न होनेवाले विविध पुण्य देवों में भी विषयतृष्णा उत्पन्न करते हैं उन तृष्णाओं के कारण वे दुःखी रहते हैं। यह सच है कि इन्द्रियों से प्राप्त सुख पर की अपेक्षा रखनेवाला, अड़चनों सहित, हस्तक्षेप / समाप्त किया गया (परेशानी में डालनेवाले) कर्मबंध का कारण है और ( अन्त में) कष्टदायक होता है। इसलिए वह सुख अन्तिम परिणाम में दुःख ही है । यह निर्विवाद है कि पाप दुखोत्पादक और पुण्य सुखोत्पादक है। व्यक्ति और सामाजिक विकास के दृष्टिकोण से पुण्य बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। यहाँ तक कि अरहंत अवस्था पुण्य के प्रभाव से ही होती है, किन्तु पुण्य उत्पन्न सुख, पराश्रित, अड़चनों सहित, अन्त किया जा सकनेवाला और अन्तिम परिणाम में कष्टदायक होता है। आध्यात्मिक चारित्रवाद ऐसे सुख को जीवन में लाना चाहता है जो स्वआश्रित हो, अनुपम हो, अनन्त और शाश्वत हो। इसलिए आचार्य कुन्दकुन्द का कहना है कि पुण्य से उत्पन्न सुख गहरेतल पर दुखोत्पादक ही है। शुद्धोपयोग की साधना में यह बाधक है। अतः इसको (4) For Personal & Private Use Only प्रवचनसार (खण्ड-1) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किस तरह सर्वथा उपादेय कहा जा सकता है? आचार्य का कहना है कि जो व्यक्ति जीवन के परम प्रयोजन (परमार्थ) को जानकर संपत्ति / वस्तुओं/व्यक्तियों में आसक्ति को तिलांजलि दे देता है वह शुद्धोपयोगी हो जाता है। शुद्धोपयोग की साधना शुद्धोपयोग की साधना वास्तव में 'समता' की साधना है। यह ही आध्यात्मिक - चारित्रवाद है। यही धर्म है। समता का प्रारंभ निश्चय ही आध्यात्मिक जाग्रति/आत्मस्मरण से होता है। यह प्रारंभ इतना महत्त्वपूर्ण है कि केवल शुभचारित्र में प्रयत्नशील व्यक्ति शुद्धात्मा / शुद्धोपयोग को प्राप्त नहीं कर सकता है। शुद्धोपयोग में बाधक तत्त्व मोह है, किन्तु जो आत्मा को जानता है, उसमें जाग्रत है, उसका मोह (आत्मविस्मृति भाव) समाप्त हो जाता है। जिसने आत्मा के सम्यक् सार को समझ लिया है वह ही चारित्र धारण करके शुद्धात्मा को प्राप्त कर लेता है। सभी अरिहंतों ने इसी प्रकार मोक्ष प्राप्त किया है | मोह के चिन्ह है: करुणा का अभाव, विषयों में आसक्ति और पदार्थ का अयथार्थ ज्ञान। इस मोह को नष्ट करने के लिए आगम का निरन्तर अध्ययन किया जाना अपेक्षित है। इसी से स्व और पर का समुचित ज्ञान संभव है। अन्त में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि “जिसके द्वारा मोह दृष्टि नष्ट की गई है, जो आगम में कुशल हैं, जो वीतराग चारित्र में उद्यत है, वह महात्मा है, श्रमण है और वह ही इन विशेषणों से युक्त चलता-फिरता 'धर्म' है । " प्रवचनसार (खण्ड- 1 ) For Personal & Private Use Only (5) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसार को अच्छी तरह समझने के लिए गाथा के प्रत्येक शब्द जैसेसंज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण, कृदन्त आदि के लिए व्याकरणिक विश्लेषण में प्रयुक्त संकेतों का ज्ञान होने से प्रत्येक शब्द का अनुवाद समझा जा सकेगा। अ - अव्यय (इसका अर्थ = लगाकर लिखा गया है) अक - अकर्मक क्रिया अनि - अनियमित कर्म - कर्मवाच्य नपुं. - नपुंसकलिंग पु. - पुल्लिंग भूकृ - भूतकालिक कृदन्त व - वर्तमानकाल वकृ - वर्तमान कृदन्त वि - विशेषण विधि - विधि विधिकृ - विधि कृदन्त संकृ - संबंधक कृदन्त सक - सकर्मक क्रिया सवि - सर्वनाम विशेषण स्त्री. - स्त्रीलिंग हेकृ - हेत्वर्थक कृदन्त ( 6 ) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ()- इस प्रकार के कोष्ठक में मूल शब्द रखा गया है। •[()+()+().....] इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर + चिह्न शब्दों में संधि का द्योतक है। यहाँ अन्दर के कोष्ठकों में गाथा के शब्द ही रख दिये गये हैं। •[()-()-()..... ] इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर -' चिह्न समास का द्योतक है। • {[ ()+()+().....]वि} जहाँ समस्त पद विशेषण का कार्य करता है वहाँ इस प्रकार के कोष्ठक का प्रयोग किया गया है। ‘जहाँ कोष्ठक के बाहर केवल संख्या (जैसे 1/1, 2/1 आदि) ही लिखी है वहाँ उस कोष्ठक के अन्दर का शब्द संज्ञा' है। 'जहाँ कर्मवाच्य, कृदन्त आदि प्राकृत के नियमानुसार नहीं बने हैं वहाँ कोष्ठक के बाहर ‘अनि' भी लिखा गया है। क्रिया-रूप निम्न प्रकार लिखा गया है 1/1 अक या सक - उत्तम पुरुष/एकवचन 1/2 अक या सक - उत्तम पुरुष/बहुवचन 2/1 अक या सक - मध्यम पुरुष/एकवचन 2/2 अक या सक - मध्यम पुरुष/बहुवचन 3/1 अक या सक - अन्य पुरुष/एकवचन 3/2 अक या सक - अन्य पुरुष/बहुवचन प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभक्तियाँ निम्न प्रकार लिखी गई हैं 1/1 - प्रथमा/एकवचन 1/2 - प्रथमा/बहुवचन 2/1 - द्वितीया/एकवचन 2/2 - द्वितीया/बहुवचन 3/1 - तृतीया/एकवचन 3/2 - तृतीया/बहुवचन 4/1 - चतुर्थी/एकवचन 4/2 - चतुर्थी/बहुवचन 5/1 - पंचमी/एकवचन 5/2 - पंचमी/बहुवचन 6/1 - षष्ठी/एकवचन 6/2 - षष्ठी/बहुवचन 7/1 - सप्तमी/एकवचन 7/2 - सप्तमी/बहुवचन (8) प्रवचनसार For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसार (पवयणसारो) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसार (पवयणसारो) ज्ञान-अधिकार (खण्ड-1) (10) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. एस सुरासुरमणुसिंदवंदिदं धोदघाइकम्ममलं। पणमामि वड्डमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं।। (एत) 1/1 सवि .यह सुरासुरमणुसिंदवंदिदं [(सुर)+(असुरमणुसिंदवंदिद)] [(सुर)-(असुर)-(मणुसिंद)- देवताओं, दानवों, (वंदिद) भूक 2/1] राजाओं द्वारा वंदना किये गये धोदघाइकम्ममलं [(धोद) भूकृ अनि- धो दिया (घाइकम्म)-(मल) 2/1] घातिया कर्मरूपी मैल को पणमामि वड्डमाणं तित्थं . (पणम) व 1/1 सक (वड्डमाण) 2/1 (तित्थ) 2/1 वि (धम्म) 6/1 .. (कत्तार) 2/1 वि प्रणाम करता हूँ श्री वर्धमान को तारने में समर्थ धर्म के करनेवाले (उपदेशक) धम्मस्स कत्तारं - अन्वय- एस वड्डमाणं पणमामि सुरासुरमणुसिंदवंदिदं धोदघाइकम्ममलं तित्थं धम्मस्स कत्तारं। ... अर्थ- यह (मैं) श्री वर्धमान (तीर्थंकर) को प्रणाम करता हूँ, (ऐसे) . (वर्धमान) (को) (जो) देवताओं, दानवों और राजाओं द्वारा वंदना किये गये (हैं), (जिन्होंने) घातिया कर्मरूपी मैल को धो दिया (है), (जो) (प्राणियों को) तारने में समर्थ (हैं) (तथा) (जो) धर्म के करनेवाले (उपदेशक) (हैं)। प्रवचनसार (खण्ड-1) (11) For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. सेसे पुण तित्थयरे ससव्वसिद्धे विसुद्धसब्भावे। समणे य णाणदंसणचरित्ततववीरियायारे।। शेष . (सेस) 2/2 वि पुण अव्यय इसके अनन्तर तित्थयरे (तित्थयर) 2/2 तीर्थंकरों को ससव्वसिद्धे [(स) वि- (सव्व) सवि- ... विद्यमान सभी (सिद्ध) 2/2 वि] सिद्धों को विसुद्धसब्भावे {[(विसुद्ध) वि-(सब्भाव) विशुद्ध स्वभाववाले 2/2] वि} समणे (समण) 2/2 श्रमणों को अव्यय तथा. . णाणदंसणचरित्त- [(णाणदंसणचरित्ततववीरिय+ तववीरियायारे आयारे)] {[(णाण)-(दसण)- ज्ञानाचार, दर्शनाचार, (चारित्त)-(तव)-(वीरिय)- चारित्राचार, तपाचार (आयार) 2/2] वि} और वीर्याचारवाले अन्वय- पुण सेसे तित्थयरे विसुद्धसब्भावे ससव्वसिद्धे य समणे णाणदंसणचरित्ततववीरियायारे। अर्थ- इसके अनन्तर शेष तीर्थंकरों को, विशुद्ध स्वभाववाले विद्यमान सभी सिद्धों को तथा श्रमणों (आचार्य, उपाध्याय, और साधुओं) को (प्रणाम करता हूँ) (जो) (कि) ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार (और) वीर्याचारवाले (12) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. ते ते सव्वे समगं समगं पत्तेगमेव पत्तेगं। वंदामि य वटुंते अरहते माणुसे खेत्ते।। ते उन को उन को सभी को सव्वे समगं साथ साथ समगं पत्तेगमेव (उन) 2/2 सवि (उन) 2/2 सवि (सव्व) 2/2 सवि अव्यय अव्यय [(पत्तेगं)+ (एव)] पत्तेगं (अ) = पृथक-पृथक एव (अ) = भी (पत्तेग) 2/1 वि (वंद) व 1/1 सक · अव्यय ' (वट्ट) व 3/2 सक (अरहंत) 2/2 (माणुस) 7/1 (खेत्ते ) 7/1 पृथक-पृथक भी प्रत्येक को प्रणाम करता हूँ और पत्तगं वंदामि य वट्टते अरहते माणुसे विद्यमान हैं अरिहंतों को मनुष्य क्षेत्र में खेत्ते अन्वय- य ते ते सव्वे अरहंते माणुसे खेत्ते वटुंते समगं समगं पत्तेगमेव पत्तेगं वंदामि। अर्थ- और उन-उन सभी अरिहंतो को (जो) मनुष्य क्षेत्र में विद्यमान हैं, साथ-साथ (और) पृथक-पृथक भी प्रत्येक को प्रणाम करता हूँ। प्रवचनसार (खण्ड-1) (13) For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. किच्चा अरहताणं सिद्धाणं तह णमो गणहराणं। अज्झावयवग्गाणं साहूणं चेव सव्वेसि।। किच्चा (किच्चा) संकृ अनि करके अरहंताणं (अरहत) 4/2 अरिहंतों को सिद्धाणं (सिद्ध) 4/2 वि सिद्धों को तह अव्यय तथा.. णमो अव्यय नमस्कार गणहराणं (गणहर) 4/2 गणधरों को अज्झावयवग्गाणं' [(अज्झावय)-(वग्ग)] 4/2. अध्यापक वर्ग को साहूणं (साहू) 4/2 साधुओं को [(च)+(एव)] च (अ) = और . और एव (अ) = ही ही सव्वेसिं (सव्व) 4/2 संवि सभी अन्वय-अरहंताणं सिद्धाणं गणहराणं अज्झावयवग्गाणं तह सव्वेसिं साहूणं णमो किच्चा चेव। अर्थ- अरिहंतों को, सिद्धों को, गणधरों (आचार्यों) को, अध्यापक (उपाध्याय) वर्गको तथा सभी साधुओं को नमस्कार करके और............ वेव ही 1. 2. णमो' के योग में चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग होता है। यहाँ 'गणहर' शब्द आचार्य विशेष का वाचक है। यहाँ 'अज्झावय' शब्द उपाध्याय का वाचक है। (14) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. तेसिं विसुद्धदंसणणाणपहाणासमं समासेज्ज। उवसंपयामि सम्मं जत्तो णिव्वाणसंपत्ती।। उनके पहाणासमं विशुद्ध-दर्शन, ज्ञान प्रधान-अवस्था को तेसिं (त) 6/2 सवि विसुद्धदसणणाण- [(विसुद्धदंसणणाणपहाण)+ (आसमं)] {[(विसुद्ध) वि-(दंसण)- (णाण)-(पहाण) वि (आसम) 2/1] वि} समासेज्ज (समासेज्ज) संकृ अनि उवसंपयामि (उवसंपय) व 1/1 सक सम्मं . . (सम्म) 2/1 जत्तो अव्यय णिव्वाणसंपत्ती [(णिव्वाण)-(संपत्ति) - 1/1] उपलब्ध करके स्वीकार करता हूँ समत्व को क्योंकि निर्वाण की प्राप्ति अन्वय-तेसिं विसुद्धदंसणणाणपहाणासमं समासेज्ज सम्म उवसंपयामि जत्तो णिव्वाणं संपत्ती। अर्थ-......उनके ही (समान) विशुद्ध-दर्शन (सम्यग्दर्शन), ज्ञान (सम्यग्ज्ञान) प्रधान-अवस्था को उपलब्ध करके (मैं) समत्व (सम्यक् चारित्र) को स्वीकार करता हूँ, क्योंकि (उससे ही) निर्वाण की प्राप्ति (होती है)। प्रवचनसार (खण्ड-1) (15) For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. संपज्जदि णिव्वाणं देवासुरमणुयरायविहवेहिं। जीवस्स चरित्तादो दंसणणाणप्पहाणादो।। प्राप्त होता है निर्वाण संपज्जदि (संपज्ज) व 3/1 अक णिव्वाणं (णिव्वाण) 1/1 देवासुरमणुयराय- [(देव)+(असुरमणुयरायविहवेहि विहवेहिं)] [(देव)-(असुर)(मणुयराय) (विहव) 3/2] जीवस्स (जीव) 4/1 चरित्तादो (चरित्त) 5/1 दसणणाणप्पहाणादो [(दसण)-(णाण) (प्पहाण) 5/1 वि] देवताओं, दानवों, मनुष्यों के स्वामियों के वैभव होने पर जीक के लिए चारित्र से दर्शन, ज्ञान प्रधान से अन्वय- देवासुरमणुयरायविहवेहिं जीवस्स दंसणणाणप्पहाणादो चरित्तादो णिव्वाणं संपज्जदि। अर्थ- देवताओं, दानवों, मनुष्यों के स्वामियों के (सराग चारित्ररूपी) वैभव होने पर (भी) जीव के लिए दर्शन, ज्ञान प्रधान चारित्र (वीतराग चारित्र) से (ही) निर्वाण प्राप्त होता है। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) (16) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ- देवताओं, दानवों, मनुष्यों के स्वामियों के (अरिहंत अवस्था में) वैभव (लौकिक और अलौकिक) के साथ जीव के लिए दर्शन, ज्ञान प्रधान चारित्र से निर्वाण (परम-आनन्द) प्राप्त होता है। यहाँ 'साथ' के योग में तृतीया विभक्ति का प्रयोग हुआ है। अतः विहवेहिं का अर्थ है- वैभव के साथ प्रवचनसार (खण्ड-1) (17) For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिवो । मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो।। चारित्तं (चारित्त) 1/1 चारित्र . खलु अव्यय वास्तव में धम्मो (धम्म) 1/1 धम्मो (धम्म) 1/1 (ज) 1/1 सवि __. जो (त) 1/1 सवि __. वह समो त्ति [(सम)+ (इति)] समो (सम) 1/1 समत्व इति (अ) = ही ही . णिट्टिो (णिद्दिट्ठ) भूकृ 1/1 अनि कहा गया : . मोहक्खोहविहीणो [(मोह)-(क्खोह)- आत्मविस्मृति तथा (विहीण) भूकृ 1/1 अनि] व्याकुलता रहित .. परिणामो (परिणाम) 1/1 परिणाम अप्पणो (अप्प) 6/1 आत्मा का अव्यय निश्चय ही समो (सम) 1/1 . समत्व अन्वय- खलु चारित्तं धम्मो जो धम्मो सो समो त्ति णिहिट्ठो समो हु मोहक्खोहविहीणो अप्पणो परिणामो। अर्थ- वास्तव में चारित्र धर्म (है)। जो धर्म (है) वह समत्व ही कहा गया (है)। समत्व निश्चय ही आत्मविस्मृतिरहित (मूर्छारहित) तथा व्याकुलतारहित (हर्ष, शोक आदि द्वन्द्वात्मक प्रवृत्ति से रहित) आत्मा का परिणाम (भाव) (है)। (18) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. परिणमदि जेण दव्वं तक्कालं तम्मय त्ति पण्णत्तं। तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेदव्वो।। परिणमदि (परिणम) व 3/1 अक रूपान्तरण को प्राप्त होता है जिससे जेण द्रव्य उसी समय उसरूप (ज) 3/1 सवि . दव्वं (दव्व) 1/1 तक्कालं अव्यय *तम्मय' त्ति [(तम्मय)+ (इति)] (मूल शब्द) तम्मयं (तम्मय) 1/1 वि इति (अ) = ही पण्णत्तं (पण्णत्त) भूकृ 1/1 अनि अव्यय धम्मपरिणदो [(धम्म)-(परिणद) भूकृ 1/1 अनि] आदा. (आद) 1/1 धम्मो (धम्म) 1/1 मुणेदव्वो... (मुण) विधिकृ 1/1 कहा गया तम्हा इसलिये धर्म (समत्व) से परिवर्तित आत्मा धर्म (समत्व) समझा जाना चाहिये . अन्वय- जेण दव्वं परिणमदि तक्कालं तम्मय त्ति पण्णत्तं तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेदव्वो। ___-अर्थ- (जिस समय) जिस (भाव) से द्रव्य रूपान्तरण को प्राप्त होता है उसी समय उसरूप ही कहा गया (है)। इसलिए धर्म (समत्व) से परिवर्तित आत्मा धर्म (समत्व) (ही) समझा जाना चाहिये। प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'तम्मयं' के स्थान पर 'तम्मय' किया गया है। 1. प्रवचनसार (खण्ड-1) (19) For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो। सुद्धेण तदा सुद्धो हवदि हि परिणामसब्भावो।। जीवो परिणमदि (जीव) 1/1 (परिणम) व 3/1 अक जीव रूपान्तरण को प्राप्त होता है.... जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो सुद्धेण ... जब शुभ से । अशुभ से या . अव्यय (सुह) 3/1 वि (असुह) 3/1 वि अव्यय (सुह) 1/1 वि (असुह) 1/1 वि (सुद्ध) 3/1 वि अव्यय (सुद्ध) 1/1 वि (हव) व 3/1 अक अव्यय {[(परिणाम)-(सब्भाव) 1/1] वि} शुभ अशुभ शुद्ध से तब तदा सुद्धो हवदि होता है। निश्चय ही परिवर्तन-स्वभाववाला परिणामसम्भावो अन्वय- जीवो परिणामसभावो जदा सुहेण असुहेण वा सुद्धेण परिणमदि तदा हि सुहो असुहो सुद्धो हवदि। अर्थ- जीव परिवर्तन-स्वभाववाला (होता है)। जब (वह) शुभ, अशुभ या शुद्ध (भाव) से रूपान्तरण को प्राप्त होता है तब (क्रम से) (वह) निश्चय ही शुभ (या) अशुभ (या) शुद्ध होता है। (20) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. णस्थि विणा परिणामं अत्थो अत्थं विणेह परिणामो। दव्वगुणपज्जयत्थो अत्थो अत्थित्तणिव्वत्तो।। णत्थि नहीं विणा बिना परिवर्तन के पदार्थ पदार्थ के [(ण)+ (अत्थि )] ण (अ) = नहीं अत्थि (अ) = है अव्यय परिणाम (परिणाम) 2/1 अत्थो (अत्थ) 1/1 अत्थं (अत्थ) 2/1 विणेह [(विणा)+ (इह)] विणा (अ) = बिना इह (अ) = इस लोक में परिणामो (परिणाम) 1/1 दव्वगुणपज्जयत्थो [(दव्व) -(गुण) (पज्जायत्थ-पज्जयत्थ) 1/1 वि] अत्थो (अत्थ) 1/1 अत्थित्तणिव्वत्तो [(अत्थित्त)-(णिव्वत्त) भूकृ 1/1 अनि] बिना इस लोक में परिवर्तन द्रव्य-गुण-पर्याय में स्थित रहनेवाला पदार्थ अस्तित्व/सत्त्व से बना हुआ . अर अन्वय- इह अत्थो परिणामो विणा णत्थि परिणामं अत्थं विणा अत्थो दव्वगुणपज्जयत्थो अत्थित्तणिव्वत्तो। .. अर्थ- इस लोक में पदार्थ परिवर्तन के बिना नहीं है, परिवर्तन पदार्थ के बिना (नहीं है)। (इसलिए) पदार्थ द्रव्य-गुण-पर्याय (परिवर्तन) में स्थित/ रहनेवाला होता है। (और) (वह) (पदार्थ) अस्तित्व/सत्त्व से बना हुआ (कहा गया है) अर्थात् (अस्तित्ववान है) (अतः सत्- द्रव्य-गुण-पर्यायमय होता है)। 1. 2. 'बिना' के साथ द्वितीया, तृतीया तथा पंचमी विभक्ति का प्रयोग होता है। यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु ‘पज्जायत्थ' के स्थान पर ‘पज्जयत्थ' किया गया है। प्रवचनसार (खण्ड-1) (21) For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 11. धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो। पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं।।। धम्मेण (धम्म) 3/1 स्वभाव से (वीतराग चारित्र से) (सराग चारित्र से) परिणदप्पा 'परिवर्तित/रूपान्तरित आत्मा आत्मा अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो [(परिणद)+ (अप्पा)] [(परिणद) भूक अनि- (अप्प) 1/1] (अप्प) 1/1 . . अव्यय [(सुद्ध) वि-(संपयोग)(जुद) भूकृ 1/1 अनि] (पाव) व 3/1 सक [(णिव्वाण)-(सुह) 2/1] [(सुह) वि-(उवजुत्त) भूक 1/1 अनि] पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो यदि .. .. शुद्ध (क्रियाओं) के संयोग से युक्त प्राप्त करता है मोक्ष सुख को शुभ (क्रियाओं) में संलग्न अव्यय तथा सग्गसुहं [(सग्ग)-(सुह) 2/1] स्वर्ग सुख को अन्वय- अप्पा धम्मेण परिणद जदि अप्पा सुद्धसंपयोगजुदो णिव्वाणसुहं पावदि व सुहोवजुत्तो सग्गसुहं। ___ अर्थ- (यह सच है कि) आत्मा स्वभाव से परिवर्तित/रूपान्तरित (होता है)। यदि (वह) आत्मा शुद्ध (क्रियाओं) के संयोग से युक्त (होता है) (तो) मोक्ष सुख को प्राप्त करता है तथा (यदि वह) शुभ (क्रियाओं) में संलग्न (होता है) (तो) स्वर्ग सुख को (प्राप्त करता है)। (22) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ- यदि आत्मा वीतराग चारित्र से रूपान्तरित (होता है) (तो ) (वह) शुद्ध (क्रियाओं) के संयोग से युक्त आत्मा मोक्ष सुख को पाता है। यदि आत्मा सराग चारित्र से रूपान्तरित (होता है) (तो ) (वह) शुभ (क्रियाओं) में संलग्न आत्मा स्वर्ग सुख को पाता है। प्रवचनसार (खण्ड-1) (23) For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. असुहोदयेण आदा कुणरो तिरियो भवीय णेरइयो । दुक्खसहस्सेहिं सदा अभिंधुदो भमदि अच्वंतं । । असुहोदये आदा. कुणरो तिरियो भवीय रइयो दुक्खसहस्से हिं सदा अभिधुदो' भमदि अच्वंतं अन्वय (24) [(असुह) + (उदयेण)] [ ( असुह) वि - (उदय) 3 / 1] अशुभ कर्म के. परिणाम से (आद) 1 / 1 ( कुणर) 1 / 1 ( तिरिय) 1 / 1 (भव भवियभवीय) संक्र - (छन्द की पूर्ति हेतु 'इ' का 'ई' ) (णेरइय) 1/1 वि [ ( दुक्ख ) - (सहस्स) 3/2] अव्यय ( अभिंधुद) भूक 1 / 1 अनि (भम) व 3/1 सक. (अच्चंत ) 1 / 1 वि आत्मा 'खोटा मनुष्य. पशु, पक्षी आदि प्राणी. होकर नरक में उत्पन्न हजारों दुःखों से हमेशा अत्यधिक रूप से दुक्खसहस्सेहिं अभिंधुदो अच्वंतं भमदि । अर्थ - अशुभ कर्म के परिणाम से आत्मा खोटा मनुष्य, पशु, पक्षी आदि प्राणी (तिर्यंच) नरक में उत्पन्न (नारकी) होकर हमेशा हजारों दुःखों से अत्यधिक रूप से पकड़ा गया (होता है) (और) (संसार में) अत्यन्त भ्रमण करता है। 