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12. असुहोदयेण आदा कुणरो तिरियो भवीय णेरइयो । दुक्खसहस्सेहिं सदा अभिंधुदो भमदि अच्वंतं । ।
असुहोदये
आदा.
कुणरो
तिरियो
भवीय
रइयो
दुक्खसहस्से हिं
सदा
अभिधुदो'
भमदि
अच्वंतं
अन्वय
(24)
[(असुह) + (उदयेण)]
[ ( असुह) वि - (उदय) 3 / 1] अशुभ कर्म के.
परिणाम से
(आद) 1 / 1
( कुणर) 1 / 1
( तिरिय) 1 / 1
(भव भवियभवीय) संक्र
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(छन्द की पूर्ति हेतु 'इ' का 'ई' ) (णेरइय) 1/1 वि
[ ( दुक्ख ) - (सहस्स) 3/2]
अव्यय
( अभिंधुद) भूक 1 / 1 अनि
(भम) व 3/1 सक.
(अच्चंत ) 1 / 1 वि
आत्मा
'खोटा मनुष्य.
पशु, पक्षी आदि प्राणी.
होकर
नरक में उत्पन्न
हजारों दुःखों से
हमेशा
अत्यधिक रूप से
दुक्खसहस्सेहिं अभिंधुदो अच्वंतं भमदि ।
अर्थ - अशुभ कर्म के परिणाम से आत्मा खोटा मनुष्य, पशु, पक्षी आदि प्राणी (तिर्यंच) नरक में उत्पन्न (नारकी) होकर हमेशा हजारों दुःखों से अत्यधिक रूप से पकड़ा गया (होता है) (और) (संसार में) अत्यन्त भ्रमण करता है।
1.
पकड़ा गया
भ्रमण करता है
अत्यन्त
असुहोदयेण आदा कुणरो तिरियो णेरइयो भवीय सदा
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यहाँ अनुस्वार का आगम हुआ है।
यहाँ 'अभिधुदो' के स्थान पर 'अभिदुयो' पाठ लेते हैं तो उसका अर्थ होगा 'हैरान किया गया' ।
प्रवचनसार (खण्ड- 1 )
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