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86. जिणसत्थादो अट्ठे पच्चक्खादीहिं बुज्झदो णियमा । खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्थं
समधिदव्वं । ।
सत्था
अट्ठे
पच्चक्खादीहिं
बुज्झदि
णियमा
खीयदि
मोहोवचयो
तम्हा
सत्थं
समधिदव्वं
(98)
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[ ( जिण) - ( सत्थ) 5 / 1]
(अट्ठ) 2/2 [(पच्चक्ख) + (आदीहिं) ]
[(पच्चक्ख) वि- (आदि ) 3 / 2] प्रत्यक्ष आदि के साथ
(बुज्झ ) व 3 / 1 सक
जानता है
(णियम ) 5 / 1
नियम से
(खीयदि) व कर्म 3/1
क्षय की जाती है
सक अनि
[(मोह) + (उवचय)]
[ ( मोह) - ( उवचय) 1 / 1]
अव्यय
( सत्थ) 1 / 1
[(सं)+(अधिदव्वं)]
जिन - आगम से
पदार्थों को
अन्वय- जिणसत्थादो अट्ठे पच्चक्खादीहिं बुज्झदो णियमा मोहोवचयो खीयदि तम्हा सत्थं समधिदव्वं ।
अर्थ - (जो ) जिन-आगम से पदार्थों को प्रत्यक्ष आदि (प्रमाणों) के साथ जानता है (उसके द्वारा ) नियम से मोहवृद्धि क्षय की जाती है, इसलिये आगम खूब अध्ययन किया जाना चाहिये।
1. यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'बुज्झदो' के स्थान पर 'बुज्झदि' होना चाहिए।
मोहवृद्धि
इसलिये
आगम
सं (अ)
=
खूब
खूब अधिदव्वं (अधिदव्व) विधिक अध्ययन किया जाना 1 / 1 अनि
चाहिये
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प्रवचनसार (खण्ड-1)
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