1. पकड़ा गया भ्रमण करता है अत्यन्त असुहोदयेण आदा कुणरो तिरियो णेरइयो भवीय सदा For Personal & Private Use Only यहाँ अनुस्वार का आगम हुआ है। यहाँ 'अभिधुदो' के स्थान पर 'अभिदुयो' पाठ लेते हैं तो उसका अर्थ होगा 'हैरान किया गया' । प्रवचनसार (खण्ड- 1 ) Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. अइसयमादसमुत्थं विसयातीदं अणोवममणंतं । अव्वुच्छिण्णं च सुहं सुद्धुवओगप्पसिद्धाणं ।। अइसयमादसमुत्थं [ (अइसयं) + (आदसमुत्थं)] अइस (अइसय) 1 / 1 वि [ ( आद) - (समुत्थ) 1 / 1 वि] [(विसय) + (अतीदं)] [ ( विसय) - (अतीद) 1 / 1 वि] इन्द्रिय-विषयों से परे [(अणोवमं)+(अणंतं)] विसयातीदं अणोवममणतं अव्वच्छिणं च सुहं अणोवमं (अणोवम) 1/1 वि अनुपम अनंत अणंतं (अणंत) 1/1 वि ( अव्वच्छिण्ण) 1 / 1 वि अव्यय (सुह) 1 / 1 सुद्धुवओगप्पसिद्धाणं [(सुद्ध)+(उवओगप्पसिद्धाणं)] [(सुद्ध) वि- (उवओग) (प्यसिद्ध) भूक 6 / 2 अनि ] - श्रेष्ठ आत्मा से उत्पन्न सतत और सुख अन्वय- सुद्धवओगप्पसिद्धाणं सुहं अइसयमादसमुत्थं विसयातीदं For Personal & Private Use Only शुद्धोपयोग से विभूषित (आत्माओं) का अणोवममणंतं च अव्वुच्छिण्णं । अर्थ- शुद्धोपयोग से विभूषित (आत्माओं) का सुख श्रेष्ठ, आत्मा से उत्पन्न, इन्द्रिय-विषयों से परे, अनुपम, अनंत और सतत ( होता है ) । प्रवचनसार ( खण्ड - 1 ) (25) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. सुविदिदपयत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो। समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवओगो त्ति। सुविदिदपयत्थसुत्तो [(सु) अ-(विदिद) भूकृ अनि पूरी तरह से (पयत्थ)-(सुत्त) 1/1] जान लिया गया पदार्थ और आगम संजमतवसंजुदो [(संजम)-(तव)- संयम और तप । (संजुद) भूकृ 1/1 अनि] . से संयुक्त विगदरागो [(विगद) भूक अनि- आसक्ति-रहित (राग) 1/1] समणो (समण) 1/1 श्रमण समसुहदुक्खो . [(सम) वि-(सुह)- समान सुख दुःख (दुक्ख)1/1] भणिदो (भण-भणिद) भूकृ 1/1 कहा गया सुद्धोवओगो त्ति [(सुद्ध)+ (उवओगो)+(इति)] [(सुद्ध) वि-(उवओग) 1/1] शुद्ध उपयोग इति (अ) = समाप्तिसूचक अन्वय- सुविदिदपयत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो समसुहदुक्खो सुद्धोवओगो त्ति समणो भणिदो। - अर्थ-(जिसके द्वारा) पदार्थ और आगम पूरी तरह से जान लिया गया (है), (जो) संयम और तप से संयुक्त (है), (जो) आसक्ति-रहित (है), (जिसके लिए) सुख-दुःख समान (है), (जिसका) उपयोग शुद्ध है- (वह) श्रमण कहा गया (है)। (26) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. उवओगविसुद्धो जो विगदावरणंतरायमोहरओ । भूदो सयमेवादा जादि परं णेयभूदाणं ।। उवओगविसुद्धो जो विगदावरणंतराय - मोहरओ भूदो मेवादा जाद परं भूदाणं [( उवओग) - (विसुद्ध ) 1/1 fal (ज) 1 / 1 सवि [(विगद) + (आवरण) + (अंतरायमोहरओ)] [(विगद) भूकृ अनि (आवरण) - (अंतराय) - ( मोहरअ ) 1 / 1 ] (भूद) भूक 1/1 अनि [(स) + (एव) + (आदा ) ] सयं (अ)= स्वयं एव (अ) = ही आदा (आद) 1/1 (जा) व 3/1 सक ( पर) 2 / 1 वि [(णेय) विधिक अनि (भूद) 6/2] उपयोग से शुद्ध For Personal & Private Use Only जो आवरण, अन्तराय, मोहरूपी रज नष्ट कर दी गई हुआ स्वयं ही अन्वय- जो आदा सयं एव उवओगविसुद्धो भूदो आवरण अंतराय मोहरओ विगद णेयभूदाणं परं जादि । अर्थ- जो आत्मा स्वयं ही उपयोग से शुद्ध हुआ ( है ) ( जिसके द्वारा ) आवरण (ज्ञानावरण, दर्शनावरण), अंतराय और मोहरूपी रज (धूल) नष्ट कर दी गई (है) (वह) (आत्मा) (स्वयं ही) ज्ञेय पदार्थों के पार (अंत) को प्राप्त कर लेता है। प्रवचनसार (खण्ड- 1 1) आत्मा प्राप्त कर लेता है पार को ज्ञेय पदार्थों के (27) Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16. तह सो लद्धसहावो सव्वण्हू सव्वलोगपदिमहिदो। भूदो सयमेवादा हवदि सयंभु त्ति णिद्दिद्यो॥ . सो अव्यय तथा (त) 1/1 सवि वह लद्धसहावो [(लद्ध) भूकृ अनि- स्वभाव प्राप्त कर (सहाव) 1/1] लिया गया सव्वण्हू (सव्वण्हु) 1/1 वि सर्वज्ञ सव्वलोगपदिमहिदो [(सव्व) सवि-(लोग)-(पदि) समस्त लोक के (मह-महिद) भूकृ 1/1]. अधिपतियों द्वारा पूजा गया (भूद) भूक 1/1 अनि हुआ सयमेवादा [(सयं)+(एव)+(आदा)] सयं (अ) स्वयं स्वयं एव (अ)= ही आदा (आद) 1/1. आत्मा (हव) व 3/1 अक होता है सयंभु त्ति [(सयंभु)+(इति)] सयंभु' (सयंभू) 1/1 स्वयंभू इति (अ) = इस प्रकार इस प्रकार णिट्ठिो (णिद्दिट्ठ) भूकृ 1/1 अनि कहा गया ही हवदि अन्वय- लद्धसहावो सव्वण्हू सव्वलोगपदिमहिदो तह सयमेव भूदो सो आदा सयंभु हवदि त्ति णिद्दिट्ठो। अर्थ- (जिसके द्वारा) (मूल) स्वभाव प्राप्त कर लिया गया (है), (जो) सर्वज्ञ (है), (जो) समस्त लोक के अधिपतियों द्वारा पूजा गया (है) तथा (जो) स्वयं ही हुआ (है)- वह आत्मा स्वयंभू होता है। (जो) इस प्रकार कहा गया (है)। 1. सयंभु- आगे संयुक्त अक्षर आने से दीर्घ का ह्रस्व हुआ है। (28) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17. भंगविहीणो भंगविहीणो य भवो संभवपरिवज्जिदो विणासो हि । विज्जदि तस्सेव पुणो ठिदिसंभवणाससमवायो।। य भवो संभवपरिवज्जिदो विणासो हि विज्जदि तस्सेव عل पुणो ठिदिसंभव णाससमवाय [(भंग) - (विहीण ) भूक 1 / 1 अनि ] अव्यय ( भव) 1 / 1 [ ( संभव) - (परिवज्ज+ परिवज्जिद) भूक 1 / 1] (विणास) 1 / 1 अव्यय (विज्ज) व 3 / 1. अक [ ( तस्स) + (एव) ] तस्स (त) 6/1 सवि एव (अ) ही अव्यय [(ठिदि) - (संभव) - ( णास ) - ( समवाय) 1 / 1] विनाश-रहित For Personal & Private Use Only और उत्पत्ति उत्पत्ति-रहित विनाश निश्चय ही होता है उसके ही फिर अन्वय- भवो भंगविहीणो य विणासो संभवपरिवज्जिदो हि विज्जदि तस्सेव पुणो ठिदिसंभवणाससमवायो । अर्थ - (आत्मा के शुद्धोपयोग की) उत्पत्ति विनाश-रहित और (आत्मा के अशुद्धोपयोग का) विनाश उत्पत्ति - रहित निश्चय ही होता है। उसके ही फिर स्थिति (ध्रौव्य), उत्पत्ति (उत्पाद) और विनाश (व्यय) का अविच्छिन्न संयोग (विद्यमान है) अर्थात् (शुद्धोपयोग पर्याय की उत्पत्ति, अशुद्धोपयोग पर्याय का विनाश और आत्म द्रव्य की धौव्यता ) । प्रवचनसार ( खण्ड - 1 ) स्थिति, उत्पत्ति और विनाश का अविच्छिन्न संयोग (29) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. उप्पादो य विणासो विज्जदि सव्वस्स अट्ठजादस्स। पज्जाएण दु केणवि अट्ठो खलु होदि सब्भूदो।। उप्पादो उत्पाद . य और विणासो विज्जदि सव्वस्स अठ्ठजादस्स पज्जाएण विनाश होता है समस्त.. पदार्थ-समूह में पर्याय से (उप्पाद) 1/1 - अव्यय (विणास) 1/1 (विज्ज) व 3/1 अक (सव्व) 6/1 सवि [(अट्ठ)-(जाद) 6/1] . (पज्जाय) 3/1 . अव्यय केण (क) 3/1 सवि वि (अ) = निश्चय ही (अट्ठ) 1/1 अव्यय (हो) व 3/1 अक (सब्भूद) 1/1 वि किन्तु केणवि किसी खलु निश्चय ही पदार्थ वास्तव में रहता है विद्यमान होदि सब्भूदो अन्वय- सव्वस्स अट्ठजादस्स केणवि पज्जाएण उप्पादो य विणासो विज्जदि दु अट्ठो खलु सब्भूदो होदि। अर्थ- समस्त पदार्थ-समूह में निश्चय ही किसी (एक) पर्याय से उत्पाद और विनाश होता है किन्तु पदार्थ वास्तव में विद्यमान (अस्तित्वरूप) (ध्रौव्य) (ही) रहता है। ____1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-134) (30) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19. पक्खीणघादिकम्मो अणंतवरवीरिओ अधिकतेजो। जादो अणिंदिओ सो णाणं सोक्खं च परिणमदि।। नष्ट किया गया घातिया कर्म शाश्वत श्रेष्ठ सामर्थ्यवाला प्रचुर-कान्तिवाला पक्खीणघादिकम्मो [(पक्खीण) भूक अनि (घादिकम्म) 1/1] अणंतवरवीरिओ {[(अणंत) वि-(वर) वि- (वीरिअ) 1/1] वि} अधिकतेजो {[(अधिक) वि (तेज) 1/1] वि} (जा) भूकृ 1/1 अणिदिओ (अणिंदिअ) 1/1 वि (त) 1/1 सवि णाणं (णाण) 2/1 सोक्खं (सोक्ख) 2/1 अव्यय परिणमदि (परिणम) व 3/1 सक जादो हुआ अतीन्द्रिय (नि सो . वह ज्ञान सुख और प्राप्त करता है । अन्वय- पक्खीणघादिकम्मो अणंतवरवीरिओ अधिकतेजो अदिदिओ जादो सो णाणं च सोक्खं परिणमदि। ___अर्थ- (जिसके द्वारा) घातिया कर्म नष्ट किया गया (है), (जो) शाश्वत (है), श्रेष्ठ-सामर्थ्यवाला (है), (जो) प्रचुर-कान्तिवाला (है), (जो) अतीन्द्रिय हुआ (है), वह (स्वयंभू आत्मा) ज्ञान (केवलज्ञान) और (अनन्त) सुख को प्राप्त करता है। .. प्रवचनसार (खण्ड-1) (31) For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20. सोक्खं वा पुण दुक्खं केवलणाणिस्स णत्थि देहगदं। जम्हा अदिदियत्तं जादं तम्हा दु तं णेयं।। सोक्खं सुख वा पुण दुक्खं केवलणाणिस्स णत्थि देहगदं (सोक्ख) 1/1 अव्यय या अव्यय और . (दुक्ख) 1/1 __.. दुःख (केवलणाणि) 4/1 वि . केवलज्ञानी के लिये [(ण)+ (अत्थि )] ण (अ) = नहीं नहीं अत्थि (अ) = है [(देह)-(गद) भूक शरीर पर 1/1 अनि] आश्रित अव्यय क्योंकि (अदिदियत्त) 1/1 अतीन्द्रियता (जा) भूकृ 1/1 . उत्पन्न हुई अव्यय इसलिए अव्यय पादपूरक (त) 1/1 सवि (णेय) विधिकृ 1/1 अनि जानने योग्य जम्हा अदिदियत्तं जाद तम्हा Al. 6 वह S अन्वय- पुण केवलणाणिस्स देहगदं सोक्खं वा दुक्खं णत्थि जम्हा अदिदियत्तं जादं तम्हा दु तं णेयं। अर्थ-और केवलज्ञानी के लिये शरीर पर आश्रित सुख या दुःख (ध्यातव्य) नहीं है, क्योंकि अतीन्द्रियता उत्पन्न हुई (है), इसलिए वह जानने योग्य (है)। (32) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21. परिणमदो खलु णाणं पच्चक्खा सव्वदव्वपज्जाया सो न परिणमदो खलु णाणं पच्चक्खा सव्वदव्वपज्जाया । सो व ते विजाणदि उग्गहपुव्वाहिं किरियाहिं । । व विजाणदि उगहपुव्वाहिं किरिया हिं 1. 2. (परिणामदो '→ परिणमदो ) (अ) स्वभाव से पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय अव्यय ( णाण) 2 / 1 (पच्चक्ख) 1/2 वि [(सव्व) सवि - (दव्व) (पज्जा ) 1 / 2 ] (त) 1/1 सवि अव्यय (त) 2/2 सवि (विजाण) व 3 / 1 सक [ ( उग्गह) - ( पुव्व ) 3 / 2 वि] (किरिया) 3/2 प्रवचनसार (खण्ड-1 -1) अन्वय- परिणमदो खलु णाणं सव्वदव्वपज्जाया पच्चक्खा सो ते उग्गहपुव्वाहिं किरियाहि णेव विजाणदि । अर्थ- स्वभाव से ही ज्ञान (केवलज्ञान) में समस्त द्रव्य-पर्यायें प्रत्यक्ष (हैं)। वे (केवली भगवान) उनको अवग्रह से युक्त क्रियाओं से नहीं जानते हैं। (सामान्यतः अवग्रह पूर्वक ही ईहा, अवाय और धारणा क्रियायें होती हैं, किन्तु केवली भगवान के इन क्रियाओं का अभाव होता है ) । ही ज्ञान में प्रत्यक्ष समस्त द्रव्य पर्यायें वह नहीं उनको यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'परिणाम' का 'परिणम' किया गया है। कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। ( हेम-प्राकृत - व्याकरणः 3-137) For Personal & Private Use Only जानता है अवग्रह से युक्त क्रियाओं से (33) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22. णत्थि परोक्खं किंचि वि समंत सव्वक्खगुणसमिद्धस्स। अक्खातीदस्स सदा सयमेव हि णाणजादस्स।। नहीं है णत्थि परोक्खं किंचि परोक्ष समंत (समंता) सव्वक्खगुणसमिद्धस्स अक्खातीदस्स अव्यय (परोक्ख) 1/1 अव्यय कुछ . अव्यय अव्यय चारों तरफ से [(सव्व)+ (अक्खगुणसमिद्धस्स)] [(सव्व) सवि-(अक्ख) . समस्त इन्द्रिय-गुणों . (गुण)-(समिद्ध) 6/1 वि] से सम्पन्न होने के कारण (अक्खातीद) 6/1 वि इन्द्रियातीत होने के कारण अव्यय [(सयं)+ (एव)] सयं (अ)= स्वयं स्वयं एव (अ)= ही अव्यय निश्चय ही [(णाण)-(जाद) ज्ञान में टिका हुआ भूक 6/1] होने के कारण सदा .. . सदा सयमेव णाणजादस्स अन्वय- सदा अक्खातीदस्स समंत सव्वक्खगुणसमिद्धस्स सयमेव णाणजादस्स हि किंचि वि परोक्खं णत्थि। अर्थ- सदा इन्द्रियातीत होने के कारण, चारों तरफ से समस्त इन्द्रियगुणों से सम्पन्न होने के कारण (और) स्वयं ही ज्ञान में टिके हुए होने के कारण निश्चय ही (केवलीभगवान के लिए) कुछ भी परोक्ष नहीं है। 1. यहाँ पाठ समंता होना चाहिये तभी छन्द पूर्ण होता है। कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-134) (34) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23. आदा णाणपमाणं णणं णेयप्पमाणमुद्दिट्ठ यं बै. लोयालो तम्हा णणं आदा णाणपमाणं गाणं णेयप्पमाणमुद्दिनं । यं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं ।। तु सव्वगयं (आद) 1 / 1 [ ( णाण) - ( पमाण) 1 / 1] ( णाण) 1 / 1 [(णेयप्पमाणं) + (उद्दिट्ठ)] [(णेय) विधिकृ अनि प्रवचनसार (खण्ड- 1 -1) ( प्पमाण) 1 / 1 ] उद्दिट्ठे (उद्दिट्ठ) भूकृ 1/1 अनि (णेय) विधि 1/1 अनि [(लोय) + (अलोयं)] [ ( लोय) - ( अलोय) 1 / 1] 'अव्यय ( णाण) 1 / 1 अव्यय (सव्वगय) 1/1 वि आत्मा ज्ञान प्रमाण ज्ञान ज्ञेय प्रमाण For Personal & Private Use Only कहा गया जानने योग्य अन्वय- आदा णाणपमाणं णाणं णेयप्पमाणमुद्दिट्टं णेयं लोयालोयं लोक और अलोक इसलिए तम्हा णाणं तु सव्वगयं । अर्थ- आत्मा ज्ञान प्रमाण ( है ) । ज्ञान ज्ञेय प्रमाण कहा गया ( है ) | ( ज्ञान से) जानने योग्य लोक और अलोक (है) इसलिए ज्ञान निश्चय ही सर्वव्यापक (है)। ज्ञान निश्चय ही सर्वव्यापक (35) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24. णाणप्पमाणमादा ण हवदि जस्सेह तस्स सो आदा हीणो वा अहिओ वा णाणादो हवदि णाणप्पमाणमादा ण हवदि जस्सेह तस्स सो आदा । हीणो वा अहिओ वा णाणादो हवदि धुवमेव ।। धुवमेव [( णाणप्पमाणं) + (आदा ) ] [ ( णाण) - ( प्पमाण) 1 / 1] आदा (आद) 1/1 अव्यय ( हव) व 3 / 1 अक [ (जस्स) + (इह ) ] जस्स (ज) 6 / 1 सवि इह (अ) = इस लोक में (त) 6/1 सवि (त) 1 / 1 सवि (आद) 1/1 (हीण ) 1 / 1 वि अव्यय ( अहिअ) 1 / 1 वि अव्यय ( णाण ) 5 / 1 ( हव) व 3 / 1 अक [(धुवं) + (एव)] धुवं (अ) एव (अ) = अवश्य = ही ज्ञान -प्रमाण आत्मा नहीं होता है For Personal & Private Use Only जिसके इस लोक में उसके वह आत्मा कम अथवा अधिक पादपूरक ज्ञान से होता है अन्वय- इह जस्स आदा णाणप्पमाणं ण हवदि तस्स सो आदा धुवमेव णाणादो हीणो वा अहिओ वा हवदि । अर्थ - इस लोक मे जिसके ( मत में) आत्मा ज्ञान- प्रमाण नहीं होता है उसके (मत में) वह आत्मा अवश्य ही ज्ञान से कम अथवा अधिक होता है । (36) प्रवचनसार ( खण्ड - 1 ) अवश्य ही Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25. हीणो जदि सो आदा तण्णाणमचेदणं ण जाणादि। अहिओ वा णाणादो णाणेण विणा कहं णादि।। हीणो जदि सो आदा तण्णाणमचेदणं जाणादि अहिओ वा णाणादो णाणेण विणा कहं . णादि (हीण) 1/1 वि कम अव्यय. • यदि (त) 1/1 सवि वह (आद) 1/1 आत्मा [(तण्णाणं)+(अचेदणं)] तण्णाणं (तण्णाण) 1/1 अनि वह ज्ञान अचेदणं (अचेदण) 1/1 वि चैतन्यरहित अव्यय नहीं (जाण) व 3/1 सक जानेगा (अहिअ) 1/1 वि अधिक अव्यय और (णाण) 5/1 ज्ञान से (णाण) 3/1 ज्ञान के अव्यय बिना अव्यय (णा) व 3/1 सक जानेगा पणा कैसे - अन्वय- जदि सो आदा णाणादो हीणो तण्णाणमचेदणं ण जाणादि वा अहिओ णाणेण विणा कहं णादि। ... अर्थ- यदि वह आत्मा ज्ञान से कम है (तो) वह ज्ञान चैतन्यरहित (होता है) (अतः) (वह) नहीं जानेगा और (यदि वह आत्मा) (ज्ञान से) अधिक है (तो) (वह आत्मा) ज्ञान के बिना कैसे जानेगा? 1. वर्तमानकाल के प्रत्ययों के होने पर कभी-कभी अन्त्यस्थ 'अ' के स्थान पर 'आ' हो जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-158 वृत्ति)। प्रश्नवाचक शब्दों के साथ वर्तमानकाल का प्रयोग प्रायः भविष्यत्काल के अर्थ में होता 2. 'बिना' के योग में द्वितीया, तृतीया तथा पंचमी विभक्ति का प्रयोग होता है। प्रवचनसार (खण्ड-1) (37) For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26. सव्वगदो जिणवसहो सव्वे वि य तग्गया जगदि अट्ठा। णाणमयादो य जिणो विसयादो तस्स ते भणिया।। सव्वगदो जिणवसहो सव्वे तग्गया जगदि अट्टा णाणमयादो (सव्वगद) 1/1 वि सर्वव्यापक (सब ज्ञेयों में पहुँचे हुए) (जिणवसह) 1/1 अरिहंत देव (सव्व) 1/2 सवि . सब अव्यय अव्यय __ और (तग्गय) भूकृ 1/2 अनि उनमें स्थित (जगदि) 7/1 अनि जगत में . (अट्ठ) 1/2 पदार्थ . (णाणमय) 5/1 वि ज्ञानमय होने से अव्यय पादपूरक (जिण) 1/1 केवली (विसय) 5/1 . विषय होने से (त) 6/1 उसके (त) 1/2 सवि । (भणिय-भणिया) भूकृ 1/2 कहे गये य जिणो विसयादो तस्स भणिया अन्वय- णाणमयादो जिणो जिणवसहो सव्वगदो य जगदि ते सव्वे वि अट्ठा तस्स विसयादो तग्गया भणिया य। अर्थ- ज्ञानमय होने से केवली अरिहन्त देव सर्वव्यापक अर्थात् (सब ज्ञेयों में पहुँचे हुए) (हैं) और जगत में वे सब ही पदार्थ उनके विषय होने से उनमें स्थित कहे गये (हैं)। (38) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27. णाणं अप्प त्ति मदं वट्टदि णाणं विणा ण अप्पाणं। तम्हा णाणं अप्पा अप्पा णाणं व अण्णं वा।। णाणं अप्प त्ति * * वट्टदि णाणं विणा ण नहीं (णाण) 1/1 ज्ञान [(अप्प)+ (इति)] अप्प (मूलशब्द) (अप्प) 1/1 आत्मा इति (अ) = चूँकि चूँकि (मद) भूकृ 1/1 अनि कहा गया (वट्ट) व 3/1 अक होता है (णाण) 1/1 . ज्ञान अव्यय बिना अव्यय (अप्पाण) 2/1° आत्मा के अव्यय इसलिए (णाण) 1/1 ज्ञान (अप्प) 1/1 आत्मा (अप्प) 1/1 आत्मा (णाण) 1/1 ज्ञान अव्यय और (अण्ण) 1/1 सवि. अन्य अव्यय अप्पाणं तम्हा णाण अप्पा अप्पा णाणं व . . अण्णं वा * * * भी .... अन्वय- अप्प णाणं मदं त्ति अप्पाणं विणा णाणं ण वट्टदि तम्हा णाणं अप्पा व अप्पा गाणं वा अण्णं। अर्थ- आत्मा ज्ञान कहा गया (है)। चूँकि आत्मा के बिना ज्ञान नहीं होता है, इसलिये ज्ञान आत्मा (है) और आत्मा ज्ञान (है) (तथा) अन्य भी (है) अर्थात् (अन्य गुणों से युक्त भी होता है)। 1. 'बिना' के योग में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है। प्रवचनसार (खण्ड-1) (39) For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28. णाणी णाणसहावो अट्ठा णेयप्पगा हि णाणिस्स। ____ रूवाणि व चक्खूणं णेवण्णोण्णेसु वटुंति।। ज्ञानी । णाणी णाणसहावो अट्टा णेयप्पगा णाणिस्स (णाणि) 1/1 वि {[(णाण)-(सहाव)1/1] वि}ज्ञानस्वभाववाला (अट्ठ) 1/2 पदार्थ . . [(णेय) विधिकृ अनि- . ज्ञेय ... (अप्पग) 1/2 वि] स्वभाववाला . अव्यय निश्चय ही (णाणि) 4/1 वि ज्ञानी के लिए (रूव) 1/2 वि रूपी पदार्थ अव्यय जैसे कि (चक्खु) 4/2 चक्षुओं के लिए [(णेव)+(अण्णोण्णेसु)] णेव (अ) = नहीं अण्णोण्णेसु (अण्णोण्ण)7/2 वि परस्पर में (वट्ट) व 3/2 अक व्यवहार करते हैं रूवाणि चक्खूणं णेवण्णोण्णेसु नहीं वति अन्वय- हि णाणी णाणसहावो अट्ठा णेयप्पगा णाणिस्स व चक्खूणं रूवाणि अण्णोण्णेसु णेव वटुंति। ____अर्थ- निश्चय ही ज्ञानी ज्ञानस्वभाववाला (होता है) (और) पदार्थ (भी) ज्ञेय स्वभाववाला (होता है)। ज्ञानी के लिए (पदार्थ) (ऐसे ही हैं) जैसे कि चक्षुओं के लिए रूपी पदार्थ। (वे) (ज्ञान और पदार्थ) परस्पर में व्यवहार नहीं करते हैं। (40) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29. ण पविट्ठो णाविट्ठोणाणी णेयेसु रूवमिव चक्खू। जाणदि पस्सदि णियदं अक्खातीदो जगमसेसं।। . ण पविट्ठो णाविठ्ठो नहीं भीतर पहुँचा हुआ नहीं भीतर पहुँचा हुआ भी नहीं ज्ञानी ज्ञेयों में णाणी णेयेसु रूवमिव अव्यय (पविट्ठ) भूकृ 1/1 अनि [(ण)+(अविठ्ठो)] ण (अ) = नहीं अविट्ठो (अ-विट्ठ) भूक 1/1 अनि (णाणि) 1/1 वि (णेय) विधिकृ 7/2 अनि [(रूवं)+ (इव)] रूवं (रूव) 2/1 इव (अ) = जैसे कि (चक्खु ) 1/1 (जाण) व 3/1 सक (पस्स) व 3/1 सक अव्यय (अक्खातीद) 1/1 वि [(जग)+(असेसं)] जगं' (जग) 2/1 असेसं (असेस) 2/1 वि रूप को जैसे कि चक्खू चक्षु जाणदि पस्सदि णियदं अक्खातीदो जगमसेसं जानता है देखता है लगातार इन्द्रियों से परे गया हुआ - संसार में समस्त अन्वय- अक्खातीदो णाणी असेसं जगं णेयेसु पविट्ठो ण अविट्ठो ण णियदं जाणदि पस्सदि इव चक्खू रूवं। अर्थ- इन्द्रियों से परे गया हुआ ज्ञानी समस्त संसार में ज्ञेयों में भीतर पहुँचा हुआ नहीं (है) (तथा) नहीं भीतर पहुँचा हुआ (ऐसा) भी नहीं (है)। (वह) लगातार जानता-देखता है, जैसे कि चक्षु रूप को। