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30. रयणमिह इन्दणीलं दुद्धज्झसियं जहा सभासाए।
अभिभूय तं पि दुद्धं वट्टदि तह णाणमत्थेसु।।
रयणमिह
इन्दणीलं दुद्धज्झसियं जहा सभासाए
अभिभूय
[(रयणं)+ (इह)] रयणं (रयण) 1/1 इह (अ) = इस लोक में इस लोक में (इन्दणील) 1/1 इन्द्रणील [(दुद्ध)-(ज्झसिय) 1/1 वि] . दूध में डाला हुआ अव्यय
जिस प्रकार (स-भासा) 3/1
अपनी दीप्ति से (अभिभूय) संकृ अनि . व्याप्त होकर (त) 2/1 सवि
उस अव्यय
भी (दुद्ध) 2/1
दध में (वट्ट) व 3/1 अक रहता है अव्यय
उसी प्रकार [(णाणं)+(अत्थेसु)] णाणं (णाण) 1/1. ज्ञान अत्थेसु (अत्थ) 7/2 पदार्थों में
वट्टदि
तह
णाणमत्थेसु
अन्वय- इह जहा दुद्धज्झसियं इन्दणीलं रयणं सभासाए तं दुद्धं अभिभूय वट्टदि तह णाणं पि अत्थेसु।
____ अर्थ- इस लोक में जिस प्रकार दूध में डाला हुआ इन्द्रनील रत्न अपनी दीप्ति से उस दूध में व्याप्त होकर रहता है, उसी प्रकार ज्ञान भी पदार्थों में (व्याप्त होकर) (रहता है)।
1.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137)
(42)
प्रवचनसार (खण्ड-1)
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