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। . (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) प्रवचनसार (खण्ड-1) . (41) For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30. रयणमिह इन्दणीलं दुद्धज्झसियं जहा सभासाए। अभिभूय तं पि दुद्धं वट्टदि तह णाणमत्थेसु।। रयणमिह इन्दणीलं दुद्धज्झसियं जहा सभासाए अभिभूय [(रयणं)+ (इह)] रयणं (रयण) 1/1 इह (अ) = इस लोक में इस लोक में (इन्दणील) 1/1 इन्द्रणील [(दुद्ध)-(ज्झसिय) 1/1 वि] . दूध में डाला हुआ अव्यय जिस प्रकार (स-भासा) 3/1 अपनी दीप्ति से (अभिभूय) संकृ अनि . व्याप्त होकर (त) 2/1 सवि उस अव्यय भी (दुद्ध) 2/1 दध में (वट्ट) व 3/1 अक रहता है अव्यय उसी प्रकार [(णाणं)+(अत्थेसु)] णाणं (णाण) 1/1. ज्ञान अत्थेसु (अत्थ) 7/2 पदार्थों में वट्टदि तह णाणमत्थेसु अन्वय- इह जहा दुद्धज्झसियं इन्दणीलं रयणं सभासाए तं दुद्धं अभिभूय वट्टदि तह णाणं पि अत्थेसु। ____ अर्थ- इस लोक में जिस प्रकार दूध में डाला हुआ इन्द्रनील रत्न अपनी दीप्ति से उस दूध में व्याप्त होकर रहता है, उसी प्रकार ज्ञान भी पदार्थों में (व्याप्त होकर) (रहता है)। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) (42) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31. जदि ते ण संति अट्ठा णाणे णाणं ण होदि सव्वगयं। सव्वगयं वा णाणं कहं ण णाणट्ठिया अट्ठा।। वे नहीं णाणं अव्यय (त) 1/2 सवि अव्यय (संति) व 3/2 अक अनि (अट्ठ) 1/2 (णाण) 7/1 (णाण) 1/1 अव्यय व 3/1 अक (सव्वगय) 1/1 वि (सव्वगय) 1/1 वि अव्यय (णाण) 1/1 होते हैं पदार्थ ज्ञान में ज्ञान नहीं होता है सर्वव्यापक सर्वव्यापक और होदि सव्वगयं सव्वगयं वा णाणं ज्ञान कहं . . अव्यय णाणठ्ठिया नहीं ज्ञानस्थित अव्यय [(णाण)-(ट्ठिय) भूकृ 1/2 अनि] (अट्ठ) 1/2 . अठ्ठा पदार्थ - अन्वय- जदि ते अट्ठा णाणे ण संति णाणं सव्वगयं ण होदि वा णाणं सव्वगयं अट्ठा णाणट्ठिया कहं ण। अर्थ- यदि वे पदार्थ ज्ञान में नहीं होते हैं (तो) ज्ञान सर्वव्यापक नहीं । होता है और (यदि) ज्ञान सर्वव्यापक (होता है) तो पदार्थ ज्ञानस्थित कैसे नहीं (है)? प्रवचनसार (खण्ड-1) (43) For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .32. गेण्हदि णेव ण मुंचदि ण परं परिणमदि केवली भगवं। पेच्छदि समंतदो सो जाणदि सव्वं णिरवसेसं।। . गेण्हदि m (गेण्ह) व 3/1 सक अव्यय अव्यय (मुंच) व 3/1 सक ग्रहण करता है न ही न . . ... छोड़ता है मुंचदि अव्यय 15.5*11111 परं परिणमदि केवली भगवं पेच्छदि समंतदो (पर) 2/1 वि (परिणम) व 3/1 सक (केवलि) 1/1 वि (भगवन्त) 1/1 (पेच्छ) व 3/1 सक अव्यय पर को बदलता है केवली भगवान देखता है सब और से/ चारों तरफ से वह जानता है . समस्त (पदार्थों) को शेषरहित जाणदि सव्वं (त) 1/1 सवि . (जाण) व 3/1 सक (सव्व) 2/1 सवि (णिरवसेस) 2/1 वि णिरवसेसं अन्वय- केवली भगवं परं ण गेण्हदि ण मुंचदि णेव परिणमदि सो णिरवसेसं सव्वं समंतदो जाणदि पेच्छदि। . अर्थ- केवली भगवान पर (वस्तु) को न ग्रहण करते हैं, न छोड़ते हैं, न ही (उसको) बदलते हैं। वे शेषरहित समस्त (पदार्थों) को सब ओर से जानतेदेखते हैं। (44) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33. जो हि सुदेण विजाणदि अप्पाणं जाणगं सहावेण। तं सुयकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पदीवयरा।। 5 4 ही (ज) 1/1 सवि अव्यय सुदेण (सुद) 3/1 विजाणदि (विजाण) व 3/1 सक अप्पाणं (अप्पाण) 2/1 जाणगं (जाणग) 2/1 वि सहावेण (सहाव) 3/1 (त) 2/1 सवि . सुयकेवलिमिसिणो [(सुयकेवलिं)+ (इसिणो)] सुयकेवलिं (सुयकेवलि) 2/1 वि इसिणो (इसि) 1/2 भणंति (भण) व 3/2 सक लोयप्पदीवयरा [(लोय)-(प्पदीवयर) 1/2 वि] श्रुतज्ञान के द्वारा जानता है आत्मा को जाननेवाले स्वभाव से उसको श्रुतकेवली देव कहते हैं लोक के प्रकाशक अन्वय- जो सहावेण हि जाणगं अप्पाणं सुदेण विजाणदि लोयप्पदीवयरा इसिणो तं सुयकेवलिं भणंति। अर्थ- जो स्वभाव से ही जाननेवाले (ज्ञायक) आत्मा को श्रुतज्ञान के द्वारा जानता है, लोक के प्रकाशक देव उसको श्रुतकेवली कहते हैं। प्रवचनसार (खण्ड-1) (45) For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34. सुत्तं जिणोवदिट्ठ पोग्गलदव्वप्पगेहिं वयणेहिं । तं जाणणा हि णाणं सुत्तस्स य जाणणा भणिया ।। सुत्तं जिणोवदि 1/1 fa] पोग्गलदव्वप्पगेहिं [(पोम्गलदव्व) + (अप्पगेहिं)] [(पोग्गल) - (दव्व) - (अप्पा) 3 / 2 वि] ( वयण) 3 / 2 (त) 1/1 सवि ( जाणणा) 1 / 1 वयणेहिं तं 2. जाणणा हि णाणं सुत्तस्स य जाणणा भणिया (सुत्त) 1 / 1 [(जिण) + (उवदिट्ठ)] [(जिण) - (उवदिट्ठ) (46) अव्यय ( णाण) 1 / 1 (सुत्त) 6 / 1 अव्यय ( जाणणा) 1 / 1 (भणिय (स्त्री) भणिया ) 1 / 1 सूत्र For Personal & Private Use Only जिनेन्द्र देव के द्वारा उपदेश दिया गया पुद्गल द्रव्य से निर्मित वह बोध इसलिए ज्ञान सूत्र का अन्वय- पोग्गलदव्वप्पगेहिं वयणेहिं जिणोवदिट्टं तं सुत्तं य जाणणा णाणं हि सुत्तस्स जाणणा भणिया । अर्थ - पुद्गल द्रव्य से निर्मित वचनों से जिनेन्द्र देव के द्वारा (जो ) उपदेश दिया गया (है), वह सूत्र ( है )। चूँकि ( उपदेश से उत्पन्न) बोध ज्ञान ( है ) । इसलिए (इसी प्रकार ) सूत्र का बोध कहा गया ( है ) ( वह भी ज्ञान है ) । M चूँकि बोध कहा गया प्रवचनसार (खण्ड-1 -1) Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35. जो जाणदि सो णाणं ण हवदिणाणेण जाणगो आदा। णाणं परिणमदि सयं अट्ठा णाणट्ठिया सव्वे।। जाणदि जानता है वह ज्ञान णाणं हवदि णाणेण जाणगो (ज) 1/1 सवि (जाण) व 3/1 सक (त) 1/1 सवि (णाण) 1/1 अव्यय (हव) व 3/1 अक (णाण) 3/1 . (जाणग) 1/1 वि (आद) 1/1 . (णाण) 2/1 (परिणम) व 3/1 अक अव्यय . (अट्ठ) 1/2 [(णाण)-(ट्ठिय) भूकृ 1/2 अनि] (सव्व) 1/2 सवि आदा नहीं होता है ज्ञान के द्वारा जाननेवाला आत्मा ज्ञान में रूपान्तरित होता है स्वयं ही पदार्थ ज्ञान में स्थित णाणं परिणमदि सयं अट्टा णाणढ़िया सव्वे समस्त अन्वय- जो जाणदि सो णाणं आदा णाणेण जाणगो ण हवदि सयं णाणं परिणमदि सव्वे अट्ठा णाणट्ठिया। अर्थ- जो जानता है, वह ज्ञान है। आत्मा ज्ञान के द्वारा जाननेवाला (ज्ञायक) नहीं होता है। (वह आत्मा) स्वयं ही ज्ञान में रूपान्तरित होता है, (और) समस्त पदार्थ ज्ञान में स्थित (हैं)। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) प्रवचनसार (खण्ड-1) (47) For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36. तम्हा णाणं जीवो णेयं दव्वं तिहा समक्खादं। दव्वं ति पुणो आदा परं च परिणामसंबद्ध।।. इसलिए तम्हा णाणं जीवो दव्वं ज्ञान जीव ज्ञेय द्रव्य ... तीन प्रकार से कहा गया तिहा अव्यय (णाण) 1/1 (जीव) 1/1 (णेय) विधिकृ 1/1 अनि . (दव्व) 1/1 अव्यय (समक्खाद) भूकृ 1/1 अनि [(दव्व)+ (इति)] दव्वं (दव्व) 1/1 इति (अ) = अव्यय (आद) 1/1 (पर) 1/1 वि समक्खादं दव्वं ति द्रव्य पादपूरक फिर पुणो आदा आत्मा अन्य पर अव्यय परिणामसंबद्धं [(परिणाम)-(संबद्धं) भूकृ 1/1 अनि] और परिणमन से पूर्णतः निर्मित अन्वय- तम्हा जीवो णाणं दव्वं णेयं तिहा समक्खादं पुणो आदा च परं दव्वं ति परिणामसंबद्ध। अर्थ- इसलिए जीव ज्ञान (है)। द्रव्य ज्ञेय (है), (जो) (द्रव्य) (है) (वह) तीन प्रकार (उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य) से कहा गया (है)। फिर (वह) आत्मा और अन्य द्रव्य परिणमन से पूर्णतः निर्मित (द्रव्य) (है) अर्थात् (परिणमन को द्रव्य से अलग नहीं किया जा सकता है)। (48) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37. तक्कालिगेव सव्वे सदसब्भूदा हि पज्जाया तासिं। वट्टन्ते ते णाणे विसेसदो दव्वजादीणं।। वट तक्कालिगेव वर्तमानकाल संबंधी समान सव्वे समस्त सदसब्भूदा [(तक्कालिगा)+ (इव)] तक्कालिगा (तक्कालिग) 1/2 वि इव (अ) = समान (सव्व) 1/2 सवि [(सद)+(असब्भूद)] [(सद) वि-(असब्भूद) 1/2 वि] अव्यय (पज्जाय) 1/2 . (ता) 6/2 सवि (वट्ट) व 3/2 अक (त) 1/2 सवि (णाण) 7/1 (विसेसदो) अव्यय पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय [(दव्व)-(जादि) 6/2] विद्यमान और अविद्यमान निश्चय ही पर्याय उन मौजूद होती हैं पज्जाया तासिं वट्टन्ते णाणे . विसेसदो ज्ञान में खास तोर से दव्वजादीणं द्रव्य-वर्गों की ___ अन्वय- तासिं दव्वजादीणं ते सव्वे सदसब्भूदा पज्जाया हि तक्कालिगेव विसेसदो णाणे वट्टन्ते। अर्थ- उन द्रव्य-वर्गों की वे समस्त विद्यमान और अविद्यमान पर्यायें निश्चय ही वर्तमानकाल संबंधी (पर्यायों के) समान खास तोर से ज्ञान (केवलज्ञान) . में मौजूद होती हैं। 1. स्त्रीलिंग में 'तार्सि' का प्रयोग मिलता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 630) प्रवचनसार (खण्ड-1) (49) For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38. जेणेव हि संजाया जे खलु णट्ठा भवीय पज्जाया। ते होंति असब्भूदा पज्जाया णाणपच्चक्खा। 14 नहीं सजाया जे वास्तव में खलु णय भवीय (ज) 1/2 सवि जो अव्यय नहीं अव्यय (संजाय) भूकृ 1/2 अनि ... · उत्पन्न हुई (ज) 1/2 सवि . जो अव्यय (णट्ठ) भूकृ 1/2 अनि नष्ट हुई (भव-भविय-भवीय) संकृ होकर (पज्जाय) 1/2 पर्यायें (त) 1/2 सवि (हो) व 3/2 अक होती हैं (असब्भूद) 1/2 वि अविद्यमान (पज्जाय) 1/2 [(णाण)-(पच्चक्ख) 1/2 वि] ज्ञान में प्रत्यक्ष पज्जाया होंति असब्भूदा पज्जाया पर्याय णाणपच्चक्खा अन्वय- जे पज्जाया संजाया हि णेव जे खलु भवीय णट्ठा ते असब्भूदा पज्जाया णाणपच्चक्खा होति। ___ अर्थ- जो पर्यायें उत्पन्न ही नहीं हुई (हैं) (तथा) जो (पर्यायें) वास्तव में (उत्पन्न) होकर नष्ट हुई (हैं), वे अविद्यमान पर्यायें ज्ञान (केवलज्ञान) में प्रत्यक्ष होती हैं। 1. छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'भविय' को 'भवीय' किया गया है। (50) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 39. जदि पच्चक्खमजायं पज्जायं पलइयं' च णाणस्स 2 ण वा तं णाणं दिव्वं ति de to दि हि परूवेंति 1. 2. जदि पच्चक्खमजायं पज्जायं पलइयं च णाणस्स । ण हवदि वा तं णाणं दिव्वं ति हि के परूवेंति ।। यदि 3. अव्यय [(पच्चक्खं) + (अजायं)] पच्चक्खं ( पच्चक्ख ) 1/1 प्रत्यक्ष अजायं (अजाय)भूकृ 1/1 अनि अनुत्पन्न हुई (पज्जाय) 1/1 पर्याय (पलाअ पलअ) भूकृ 1 / 1 अव्यय ( णाण) 6/1 अव्यय प्रवचनसार ( खण्ड - 1 ) - (हव) व 3 / 1 अक अव्यय (त) 2 / 1 सवि ( णाण) 2 / 1 [(दिव्व) + (इति) )] दिव्वं (दिव्व) 2 / 1 वि इति (अ) = इस कारण अव्यय (क) 1/2 सवि (परूव) व 3 / 2 सक अन्वय- जदि अजायं च पलइयं पज्जायं णाणस्स पच्चक्खं ण हवदि ति वा तं णाणं हि दिव्वं के परूवेंति । अर्थ- यदि अनुत्पन्न हुई तथा नष्ट हुई पर्याय ज्ञान में प्रत्यक्ष नहीं होती है (तो) इस कारण उस ज्ञान को निश्चय ही दिव्य कौन प्रतिपादन करेगा? नष्ट हुई तथा ज्ञान में नहीं होती है पादपूरक उसको ज्ञान को छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'पलाइयं' का 'पलइयं' हुआ है। कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। ( हेम प्राकृत व्याकरण 3-134 ) प्रश्नवाचक शब्दों के साथ वर्तमानकाल का प्रयोग प्रायः भविष्यत्काल के अर्थ में होता है। (51) For Personal & Private Use Only दिव्य इस कारण निश्चय ही कौन प्रतिपादन करेगा Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 40. अत्थं अक्खणिवदिदं ईहापुव्वेहिं जे विजाणंति। तेसिं परोक्खभूदं णादुमसक्कं ति पण्णत्तं।। पदार्थ को अत्थं अक्खणिवदिदं ईहापुव्वेहिं विजाणंति तेसिं (अत्थ) 2/1 (अक्ख)-(णिवदिद) इन्द्रिय के सम्मुख भूक 2/1 अनि आये हुए को । [(ईहा)-(पुव्व) 3/2 वि] . . ईहा आदि से युक्त (ज) 1/2 सवि जो (विजाण) व 3/2 सक जानते हैं (त) 4/2 सवि उनके लिए [(परोक्ख)-(भूद) भूक अनुपस्थित 2/1 अनि] हुए को [(णाएं)+ (असक्कं)+ (इति)] णाएं (णा) हेक असक्कं (असक्क) 1/1 वि असंभव इति (अ) = पादपूरक (पण्णत्त) भूकृ 1/1 अनि कहा गया परोक्खभूदं णादुमसक्कं ति जानना पण्णत्तं अन्वय- जे अक्खणिवदिदं अत्थं ईहापुव्वेहिं विजाणंति तेसिं परोक्खभूदं णादुमसक्कं ति पण्णत्तं। अर्थ- जो इन्द्रियों के सम्मुख आये हुए पदार्थ को ईहा' आदि से युक्त (साधनों से) जानते हैं, उनके लिए अनुपस्थित हुए (पदार्थ) को जानना असंभव कहा गया (है)। 1. मतिज्ञान की प्रक्रिया का अंग। (52) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41. अपदेसं सपदेस मुत्तममुत्तं च पज्जयमजादं। पलयं गयं च जाणदि तं णाणमदिदियं भणियं।। मुत्तममुत्तं अपदेसं (अ-पदेस) 2/1 वि प्रदेश-रहित को सपदेसं (स-पदेस) 2/1 वि प्रदेश-सहित को [(मुत्तं)+ (अमुत्तं)] मुत्तं (मुत्त) 2/1 वि मूर्त को अमुत्तं (अमुत्त) 2/1 वि अमूर्त को अव्यय और पज्जयमजादं [(पज्जयं)+(अजाद)] पज्जयं (पज्जाय-पज्जय) 2/1पर्याय को अजादं (अजा) भूक 2/1 अनुत्पन्न को पलयं (पलय) 2/1 . विनाश को गयं (गय) भूकृ 2/1 अनि प्राप्त हुई अव्यय और जाणदि (जाण) व 3/1 सक जानता है (त) 1/1 सवि णाणमदिदियं . . [(णाणं)+(अदिदियं)] णाणं (णाण) 1/1 ज्ञान अदिदियं (अदिदिय) 1/1 वि अतीन्द्रिय भणियं (भण-भणिय) भूक 1/1 कहा गया च । वह अन्वय- अपदेसं सपदेस मुत्तममुत्तं च पज्जयमजादं पलयं गयं च जाणदि तं णाणमदिदियं भणियं। - अर्थ- (जो) (ज्ञान) प्रदेश-रहित (कालाणु और परमाणु) को, प्रदेशसहित (जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश) को, मूर्त (पुद्गलों) को और अमूर्त (जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल) को (तथा) अनुत्पन्न पर्याय को और विनाश को प्राप्त हुई (पर्याय) को जानता है वह ज्ञान (केवलज्ञान) अतीन्द्रिय कहा गया. (है)। प्रवचनसार (खण्ड-1) प्रवचनस (53) For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42. परिणमदिणेयमटुंणादा जदिणेव खाइगं तस्स। णाणं ति तं जिणिंदा खवयंतं कम्ममेवुत्ता।। परिणमदि णेयमहें णादा जदि ... ज्ञाता * * णेव खाइगं णाणं ति (परिणम) व 3/1 सक रूपान्तरित करता है [(णेयं)+ (अट्ठ)] . णेयं (णेय) विधिकृ 2/1 अनि ज्ञेय अहं (अट्ठ) 2/1 __ पदार्थ को (णादु) 1/1 वि अव्यय यदि । अव्यय नहीं (खाइग) 1/1 क्षायिक (त) 6/1 सवि उसका [(णाणं)+ (इति)] णाणं (णाण) 1/1 इति (अ) = इसलिए इसलिए (त) 2/1 सवि उसे (जिणिंद) 1/2 जिनेन्द्रदेवों ने (खवयंत) वकृ 2/1 अनि विसर्जन करता हुआ [(कम्म) + (एव)+(उत्ता)] कम्मं (कम्म) 2/1 कर्म को एव (अ) = ही. उत्ता (उत्त) भूकृ 1/2 अनि कहा ज्ञान * जिणिंदा खवयंतं कम्ममेवुत्ता' अन्वय- जदि णादा णेयमटुं परिणमदि तस्स णाणं खाइगं णेव ति जिणिंदा तं कम्मं खवयंतं एव उत्ता। अर्थ- यदि ज्ञाता ज्ञेय पदार्थ को रूपान्तरित करता है (तो) उसका ज्ञान क्षायिक (कर्मों के क्षय से उत्पन्न) नहीं (होता है)। इसलिए जिनेन्द्रदेवों ने उसे कर्म का विसर्जन करता हुआ (व्यक्ति) ही कहा (है)। 1. यहाँ भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग कर्तृवाच्य में किया गया है। (54) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 43. उदयगदा कम्मंसा जिणवरवसहेहिं णियदिणा भणिया। तेसु विमूढो रत्तो दुट्टो वा बंधमणुभवदि।। उदयगदा कम्मंसा जिणवरवसहेहिं णियदिणा भणिया तेसु [(उदय)-(गद)भूकृ 1/2 अनि] उदय में आये हुए [(कम्म)+ (अंसा)] [(कम्म)-(अंस) 1/2] कर्मों के खंड [(जिणवर)-(वसह) 3/2] जिनवर अरिहंतों द्वारा [(णियद)+ (एइणा)] [(णियद) वि-(एअ) 3/1] इस रूप में नियत (भणिय→भणिया) भूकृ 1/2 कहे गये (त) 7/2 सवि (विमूढ) 1/1 भूकृ अनि मोहित हुआ (रत्त) 1/1 भूकृ अनि राग-युक्त हुआ (दुट्ठ) 1/1 भूक अनि द्वेष-युक्त हुआ अव्यय [(बंध)+(अणुभवदि)] बंधं (बंध) 2/1 कर्मबंध को अणुभवदि (अणुभव) भोगता है व 3/1 सक उनसे विमूढो रत्तो वा . बंधमणुभवदि . अणुभवाउ ___ अन्वय- उदयगदा कम्मंसा णियदिणा जिणवरवसहेहिं भणिया तेसु विमूढो रत्तो वा दुट्ठो बंधमणुभवदि। - अर्थ- (कर्म-फल के रूप में) उदय में आये हुए कर्मों के खंड इस रूप में नियत (हैं)। जिनवर अरिहंतों द्वारा (इस रूप में कर्मों के खंड) कहे गये (हैं)। उन (कर्मखंडों) से मोहित हुआ, राग-युक्त या द्वेष-युक्त हुआ (व्यक्ति) कर्मबंध को भोगता है। 1. णियदिणा = (णियद+एइणा) = णियदेइणा = (णियदे+इणा)= णियदिणा। यहाँ तृतीया विभक्ति का प्रयोग सप्तमी अर्थ में हुआ है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) यहाँ सप्तमी विभक्ति का प्रयोग तृतीया अर्थ में हुआ है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) 3. प्रवचनसार (खण्ड-1) (55) For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___44. ठाणणिसेज्जविहारा धम्मुवदेसो य णियदयो तेसिं। अरहंताणं काले मायाचारो व्व इत्थीणं।। तथा .. ठाणणिसेज्जविहारा [(ठाण)-(णिसेज्जा-णिसेज्ज) खड़े रहना, बैठना, -(विहार) 1/2] . गमन करना . धम्मुवदेसो [(धम्म)+(उवदेसो)] [(धम्म)-(उवदेस) 1/1] धर्म का उपदेश य अव्यय णियदयो (णियदयो) अव्यय अचूक रूप से पंचमी अर्थक ‘यो' प्रत्यय तेसिं . (त) 6/2 सवि अरहंताणं (अरहंत) 6/2 अरिहंतों की काले (काल) 7/1 अवस्था में मायाचारो (मायाचार) 1/1 , मातृत्व अव्यय के समान इत्थीणं (इत्थी) 6/2 . स्त्रियों के उनका अन्वय- अरहंताणं काले तेसिं ठाणणिसेज्जविहारा य धम्मुवदेसो इत्थीणं मायाचारो व्व णियदयो। अर्थ- अरिहंतों की अवस्था में उनका (अरिहंतों का) खड़े रहना, बैठना, गमन करना तथा धर्म का उपदेश (धर्मोपदेश देना)- (ये सब क्रियाएँ) स्त्रियों के मातृत्व (माता के आचरण) के समान अचूक रूप से (अनिवार्य रूप से) (होती है)। 1. यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु ‘णिसेज्जा' का ‘णिसेज्ज' किया गया है। (56) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45. पुण्णफला अरहंता तेसिं किरिया पुणो हि ओदइया। मोहादीहिं विरहिया तम्हा सा खाइग त्ति मदा।। पुण्णफला अरहता तेसिं किरिया पुणो क्रिया और ओदइया मोहादीहिं विरहिया [(पुण्ण)-(फल) 5/1] पुण्य के प्रभाव से (अरहंत) 1/2 अरिहंत (त) 6/2 सवि उनकी (किरिया) 1/1 अव्यय अव्यय (ओदइय (स्त्री)-ओदइया) औदयिकी 1/1 वि [(मोह)+ (आदीहिं)] [(मोह)-(आदि) 3/2] मोह आदि से (विरहिय (स्त्री)-विरहिया) रहित भूकृ 1/1 अनि अव्यय . इसलिये (ता) 1/1 वि . [(खाइगा)+ (इति)] खाइगा (खाइग (स्त्री)-खाइगा) क्षायिकी 1/1 वि इति (अ) = ही . (मद (स्त्री)-मदा) मानी गई भूकृ 1/1 अनि तम्हा सा खाइग त्ति वह मदा. अन्वय- अरहंता पुण्णफला पुणो तेसिं किरिया मोहादीहिं विरहिया हि ओदइया तम्हा सा खाइग त्ति मदा। अर्थ- अरिहंत पुण्य के प्रभाव से (होते हैं) और उनकी क्रिया मोहादि से रहित ही औदयिकी (कर्मोदय से निष्पन्न/कर्मक्षय के निमित्त उत्पन्न) (होती है), इसलिए वह (क्रिया) क्षायिकी ही (कर्म का क्षय करनेवाली) मानी गई (है)। प्रवचनसार (खण्ड-1) (57) For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46. जदि सो सुहो व असुहो ण हवदि आदा सयं सहावेण। संसारो वि ण विज्जदि सव्वेसिं जीवकायाणं।। ___ असुहो नहीं होता हवदि आदा आत्मा अव्यय (त) 1/1 सवि (सुह) 1/1 वि अव्यय (असुह) 1/1 वि अव्यय (हव) व 3/1 अक (आद) 1/1 अव्यय (सहाव) 3/1 (संसार) 1/1 अव्यय अव्यय (विज्ज) व 3/1 अक (सव्व) 6/2 सवि (जीवकाय) 6/2 सयं सहावेण संसारो अपने स्वभाव से संसार विज्जदि सव्वेसिं जीवकायाणं नहीं विद्यमान होता है समस्त जीवसमूहों के अन्वय- जदि सो आदा सयं सहावेण सुहो व असुहो ण हवदि सव्वेसिं जीवकायाणं संसारो वि ण विज्जदि। अर्थ- यदि वह आत्मा अपने (चले आ रहे) स्वभाव से (ही) शुभ या अशुभ नहीं होता (तो) समस्त जीवसमूहों के संसार (जन्म-मरण) भी विद्यमान नहीं होता। (58) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47. जं तक्कालियमिदरं जादि जुगवं समंतदो सव्वं जं तक्कालियमिदरं जाणदि जुगवं समंतदो सव्वं । अत्थं विचित्तविसमं तं णाणं खाइयं भणियं । । अत्थं विचित्तविसमं तं णाणं खाइयं भणियं 2. (ज) 1 / 1 सवि [(तक्कालियं) + (इदरं)] तक्कालियं ( तक्कालिय ) 2 / 1वि वर्तमानकाल सम्बन्धी इदरं (इदर) 2/1 वि और अन्य को (जाण) व 3 / 1 सक जानता है अव्यय (समंतदो) (सव्वं) द्वितीयार्थक अव्यय (अत्थ) 2 / 1 [(विचित्त) वि- (विसम) 2/1 fa] (त) 1/1 सवि ( णाण) 1 / 1 ( खाइय) 1 / 1 वि (भण भणिय) भूक 1/1 → जो For Personal & Private Use Only एक ही साथ सब ओर से पूर्णरूप से पदार्थ को अनेक प्रकार के और असमान को वह ज्ञान अन्वय- जं णाणं समंतंदो तक्कालियमिदरं विचित्तविसमं अत्थं सव्वं जुगवं जादि तं खाइयं भणियं । अर्थ- जो ज्ञान सब ओर से वर्तमानकाल सम्बन्धी और अन्य ( भूत और भविष्यतकाल संबंधी) अनेक प्रकार के और असमान (मूर्त-अमूर्त आदि) पदार्थ को पूर्णरूप से (और) एक ही साथ जानता है वह (ज्ञान) क्षायिक (कर्मों के क्षय से उत्पन्न) (अतीन्द्रिय) कहा गया ( है ) । प्रवचनसार ( खण्ड - 1 ) क्षायिक कहा गया (59) Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48. जोण विजाणदि जुगवं अत्थे तिक्कालिगे तिहुवणत्थे। णातस्स ण सक्कं सपज्जयं दव्वमेगं वा।। विजाणदि अत्थे तिक्कालिगे तिहुवणत्थे णादं (ज) 1/1 सवि जो . अव्यय नहीं (विजाण) व 3/1 सक जानता है । अव्यय ... एक ही साथ (अत्थ) 2/2 .. पदार्थों को (तिक्कालिग) 2/2 वि तीन काल संबंधी (तिहुवणत्थ) 2/2 वि तीन लोक में स्थित (णा) हेक - जानना (त) 4/1 सवि उसके लिए नहीं (सक्क) 1/1 वि संभव (स-पज्जाय) 2/1 वि पर्याय-सहित [(दव्वं)+ (एग)] दव्वं (दव्व) 2/1 द्रव्य को एगं (एग) 2/1 वि अव्यय तस्स ण अव्यय सक्कं सपज्जयं दव्वमेगं एक वा अन्वय- जो तिहुवणत्थे तिक्कालिगे अत्थे जुगवं ण विजाणदि तस्स सपज्जयं एगं दव्वं वा णातुं सक्कं ण। अर्थ- जो तीनलोक में स्थित तीनकाल संबंधी पदार्थों को एक ही साथ नहीं जानता उसके लिए पर्याय सहित एक द्रव्य को भी जानना संभव नहीं (है)। (60) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49. दव्वं अणंतपज्जयमेगमणंताणि दव्वजादाणि। ण विजाणदि जदि जुगवं किध सो सव्वाणि जाणादि।। द्रव्य को अनंत पर्याय को दव्वं (दव्व) 2/1 अणंतपज्जयमेग- [(अणंतपज्जयं)+ (एगं) मणंताणि +(अणंताणि)] [(अणंत) वि(पज्जाय-पज्जय) 2/1] एगं (एग) 2/1 वि अणंताणि (अणंत) 2/2 वि दव्वजादाणि [(दव्व)-(जाद) 2/2] अव्यय विजाणदि (विजाण) व 3/1 सक जदि . अव्यय जुगवं अव्यय (त) 1/1 सवि सव्वाणि (सव्व) 2/2 सवि जाणादि (जाण) व 3/1 सक एक अन्तरहित द्रव्यसमूहों को नहीं जानता है यदि एक ही साथ कैसे अव्यय किध वह समस्त जानेगा अन्वय- जदि एगं दव्वं अणंतपज्जयं ण विजाणदि सो अणंताणि सव्वाणि दव्वजादाणि जुगवं किंध जाणादि। अर्थ- यदि (कोई). एक द्रव्य को, (उसकी) अनन्त पर्याय को नहीं जानता है (तो) वह अन्तरहित समस्त द्रव्यसमूहों को एक ही साथ कैसे जानेगा? . 1. वर्तमानकाल के प्रत्ययों के होने पर कभी-कभी अन्त्यस्थ 'अ' के स्थान पर 'आ' हो जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-158 वृत्ति) प्रश्नवाचक शब्दों के साथ वर्तमानकाल का प्रयोग प्रायः भविष्यत्काल के अर्थ में होता प्रवचनसार (खण्ड-1) (61) For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50. उप्पज्जदि जदिणाणं कमसो अटे पडुच्च णाणिस्स। तं णेव हवदि णिच्वं ण खाइगं व सव्वगदं।। उप्पज्जदि जदि यदि णाणं कमसो पडुच्च णाणिस्स . का (उप्पज्ज) व 3/1 अक उत्पन्न होता है अव्यय (णाण) 1/1 .. ज्ञान अव्यय ... · क्रम से. (अट्ठ) 2/2 . . पदार्थों को (पडुच्च) संकृ अनि . अवलम्बन करके (णाणि) 6/1 वि ज्ञानी. का (त) 1/1 सवि वह . अव्यय न ही (हव) व 3/1 अक. होता है (णिच्च) 1/1 वि न (खाइग) 1/1 वि क्षायिक अव्यय न ही (सव्वगद) 1/1 वि सर्वव्यापक हवदि णिच्वं नित्य अव्यय खाइगं णेव सव्वगदं अन्वय- जदि णाणिस्स णाणं अट्टे पडुच्च कमसो उप्पज्जदि तं णेव णिच्चं ण खाइगं णेव सव्वगदं हवदि। अर्थ- यदि ज्ञानी का ज्ञान पदार्थों को अवलम्बन करके क्रम से उत्पन्न होता है (तो) वह (ज्ञान) न ही नित्य, न क्षायिक (कर्मों के नाश से उत्पन्न), (और) न ही सर्वव्यापक होता है। (62) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 51. तिक्कालणिच्चविसमं सयलं सव्वत्थ संभवं चित्तं। जुगवं जाणदि जोण्हं अहो हि णाणस्स माहप्पं ।। सव्वत्थ संभवं तिक्कालणिच्चविसमं [(तिक्काल)-(णिच्च) वि- तीन काल में (विसम) 2/1 वि] चिरस्थायी, असमान सयलं (सयल) 2/1 वि समस्त अव्यय सभी जगह (संभव) 2/1 . संभव चित्तं (चित्त) 2/1 वि नाना प्रकार के जुगवं अव्यय एक ही साथ जाणदि (जाण) व 3/1 सक जानता है जोण्हं (जोण्ह) 1/1 वि दिव्य (ज्ञान) अव्यय आश्चर्य है! अव्यय णाणस्स (णाण) 6/1 ज्ञान की माहप्पं (माहप्प) 1/1 . महिमा अहो अन्वय- अहो जोण्हं तिक्कालणिच्चविसमं सव्वत्थ संभवं चित्तं सयलं जुगवं जाणदि णाणस्स हि माहप्पं।। अर्थ- आश्चर्य है! दिव्य (ज्ञान)- तीन काल में चिरस्थायी, असमान, सभी जगह संभव (उत्पन्न), नाना प्रकार के समस्त (पदार्थों को) एक ही साथ जानता है। (यह) (दिव्य) ज्ञान की ही महिमा (है)। प्रवचनसार (खण्ड-1) (63) For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52. ण वि परिणमदिण गेण्हदि उप्पज्जदि णेव तेसु अढेसु। जाणण्णवि ते आदा अबंधगो तेण पण्णत्तो।। हो परिणमदि गेण्हदि उप्पज्जदि णेव तेसु अट्ठे जाणण्णवि अव्यय अव्यय (परिणम) व 3/1 सक रूपान्तरित करता है अव्यय (गेण्ह) व 3/1 सक . ग्रहण करता है (उप्पज्ज) व 3/1 अक . . उत्पन्न होता है . अव्यय न ही (त) 7/2 सवि उन में (अट्ठ) 7/2 पदार्थों में [(जाणण्ण)+ (अवि)] (जाणण्ण) वकृ 1/1 अनि जानता हुआ अवि (अ) = भी , (त) 2/2 सवि उनको (आद) 1/1 आत्मा (अबंधग) 1/1 वि अबंधक अव्यय इसलिए (पण्णत्त) भूकृ. 1/1 अनि कहा गया आदा अबंधगो तेण पण्णत्तो अन्वय- आदा ते जाणण्णवि ण वि परिणमदि ण गेहदि णेव तेसु अढेसु उप्पज्जदि तेण अबंधगो पण्णत्तो। अर्थ- (चूँकि) आत्मा उन (पदार्थों) को जानता हुआ भी (उन पदार्थों को) न ही रूपान्तरित करता है, न ग्रहण करता है और न ही उन पदार्थों में उत्पन्न होता है, इसलिए (वह) (आत्मा) अबंधक (कर्मबंध नहीं करनेवाला) कहा गया (है)। (64) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 53. अत्थि अमुत्तं मुत्तं अदिदियं इंदियं च अत्थेसु। ___णाणं च तहा सोक्खं जं तेसु परं च तं णेयं।। होता है अमूर्त अस्थि अमुत्तं मुत्तं अदिदियं इंदियं 'मूर्त अतीन्द्रिय इन्द्रिय अत्थेसु णाणं (अस) व 3/1 अक (अमुत्त) 1/1 वि (मुत्त) 1/1 वि (अदिदिय) 1/1 वि (इंदिय) 1/1 वि अव्यय (अत्थ) 7/2 (णाण) 1/1 . अव्यय अव्यय (सोक्ख) 1/1 (ज) 1/1 सवि (त) सवि 7/2 (पर) 1/1 वि अव्यय (त) 1/1 सवि (णेय) विधिकृ 1/1 अनि और पदार्थों में ज्ञान और उसी प्रकार च तहा सोक्खं . जो .. ब.स. d उनमें उत्कृष्ट/सर्वोत्तम पादपूरक वह जानने योग्य . . अन्वय- अत्थेसु अदिदियं णाणं अमुत्तं अत्थि च इंदियं मुत्तं च तहा सोक्खं च तेसु जं परं तं णेयं। अर्थ- पदार्थों में अतीन्द्रिय ज्ञान अमूर्त होता है (अमूर्त पदार्थ को जानता है) और इन्द्रिय (ज्ञान) मूर्त (होता है) (मूर्त पदार्थ को जानता है)। उसी प्रकार (अतीन्द्रिय) सुख और (इन्द्रिय) (सुख) (होता है)। उनमें जो उत्कृष्ट/सर्वोत्तम (है), वह जानने योग्य (है)। 1. यहाँ 'इंदिय' शब्द विशेषण की तरह प्रयुक्त हुआ है। प्रवचनसार (खण्ड-1) (65) For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54. जं पेच्छदो अमुत्तं मुत्तेसु अदिदियं च पच्छण्णं। सयलं सगं च इदरं तं णाणं हवदि पच्चक्खं।। पेच्छदो अमुत्तं मुत्तेसु अदिदियं पच्छण्णं सयलं सगं (ज) 1/1 सवि जो (पेच्छदो) अव्यय दृष्टा होने के पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय फलस्वरूप (अमुत्त) 2/1 वि अमूर्त को (मुत्त) 7/2 वि मूर्तों में (अदिदिय) 2/1 वि अतीन्द्रिय को अव्यय और (पच्छण्ण) भूक 2/1 अनि छिपे हुए को (सयल) 2/1 वि सब को (सग) 2/1 वि स्वयं को अव्यय तथा (इदर) 2/1 वि अन्य को (त) 1/1 सवि. (णाण) 1/1 ज्ञान (हव) व 3/1 अक होता है (पच्चक्ख) 1/1 प्रत्यक्ष वह णाणं हवदि पच्चक्खं अन्वय- पेच्छदो जं अमुत्तं मुत्तेसु अदिदियं च पच्छण्णं सगं च इदरं सयलं तं णाणं पच्चक्खं हवदि। अर्थ- दृष्टा होने के फलस्वरूप जो (ज्ञान) अमूर्त को, मूर्तों (पदार्थों) में अतीन्द्रिय और छिपे हुए को, स्वयं को तथा अन्य सबको (केवल) (जानता है), वह ज्ञान प्रत्यक्ष होता है। (66) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55. जीवो सयं अमुत्तो • मुत्तिगदो तेण मुत्तिणा मुत्तं ओगेण्हित्ता जोगं जादि जीवो सयं अमुत्तो मुत्तिगदो तेण मुत्तिणा मुत्तं । ओगेण्हित्ता जोग्गं जाणदि वा तण्ण जाणादि । । वा तण्ण जाणादि' 1. (जीव) 1 / 1 अव्यय ( अमुत्तो) 1 / 1 वि [(मुत्ति) - (गद) भूक 1 / 1 अनि ] (त) 3 / 1 सवि (मुत्ति) 3 / 1 (मुत्त) 2 / 1 वि (ओगेण्ह) संकृ (जोग्ग) 2 / 1 वि (जाण) व 3 / 1 सक अव्यय अव्यय (जाण) व 3 / 1 सक प्रवचनसार ( खण्ड - 1 ) जीव स्वयं अमूर्त देह को प्राप्त हुआ अन्वय - जीवो सयं अमुत्तो मुत्तिगदो तेण मुत्तिणा जोग्गं मुत्तं ओगेण्हित्ता जाणदि वा तण्ण जाणादि । उसके द्वारा देह के द्वारा मूर्त को अर्थ- जीव स्वयं अमूर्त (है)। देह को प्राप्त हुआ उस देह के द्वारा (इन्द्रिय ज्ञान कें) योग्य मूर्त (पदार्थ) को अवग्रह करके जानता है अथवा वह (कभी) नहीं (भी) जानता है। For Personal & Private Use Only अवग्रह करके योग्य जानता है अथवा वह नहीं जानता है यहाँ मुत्ति पुल्लिंग की तरह प्रयुक्त है। मुत्ति- स्त्रीलिंग है। ( पाइय-सद्द - महण्णवो) वर्तमानकाल के प्रत्ययों के होने पर कभी-कभी अन्त्यस्थ 'अ' के स्थान पर 'आ' हो जाता है। (हेम - प्राकृत - व्याकरणः 3-158 वृत्ति) (67) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 56. फासो रसो य गंधो वण्णो सहो य पुग्गला होति। अक्खाणं ते अक्खा जुगवं ते णेव गेण्हंति।। फासो रस और . गंधो वण्णो सद्दो (फास) 1/1 (रस) 1/1 अव्यय (गंध) 1/1 (वण्ण) 1/1 (सद्द) 1/1 अव्यय (पुग्गल) 1/2 (हो) व 3/2 अक (अक्ख) 6/2 (त) 1/2 सवि (अप्प) 1/2 (त) 2/2 सवि . पुग्गला होंति अक्खाणं शब्द और पुद्गल होते हैं इन्द्रियों के अक्खा जुगवं अव्यय ___ इन्द्रियाँ उनको एक ही साथ नहीं ग्रहण करती हैं णेव अव्यय गेहंति (गेण्ह) व 3/2 सक अन्वय- फासो रसो गंधो वण्णो य सद्दो अक्खाणं पुग्गला होंति य ते अक्खा ते जुगवं णेव गेहंति। अर्थ- स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द- (ये) (सब) इन्द्रियों के (विषय) पुद्गल होते हैं और वे इन्द्रियाँ उन (विषयों) को एक ही समय में ग्रहण नहीं करती हैं। (68) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 57. परदव्वं ते अक्खा णेव सहावो त्ति अप्पणो भणिदा। उवलद्धं तेहि कधं पच्चक्खं अप्पणो होदि।। परदव्वं पर द्रव्य अक्खा इन्द्रियाँ णेव नहीं सहावो त्ति [(पर) वि-(दव्व) 1/1] (त) 1/2 सवि (अक्ख) 1/2 अव्यय [(सहावो)+ (इति)] सहावो (सहाव) 1/1 इति (अ) = इसलिए (अप्प) 6/1 (भणिद-भणिदा) भूकृ 1/2 (उवलद्ध) भूकृ 1/1 अनि (त) 3/2 सवि वरूप अप्पणो भणिदा उवलद्धं तेहि कधं इसलिए आत्मा का कहा गया प्राप्त किया हुआ उनके द्वारा कैसे प्रत्यक्ष आत्मा के लिए होगा अव्यय पच्चक्खं : अप्पणो होदि (पच्चक्ख) 1/1 (अप्प) 4/1 (हो) व 3/1 अक - अन्वय- ते अक्खा परदव्वं त्ति अप्पणो सहावो णेव भणिदा तेहि उवलद्धं अप्पणी पच्चक्खं कधं होदि। __अर्थ- वे इन्द्रियाँ परद्रव्य (हैं), इसलिए (उन्हें) आत्मा का स्वरूप नहीं कहा गया (है)। (तो) उनके द्वारा प्राप्त किया हुआ (ज्ञान) आत्मा के लिए प्रत्यक्ष कैसे होगा (अर्थात् प्रत्यक्ष कैसे कहा जायेगा?) 1. प्रश्नवाचक शब्दों के साथ वर्तमानकाल का प्रयोग प्रायः भविष्यत्काल के अर्थ में होता प्रवचनसार (खण्ड-1) (69) . For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58. जं परदो विण्णाणं तं तु परोक्खं ति भणिदमट्टेसु। जदि केवलेण णादं हवदि हि जीवेण पच्चक्खं।। परदो पर से विण्णाणं ज्ञान वह • परन्तु परोक्खं ति परोक्ष ही भणिदमट्टे (ज) 1/1 सवि (परदो) अव्यय पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय (विण्णाण) 1/1 (त) 1/1 सवि अव्यय [(परोक्खं)+ (इति)] परोक्खं (परोक्ख) 1/1 इति (अ) = ही [(भणिदं)+(अढेसु)] (भण-भणिद) भूक 1/1 अढेसु (अट्ठ) 7/2 अव्यय (केवल) 3/1 वि . (णा) भूकृ 1/1 (हव) व 3/1 अक अव्यय (जीव) 3/1 (पच्चक्ख) 1/1 जदि केवलेण णादं कहा गया पदार्थों को . जो/यदि केवल जाना गया. होता है हवदि जीवेण पच्चक्खं आत्मा से प्रत्यक्ष अन्वय-जं विण्णाणं अटेसु परदो तं परोक्खं ति भणिदं तु पच्चक्खं हवदि जदि केवलेण जीवेण हि णादं। अर्थ- जो ज्ञान पदार्थों को पर (की सहायता) से (जानता है) वह (तो) परोक्ष ही कहा गया (है), परन्तु (वह) (ज्ञान) प्रत्यक्ष होता है, जो/यदि केवल आत्मा से ही जाना गया (है)। 1. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम -प्राकृत-व्याकरणः 3-135) (70) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 59. जाद सयं समत्तं (जा) भूकृ 1 / 1 अव्यय (समत्त) 1 / 1 वि णाणमणंतत्थवित्थडं [ (णाणं) + (अणंत)+ विमलं रहियं जादं सयं समत्तं णाणमणंतत्थवित्थडं विमलं । रहिदं तु ओग्गहादिहिं सुहं ति एगंतियं भणियं । । तु ओग्गहादिहिं सुहं एगंतियं भणिय ( अत्थवित्थड)] णाणं ( णाण) 1/1 {[(अणंत) वि-(अत्थ)( वित्थड ) 1 / 1 ] वि} ( विमल ) 1 / 1 वि (रहिय) 1/1 वि अव्यय [(ओग्गह) + (आदिहिं)] [ ( ओग्गह) - (आदि ) 3/2] [(सुहं) + (इति)] सुहं (सुह) 1 / 1 इति ( अ ) = निश्चय ही ( एगतिय) 1 / 1 वि (भण भणिय) भूक 1/1 - * For Personal & Private Use Only उत्पन्न हुआ स्वयं पूर्ण ज्ञान अनन्त पदार्थों में फैला हुआ शुद्ध रहि ही अवग्रह आदि अन्वय- णाणं सयं तु जादं अनंतत्थवित्थडं समत्तं विमलं ओग्गहादिहिं रहिदं ति एतियं सुहं भणियं । अर्थ - (जो ) ज्ञान स्वयं ही उत्पन्न हुआ ( है ), अनन्त पदार्थों में फैला हुआ (है), पूर्ण (है), शुद्ध ( है अवग्रह (इन्द्रियों से पदार्थ के जानने की पद्धति) आदि (के प्रयोग) से रहित ( हैं ) ( वह) निश्चय ही अद्वितीय सुख कहा गया (है)। ), प्रवचनसार (खण्ड-1) सुख निश्चय ही अद्वितीय कहा गया (71) Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60. जं केवलं ति णाणं तं सोक्खं परिणमंच सो (से)'चेव। खेदो तस्स ण भणिदो जम्हा घादी खयं जादा।। जं . जो केवलं ति केवल .. निश्चय ही णाणं ज्ञान .. सोक्खं परिणम .. वह सुख प्रभाव और . . सो (से) (ज) 1/1 सवि [(केवलं)+ (इति)] (केवल) 1/1 वि इति (अ) = निश्चय ही (णाण) 1/1 (त) 1/1 सवि (सोक्ख) 1/1 (परिणम) 1/1 अव्यय (त) 6/1 सवि अव्यय (खेद) 1/1 (त) 6/1 सवि अव्यय (भण-भणिद) भूकृ 1/1 अव्यय (घादि) 1/2 वि . (खय) 2/1 (जा) भूकृ 1/2 उसका ही खेदो दुःख उनके तस्स भणिदो . जम्हा घादी खयं जादा नहीं कहा गया चूँकि घातिया कर्म विनाश को प्राप्त हुए अन्वय-जं केवलं णाणं तं ति सोक्खं च तस्स परिणमं चेव जम्हा घादी खयं जादा सो खेदो ण भणिदो। अर्थ- जो केवलज्ञान (है) वह निश्चय ही (स्वयं में) सुख (है) और उसका (लोक में) प्रभाव (भी) (सुख) ही (होता है)। चूँकि (उन) (केवली के) घातिया (कर्म) विनाश को प्राप्त हुए (हैं), (इसलिए) उनके (किसी प्रकार का) दुःख नहीं कहा गया (है)। 1. यहाँ 'सो' के स्थान पर 'से' का प्रयोग होना चाहिये। 2. यहाँ जादा' का प्रयोग कर्तृवाच्य में किया गया है। (72) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 61. णाणं अत्यंतगयं लोयालोएसु वित्थडा दिट्ठी। णमणिटुं सव्वं इ8 पुण जं हि तं लद्धं।। ज्ञान णाणं अत्यंतगयं पदार्थों के अंत को पहुँचा हुआ लोयालोएसु लोक और अलोक में फैला हुआ वित्थडा दर्शन दिट्टी णमणिटुं (णाण) 1/1 [(अत्थ)+(अंतगयं)] [(अत्थ)-(अंत)(गय) भूकृ 1/1 अनि [(लोय)+ (अलोएसु)] [(लोय)-(अलोअ) 7/2] (वित्थड (स्त्री)-वित्थडा) 1/1 वि (दिट्ठि) 1/1 [(ण8)+ (अणि8)] पढें (णट्ठ) भूकृ 1/1 अनि अणिढं (अणिट्ठ) 1/1 वि (सव्व) 1/1 सवि (इट्ठ) 1/1 वि अव्यय (ज) 1/1 सवि अव्यय (त) 1/1 सवि (लद्ध) भूकृ 1/1 अनि समाप्त किया गया अनिष्ट समस्त वांछित चूँकि इसलिए वह प्राप्त कर लिया गया लद्धं अन्वय- णाणं अत्यंतगयं दिट्ठी लोयालोएसु वित्थडा पुण सव्वं अणिटुं णटुं हि जं इट्टं तं लद्धं। ___ अर्थ- (केवली का) ज्ञान पदार्थों (ज्ञेय) के अंत को पहुँचा हुआ (है) (और) (उनका) दर्शन लोक और अलोक में फैला हुआ (है)। चूँकि (उनके द्वारा) समस्त अनिष्ट समाप्त किया गया (है), इसलिए जो वांछित (है) वह प्राप्त कर लिया गया (है)। प्रवचनसार (खण्ड-1) (73) . For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62. णो सद्दहति सोक्खं सुहेसु परमं ति विगदघादीणं। सुणिदूण ते अभव्वा भव्वा वा तं पडिच्छंति॥ सद्दहति नहीं __ श्रद्धा करते हैं सोक्खं सुहेसु परमं ति सुखों में विगदघादीणं अव्यय (सद्दह) व 3/2 सक (सोक्ख) 1/1 (सुह) 7/2 [(परमं)+ (इति)] परमं (परम) 1/1 वि इति (अ) = निश्चय ही [(विगद) भूकृ अनि(घादि) 6/2 वि] (सुण) संकृ (त) 1/2 सवि (अभव्व) 1/2 वि (भव्व) 1/2 वि . अव्यय (त) 2/1 सवि . (पडिच्छ) व 3/2 सक उत्कृष्ट निश्चय ही नष्ट कर दिया घातिया कर्म को सुनकर वे. . अभव्य भव्य सुणिदूण अभव्वा भव्वा वा और उसको स्वीकार करते हैं पडिच्छंति अन्वय- विगदघादीणं सोक्खं सुहेसु ति परमं सुणिदूण णो सद्दहंति ते अभव्वा वा तं पडिच्छंति भव्वा। अर्थ- (जिन्होंने) घातिया कर्म को नष्ट कर दिया (है) (उनका) सुख (सब) सुखों में निश्चय ही उत्कृष्ट (होता है)। (यह) सुनकर (जो) (उनके प्रति) श्रद्धा नहीं करते हैं, वे अभव्य (समत्व से दूर) (हैं) और (जो) उसको स्वीकार करते हैं (वे) भव्य (समत्व प्राप्त करनेवाले) (हैं)। 1. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम -प्राकृत-व्याकरणः 3-134) (74) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 63. मणुयासुरामरिंदा अहिदुदा इन्दियेहिं सहजेहिं। असहंता तं दुक्खं रमंति विसएसु रम्मेसु।। मणुयासुरामरिंदा [(मणुय)+(असुर)+(अमरिंदा)] . [(मणुय)-(असुर)- मनुष्य, असुर और (अमरिंद) 1/2] देवों के राजा (अहिद्दुद) भूकृ 1/2 अनि दुःख का अनुभव किये अहिद्दुदा इन्दियेहिं सहजेहिं असहंता इन्द्रियों से प्रकृतिदत्त सहन न करते हुए उस (इन्दिय) 3/2 (सहज) 3/2 वि . (अ-सह) वकृ 1/2 (त) 2/1 सवि (दुक्ख) 2/1 (रम) व 3/2 अक (विसय) 7/2 (रम्म) 7/2 वि दुक्खं रमंति दुःख को रमण करते हैं विषयों में रमणीय विसएसु रम्मेसु अन्वय- सहजेहिं इन्दियेहिं अहिहुदा मणुयासुरामरिंदा तं दुक्खं असहंता रम्मेसु विसएसु रमंति। - अर्थ- प्रकृतिदत्त इन्द्रियों से (अतृप्तिरूपी) दुःख का अनुभव किये हुए मनुष्य, असुर और देवों के राजा उस दुःख को सहन न करते हुए (इन्द्रिय योग्य) रमणीय विषयों में रमण करते हैं। प्रवचनसार (खण्ड-1) (75) For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64. जेसिं विसयेसु रदी तेसिं दुक्खं वियाण सब्भाव। जइ तं ण हि सब्भावं वावारो णत्थि विसयत्थं।। जेसिं विसयेसु रदी तेसिं दुक्खं वियाण सब्भावं जइ (ज) 6/2 सवि जिनकी (विसअ) 7/2 विषयों में (रदि) 1/1 रति. (त) 6/2 सवि उनके (दुक्ख) 2/1 दुःख को (वियाण) विधि 2/1 सक.. जानो ... (सब्भाव) 2/1 अव्यय स्वभाव से अव्यय यदि ... (त) 1/1 सवि अव्यय नहीं अव्यय (सब्भाव) 2/1 अव्यय स्वभाव से (वावार) 1/1 प्रयत्न [(ण)+ (अत्थि) ण (अ) = नहीं नहीं अत्थि (अस) व 3/1 अक होता है अव्यय विषयों के लिए क्योंकि सब्भावं वावारो णत्थि विसयत्थं अन्वय- जेसिं विसयेसु रदी तेसिं दुक्खं सब्भावं वियाण हि जइ तं ण सब्भावं विसयत्थं वावारो णत्थि। अर्थ- जिन (जीवों) की (इन्द्रिय)-विषयों में रति (आसक्ति) (है) उनके दुःख को स्वभाव से (प्राकृतिक) जानो, क्योंकि यदि वह (दुःख) स्वभाव से (प्राकृतिक) नहीं होता (तो) विषयों के लिए प्रयत्न नहीं होता। (76) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 65. पप्पा इट्टे विसये फासेहिं समस्सिदे सहावेण। परिणममाणो अप्पा सयमेव सुहं ण हवदि देहो।। पप्पा विसये (पप्पा) संकृ अनि (इट्ठ) 2/2 वि (विसय) 2/2 (फास) 3/2 प्राप्त करके वांछित विषयों को स्पर्शन आदि इन्द्रियों फासेहि पर समस्सिदे सहावेण पूर्णतः निर्भर स्वभावपूर्वक परिणममाणो रूपान्तरण करता हुआ अप्पा आत्मा सयमेव (समस्सिद) 2/2 वि (सहावेण) तृतीयार्थक अव्यय (परिणम) वकृ 1/1 (अप्प) 1/1 . [(सयं) + (एव)] सय (अ) = स्वय एव (अ) = ही (सुह) 2/1 अव्यय (हव) व 3/1 सक (देह) 1/1 स्वयं सुख को नहीं प्राप्त करता है हवदि देहो देह . अन्वय- फासेहिं समस्सिदे इडे विसये पप्पा अप्पा एव सयं सहावेण परिणममाणो सुहं हवदि देहो ण। अर्थ- स्पर्शन आदि इन्द्रियों पर पूर्णतः निर्भर वांछित विषयों को प्राप्त करके आत्मा ही स्वयं (अपने) (अशुद्ध) स्वभावपूर्वक रूपान्तरण करता हुआ सुख को प्राप्त करता है, देह नहीं। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) 2. 'हव' क्रिया सकर्मक की तरह भी प्रयुक्त होती है। (पाइय-सद्द-महण्णवोः पृ. 943) प्रवचनसार (खण्ड-1) (77) For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 66. एगंतेण हि देहो सुहं ण देहिस्स कुणदि सग्गे वा। विसयवसेण दु सोक्खं दुक्खं वा हवदि सयमादा॥ एगंतेण नहीं । देहिस्स कुणदि . सग्गे भी विसयवसेण (एगंत) 3/1 अव्यय आवश्यकरूप से अव्यय निश्चय ही (देह) 1/1 शरीर (सुह) 2/1 सुख को . . अव्यय (देहि) 4/1 वि शरीरधारी के लिए (कुण) व 3/1 सक करता है (सग्ग) 7/1. स्वर्ग में अव्यय (विसयवस) 3/1 वि विषयों के अधीन होने के कारण अव्यय (सोक्ख) 2/1 (दुक्ख) 2/1 अव्यय अथवा (हव) व 3/1 सक प्राप्त करता है [(सयं)+(आदा)] सयं (अ) = स्वयं स्वयं आदा (आद) = आत्माआत्मा परन्तु । सोक्खं दुक्खं सुख को दुःख को हवदि सयमादा अन्वय- एगंतेण देहो सग्गे वा देहिस्स हि सुहं ण कुणदि दु विसयवसेण आदा सयं सोक्खं वा दुक्खं हवदि ।। ___ अर्थ- आवश्यकरूप से शरीर स्वर्ग में भी शरीरधारी के लिए निश्चय ही सुख नहीं करता है, परन्तु विषयों के अधीन होने के कारण आत्मा स्वयं सुख अथवा दुःख को प्राप्त करता है। 1. 'हव' क्रिया सकर्मक की तरह भी प्रयुक्त होती है। (पाइय-सद्द-महण्णवोः पृ. 943) (78) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 67. तिमिरहरा जइ दिट्ठी जणस्य' दीवेण णत्थि कायव्वं तह सोक्खं सयमादा विसया किं तत्थ कुव्वंति' तिमिरहरा जड़ दिट्ठी जणस्य दीवेण णत्थि कायव्वं । तह सोक्खं सयमादा विसया किं तत्थ कुव्वंति । । 1. 2. [ ( तिमिरहर) (स्त्री) तिमिरहरा) अंधकार को 1/1 fa] हटानेवाली अव्यय (faf) 1/1 (जण) 6/1 (दीव) 3 / 1 अव्यय प्रवचनसार (खण्ड- 1 ) अव्यय (सोक्ख) 1 / 1 [(सयं)+(आदा)] सयं (अ) = स्वयं आदा (आद) ( विसय) 1/2 (क) 2 / 1 सवि अव्यय (कुव्व) व 3 / 2 सक नहीं ( कायव्व) विधि 1 / 1 अनि किया जा सकता उसी प्रकार सुख यदि देखने की शक्ति प्राणी की दीपक से = आत्मा अन्वय- जइ जणस्य दिट्ठी तिमिरहरा दीवेण णत्थि कायव्वं तह आदा सयं सोक्खं तत्थ विसया किं कुव्वंति । अर्थ- यदि (किसी ) प्राणी में देखने की शक्ति अंधकार को हटानेवाली (है) (तो) दीपक से ( कुछ भी) नहीं किया जा सकता। उसी प्रकार (जब) आत्मा स्वयं (ही) सुख (है) (तो) वहाँ (इन्द्रिय) - विषय क्या ( कार्य ) करेंगे? स्वयं आत्मा विषय कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। ( हेम - प्राकृत - व्याकरणः 3-134 ) प्रश्नवांचक शब्दों के साथ वर्तमानकाल का प्रयोग प्रायः भविष्यत्काल के अर्थ में होता है। क्या वहाँ करेंगे For Personal & Private Use Only (79) Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68. सयमेव जहादिच्चो तेजो उण्हो य देवदा णभसि। सिद्धो वि तहा णाणं सुहं च लोगे तहा देवो।। सयमेव स्वयं ही जहादिच्चो जिस प्रकार सूर्य .. प्रकाश तेजो उण्हो ताप य और ... देवदा देव [(सयं)+ (एव)] सयं (अ) = स्वयं एव (अ) = ही [(जह)+(आदिच्चो)] जह (अ) = जिस प्रकार आदिच्चो (आदिच्च) 1/1 (तेज) 1/1 (उण्ह) 1/1. . अव्यय (देवदा) 1/1 (णभसि) 7/1 अनि (सिद्ध) 1/1 अव्यय अव्यय (णाण) 1/1 (सुह) 1/1 अव्यय (लोग) 7/1 . अव्यय (देव) 1/1 णभसि सिद्धो आकाश में मुक्त पुरुष तहा उसी प्रकार ज्ञान सुख पादपूरक लोक में और PEE देव अन्वय- जह आदिच्चो णभसि सयं एव तेजो उण्हो य देवदा तहा लोगे सिद्धो वि णाणं च सुहं तहा देवो। अर्थ- जिस प्रकार सूर्य आकाश में स्वयं ही प्रकाश, ताप और देव (है), उसी प्रकार लोक में मुक्त पुरुष भी ज्ञान, सुख और देव (है)। (80) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 69. देवदजदिगुरुपूजासु चेव दाणम्मि वा सुसीलेसु। उववासादिसु रत्तो सुहोवओगप्पगो अप्पा।। देवदजदिगुरुपूजासु चेव दाणम्मि वा तथा सुसीलेसु उववासादिसु [(देवद)-(जदि)- देवता, मुनि और (गुरु)-(पूजा) 7/2] गुरु की भक्ति में अव्यय और (दाण) 7/1 दान में अव्यय (सुसील) 7/2 श्रेष्ठ आचरण में [(उववास)+(आदिसु)] [(उववास)-(आदि) 7/2] . उपवास आदि में (रत्त) भूकृ1/1 अनि अनुरक्त [(सुह)+ (उवओगप्पग)] । [(सुह) वि-(उवओगप्पग) शुभोपयोगात्मक 1/1 वि] (अप्प) 1/1 . रत्तो सुहोवओगप्पगो अप्पा आत्मा अन्वय- देवदजदिगुरुपूजासु चेव दाणम्मि वा सुसीलेसु उववासादिसु . रत्तो अप्पा सुहोवओगप्पगो। अर्थ- देवता (अरहंत, सिद्ध), गुरु (आचार्य, उपाध्याय) और मुनि (साधु) की भक्ति में, दान में, श्रेष्ठ आचरण में तथा उपवास आदि में अनुरक्त आत्मा शुभोपयोगात्मक (है)। प्रवचनसार (खण्ड-1) . (81) . For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70. जुत्तो सुहेण आदा तिरियो वा माणुसो व देवो वा। भूदो तावदि कालं लहदि सुहं इन्दियं विविहं।। जुत्तो सुहेण युक्त . शुभ (उपयोग) से आत्मा तिर्यंच आदा तिरियो ... वा माणुसो ... या . . मनुष्य देवो (जुत्त) भूकृ 1/1 अनि (सुह) 3/1 वि . (आद) 1/1 (तिरिय) 1/1 अव्यय (माणुस) 1/1 अव्यय (देव) 1/1 अव्यय (भूद) भूकृ 1/1 अनि (तावदि) 7/1 वि अनि (काल) 2/1 (लह) व 3/1 सक (सुह) 2/1 (इन्दिय) 2/1 (विविह) 2/1 वि वा . देव तथा हुआ उतने तक तावदि कालं समय लहदि . सुह प्राप्त करता है सुख को इन्द्रिय नाना प्रकार के इन्दियं विविहं अन्वय- सुहेण जुत्तो आदा तिरियो वा माणुसो व देवो वा भूदो तावदि कालं विविहं इन्दियं सुहं लहदि। ___ अर्थ- (जो) शुभ (उपयोग) से युक्त (होता है) (वह) आत्मा या (तो) तिर्यंच या मनुष्य या देव हुआ (है) तथा (वह) उतने समय तक नाना प्रकार के इन्द्रियसुख को प्राप्त करता है। 1. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है और कालवाची शब्दों में द्वितीया का प्रयोग होता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-135) (82) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 71. सोक्खं सहावसिद्धं णत्थि सुराणं पि सिद्धमुवदेसे। ते देहवेदणट्टा रमति विसएसु रम्मेसु।। सोक्खं सहावसिद्ध णत्थि सुराणं सिद्धमुवदेसे (सोक्ख) 1/1 सुख [(सहाव)-(सिद्ध) स्वभाव से भूकृ 1/1 अनि] निष्पन्न (उत्पन्न) अव्यय नहीं है (सुर) 6/2 देवताओं के अव्यय [(सिद्धं)+(उवदेसे)] सिद्धं (सिद्ध) भूकृ 1/1 अनि प्रमाणित उवदेसे (उवदेस) 7/1 उपदेश से (त) 1/2 सवि । [(देहवेदण)+(अट्टा)] [(देह)-(वेदणा-वेदण)- शरीर के संताप से (अट्ट) भूकृ 1/2 अनि] पीड़ित " (रम) व 3/2 अक रमण करते हैं (विसय) 7/2 विषयों में . (रम्म) 7/2 वि रमणीय देहवेदणट्टा रमंति . विसएसु रम्मेसु अन्वय- उवदेसे सिद्धं सुराणं पि सहावसिद्धं सोक्खं णत्थि ते देहवेदणट्टा रम्मेसु विसएसु रमंति। अर्थ- (जिनेन्द्रदेव के) उपदेश से (यह) प्रमाणित है (कि) देवताओं के भी (मूल) स्वभाव से निष्पन्न (उत्पन्न) सुख नहीं है। (चूँकि) वे शरीर के संताप से पीड़ित (रहते हैं) (इसलिये) रमणीय विषयों में रमण करते हैं। 1. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-135) यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'वेदणा' के स्थान पर 'वेदण' किया गया है। 2. प्रवचनसार (खण्ड-1) (83) For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72. णरणारयतिरियसुरा भजति जदि देहसंभवं दक्खं। किह सो सुहो व असुहो उवओगो हवदि जीवाणं।। जदि दुक्खं णरणारयतिरियसुरा [(णर)-(णारय) वि (तिरिय)-(सुर) 1/2] भजंति (भज) व 3/2 सक अव्यय देहसंभवं [(देह)-(संभव) 2/1 वि] (दुक्ख) 2/1 अव्यय . (त) 1/1 सवि (सुह) 1/1 वि अव्यय असुहो (असुह) 1/1 वि उवओगो (उवओग) 1/1 (हव) व 3/1 अक जीवाणं (जीव) 4/2 मनुष्य, नारकी, तिर्यंच और देव भोगते हैं यदि . देह से उत्पन्न दुःख को कैसे ... वह .. शुभ तथा अशुभ उपयोग किह सो . व हवदि * होगा जीवों के लिए अन्वय- जदि णरणारयतिरियसुरा देहसंभवं दुक्खं भजति जीवाणं सो उवओगो सुहो व असुहो किह हवदि। अर्थ- यदि मनुष्य, नारकी, तिर्यंच और देव (ये सभी) देह से (ही) उत्पन्न दुःख को भोगते हैं (तो) जीवों के लिए (प्रतिपादित) वह उपयोग शुभ तथा अशुभ कैसे होगा? 1. 2. यहाँ 'संभव' शब्द विशेषण की तरह प्रयुक्त हुआ है। प्रश्नवाचक शब्दों के साथ वर्तमानकाल का प्रयोग प्रायः भविष्यत्काल के अर्थ में होता (84) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 73. कुलिसाउहचक्कधरा सुहोव ओगप्पगेहिं भोगेहिं । देहादीणं विद्धिं करेंति सुहिदा इवाभिरदा ।। कुलिसाउहचक्कधरा [ ( कुलिसाउह) - (चक्कधर ) 1/2 वि] सुहोओगप्पगेहिं भोगेहिं देहादीणं विद्धि करेंति सुहिदा इवाभिरदा [(सुह) + (उवओगप्पग)] [(सुह) - ( उवओगप्पग) 3/2 fa] (भोग) 3/2 [(देह) + (आदीणं)] [(देह) - (आदि) 6/2] (fafa) 2/1 (कर) व 3/2 सक (सुहिद) 1/2 वि [(इव) + (अभिरदा)] इव (अ) = मानो अभिरदा (अभिरद) भूकृ 1/2 अनि वज्रायुध धारण करनेवाले तथा चक्र धारण करनेवाले शुभ उपयोगस्वभाववाले होने के कारण धन-सम्पत्ति से शरीर तथा इससे सम्बन्धित अन्य वस्तुओं की बढ़ोतरी करते हैं सुखी अन्वय- कुलिसाउहचक्कधरा सुहोवओगप्पगेहिं भोगेहिं देहादीणं विद्धिं करेंति अभिरदा इव सुहिदा । अर्थ- वज्रायुध धारण करनेवाले (इन्द्र) तथा चक्र धारण करनेवाले. (चक्रवर्ती) शुभ उपयोगस्वभाववाले होने के कारण धन-सम्पत्ति से शरीर तथा इससे सम्बन्धित अन्य वस्तुओं की बढ़ोतरी करते हैं (और) (उनमें ) अत्यन्त आसक्त (रहते हैं) मानो (वे) (अमिट रूप से) सुखी ( हैं ) । प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only मानो अत्यन्त आसक्त (85) Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 74. जदि संति हि पुण्णाणि य परिणामसमुब्भवाणि विविहाणि। जणयंति विसयतण्हं जीवाणं देवदंताणं।। संति पुण्य अव्यय यदि . (संति) व 3/2 अक अनि विद्यमान हैं. अव्यय निश्चय ही पुण्णाणि (पुण्ण) 1/2 अव्यय • पादपूर्ति .. . परिणामसमुब्भवाणि' [(परिणाम)-(समुब्भव) . परिणाम से उत्पन्न 1/2 वि] विविहाणि (विविह) 1/2 वि नाना प्रकार के ... जणयंति (जणय) व 3/2 सक अनि । उत्पन्न करते हैं विसयतण्हं [(विसय)-(तण्हा) विषय-तृष्णा. 2/1] जीवाणं (जीव) 6/2 , जीवों में देवदंताणं [(देवदा)+(अंताणं)] [(देवदा)-(अंत) 6/2] देवों तक के अन्वय- जदि य परिणामसमुन्भवाणि विविहाणि पुण्णाणि संति देवदंताणं जीवाणं विसयतण्हं हि जणयंति। अर्थ- यदि (शुभोपयोगरूप) परिणाम से उत्पन्न नाना प्रकार के पुण्य विद्यमान हैं (तो) (वे) (पुण्य) देवों तक के (सभी) जीवों में विषय-तृष्णा निश्चय ही उत्पन्न करते हैं (करेंगे ही)। 1. यहाँ ‘समुन्भव' शब्द का प्रयोग नपुंसकलिंग के रूप में हुआ है, जबकि कोश में 'समुभव' पुलिंग शब्द बताया गया है। कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम -प्राकृत-व्याकरणः 3-134) (86) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 75. ते ते पुण उदिण्णता दुहिदा तण्हाहिं विसयसोक्खाणि । इच्छंति अणुभवंति य आमरणं दुक्खसंतत्ता ।। न पुण उदिता दुहिदा तहाहिं विसयसोक्खाणि इच्छंति अणुभवंति य आमरणं दुक्खसंतत्ता (त) 1/2 सवि अव्यय [(उदिण्ण) भूक अनि (AUT) 1/2] (दुहिद) 1/2 वि ( तण्हा) 3 / 2 [ ( विसय) - (सोक्ख) 2/2] (इच्छ) व 3/2 सक (अणुभव) व 3 / 2 सक अव्यय ( आ-मरण) 1/1 [(दुक्ख ) - (संतत्त) भूक 1/2 अनि] वे फिर भी उत्पन्न हुई तृष्णाएँ दुःखी तृष्णाओं के कारण विषय - सुखों को चाहते हैं भोगते हैं तथा अन्वय- उदिण्णतण्हा ते तण्हाहिं दुहिदा दुक्खसंतत्ता पुण मरण-तक दुःखों से अत्यन्त पीड़ित विसयसोक्खाणि इच्छंति य आमरणं अणुभवंति । अर्थ- (जिनमें) तृष्णाएँ उत्पन्न हुई हैं, वे तृष्णाओं के कारण दुःखी (रहते हैं) । दुःखों से अत्यन्त पीड़ित (भी) (होते हैं), फिर भी (इन्द्रिय) - विषय सुखों को चाहते हैं तथा मरण - तक ( उनको ) भोगते हैं। प्रवचनसार ( खण्ड - 1 ) For Personal & Private Use Only (87) Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76. सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं। जं इंदियेहिं लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा॥ सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं [(स)-(पर) 1/1 वि] पर की अपेक्षा रखनेवाला [(बाधा)-(सहिय) अड़चनों सहित .. भूकृ 1/1 अनि] (विच्छिण्ण) भूकृ 1/1 अनि हस्तक्षेप/समाप्त किया · गया [(बंध)-(कारण) 1/1]. (कर्म) बंध का कारण (विसम) 1/1 वि कष्टदायक अव्यय चूँकि (इन्दिय) 3/2 इन्द्रियों से .. (लद्ध) भूकृ 1/1 अनि प्राप्त अव्यय इसलिए (सोक्ख) 1/1 [(दुक्खं)+ (एव)] दुक्खं (दुक्ख) 1/1 एव (अ)= ही अव्यय उस (पूर्वोक्त) रीति से इंदियेहिं लद्धं सोक्खं दुक्खमेव सुख दुःख तहा अन्वय- जं इंदियेहिं लद्धं सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं तं तहा सोक्खं दुक्खमेव। अर्थ- चूँकि इन्द्रियों से प्राप्त (सुख) पर की अपेक्षा रखनेवाला (पराश्रित), अड़चनों सहित, हस्तक्षेप/समाप्त किया गया, (परेशानी में डालनेवाले) कर्मबंध का कारण, (और) (अन्त में) कष्टदायक (होता) (है) इसलिए उस (पूर्वोक्त) रीति से (ऐसा) सुख दुःख ही (है)। (88) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 77. ण हि मण्णदि जो एवं णत्थि विसेसो त्ति पुण्णपावाणं। हिंडदि घोरमपारं संसारं मोहसंछण्णो।। मण्णदि नहीं पादपूरक मानता है जो इस प्रकार नहीं है एवं णत्थि विसेसो त्ति भेद अव्यय अव्यय (मण्ण) व 3/1 सक (ज) 1/1 सवि अव्यय अव्यय [(विसेसो)+(इति)] विसेसो (विसेस) 1/1 इति (अ) = पादपूरक [(पुण्ण)-(पाव) 6/2] (हिंड) व 3/1 सक [(घोरं)+ (अपारं)] घोरं (घोर) 2/1 वि अपारं (अपार) 2/1 वि (संसार) 2/1 [(मोह)-(संछण्ण) भूक 1/1 अनि] पुण्णपावाणं हिंडदि घोरमपारं पादपूरक पुण्य और पाप में परिभ्रमण करता है संसारं मोहसंछण्णो . भयानक अनन्त संसार में आत्मविस्मृति/ देहतादात्म्यभाव से पूर्णतः ढंका हुआ । अन्वय- पुण्णपावाणं विसेसोत्ति हि णत्थि जो एवं ण मण्णदि मोहसंछण्णो घोरमपारं संसारं हिंडदि। अर्थ- पुण्य और पाप में भेद नही (होता) है, जो इस प्रकार नहीं मानता है, (वह) आत्मविस्मृति/देहतादात्म्यभाव से पूर्णतः ढंका हुआ अनन्त (दुःखदायी) भयानक संसार में परिभ्रमण करता है। कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-134) 2. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। . (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) या गत्यार्थक क्रिया के योग में द्वितीया भी होती है। प्रवचनसार (खण्ड-1) (89) For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78. एवं विदित्थो जो दव्वेसु ण दोसं वा दि एवं विदित्थो जो दव्वेसु ण रागमेदि दोसं वा । उवओगविसुद्धो सो खवेदि देहुब्भवं दुक्खं । । उवओगविसुद्धो सो खवेदि देहुब्भवं दुक्खं 1. (90) अव्यय [(विदिद) + (अत्थो)] [(विदिद) भूक अनि (अत्थ) 1 / 1 ] (ज) 1 / 1 सवि (दव्व) 7/2 अव्यय [(रागं)+(एदि)] रागं (राग) 2 / 1 एदि (ए) व 3 / 1 सक (दोस) 2/1 अव्यय (खव) व 3 / 1 सक [(देह) + (उब्भव)] [(देह) - (उब्भव ) ' 2 / 1 वि] (दुक्ख ) 2/1 इस प्रकार जान लिया गया परमार्थ For Personal & Private Use Only जो द्रव्यों में नहीं अन्वय- एवं विदिदत्थो जो दव्वेसु ण रागं वा दोसं एदि सो उवओगविसुद्धो देहुब्भवं दुक्खं खवेदि । अर्थ - इस प्रकार ( जिसके द्वारा ) परमार्थ जान लिया गया ( है ), जो (आत्मा) द्रव्यों (संपत्ति / वस्तुओं / व्यक्तियों) में राग (आसक्ति) या द्वेष (शत्रुता) नहीं करता है, वह (आत्मा) उपयोग से शुद्ध ( हो जाता है) (और) देह (तादात्म्यभाव) से उत्पन्न दुःख का नाश करता है। प्रायः समास के अन्त में 'से उत्पन्न' अर्थ को प्रकट करता है। राग करता है या [(उवओग)-(विसुद्ध)1/1 वि] उपयोग से शुद्ध (त) 1 / 1 सवि वह नाश करता है देह (तादात्म्यभाव) से उत्पन्न दुःख द्वेष प्रवचनसार ( खण्ड - 1 ) Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 79. चत्ता पावारंभं समुट्ठिदो वा सुहम्मि चरियम्हि। ण जहदि जदि मोहादी ण लहदि सो अप्पगं सुद्ध।। छोड़कर चत्ता पावारंभ (चत्ता) संकृ अनि [(पाव)+(आरंभ)] [(पाव)-(आरंभ) 2/1] (समुट्ठिद) भूकृ 1/1 अनि समुट्टिदो पापकर्म को उचित प्रकार से प्रयत्नशील/उठा हुआ वा सुहम्मि चरियम्हि शुभ में चारित्र में नहीं छोड़ता है यदि जहदि जदि मोहादी अव्यय (सुह) 7/1 वि . (चरिय) 7/1 अव्यय (जह) व 3/1 सक अव्यय [(मोह)+(आदी)] [(मोह)-(आदि) 2/2] अव्यय (लह) व 3/1 सक (त) 1/1 सवि (अप्पग) 2/1 (सुद्ध) 2/1 वि मोह आदि को नहीं ण लहदि प्राप्त करता है वह आत्मा को शुद्ध अप्पगं सुद्धं . अन्वय- पावारंभं चत्ता सुहम्मि चरियम्हि समुट्ठिदो वा जदि मोहादी ण जहदि सो सुद्धं अप्पगं ण लहदि। अर्थ- (जो) पापकर्म छोड़कर शुभ चारित्र में उचित प्रकार से प्रयत्नशील/ उठा हुआ भी यदि (आत्मा) मोह (आत्मविस्मृति, देहतादात्म्यभाव, आसक्ति, शत्रुता) आदि नहीं छोड़ता है (तो) वह शुद्धात्मा को प्राप्त नहीं करता है। प्रवचनसार (खण्ड-1) (91) For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80. जो जाणदि अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं।। सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं।। . जो जाणदि अरहतं दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं सो (ज) 1/1 सवि (जाण) व 3/1 सक (अरहंत) 2/1 [(दव्वत्त)-(गुणत्त)- . (पज्जयत्त) 3/2 वि] . (त) 1/1 सवि . (जाण) व 3/1 सक (अप्पाण) 2/1 (मोह) 1/1 अव्यय (जा) व 3/1 सक (त) 6/1 सवि (लय) 2/1 जो जानता है अरिहंत को द्रव्यत्व, गुणत्व और पर्यायत्व से - वह जानता है आत्मा को जाणदि अप्पाणं मोह मोहो खलु जादि निश्चय ही पहुँच जाता है उसका समाप्ति को तस्स लयं अन्वय- जो अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं जाणदि सो अप्पाणं जाणदि तस्स मोहो खलु लयं जादि। ___अर्थ- जो अरिहंत को द्रव्यत्व, गुणत्व और पर्यायत्व अर्थात् (मूलस्वभाव) से जानता है, वह आत्मा को जानता है, (और) उसका मोह (आत्मविस्मृति भाव) निश्चय ही समाप्ति को पहुँच जाता है। (92) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 81. जीवो ववगदमोहो उवलद्धो तच्चमप्पणो सम्मं । जहदि जदि रागदोसे सो अप्पाणं लहदि सुद्धं ।। जीवो ववगदमोहो उवलद्धो तच्चमप्पणो सम्म जहदि दि रागदो सो अप्पाणं लहदि सुद्धं 1. (जीव) 1 / 1 [ ( ववगद) भूक अनि ( मोह) 1 / 1 ] ( उवलद्ध) भूकृ 1 / 1 अनि [( तच्चं) + (अप्पणो )] तच्चं ( तच्च) 2/1 अप्पणो (अप्प) 6 / 1 अव्यय (जह) व 3/1 सक अव्यय वचनसार (खण्ड-1 -1) [ (राग) - (दोस) 2 / 2 ] (त) 1 / 1 सवि . ( अप्पाण) 2/1 (लह) व 3 / 1 सक (सुद्ध) 2/1 वि जीव समाप्त कर दिया गया मोह समझ लिया अन्वय रागदोसे जहदि सुद्धं अप्पाणं लहदि । अर्थ - (जिसके द्वारा) मोह (आत्मविस्मृति भाव) समाप्त कर दिया गया (है) (तथा) (जिसने ) आत्मा के सार (मूल स्वभाव) को अच्छी तरह समझ लिया (है), वह जीव यदि राग-द्वेष (अशुद्धभाव) छोड़ता है (तो) शुद्धात्मा को प्राप्त करता है। यहाँ भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग कर्तृवाच्य में किया गया है। सार को आत्मा के अच्छी तरह छोड़ता है यदि राग-द्वेष aaगदमोहो अप्पणी तच्वं सम्मं उवलद्धो सो जीवो जदि For Personal & Private Use Only वह आत्मा को प्राप्त करता है शुद्ध (93) Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82. सव्वे विय अरहंता तेण विधाणेण खविदकम्मंसा। किच्चा तधोवदेसं णिव्वादा ते णमो तेसिं।। य अरहता तेण विधाणेण खविदकम्मंसा (सव्व) 1/2 सवि - सब .. अव्यय ही अव्यय और (अरहंत) 1/2 अरिहंतों . (त) 3/1 सवि . . . उसी ... (विधाण) 3/1 रीति से __ [(खविदकम्म)+(अंस)] [(खविद) भूकृ अनि- समाप्त किया (कम्म)-(अंस) 2/2] कर्म-खंडों को (किच्चा) संकृ अनि . करके [(तध)+(उवदेस)] तध (अ)= उसी प्रकार उसी प्रकार उवदेसं (उवदेस) 2/1 उपदेश (णिव्वाद) भूकृ 1/2 अनि संतृप्त हुए (त) 1/2 सवि अव्यय नमस्कार (त) 4/2 सवि उनको किच्चा तधोवदेसं णिव्वादा णमो तेसिं अन्वय- सव्वे वि अरहंता तेण विधाणेण कम्मंसा खविद य तध उवदेसं किच्चा ते णिव्वादा तेसिं णमो। अर्थ- सब ही अरिहंतों ने उसी रीति से कर्म-खंडों को समाप्त किया और उसी प्रकार उपदेश करके वे (अरिहंत) संतृप्त (मुक्त) हुए, उनको नमस्कार। 1. 2. भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग कर्तृवाच्य में किया गया है णमो' के योग में चतुर्थी होती है। (94) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 83. दव्वादिएसु मूढो भावो जीवस्स हवदि मोहो त्ति। खुब्भदि तेणुच्छण्णो पप्पा रागं व दोसं वा।। दव्वादिएसु मूढो भावो जीवस्स हवदि मोहोत्ति [(दव्व)+(आदिएसु)] [(दव्व)-(आदि) 'अ' स्वार्थिक द्रव्यादि में 7/2] (मूढ) 1/1 वि संशयात्मक (भाव) 1/1 भाव (जीव) 6/1 जीव के (हव) व 3/1 अक होता है [(मोहो)+(इति)] मोहो (मोह) 1/1 मोह इति (अ) = इस प्रकार इस प्रकार (खुब्भ) व 3/1 अक व्याकुल होता है [(तेण)+ (उच्छण्णो)] तेण (त) 3/1 सवि उससे उच्छण्णो (उच्छण्ण) ढंका हुआ भूकृ 1/1 अनि (पप्पा) संकृ अनि प्राप्त करके (राग) 2/1 राग को अव्यय . . (दोस) 2/1 द्वेष को अव्यय अथवा खुब्भदि तेणुच्छण्णो पप्पा अथवा दोस ... अन्वय- जीवस्स दव्वादिएसु मूढो भावो हवदि मोहो त्ति तेणुच्छण्णो रागं व दोसं वा पप्पा खुब्भदि। अर्थ- (यदि) जीव के द्रव्यादि में संशयात्मक भाव होता है (तो) (वह) मोह (आत्मविस्मृति) (है)। इस प्रकार उससे ढंका हुआ (जीव) राग (आसक्ति) अथवा द्वेष (शत्रुता) को प्राप्त करके व्याकुल होता है। प्रवचनसार (खण्ड-1) (95) For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84. मोहेण व रागेण व दोसेण व परिणदस्स जीवस्स । जायदि विविहो बंधो तम्हा ते संखवइदव्वा ।। मोहेण to व रागेण व दोसेण to व परिणदस्स जीवस्स जायद विविहो बंधो तम्हा संखवइदव्वा (मोह) 3 / 1 अव्यय (राग) 3/1 अव्यय (दोस) 3/1 अव्यय (परिणद) 6/1 वि (जीव ) 6/1 ( जा → जाय) व 3 / 1 अक - ('य' विकरण जोड़ा गया है) (विविह) 1/1 वि (बंध) 1 / 1 अव्यय (त) 1/2 सवि ( संखवइदव्व) विधिकृ 1/2 अनि मोह अथवा राग से अथवा द्वेष से For Personal & Private Use Only पादपूरक रूपान्तर जीव के उत्पन्न होता है अन्वय- मोहेण व रागेण व दोसेण व परिणदस्स जीवस्स विविहो नाना प्रकार का बंधन इसलिये वे समाप्त किये जाने चाहिये बंधो जायदि तम्हा ते संखवइदव्वा । अर्थ - मोह (आत्मविस्मृति) से अथवा राग (आसक्ति) से अथवा द्वेष ( शत्रुता ) से रूपान्तरित जीव के नाना प्रकार का (कर्म) बंधन उत्पन्न होता है, इसलिये वे (मोह, राग और द्वेष ) समाप्त किये जाने चाहिये । (96) प्रवचनसार (खण्ड-1) Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85. अट्ठे अजधागहणं करुणाभावो य मणुवतिरिए । विसएसु य प्पसंगो मोहस्सेदाणि लिंगाणि ।। पदार्थ में अद्रे अजधागहणं करुणाभावो य मणुवतिरिए ' विसएसु य प्पसंगो मोहस्सेदाणि लिंगाणि 1. (अट्ठ) 7/1 [ ( अजधा) - (गहण ) ] : विपरीत प्रवचनसार (खण्ड-1 ) अजधा (अ) = गहणं ( गण ) 1/1 [ (करुणा) - (अभाव) 1 / 1] अव्यय [ ( मणुव) - (तिरिअ ) 7 /2] (विसय) 7/2 अव्यय (प्यसंग) 1 / 1 [(मोहस्स) + (एदाणि)] मोहस्स (मोह) 6/1 एदाणि (एद ) 1/2 सवि (लिंग) 1/2 विपरीत ज्ञान करुणा का अभाव और अन्वय- अट्ठे अजधागहणं मणुवतिरिएसु य करुणाभावो य विससु प्पसंगो एदाणि मोहस्स लिंगाणि । मनुष्य और तिर्यंचों के प्रति विषयों में अर्थ - पदार्थ में विपरीत ज्ञान, मनुष्य और तिर्यंचों के प्रति करुणा का अभाव तथा विषयों (इन्द्रिय-विषयों) में आसक्ति - ये सब मोह (आत्मविस्मृति) के चिह्न/लक्षण ( हैं ) तथा आसक्ति For Personal & Private Use Only मोह के ये सब चिह्न /लक्षण कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। ( हेम - प्राकृत-व्याकरणः 3-134 ) के प्रति, की ओर के योग में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है। (97) Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86. जिणसत्थादो अट्ठे पच्चक्खादीहिं बुज्झदो णियमा । खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्थं समधिदव्वं । । सत्था अट्ठे पच्चक्खादीहिं बुज्झदि णियमा खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्थं समधिदव्वं (98) [ ( जिण) - ( सत्थ) 5 / 1] (अट्ठ) 2/2 [(पच्चक्ख) + (आदीहिं) ] [(पच्चक्ख) वि- (आदि ) 3 / 2] प्रत्यक्ष आदि के साथ (बुज्झ ) व 3 / 1 सक जानता है (णियम ) 5 / 1 नियम से (खीयदि) व कर्म 3/1 क्षय की जाती है सक अनि [(मोह) + (उवचय)] [ ( मोह) - ( उवचय) 1 / 1] अव्यय ( सत्थ) 1 / 1 [(सं)+(अधिदव्वं)] जिन - आगम से पदार्थों को अन्वय- जिणसत्थादो अट्ठे पच्चक्खादीहिं बुज्झदो णियमा मोहोवचयो खीयदि तम्हा सत्थं समधिदव्वं । अर्थ - (जो ) जिन-आगम से पदार्थों को प्रत्यक्ष आदि (प्रमाणों) के साथ जानता है (उसके द्वारा ) नियम से मोहवृद्धि क्षय की जाती है, इसलिये आगम खूब अध्ययन किया जाना चाहिये। 1. यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'बुज्झदो' के स्थान पर 'बुज्झदि' होना चाहिए। मोहवृद्धि इसलिये आगम सं (अ) = खूब खूब अधिदव्वं (अधिदव्व) विधिक अध्ययन किया जाना 1 / 1 अनि चाहिये For Personal & Private Use Only प्रवचनसार (खण्ड-1) Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 87. दव्वाणि गुणा तेसिं पज्जाया अटुसण्णया भणिया। तेसु गुणपज्जयाणं अप्पा दव्व त्ति उवदेसो।। द्रव्य दव्वाणि गुणा तेसिं गुण उनकी पर्याय पज्जाया अट्ठसण्णया भणिया उनमें (दव्व) 1/2 (गुण) 1/2 (त) 6/2 सवि (पज्जाय) 1/2 [(अट्ठ)-(सण्णया) 3/1 अनि] पदार्थ नाम से (भण-भणिय) भूकृ 1/2 कही गई (त) 7/2 सवि [(गुण)-(पज्जाय-पज्जय)' गुण और पर्यायों का 6/2] (अप्प) 1/1 आत्मा [(दव्व) (इति)] दव्व (दव्व) 1/1 द्रव्य इति (अ) = इस प्रकार इस प्रकार (उवदेस) 1/1 उपदेश गुणपज्जयाणं अप्पा *दव्व त्ति (मूलशब्द): उवदेसो . - अन्वय- दव्वाणि गुणा तेसिं पज्जाया अट्ठसण्णया भणिया तेसु गुणपज्जयाणं अप्पा दव्व त्ति उवदेसो। अर्थ- द्रव्य, गुण (और) उनकी पर्यायें पदार्थ नाम से कही गई हैं)। उनमें गुण और पर्यायों का आत्मा (आधार) द्रव्य है, इस प्रकार उपदेश (है)। . 1. यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु ‘पज्जाय' का ‘पज्जय' किया गया है। प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओंका व्याकरण, पृष्ठ 517) प्रवचनसार (खण्ड-1) . (99) For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 88. जो मोहरागदोसे णिहणदि उवलब्भ जोण्हमुवदेसं। सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण।। जो जो मोहरागदोसे णिहणदि उवलब्भ जोण्हमुवदेसं (ज) 1/1 सवि [(मोह)-(राग)-(दोस) 2/2] मोह, राग और द्वेष को (णिहण) व 3/1 सक नष्ट करता है । (उवलब्भ) संकृ अनि ... समझ करके [(जोण्ह)+ (उवदेस)] .. जोण्हं (जोण्ह) 2/1 वि दिव्य उवदेसं (उवदेस) 2/1 उपदेश को (त) 1/1 सवि वह [(सव्व)-(दुक्ख)- समस्त दुःखों से . (मोक्ख) 2/1] छुटकारा (पाव) व 3/1 सक पा जाता है अव्यय थोड़े (काल) 3/1 . सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण समय में अन्वय- जो जोण्हं उवदेसं उवलब्भ मोहरागदोसे णिहणदि सो अचिरेण कालेण सव्वदुक्खमोक्खं पावदि। अर्थ- जो (आत्मा) दिव्य उपदेश को समझ करके मोह (आत्मविस्मृति), राग (आसक्ति) और द्वेष (शत्रुता) को नष्ट करता है, वह थोड़े समय में (ही) समस्त दुःखों से छुटकारा पा जाता है। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) (100) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 89. णाणप्पगमप्पाणं परं च णाणप्पगमप्पाणं परं च दव्वत्तणाहिसंबद्धं । जाणदि जदि णिच्छयदो जो सो मोहक्खयं कुणदि । । दव्वत्तणाहिसंबद्धं जादि दि णिच्छयदो जो सो मोहक्खयं कुणदि प्रवचनसार ( खण्ड - 1 ) [(णाणप्पगं) + (अप्पाणं) ] णाणप्पगं (णाणप्पग) 2 / 1 वि ज्ञानस्वरूप स्व को अप्पाणं ( अप्पाण) 2/1 (पर) 2/1 वि अव्यय [(दव्वत्तण) + (अहिसंबद्ध) ] [ ( दव्वत्तण) - (अहिसंबद्ध) 2/1 fa] (जाण) व 3 / 1 सक अव्यय ( णिच्छयद्रो) अव्यय पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय (ज) 1 / 1 सवि (त) 1/1 सवि [ ( मोह) - (क्खय) 2 / 1] (कुण) व 3/1 सक पर को For Personal & Private Use Only और द्रव्यता से जुड़ा हुआ अन्वय-जदि जो णिच्छयदो परं च णाणप्पगमप्पाणं दव्वत्तणाहिसंबद्धं जादि सो मोहक्खयं कुणदि । अर्थ- यदि जो (आत्मा) निश्चयपूर्वक पर को और ज्ञानस्वरूप स्व को द्रव्यता से जुड़ा हुआ जानता है (तो) वह मोह (आत्मविस्मृति) का विनाश करता है। जानता है यदि निश्चयपूर्वक जो वह मोह का विनाश करता है (101) Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90. तम्हा जिणमग्गादो गुणेहिं आदं परं च दव्वेसु। अभिगच्छदु णिम्मोहं इच्छदि जदि अप्पणो अप्पा।। तम्हा जिणमग्गादो गुणेहि आद परं दव्वेसु . अभिगच्छदु णिम्मोहं इच्छदि जदि अप्पणो अव्यय इसलिये [(जिण)-(मग्ग) 5/1] जिन-मार्ग से (गुण) 3/2 गुणों के साथ (आद) 2/1 आत्मा को . (पर) 2/1 वि पर को अव्यय . और .. (दव्व) 7/2 द्रव्यों में (अभिगच्छ) विधि 3/1 सक समझना चाहिये । (णिम्मोह) 2/1 वि आसक्ति-रहितता (इच्छ) व 3/1 सक , चाहता है अव्यय (अप्प) 6/1 . स्वयं की (अप्प) 1/1 आत्मा यदि अप्पा अन्वय- तम्हा जदि अप्पा अप्पणो णिम्मोहं इच्छदि जिणमग्गादो दव्वेसु गुणेहिं आदं च परं अभिगच्छदु। अर्थ- इसलिये यदि आत्मा स्वयं की आसक्ति-रहितता चाहता है (तो) जिन-मार्ग (जिनेन्द्र देव द्वारा प्रतिपादित आगम-पथ) से द्रव्यों में गुणों के साथ आत्मा (स्वयं) को और पर (अन्य) को समझना चाहिये। 1. 'सह, सद्धिं, समं' (साथ) अर्थ वाले शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति होती है। (102) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 91. सत्तासंबद्धेदे सविसेसे जो हि णेव सामण्णे। सद्दहदि ण सो समणो तत्तो धम्मो ण संभवदि।। सत्तासंबद्धेदे [(सत्तासंबद्ध)+ (एदे)] [(सत्ता)-(संबद्ध)(एद) 2/2] सवि (स-विसेस) 2/2 वि . सत्ता से युक्त इन पर विशेष सत्ताओं से युक्त सविसेसे हि निश्चय ही नहीं श्रमण अवस्था में श्रद्धा करता है सामण्णे सद्दहदि नहीं (ज) 1/1 सवि अव्यय अव्यय (सामण्ण) 7/1 (सद्दह) व 3/1 सक अव्यय (त) 1/1. सवि (समण) 1/1 (त) 5/1 सवि (धम्म) 1/1 अव्यय (संभव) व 3/1 अक वह श्रमण सो समणो तत्तो धम्मो . . उससे नहीं घटित होता है संभवदि अन्वय- जो सामण्णे सत्तासंबद्धदे सविसेसे णेव सद्दहदि सो हि . समणो ण तत्तो धम्मो ण संभवदि। अर्थ- जो श्रमण अवस्था में (सामान्य) सत्ता से युक्त (और) विशेष सत्ताओं से युक्त इन (द्रव्यों) पर श्रद्धा नहीं करता है, वह निश्चय ही श्रमण नहीं है, उससे धर्म घटित नहीं होता है। 1. 'श्रद्धा' के योग में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है। प्रवचनसार (खण्ड-1) (103) For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92. जो णिहदमोहदिट्ठी आगमकुसलो विरागचरियम्हि । अब्भुट्टिदो महप्पा धम्मो त्ति विसेसिदो समणो ।। जो णिहदमोहदिट्ठी आगमकुसलो विरागचरियम्हि अब्दो महप्पा धम्मो ति विसेसिदो समणो (104) (ज) 1 / 1 सवि [(हिद) भूक अनि - (मोह) - (दिट्ठि) 1/1] [ ( आगम) - (कुसल ) 1 / 1 वि] [(विराग) - (चरिय) 7/1] (अब्भुदि) भूकृ 1 / 1 अनि ( महप्प ) 1 / 1 [(धम्मो ) + (इति)] धम्मो (धम्म) 1 / 1 इति (अ) = और (विसेसिद) भूकृ 1 / 1 अनि (समण) 1 / 1 जो नष्ट की गई .मोह-दृष्टि आगम में कुशल वीतराग चारित्र में उद्यत महात्मा अन्वय- णिहदमोहदिट्ठी जो आगमकुसलो विरागचरियम्हि अब्भुट्टिदो महप्पा समणो धम्मो त्ति विसेसिदो । अर्थ - ( जिसके द्वारा ) मोह-दृष्टि नष्ट की गई (है), जो आगम में कुशल (है) और (जो) वीतराग चारित्र में उद्यत (है), (वह) महात्मा (है), श्रमण (है) और वह (ही) इन विशेषणों से युक्त ( चलता-फिरता) 'धर्म' ( है ) । धर्म और विशेषणों से युक्त श्रमण For Personal & Private Use Only प्रवचनसार (खण्ड-1) Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल पाठ 1. एस सुरासुरमणुसिंदवंदिदं धोदघाइकम्ममलं। पणमामि वड्डमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं।। सेसे पुण तित्थयरे ससव्वसिद्धे विसुद्धसब्भावे। समणे य णाणदंसणचरित्ततववीरियायारे।। 3. ते ते सव्वे समगं समगं पत्तेगमेव पत्तेगं। वंदामि य वटुंते अरहंते माणुसे खेत्ते।। किच्चा अरहंताणं सिद्धाणं तह णमो गणहराणं। अज्झावयवग्गाणं . साहूणं चेव सव्वेसिं।। 5.. तेसिं विसुद्धदसणणाणपहाणासमं समासेज्ज। उवसंपयामि सम्मं जत्तो णिव्वाणसंपत्ती।। 6. संपज्जदि णिव्वाणं देवासुरमणुयरायविहवेहिं। जीवस्स चरित्तादो दंसणणाणप्पहाणादो।। 7. चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिदिवो। . मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो।। प्रवचनसार (खण्ड-1) (105) For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. परिणमदि जेण दव्वं तक्कालं तम्मय त्ति पण्णत्तं। तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेदव्वो।। 9. जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो। सुद्धेण तदा सुद्धो हवदि हि परिणामसम्भावो।। 10. णत्थि विणा परिणामं अत्थो अत्थं विणेह परिणामो। दव्वगुणपज्जयत्थो अत्थो . अत्थित्तणिव्वत्तो।। 11. धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो। पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं।। 12. असुहोदयेण आदा कुणरो विरियो भवीय जेरइयो। दुक्खसहस्सेहिं सदा अभिंधुदो भमदि अच्वंतं। . 13. अइसयमादसमुत्थं विसयातीदं अणोवममणंतं। अव्वुच्छिण्णं च सुहं सुद्धवओगप्पसिद्धाणं।। 14. सुविदिदपयत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो। समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवओगो त्ति।। 15. उवओगविसुद्धो जो विगदावरणंतरायमोहरओ। भूदो सयमेवादा जादि परं णेयभूदाणं।। (106) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16. तह सो लद्धसहावो सव्वण्हू सव्वलोगपदिमहिदो । सयमेवादा हवदि सयंभु ति णिद्दिट्ठो ।। भूदो 17. भंगविहीणो य भवो संभवपरिवज्जिदो विणासो हि । विज्जदि तस्सेव पुणो ठिदिसंभवणाससमवायो।। 18. उप्पादों य विणासो विज्जदि सव्वस्स अट्ठजादस्स । पज्जाएण दु केणवि अट्ठो खलु होदि सब्भूदो । । 19. पक्खीणघादिकम्मो अणंतवरवीरिओ अधिकतेजो। जादो अणिदिओ सो णाणं सोक्खं च परिणमदि । । 20. सोक्खं वा पुण दुक्खं केवलणाणिस्स णत्थि देहगदं । जम्हा अदिंदियत्तं जादं तम्हा दु तं णेयं । । 21. परिणमदो खलु णाणं पच्चक्खा सव्वदव्वपज्जाया। सो व ते विजाणदि उग्गहपुव्वाहिं किरियाहिं । । 22. णत्थि परोक्खं किंचिवि समंत सव्वक्खगुणसमिद्धस्स । अक्खातीदस्स सदा सयमेव हि णाणजादस्स ।। 23. आदा णाणपमाणं णाणं णेयप्पमाणमुद्दिनं । णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं त सव्वगयं । । तु प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only (107) Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 24. णाणप्पमाणमादा ण हवदि जस्सेह तस्स सो आदा। हीणो वा अहिओ वा णाणादो हवदि धुवमेव।। 25. हीणो जदि सो आदा तण्णाणमचेदणं ण जाणादि। अहिओ वा णाणादो णाणेण विणा कहं णादि।। - 26. सव्वगदो जिणवसहो सव्वे वि य तग्गया जगदि अट्ठा। णाणमयादो य जिणो विसयादो तस्स ते भणिया।। 27. णाणं अप्प त्ति मदं वदि णाणं विणा ण अप्पाणं। तम्हा णाणं अप्पा अप्पा णाणं व अण्णं वा।। 28. णाणी णाणसहावो अट्ठा णेयप्पगा हि णाणिस्स। रूवाणि व चक्खूणं णेवण्णोण्णेसु वटुंति।। 29. ण पविट्ठो णाविट्ठो णाणी णेयेसु रूवमिव चक्खू। जाणदि पस्सदि णियदं अक्खातीदो जगमसेसं।। 30. रयणमिह इन्दणीलं दुद्धज्झसियं जहा सभासाए। अभिभूय तं पि दुद्धं वदि तह णाणमत्थेसु।। 31. जदि ते ण संति अट्टा णाणे णाणं ण होदि सव्वगयं। सव्वगयं वा णाणं कहं ण णाणट्ठिया अट्ठा।। (108) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32. गेण्हदि णेव ण मुंचदि ण परं परिणमदि केवली भगवं। पेच्छदि समंतदो सो जाणदि सव्वं णिरवसेसं।। 33. जो हि सुदेण विजाणदि अप्पाणं जाणगं सहावेण। तं सुयकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पदीवयरा।। 34. सुत्तं जिणोवदिटुं पोग्गलदव्वप्पगेहिं वयणेहिं। तं जाणणा हि णाणं सुत्तस्स य जाणणा भणिया।। 35. जो जाणदि सो णाणं ण हवदि णाणेण जाणगो आदा। णाणं परिणमदि सयं अट्ठा णाणट्ठिया सव्वे।। 36. तम्हा णाणं जीवो णेयं दव्वं तिहा समक्खादं। दव्वं ति पुणो आदा परं च परिणामसंबद्ध।। 37. तक्कालिगेव सव्वे सदसब्भूदा हि पज्जाया तासिं। वटुंते . ते णाणे . विसेसदो दव्वजादीणं।। 38. जेणेव हि संजाया जे खलु णट्ठा भवीय पज्जाया। ___ ते होंति असन्भूदा पज्जाया णाणपच्चक्खा।। 39. जदि पच्चक्खमजायं पज्जायं पलइयं च णाणस्स। ण हवदि वा तं णाणं दिव्वं ति हि के परूवेंति॥ प्रवचनसार (खण्ड-1) . . (109) For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40. अत्थं अक्खणिवदिदं ईहापुव्वेहि.जे विजाणंति। तेसिं परोक्खभूदं णादुमसक्कं ति पण्णत्तं।। 41. अपदेसं सपदेसं मुत्तममुत्तं च पज्जयमजादं। पलयं गयं च जाणदि तं णाणमदिदियं भणियं।। 42. परिणमदि णेयमढें णादा जदि णेव खाइगं तस्स। णाणं ति तं जिणिंदा खवयंतं कम्ममेवुत्ता।। . 43. उदयगदा कम्मंसा जिणवरवसहेहिं णियदिणा भणिया। तेसु विमूढो रत्तो दुट्ठो वा बंधमणुभवदि।। 44. ठाणणिसेज्जविहारा धम्मुवदेसो य णियदयो तेसिं। अरहंताणं काले मायाचारो व्व इत्थीणं। . 45. पुण्णफला अरहंता तेसिं किरिया पुणो हि ओदइया। मोहादीहिं विरहिया तम्हा सा खाइग त्ति मदा।। 46. जदि सो सुहो व असुहो ण हवदि आदा सयं सहावेण। संसारो वि ण विज्जदि सव्वेसिं जीवकायाणं।। 47. जं तक्कालियमिदरं जाणदि जुगवं समंतदो सव्वं। अत्थं विचित्तविसमं तं णाणं खाइयं भणियं।। (110) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48. जो ण विजाणदि जुगवं अत्थे तिक्कालिगे तिवणत्थे। णाएं तस्स ण सक्कं सपज्जयं दव्वमेगं वा।। 49. दव्वं अणंतपज्जयमेगमणंताणि दव्वजादाणि। _ण विजाणदि जदि जुगवं किध सो सव्वाणि जाणादि।। 50. उप्पज्जदि जदि णाणं कमसो अटे पडुच्च णाणिस्स। तं व हवदि णिच्चं ण खाइगं णेव सव्वगदं।। 51. तिक्कालणिच्चविसमं सयलं सव्वत्थ संभवं चित्तं। जुगवं जाणदि जोण्हं अहो हि णाणस्स माहप्पं ।। 52. ण वि परिणमदि ण गेण्हदि उप्पज्जदि णेव तेसु अट्टेसु। जाणण्णवि ते आदा अबंधगो तेण पण्णत्तो।। 53. अत्थि अमुत्तं मुत्तं अदिदियं इंदियं च अत्थेसु। णाणं च तहा सोक्खं जं तेसु परं च तं णेयं।। 54. जं पेच्छदो अमुत्तं मुत्तेसु अदिदिय च पच्छण्णं। सयलं सगं च इदरं तं णाणं हवदि पच्चक्खं।। 55. जीवो सयं अमुत्तो मुत्तिगदो तेण मुत्तिणा मुत्तं। ओगेण्हित्ता जोग्गं जाणदि वा तण्ण जाणादि।। प्रवचनसार (खण्ड-1) (111) For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56. फासो रसो य गंधो वण्णो सद्दो य पुग्गला होति। . अक्खाणं ते अक्खा जुगवं ते णेव गेण्हंति॥ 57. परदव्वं ते अक्खा णेव सहावो त्ति अप्पणो भणिदा। उवलद्धं तेहि कधं पच्चक्खं अप्पणो होदि।। 58. जं परदो विण्णाणं तं तु परोक्खं ति भणिदमटेसु। जदि केवलेण णादं हवदि हि जीवेण पच्चक्खं। . 59: जादं सयं समत्तं णाणमणंतत्थवित्थडं विमलं। रहियं तु ओग्गहादिहिं सुहं ति एगंतियं भणियं। 60. जं केवलं ति णाणं तं सोक्खं परिणमं च से चेव। खेदो तस्स ण भणिदो जम्हा घादी खयं जादा॥ 61. णाणं अत्यंतगयं लोयालोएसु वित्थडा दिट्ठी। णमणिटुं सव्वं इ8 पुण जं हि तं लद्ध।। 62. णो सद्दहति सोक्खं सुहेसु परमं ति विगदघादीणं। सुणिदूण ते अभव्वा भव्वा वा तं पडिच्छंति।। 63. मणुयासुरामरिंदा अहिहुदा इन्दियेहिं सहजेहिं। असहंता तं दुक्खं रमंति विसएसु रम्मेसु। (112) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64. जेसिं विसयेसु रदी तेसिं दुक्खं वियाण सब्भावं । जड़ तं ण हि सब्भावं वावारो णत्थि विसयत्थं । । 65. पप्पा इट्ठे विसये फासेहिं समस्सिदे सहावेण । परिणममाणो अप्पा सयमेव सुहं ण हवदि देहो । । 66. एगंतेण हि देहो सुहं ण देहिस्स कुणदि सग्गे वा । विसयवसेण द सोक्खं दुक्खं वा हवदि सयमादा ।। 67. तिमिरहरा जड़ दिट्ठी जणस्य दीवेण णत्थि कायव्वं । तह सोक्खं सयमादा विसया किं तत्थ कुव्वंति ।। 68. सयमेव जहादिच्चो तेजो उपहो य देवदा णभसि । सिद्धो वि तहा णाणं सुहं च लोगे तहा देवो ।। 69. देवदजदिगुरुपूजासु चेव दाणम्मि वा सुसीले सु । उववासादिसु रत्तो सुहोवओगप्पगो अप्पा ।। 70. जुत्तो सुहेण आदा तिरियो वा माणुसो व देवो वा । भूदो तावदि कालं लहदि सुहं इन्दियं विविहं ।। 71. सोक्खं सहावसिद्धं णत्थि सुराणं पि सिद्धमुवदेसे । ते देहवेदणट्टा रमंति विसएसु रम्मेसु ।। प्रवचनसार (खण्ड-: -1) For Personal & Private Use Only (113) Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 72. णरणारयतिरियसुरा भजति जदि देहसंभवं दुक्खं। . किह सो सुहो व असुहो उवओगो हवदि जीवाणं।। 73. कुलिसाउहचक्कधरा सुहोवओगप्पगेहिं भोगेहिं। देहादीणं विद्धिं करेंति सुहिदा इवाभिरदा।। 74. जदि संति हि पुण्णाणि य परिणामसमुब्भवाणि विविहाणि। जणयंति. विसयतण्हं जीवाणं देवदंताणं।। 75. ते पुण उदिण्णतण्हा दुहिदा तण्हाहिं विसयसोक्खाणि। इच्छंति अणुभवंति य आमरणं दुक्खसंतत्ता।। 76. सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं। जं इन्दियेहिं लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा। 77. ण हि मण्णदि जो एवं णत्थि विसेसो त्ति पुण्णपावाणं। हिंडदि घोरमपारं. संसारं मोहसंछण्णो।। 78. एवं विदिदत्थो जो दव्वेसु ण रागमेदि दोसं वा। उवओगविसुद्धो सो खवेदि देहब्भवं दुक्खं।। 79. चत्ता पावारंभं समुट्ठिदो वा सुहम्मि चरियम्हि। ण जहदि जदि मोहादी ण लहदि सो अप्पगं सुद्ध।। (114) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80. जो जाणदि अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं। सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं।। 81. जीवो ववगदमोहो उवलद्धो तच्चमप्पणो सम्म। जहदि जदि रागदोसे सो अप्पाणं लहदि सुद्ध।। 82. सव्वे वि य अरहंता तेण विधाणेण खविदकम्मंसा। किच्चा तधोवदेसं णिव्वादा ते णमो तेसिं।। 83. दव्वादिएसु मूढो भावो जीवस्स हवदि मोहो त्ति। खुब्भदि तेणुच्छण्णो पप्पा रागं व दोसं वा।। 84. मोहेण व रागेण वं दोसेण व परिणदस्स जीवस्स। . जायदि विविहो बंधो तम्हा ते संखवइदव्वा।। 85. अढे अजधागहणं करुणाभावो य मणुवतिरिएसु। विसएसु य प्पसंगो मोहस्सेदाणि लिंगाणि। 86. जिणसत्थादो अढे पच्चक्खादीहिं बुज्झदो णियमा। खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्थं समधिदव्वं।। 87. दव्वाणि गुणा तेसिं पज्जाया अट्ठसण्णया भणिया। तेसु गुणपज्जयाणं अप्पा दव्व त्ति उवदेसो।। प्रवचनसार (खण्ड-1) (115) For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 88. जो मोहरागदोसे णिहणदि उवलब्भ जोण्हमुवदेसं। सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण।। 89. णाणप्पगमप्पाणं परं . च दव्वत्तणाहिसंबद्ध। जाणदि जदि णिच्छयदो जो सो मोहक्खयं कुणदि। - 90. तम्हा जिणमग्गादो गुणेहिं आदं परं च दव्वेसु। अभिगच्छदु णिम्मोहं इच्छदि जदि अप्पणो अप्पा।। 91. सत्तासंबद्धेदे सविसेसे जो हि व सामण्णे। सद्दहदि ण सो समणो तत्तो धम्मो ण संभवदि।। 92. जो णिहदमोहदिट्ठी आगमकुसलो विरागचरियम्हि। अब्भुट्टिदो महप्पा धम्मो त्ति विसेसिदो समणो।। (116) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-1 संज्ञा-कोश संज्ञा शब्द अंत अंतराय अंस अक्ख अज्झावय अट्ठ अत्थ अर्थ लिंग . गा.सं. अंत, हद तक अकारान्त पु. 61, 74 अन्तराय अकारान्त पुं., नपुं 15 खंड अकारान्त पु. 43, 82 इन्द्रिय अकारान्त नपुं. 29, 40, 56, 57 अध्यापक अकारान्त पु. 4 पदार्थ अकारान्त पुं., नपुं. 18, 26, 28, 31, 35, 42, 50, 52, 58, 85, 86, 87 पदार्थ अकारान्त पु., नपुं. 10, 30, 40, 47, 48, 53, 59, 61, परमार्थ अस्तित्व/सत्त्व अकारान्त नपुं. 10 अतीन्द्रियता अकारान्त नपुं. 20 आत्मा अकारान्त पु. 7, 11, 27, 57, 65, 69,81, 87, 90, स्वयं अकारान्त पु. स्वरूप/स्वभाव अकारान्त पु. 28 आत्मा अकारान्त पु. आत्मा । अकारान्त पु. 27, 33, 80,81 अत्थित्त अदिदियत्त अप्प अप्प . अप्पग ___79 अप्पाण प्रवचनसार (खण्ड-1) प्रवचनस (117) For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व अभाव अमरिंद अरहंत अभाव देवों का राजा अरिहंत अकारान्त पु. . 89 अकारान्त पु. 85 अकारान्त पु. अकारान्त पु. 3, 4, 44, 45, 80, 82 अलोक अलोय/ अलोअ असुर अकारान्त पु.. 23 61 अकारान्त पु. 1,6 दानव 63 असुर आगम आगम आद आत्मा आदि आदि अकारान्त पु. अकारान्त पु. 8, 12, 13, 15, 16, 23, 24, 25, 35, 36, 46, 52, 66, 67, 70, • 90 इकारान्त पु. 45, 59, 69, 79, 83,86 इकारान्त पु. 73 अकारान्त पु. अकारान्त पु., नपुं. अकारान्त पु. 2 अकारान्त पु. अकारान्त नपुं. ___ अकारान्त पु. 5 i inn i minii अन्य आदि आदिच्च आमरण आयार मरण तक आचार पापकर्म आवरण आरंभ आवरण आसम अवस्था (118) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्दणील इन्द्रणील इन्द्रिय इंदिय देव इसि इत्थी स्त्री ईहा ईहा अवग्रह उग्गह उण्ह उदय अकारान्त पु., नपुं. 30 अकारान्त पु., नपुं. 53, 63, 70, 76 इकारान्त पु. 33 इकारान्त स्त्री. 4 आकारान्त स्त्री. 40 अकारान्त पु. अकारान्त पु. अकारान्त पु. अकारान्त पु. अकारान्त पुं. अकारान्त पु. 13, 14, 15, 72, ताप कर्मपरिणाम उदय उप्पाद उवओग उत्पाद उपयोग उवचय उवदेस वृद्धि उपदेश . अकारान्त पु. अकारान्त पु. 44, 71, 82, 87, उववास ओग्गह ओदइय उपवास अवग्रह औदयिक कर्म कम्म . करुणा करुणा अकारान्त पु., नपुं. 69 अकारान्त पु. 59 अकारान्त पु., नपुं 45 अकारान्त पु., नपुं. 42, 43, 82 आकारान्त स्त्री. 85 अकारान्त नपुं. 76 अकारान्त पु. 70, 88 आकारान्त स्त्री. 21, 45 कारण कारण अवस्था काल समय क्रिया किरिया प्रवचनसार (खण्ड-1) . (119) For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुणर खय खाइग खाइय खेत्त क्षेत्र खेद खोह गंध गणहर गहण गुण गुण गुणत्त खोटा मनुष्य अकारान्त पु... 12 विनाश अकारान्त पु. 60, 89 क्षायिक अकारान्त पु. . 42, 50 क्षायिक अकारान्त पु. 47 अकारान्त पु., नपुं. 3 दुःख अकारान्त पु. 60 व्याकुलता अकारान्त पु. -7 गंध अकारान्त पु.. 56 गणधर अकारान्त पु. 4. ज्ञान अकारान्त नपुं. 85 .. अकारान्त पु., नपुं. 10, 22, 87, 90 गुणत्व अकारान्त नपुं. 80 उकारान्त पु. 69 घातिया कर्म __ अकारान्त नपुं. 1, 19 चक्षु उकारान्त पु., नपुं. 28, 29 चारित्र अकारान्त नपुं. 79, 92 चारित्र अकारान्त नपुं. 2,6 अकारान्त नपुं. 7 संसार अकारान्त नपुं. प्राणी अकारान्त पु. 67 इकारान्त पु. 69 बोध आकारान्त स्त्री. 34 समूह अकारान्त नपुं. 18, 49 घाइकम्म चक्खु चरिय चरित्त चारित्त जग जण चारित्र जदि मुनि जाणणा जाद (120) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जादि वर्ग जिण केवली जिनेन्द्र जिन जिनवर अरिहंत जिणवर जिणवसह जिणिंद जीव जिनेन्द्र जीव आत्मा जीवकाय ठाण. ठिदि इकारान्त स्त्री. 37 अकारान्त पु. 26 अकारान्त पु. अकारान्त पु. . 86, 90 अकारान्त पु. अकारान्त पु. 26 अकारान्त पु. 42 अकारान्त पु., नपुं. 6, 9, 36, 55, 72, 74, 81, 83, 84, अकारान्त पु., नपुं. 58 अकारान्त पु. 46 अकारान्त पु., नपुं इकारान्त स्त्री. 17 अकारान्त पु. 72 अकारान्त नपुं. ___2, 5, 6, 19, 21, 22, 23, 24, 25, 27, 28, 30, 31, 35, 36, 37, 38, 39, 41, 42, 47, 50, 51, 53, 54, 59, 60, 61, .. जीवसमूह खड़े रहना स्थिति . णर. . मनुष्य णाण ज्ञान प्रवचनसार (खण्ड-1) (121) For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णास णिच्छय णियम णिव्वाण णिसेज्जा तच्च तण्हा तव तिक्काल तित्थयर तिरिय तेज दंसण दव्व दव्वत्त दव्वत्तण दाण दिट्ठि (122) विनाश निश्चय नियम निर्वाण बैठना सार तृष्णा तप तीन क तीर्थंकर तिर्यंच पशु, पक्षी आदि प्राणी अकारान्त पु. कान्ति अकारान्त पुं. प्रकाश दर्शन द्रव्य द्रव्यत्व द्रव्यता दान दर्शन देखने की शक्ति अकारान्त पुं. . अकारान्त पु. अकारान्त पु. अकारान्त नपुं. 5, 6, 11 आकारान्त स्त्री. 44 अकारान्त नपुं. 81 आकारान्त स्त्री. 74, 75 अकारान्त पु., नपुं. 2, 14 अकारान्त पु. 51 अकारान्त पु. 2 अकारान्त पु., नपुं. 70, 72, 85 12 19 68 2, 5, 6 अकारान्त पु., नपुं. अकारान्त पु., नपुं 17 89 86 8, 10, 21, 34, 36, 37, 48, 49, 57, 78, 83, 87, 90 अकारान्त नपुं 80 अकारान्त पु., नपुं 89 अकारान्त पु., नपुं. 69 इकारान्त स्त्री. 61 67 For Personal & Private Use Only प्रवचनसार (खण्ड- -1) Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 दृष्टि दीपक दीव दुक्ख दुःख देवता अकारान्त पु. 67 अकारान्त पुं., नपुं 12, 14, 20, 63, 64, 66, 72, 75, 76, 78,88 अकारान्त नपुं. 30 अकारान्त पु., नपुं. 6 ____68,70 अकारान्त नपुं. 69 आकारान्त स्त्री. 68, 74 अकारान्त पु., नपुं. 17, 65, 72, 78 66, 71, 73 अकारान्त पु. 78, 81, 83, 84, देवद देवता देवता देवदा देड दोस 88 धम्म अकारान्त पु., नपुं. 1, 7, 8, 44, 91, 92 अकारान्त पु., नपुं. 11 अकारान्त नपुं. 39, 54, 57, 58 अकारान्त पु. 18, 21, 37, 38, 39, 41, 48, 49, स्वभाव प्रत्यक्ष . . पर्याय ... पच्चक्ख पज्जाय पज्जयत्त पदि पर्यायत्व अधिपति अकारान्त नपुं. इकारान्त पुं. 16 प्रवचनसार (खण्ड-1) (123) For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण पयत्थ परिणम परिणाम अका प्रमाण पदार्थ प्रभाव परिणाम परिवर्तन परिणमन परोक्ष अनुपस्थित विनाश आसक्ति अकारान्त नपुं.. 23, 24 अकारान्त पु... 14... अकारान्त नपुं. 60 अकारान्त पु. 7, 9, 10, 74 अकारान्त पु. 9, 10 . __36 अकारान्त नपुं. 22,58 परोक्ख .. 40 पलय पसंग पाव पाप पुग्गल पुण्ण पूजा पोग्गल पुद्गल पुण्य भक्ति पुद्गल प्रभाव स्पर्श स्पर्शन इन्द्रिय कर्मबंध अकारान्त पु. 41 अकारान्त पु., नपुं 85 अकारान्त पु., नपुं 77, 79 अकारान्त पु., न. 56 अकारान्त पु., नपुं 45, 74, 77 आकारान्त स्त्री. अकारान्त पु., नपुं. 34 अकारान्त पु., नपुं 45 अकारान्त पु., न. 56 फल फास बंध अकारान्त पु. बंध बंधन बाधा आकारान्त स्त्री. अड़चन विनाश 76 17 अकारान्त पु. (124) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदार्थ भोग मग्ग मल भगवंत भगवान अकारान्त पु. भव उत्पत्ति अकारान्त पु. भाव भाव अकारान्त पु. 83 अकारान्त पु. धन-सम्पत्ति अकारान्त पु., मार्ग अकारान्त पु. मणुय मनुष्य अकारान्त पु. 63 मणुयराय मनुष्यों का स्वामी अकारान्त पु. मणुव मनुष्य अकारान्त पु. मणुसिंद राजा अकारान्त पु. 1 मैल अकारान्त पु.,नपुं. 1 महप्प . महात्मा अकारान्त पु. 92 माणुस अकारान्त पु., नपुं. 3, 70 मायाचार . मातृत्व अकारान्त पु. 44 माहप्प अकारान्त पु., नपुं. 51 इकारान्त स्त्री. 55 छुटकारा अकारान्त पु. मोह आत्मविस्मृति अकारान्त पु. ... 'मोह 15, 45, 79, 80, 81, 83, 84, 85, 86, 88, 89, 92 अकारान्त पु., नपुं. 15 इकारान्त स्त्री. 64 मनुष्य महिमा मुत्ति मोक्ख 7, 77 .. रात . प्रवचनसार (खण्ड-1) (125) For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयण रत्न रस राग अकारान्त पु., नपुं. 30 अकारान्त पु., नपुं. 56 अकारान्त पु. 14 अकारान्त पु. 78, 81, 83, 84, आसक्ति राग ___88 - . रूव लय रूप समाप्ति चिह्न/लक्षण लिंग लोग लोय लोक लोक वग्ग वर्ग वड्डमान वर्धमान वर्ण वण्ण वयण वचन अरिहंत प्रयत्न ___ वसह वावार विणास विण्णाण विद्धि अकारान्त पु., नपुं. 28, 29 . अकारान्त पु. . 80 अकारान्त नपुं. 85 अकारान्त पु. 16, 68 अकारान्त पु. 23, 33, 61 अकारान्त पु. ... 4 अकारान्त पु. 1 . अकारान्त पु. 56 अकारान्त पु., नपुं. 34 अकारान्त पु. 43 अकारान्त पु. 64 अकारान्त पु. 17, 18 अकारान्त नपुं. 58 इकारान्त स्त्री. 73 अकारान्त नपुं. अकारान्त पु. अकारान्त पु. अकारान्त पु. 26, 63, 64, 65, 67, 71, 85, 74,75 अकारान्त पु. प्रवचनसार (खण्ड-1) विनाश ज्ञान बढ़ोतरी रीति वीतराग विधाण विराग विषय विसअ विसय विषय इन्द्रिय-विषय 13 (126) For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारान्त पु., नपुं 77 अकारान्त पु. अकारान्त पु. अकारान्त पु. विहार वेदणा उत्पत्ति संसार विसेस भेद विहव वैभव गमन वीरिय/ वीर्य वीरिअ . सामर्थ्य संताप संजम संयम संपत्ति प्राप्ति संपयोग संयोग संभव संभव संसार . . स्वर्ग सत्ता . सत्ता सत्थ . . आगम सद्द शब्द सब्भाव स्वभाव प्राकृतिक भासा .. दीप्ति . . . सम . समत्व श्रमण समवाय अविच्छिन्न संयोग सम्म समत्व प्रवचनसार (खण्ड-1) सग्ग आकारान्त स्त्री. अकारान्त पु. 14 इकारान्त स्त्री. 5 अकारान्त पु. 11 अकारान्त पु. 17 अकारान्त पु. 51 अकारान्त पु. 46,77 अकारान्त पु., नपुं. 11, 66 आकारान्त स्त्री. 91 अकारान्त पु., नपुं 86 अकारान्त पु., नपुं. 56 अकारान्त पु. 2,9 64 आकारान्त स्त्री. 30 अकारान्त पु. 7 अकारान्त पु. 2, 14, 91, 92 अकारान्त पु. 17 समण अकारान्त नपुं. 5 (127) For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयंभू सहस्स सहाव साहु सामण्ण सिद्ध सुत्त सुद सुर सुसील सुह सोक्ख जगदि भसि तण्णाण सण्णया (128) स्वयंभू हजार स्वभाव स्वरूप साधु श्रमण अवस्था मुक्त पुरुष आगम सूत्र श्रुतज्ञान देवता देव श्रेष्ठ आचरण सुख सुख जगत में आकाश में वह ज्ञान नाम से ऊकारान्त पु. अकारान्त पु., नपुं अकारान्त पु... उकारान्त पु. अकारान्त नपुं. . अकारान्त नपुं. अकारान्त नपुं. अकारान्त नपुं. अकारान्त पु. अकारान्त-नपुं. अकारान्त नपुं. अकारान्त नपुं. अनियमित संज्ञा 16 12 For Personal & Private Use Only 16, 28, 33, 46, 65, 71 57 91 68 14 34 33 1, 71 72 69 11, 13, 14, 59, 62,65, 66, 68, 70 19, 20, 53,60,62, 66, 67,71, 75, 76 अकारान्त नपुं. अनि 26 अकारान्त नपुं. अनि 68 अकारान्त नपुं. अनि 25 आकारान्त स्त्री. अनि 87 प्रवचनसार ( खण्ड - 1 ) Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ अस 83 क्रिया-कोश अकर्मक क्रिया गा.सं. होना __53, 64 उप्पज्ज उत्पन्न होना ___50, 52 खुब्भ व्याकुल होना जाय उत्पन्न होना 84 परिणम रूपान्तरण को प्राप्त होना 8, 9, रूपान्तरित होना 35 रमण करना वट्ट विद्यमान होना । होना व्यवहार करना रहना मौजूद होना विज्ज विद्यमान होना 17, 18, 46 संपज्ज प्राप्त होना . संभव घटित होना हव होना . 9, 16, 24, 35, 39, 46, 50, 54,58, 72, 83 रहना होना 31, 38, 56, 57 अनियमित क्रिया सन्ति ... होना 31, 74 18 प्रवचनसार (खण्ड-1) (129) । For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश . सकर्मक क्रिया अणुभव अभिगच्छ इच्छ गा.सं. 43,75 90 . अर्थ भोगना समझना चाहना करना/जाना स्वीकार करना करना 75, 90 .. 5 उवसंपय कर कुण. कुव्व खव करना गेण्ह जह करना नाश करना ग्रहण करना छोड़ना प्राप्त करना पहुँचना 32, 52, 56 79,81 15 जाण जानना 25, 29, 32, 35, 41, 47, 49, 51, 55, 80, 89 णा जानना णिहण पडियच्छ पणम परिणम 1 नष्ट करना स्वीकार करना प्रणाम करना प्राप्त करना बदलना रूपान्तरित करना 42, 52 (130) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परूव प्रतिपादन करना देखना पस्स पाव पेच्छ बुज्झ पाना देखना 11,88 32, 54 जानना 86 भज भोगना भण कहना भम मण्ण भ्रमण करना मानना छोड़ना प्राप्त करना प्रणाम करना जानना 70, 79, 81 21, 33, 40, 48, 49 लह वंद विजाण वियाण सद्दह हव जानना 64 श्रद्धा करना प्राप्त करना परिभ्रमण करना 62, 91 65, 66 77 अनियमित क्रिया .. उत्पन्न करना 74 जणय अनियमित कर्मवाच्य क्षय की जाती है . 86 खीयदि प्रवचनसार (खण्ड-1) (131) For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृदन्त शब्द अभिभूय उवलब्भ ओगेण्हित्ता किच्चा चत्ता पप्पा पडुच्च भवीय भविय होकर समासेज्ज सुणिदूण णादुं अंतगय अजाद अजाय अट्ट अभिंधुद (132) अर्थ व्याप्त होकर कृदन्त-कोश संबंधक कृदन्त समझ कर अवग्रह करके करके छोड़कर प्राप्त करके अवलम्बन करके उपलब्ध करके सुनकर 1 कृदन्त अनि संकृ अनि संकृ संक्र अनि संकृ अनि अनि संकृ अनि संकृ संकृ अनि संकृ हेत्वर्थक कृदन्त जानने के लिए हेक अत्यधिक रूप पकड़ा गया भूतकालिक कृदन्त अंत को पहुँचा भूक़ अनि हुआ अनुत्पन्न अनुत्पन्न पीड़ित भूक अनि भूक अनि भूक अनि अनि से भूक For Personal & Private Use Only गा.सं. 30 88 55 4,82 79 65,83 50 115 12, 38 62 40, 48 61 41 39 71 12 प्रवचनसार (खण्ड-1) Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब्भुट्ठि उद्यत अभिरद अत्यन्त आसक्त अविट्ठ भीतर पहुँचा हुआ भी नहीं अहिद्दुद उच्छण्ण उत्त उदिण्ण उद्दिट्ठ जुत्त उवलद्ध खविद ग़द गय जाद जुत्त जुद दुःख का अनुभव भूक अनि किया हु ढँका हुआ कहा उत्पन्न हुई कहा गया संलग्न प्राप्त किया हुआ समझ लिया समाप्त किया आश्रित आये हुए प्राप्त हुआ. प्राप्त हुई हुआ टिका हुआ उत्पन्न हुआ प्राप्त हआ युक्त युक्त प्रवचनसार (खण्ड-1 -1) भूक अनि भूकृ अनि भूक अनि भूक अनि भूक अनि भूक अनि भूक अनि भूक अनि भूक अनि भूक अनि भूक अनि भूक अनि भूक अनि भूक अनि भूक अनि भूकृ भूकृ भूक भूकृ भूक अनि भूक अनि For Personal & Private Use Only 2220 92 73 29 63 8 2 1 35 83 42 75 23 11 57 81 82 20 43 55 41 5 888186 19 22 20, 59 60 70 11 (133) Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31, 35 38. 61. णाद णिहिट्ट णिवदिद णिव्वत्त णिव्वाद णिहद तग्गय दुट्ठ । धोद पक्खीण पच्छण्ण पण्णत्त परिणद स्थित भूक अनि नष्ट हुई भूकृ अनि समाप्त किया गया भूकृ अनि जाना गया भूक कहा गया भूकृ अनि सम्मुख आये हुए भूक बना हुआ भूक अनि संतृप्त हुए भूकृ अनि नष्ट की गई भूक अनि उनमें स्थित भूकृ अनि द्वेष-युक्त हुआ भूक अनि धो दिया भूकृ अनि नष्ट किया गया भूकृ अनि ढका हुआ भूकृ अनि' कहा गया भूकृ अनि परिवर्तित भूकृ.अनि परिवर्तित/रूपान्तरित रहित भूकृ नष्ट हुई भूकृ भीतर पहुँचा हुआ भूक विभूषित भूकृ अनि । कहा गया भूक कहा गया 54 8, 40, 52 . परिवज्जिद पलाय पविट्ठ पसिद्ध भणिद भणिय 14, 57, 58, 60 26, 34, 41, 43, 47, 59,87 (134) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15, 16, 40, 70 महिद मुत्तिगद 55 हुआ कहा गया भूकृ अनि मानी गयी पूजा गया मूर्त को प्राप्त भूकृ अनि हुआ राग-युक्त हुआ भूक अनि अनुरक्त भूकृ अनि प्राप्त भूकृ अनि वंदना किया गया भूक समाप्त कर दिया भूकृ अनि 16, 61, 76 लद्ध वंदिद ववगद 81 गया विगद . विच्छिण्ण 15, 62. 76 रहित - भूकृ अनि नष्ट कर दिया हस्तक्षेप/ भूकृ अनि समाप्त किया गया जान लिया गया भूकृ अनि तादात्मय किया भूकृ अनि 14, 78 विदिद विमूढ हुआ .. विरहिय विसेसिद विहीण रहित भूकृ अनि विशेषणों से युक्त भूक अनि व्याकुलता रहित भूकृ अनि रहित प्रवचनसार (खण्ड-1) (135) For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संछण्ण संजाय संजुद संतत्त संबद्ध समक्खाद समुट्ठिद सहिय सिद्ध अधिदव्व कायव्व य मुणेदव्व संखवइदव्व (136) पूर्णतः ढँका हुआ भूक अनि उत्पन्न हुई भूक अनि संयुक्त अत्यन्त पीड़ित पूर्णतः निर्मित कहा गया भूक अनि उचित प्रकार से भू अनि भूक अनि भूक अनि भूक अनि प्रयत्नशील / उठा हुआ सहित निष्पन्न प्रमाणित समझा जाना चाहिये समाप्त किये जाने चाहिये भूक अनि .. भूक अनि विधि कृदन्त . अध्ययन किया जाना चाहिये किया जा सकता विधिक अनि जानने योग्य विधिक अनि विधिक अनि विधिकृ विधिक अनि For Personal & Private Use Only 38838 77 14 75 36 36 · 79 उ 76 71 86 67 15, 20, 23, 28, 29, 36, 42, 53 8 84 प्रवचनसार (खण्ड-1 -1) Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ-सहंत खवयंत वर्तमान कृदन्त सहन न करते हुए वक विसर्जन करता वकृ अनि हुआ जानता हुआ वकृ अनि रूपान्तरण करता वकृ हुआ जाणण्ण परिणममाण प्रवचनसार (खण्ड-1) (137) . For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द अइसय अक्खातीद अचेदण अच्वंत अट्ट अनंत अणिट्ठ अणिदिय अणोवम अण्णोण अतीद अदिंदिय अधिक अ-पदेस अपार अप्पग अबंध अभव्व अमुत्त अव्वुच्छिण्ण (138) अर्थ श्रेष्ठ इन्द्रियातीत चैतन्यरहित अत्यन्त पीड़ित अनन्त अनिष्ट अतीन्द्रिय अनुपम परस्पर परे परे गया हुआ अतीन्द्रिय प्रचुर प्रदेश रहित अनन्त निर्मित अबंधक विशेषण - कोश अभव्य अमूर्त सतत गा.सं. 2 2 2 2 2 13 25 12 71 13, 19, 49, 59 61 19 13 28 13 29 41, 53, 54 19 41 77 34 52 62 41, 53, 54, 55 13 For Personal & Private Use Only प्रवचनसार (खण्ड- 1 1) Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असक्क असब्भूद असुह असेस अहिअ अहिसंबद्ध जुड़ा हुआ इट्ठ वांछित इदर अन्य उब्भव उत्पन्न उवओगप्पग उपयोगात्मक उवदिट्ठ एतिय कत्तार कुसल केवल केवलणाणि केवलि असमर्थ अविद्यमान खाइग घादि घोर चक्कधर अशुभ समस्त अधिक 61, 65 47, 54 78 69 73 34 अद्वितीय 59 करनेवाले 1 कुलिसाउहधर वज्रायुध धारण करनेवाले 73 92 उपयोगस्वभाववाला उपदेश दिया गया कुशल केवल केवलज्ञानी केवली. क्षायिकी घातिया कर्म भयानक चक्र धारण करनेवाले प्रवचनसार (खण्ड-1 ) 40 37,38 9, 12, 46, 72 29 24, 25 89 58,60 2248F R 20 32 45 60, 62 77 73 For Personal & Private Use Only (139) Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त जाणग जोग्ग जोण्ह झसिय णाणप्पग णाणमय णाणि णादु णारय. णिच्च णिम्मोह यिद विसेस णेरड्य तक्कालिग/ तक्कालिय तित्थ तिमिरहर (140) नाना प्रकार के जाननेवाले योग्य दिव्य डाला हुआ ज्ञानस्वरूप ज्ञानमय ज्ञानी तम्मय उसमय/उसरूप तिक्कालिग तीन काल संबंधी तारने में समर्थ अंधकार को हटानेवाला ज्ञाता नारकी नित्य चिरस्थायी आसक्ति रहित नियत शेष रहित नरक में उत्पन्न वर्तमानकाल संबंधी 51. 33, 35 55 51,88 30 2 8 8 89 26 28, 29, 50 0 2 2 0 8 2 2 5 5 42 72 50 51 90 43 32 12 37 47 8 48 1 67 For Personal & Private Use Only प्रवचनसार (खण्ड-1 ) Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 तिहवणत्थ दिव्व दुहिद तीन लोक में स्थित दिव्य दुःखी देहि शरीरधारी पच्चक्ख प्रत्यक्ष 21, 38, 86 पर्याय में स्थित/रहनेवाला 10 पज्जयत्थ पत्तेग पदीवयर प्रत्येक प्रकाश करनेवाले पर पार पर 32, 36, 89, 90 58 53, 62 5, 6 21, 40 अन्य परम उत्कृष्ट/सर्वोत्तम परिणद रूपान्तरित पहाण : प्रधान पुव्व युक्त/से युक्त . भव्य मुत्त मूर्त मूढ संशयात्मक रम्म रमणीयं रहित वर ... विचित्त . अनेक प्रकार के वित्थड फैला हुआ 41, 53, 54, 55 63,71 रहिद 59 59, 61 प्रवचनसार (खण्ड-1) (141) For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमल विविह विसम शुद्ध नाना प्रकार का 59. ___70, 74, 84 47, 51 असमान 76 विसयवस कष्टदायक विषयों के अधीन विशुद्ध/शुद्ध 66 विसुद्ध संबद्ध 2, 5, 15, 78 - युक्त 1 . . संभव उत्पन्न 72 . सक्क संभव सग . सद स-पज्जय स-पदेस सपर स्वयं का विद्यमान पर्याय-सहित प्रदेश-सहित पर की अपेक्षा रखनेवाला विद्यमान . अपनी (दीप्ति) समान सब्भूद स (भासा) सम समत्त समस्सिद समिद्ध समुत्थ समुन्भव सयल पूर्णतः निर्भर सम्पन्न उत्पन्न उत्पन्न समस्त (142) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सबको 54 26, 50 23, 31 सविसेस सव्वगद सव्वगय सव्वण्हु स-सव्व सहज सहावसिद्ध 16 विशेष सत्ता से युक्त सर्वव्यापक सर्वव्यापक सर्वज्ञ विद्यमान सभी प्रकृतिदत्त स्वभाव से निष्पन्न सिद्ध प्रमाणित सिद्ध 2. 4 सुयकेवलि सुह श्रुतकेवली शुभ 9, 11, 13, 14, 79, 81 33 9, 11, 46, 69, 70, 72, 73, 79 सुहिद सुखी सेस .....शष 24, 25 . . अनियमित विशेषण उतने तक 70 संख्यावाची विशेषण 48, 49 प्रवचनसार (खण्ड-1) (143) For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वनाम शब्द एअ एत एद अ व do 15 किं त (144) अर्थ यह यह यह यह कौन किसी सर्वनाम - कोश वह लिंग पु., नपुं पु., नपुं पु., नपुं पु., नपुं पु., नपुं पु., नपुं क्या पु., नपुं जो पु., नपुं. पु., नपुं. गा.सं. 85 1 91 43 39 18 67 7, 8, 15, 24, 33, 35, 38, 40, 47, 48, 53, 54, 58, 60, 61, 64, 77, 78, 80, 88, 89, 91, 92 3, 5, 7, 16, 17, 19, 20, 21, 24, 25, 26, 30, 31, 32, 33, 34, 35, 37, 38, 39, 40, 41, 42, 43, 44, 45, 46, 47, 48, 49, 50, 52, 53, 54, 55, 56, 57, 58, 60, 61, 62, 63, 64, 71, 72, 75, 78, 79, 80, For Personal & Private Use Only प्रवचनसार (खण्ड-1 ) Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 81, 82, 83, 84, 87, 88, 89, 91 45 ता वह सभी/सब पु., नपुं समस्त 2, 3, 4, 26, 82 16, 18, 21, 22, 32, 35, 37, 46, 49, 61, 88 तासिं अनियमित सर्वनाम 37 उन प्रवचनसार (खण्ड-1) (145) For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यय-कोश गा.सं. 88 अव्यय अर्थ अचिरेण (कालेण) थोड़े (समय में) अजधा विपरीत अत्थि अवि अहो आश्चर्य है! 51 7, 8, 14, 45, 58, 60, 62 39 42, 57 59, 60, 62 '16, 83, 87 92 चूँकि इस कारण इसलिए निश्चय ही इस प्रकार और . पादपूरक जैसे कि समान मानो इस लोक में आवश्यकरूप से 36, 40, 77 इव 10, 24, 30 66 एगंतेण भी 4, 15, 16, 17, 22, 24, 42, 65, 68, 76 (146) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 77, 78 एवं कधं कमसो कहं इस प्रकार कैसे क्रम से किंचि किध किह खलु वास्तव में निश्चय ही और 7, 18, 38 80 4, 13, 19, 36, 41, 54, 60, 89, 90 तथा पादपूरक 53, 68 _ जं और और चूंकि 64, 67 . क्योंकि जब जदा जदि 11, 25, 31, 39, 42, 46, 49, 50, 72, 74, 79, 81, 89, 90 प्रवचनसार (खण्ड-1) (147) For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्हा जह जहा जुगवं ण णत्थि व णो णमो णिच्छयदो यिदं यिदयो तं 2. तण्ण (148) 后 क्योंकि चूँकि जिस प्रकार जिस प्रकार एक ही साथ एक ही समय में नहीं न नहीं नहीं नही नहीं नमस्कार निश्चयपूर्वक लगातार अचूक रूप से इसलिए वह नहीं 1 58 8 8 8 8 8 20 60 68 30 47, 48, 49, 51 56 10, 20, 24, 25, 27, 29, 31, 35, 39, 46, 48, 49, 52, 60, 64, 65, 66, 77, 78, 79, 91 32, 50 22, 67, 71, 77 21, 28, 38, 42, 56, 57,91 32, 50, 52 62 4,82 89 1 2 58 29 44 76 55 For Personal & Private Use Only प्रवचनसार (खण्ड- 1) Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक्कालं तत्थ तदा तथ तम्हा तह तहा तिहा (c) तु तेण दु धुव पत्तेगं परदो उसी समय वहाँ तब उसी प्रकार इसलिये तथा उसी प्रकार उसी प्रकार और उस (पूर्वोक्त) रीति से प्रकार निश्चय ही परन्तु ही इसलिए किन्तु पादपूरक परन्तु अवश्य पृथक-पृथक पर से प्रवचनसार (खण्ड-1) 8 67 9 82 8, 20, 23, 27, 36, 45, 84, 86, 90 4, 16 30, 67 53, 68 68 76 36 23 58, 61 59 52 18 20 66 24 3 58 1 For Personal & Private Use Only (149) Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वभाव से पादपूरक इसके अनन्तर और फिर भी 17, 36 11.1.1***** **** 45 2, 44, 75, 85 3, 17, 18, 26, 56, 68, 82, 85 26,74 34 11, 72 पादपूरक चूँकि . व तथा जैसे कि और या अथवा पादपूरक पादपूरक 27, 31 46, 70 83, 84 11, 72 24, 39 9, 20, 43, 70, 78 27, 48, 66, 79 , प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथवा और 24, 55, 66, 70, 83 25, 31, 62 69, 70 तथा निश्चय ही 18 22, 46, 68 26, 52, 82 10, 25, 27 विणा बिना विसयत्थं विसेसदो विषयों के लिए . खास तोर से व्व समान पूर्णतः सदा खूब हमेशा सदा सब्भावं सव्भाव से समगं समगं साथ-साथ समंत (समंता) सब और से/ .. चारों तरफ से समंतदो . सब ओर से सम्म अच्छी तरह सयं स्वयं 32, 47 81 15, 16, 22, 55, 59, 65, 66, 67, 68 .... स्वयं ही 35 प्रवचनसार (खण्ड-1) (151) For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वं सव्वत्थ सहावेण अपने पूर्णरूप से सभी जगह स्वभावपूर्वक पूरी तरह से निश्चय ही 9, 17, 22, 28, 37, 39, 66, 74,91 पादपूरक 33, 38, 45, 51, 58 34, 61 इसलिए क्योंकि निश्चय ही हु (152) प्रवचनसार (खण्ड-1). For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-2 छंद छंद के दो भेद माने गए है1. मात्रिक छंद 2. वर्णिक छंद 1. मात्रिक छंद- मात्राओं की संख्या पर आधारित छंदो को ‘मात्रिक छंद' कहते हैं। इनमें छंद के प्रत्येक चरण की मात्राएँ निर्धारित रहती हैं। किसी वर्ण के उच्चारण में लगनेवाले समय के आधार पर दो प्रकार की मात्राएँ मानी गई हैं- ह्रस्व और दीघ। ह्रस्व (लघु) वर्ण की एक मात्रा और दीर्घ (गुरु) वर्ण की दो मात्राएँ गिनी जाती हैं लघु (ल) (1) (ह्रस्व) गुरु (ग) (s) (दीर्घ) (1) संयुक्त वर्गों से पूर्व का वर्ण यदि लघु है तो वह दीर्घ/गुरु माना जाता है। जैसे'मुच्छिय' में 'च्छि' से पूर्व का 'मु' वर्ण गुरु माना जायेगा। (2)जो वर्ण दीर्घस्वर से संयुक्त होगा वह दीर्घ/गुरु माना जायेगा। जैसे- रामे। यहाँ शब्द में 'रा' और 'मे' दीर्घ वर्ण है। (3) अनुस्वार-युक्त ह्रस्व वर्ण भी दीर्घ/गुरु माने जाते हैं। जैसे- 'वंदिऊण' में 'व' ह्रस्व वर्ण है किन्तु इस पर अनुस्वार होने से यह गुरु (s) माना जायेगा। (4) चरण के अन्तवाला ह्रस्व वर्ण भी यदि आवश्यक हो तो दीर्घ/गुरु मान लिया जाता है और यदि गुरु मानने की आवश्यकता न हो तो वह हस्व या गुरु जैसा भी हो बना रहेगा। 1. देखें, अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार) प्रवचनसार (खण्ड-1) (153) For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • 2. वर्णिक छंद- जिस प्रकार मात्रिक छंदों में मात्राओं की गिनती होती है उसी प्रकार वर्णिक छंदों में वर्गों की गणना की जाती है। वर्गों की गणना के लिए गणों का विधान महत्त्वपूर्ण है। प्रत्येक गण तीन मात्राओं का समूह होता है। गण आठ हैं जिन्हें नीचे मात्राओं सहित दर्शाया गया है . - ।ऽऽ यगण मगण 555 तगण 550 रगण जगण - - - ऽ।ऽ । । ऽ।ऽ भगण नगण सगण - ।। प्रवचनसार में मुख्यतया गाहा छंद का ही प्रयोग किया गया है। इसलिए यहाँ गाहा छंद के लक्षण और उदाहरण दिये जा रहे हैं। लक्षण गाहा छंद के प्रथम और तृतीय पाद में 12 मात्राएँ, द्वितीय पाद में 18 तथा चतुर्थ पाद में 15 मात्राएँ होती हैं। (154) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरण ऽ ऽ ऽ ऽ ।। ऽ ते ते सव्वे समगं ऽ ऽ । । sss वंदामि य वट्टंते ऽ ऽ ऽ ।। ऽ ऽ चारित्तं खलु धम्मो ऽ ऽ ऽ ।। ऽ ऽ मोहक्खोहविहीणो ऽ । । ऽ ।। ऽऽ णत्थि विणा परिणामं ऽ । ।। ऽ । ऽ ऽ दव्वगुणपज्जयत्थो प्रवचनसार ( खण्ड - 1 ) ।। ऽ ऽ ऽ । ऽ। ऽ ऽ ऽ समगं पत्तेगमेव पत्तेगं । ।। ऽऽ ऽ। ऽ ऽ ऽ अरहंते माणुसे खेत्ते ।। S S S S । ऽ SSS धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो । ।। ऽ ।। ऽ ऽ ऽ । ऽ परिणामो अप्पणो हु समो ।। ऽ ऽ ऽ ऽ । ऽ। ।। ऽ ऽ अत्थो अत्थं विणेह परिणामो । S S अत्थो ss Is s s अत्थित्तणिव्वत्तो।। SSSSIIS धम्मेण परिणदप्पा ऽ ।। ऽ ऽ । ।ऽ । ऽ। ऽ ऽ 1 ऽ ॥ ऽ पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं । । S S ऽ। ऽ। ऽ।। ऽ अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो । For Personal & Private Use Only (155) Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - 3 . सम्मति द्रव्यसंग्रह आपके द्वारा प्रेषित 'द्रव्यसंग्रह' (2013) की प्रति मिली। आपके सम्पादन और श्रीमती शकुन्तला जैन के अनुवाद के साथ द्रव्यसंग्रह का यह उपयोगी संस्करण तैयार हुआ है। इससे सिद्धान्त और प्राकृत व्याकरण दोनों का ज्ञान पाठकों को हो सकेगा। व्याकरणात्मक विश्लेषण के साथ तो प्रथम संस्करण ही है द्रव्यसंग्रह का। इस सारस्वत अध्ययन के लिए आप सबको बधाई। पुस्तक परिशिष्ट में दिये गये सभी कोश प्राकृत शब्दशास्त्र के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। गाथाओं का छन्द-विश्लेषण भी पहली बार देखने में आया है। यह संस्करण आदर्श है सम्पादन कार्य का और सुन्दर निर्दोष प्रकाशन का। द्रव्यसंग्रह प्रायः जैन शिक्षण शिविर और सभी प्राकृत की परीक्षाओं के कोर्स में है। श्रवणबेलगोला, मैसूर, सोलापुर, उदयपुर, जयपुर, दिल्ली, नागपुर आदि स्थानों के संचालित पाठ्यक्रमों में यह द्रव्यसंग्रह निर्धारित है। लगभग 67 हजार छात्र प्रतिवर्ष इसकी परीक्षा देते हैं। अतः इसका एक छात्र संस्करण भी पेपर बैक में आप लोग प्रकाशित करें तो समाजसेवा होगी और छात्रों को ज्ञानदान भी। श्री महावीरजी संस्थान इसमें समर्थ है। प्राकृत के सभी विद्वानों और विभागों को भी आपका यह द्रव्यसंग्रह पहुँचना चाहिए। डॉ. प्रेमसुमन जैन पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग मोहनलाल सुखाडिया विश्वविद्यालय उदयपुर निर्देशन एवं संपादन- डॉ. कमलचन्द सोगाणी अनुवादक- श्रीमती शकुन्तला जैन (156) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मति द्रव्यसंग्रह आपके द्वारा संपादित एवं श्रीमती शकुन्तला जैन द्वारा अनूदित 'द्रव्यसंग्रह ' ग्रन्थ प्राप्त कर अतीव हर्ष का अनुभव हुआ। वस्तुतः इस ग्रन्थ की प्रत्येक गाथा के प्रत्येक पदों का अलग-अलग हिन्दी अनुवाद वह भी प्राकृत व्याकरण के आधार पर समझाते हुए अन्वय और अर्थ सहित - इन सब विशेषताओं के कारण इतना सरल-सहज बन गया है कि इस ग्रन्थ के आधार पर प्राकृत भाषा के दूसरे ग्रन्थों को समझा जा सकता है। वस्तुतः इस ग्रन्थ को पढ़कर ऐसा लगा जैसे यह द्रव्यसंग्रह का नया अवतार ही हो गया हो। अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जैनविद्या संस्थान के माध्यम से प्राकृतअपभ्रंश भाषाओं का जो उत्कर्ष और प्रसार आपके और आपकी शिष्य मण्डली के माध्यम से हो रहा है, उसके लिए सब आपके चिरऋणी रहेंगे। नये-नये ग्रन्थ आफ् नये-नये रूपों में प्रकाशित कर मुझे भिजवा देते हैं, इसके लिए हम आपके और संस्थान के प्रति आभार व्यक्त करते हैं। शेष शुभ। प्रो. फूलचन्द जैन प्रेमी पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, जैनदर्शन विभाग सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी एवं निदेशक बी. एल. प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान दिल्ली निर्देशन एवं संपादन- डॉ. कमलचन्द सोगाणी अनुवादक- श्रीमती 'शकुन्तला जैन प्रवचनसार ( खण्ड - 1 ) For Personal & Private Use Only (157) Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप द्वारा संपादित व श्रीमती शकुन्तला जैन द्वारा अनुवादित 'द्रव्यसंग्रह' पुस्तक प्राप्त हुई। वैस तो 'द्रव्यसंग्रह' के हिन्दी अनुवाद की अनेक कृतियाँ उपलब्ध हैं, पर आपने इसे एक नये आयाम में प्रस्तुत किया है। निःसन्देह यह प्रयास सराहनीय है। प्राकृत भाषा के विद्वानों और अध्ययनार्थियों के लिए यह एक अत्यन्त उपयोगी कृति सिद्ध होगी, ऐसा मुझे विश्वास है । श्रीमती शकुन्तला जैन के इस प्रयास के लिए वे बधाई की पात्र हैं। सम्मति द्रव्यसंग्रह (158) निर्देशन व संपादन- डॉ. कमलचन्द सोगाणी अनुवादक - श्रीमती शकुन्तला जैन बुद्धिप्रकाश 'भास्कर' एम.ए. (हिन्दी) शास्त्री - शिक्षा व दर्शन, साहित्यरत्न · जयपुर For Personal & Private Use Only प्रवचनसार (खण्ड-1) Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक पुस्तकें एवं कोश 1. प्रवचनसार 2. प्रवचनसार प्रवचनसार : प्रस्तावना व अंग्रेजी अनुवादडॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये हिन्दी अनुवादक-हेमराज पाण्डेय (श्रीपरमश्रुत प्रभावक मण्डल, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास, चतुर्थ आवृत्ति, 1984) : हिन्दी अनुवादक-पण्डित राजकिशोर जैन (श्री दिगम्बर जैन कुन्दकुन्दपरमागम ट्रस्ट, इन्दौर एवं पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर) : हिन्दी अनुवादकश्री पण्डित परमेष्ठीदासजी न्यायतीर्थ (श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़ (सौराष्ट्र), 1964) : सम्पादन एवं अनुवाद मुनि श्री 108 प्रणम्यसागरजी महाराज (धर्मोदय साहित्य प्रकाशन, सागर (म.प्र.), 2007) : पं. हरगोविन्ददास त्रिविक्रमचन्द्र सेठ (प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी, 1986) : डॉ. नरेश कुमार (डी. के प्रिंटवर्ल्ड (प्रा.) लि., नई दिल्ली, 1999) प्रवचनसार 5. . पाइय-सद्द-महण्णवो अपभ्रंश-हिन्दी कोश प्रवचनसार (खण्ड-1) (159) For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. संस्कृत-हिन्दी कोश : वामन शिवराम आप्टे (कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1996) 8. हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण, : व्याख्याता श्री प्यारचन्द जी महाराज भाग 1-2 (श्री जैन दिवाकर-दिव्य ज्योति कार्यालय, मेवाड़ी बाजार, ब्यावर, 2006) 9. प्राकृत भाषाओं का : लेखक -डॉ. आर. पिशल व्याकरण हिन्दी अनुवादक - डॉ. हेमचन्द्र जोशी (बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, 1958) 10. प्राकृत रचना सौरभ : डॉ. कमलचन्द सोगाणी (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, 2003) 11. प्राकृत अभ्यास सौरभ : डॉ. कमलचन्द सोंगाणी (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, 2004) 12. अपभ्रंश अभ्यास सौरभ : डॉ. कमलचन्द सोगाणी . (छंद एवं अलंकार) (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर,) 13. प्राकृत- हिन्दी-व्याकरण : लेखिका- श्रीमती शकुन्तला जैन (भाग-1, 2) संपादक- डॉ. कमलचन्द सोगाणी (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, 2012, 2013) प्राकृत-व्याकरण : डॉ. कमलचन्द सोगाणी (संधि- समास- कारक-तद्धित- (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, स्त्रीप्रत्यय-अव्यय) 2008) 14. (160) प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only