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रहस्य को जाननेवाला होता है (सुविदिदपयत्थसुत्तो)। ऐसे श्रमण में एक विशेषता
और उत्पन्न होती है कि वह ज्ञेय पदार्थों के अंत को प्राप्त कर लेता है (जादि परं णेयभूदाणं) अर्थात् वह सर्वज्ञ हो जाता है। अपने सामर्थ्य की अनाश्रित अभिव्यक्ति के कारण वह स्वयंभू' होता है, अपने मूलस्वरूप को प्राप्त कर लेता है (सो लद्धसहावो सव्वण्हू, हवदि सयंभू)। शुद्धोपयोग को दार्शनिक रूप से पुष्ट करते हुए आचार्य का प्रतिपादन है कि शुद्धोपयोग की उत्पत्ति विनाश-रहित और अशुद्धोपयोग का विनाश उत्पत्ति-रहित होता है। इस तरह से शुद्धोपयोग पर्याय की उत्पत्ति, अशुद्धोपयोग पर्याय का विनाश और आत्म द्रव्य की ध्रौव्यता उपदिष्ट है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि शुद्धोपयोगी आत्मा अतीन्द्रिय, सर्वज्ञ और अनंत सुखमय हो जाता है।
केवलज्ञान की अवधारणा
जैसा उपर्युक्त कहा गया हैः शुद्धोपयोगी आत्मा केवलज्ञानी हो जाता है। प्रश्न यह है कि केवलज्ञान का स्वरूप क्या है? केवलज्ञान में समस्त द्रव्य-पर्यायें प्रत्यक्ष होती है, केवली उनको अवग्रह आदि क्रियाओं से नहीं जानते हैं। केवली के कुछ भी परोक्ष नहीं है (णत्थि परोक्खं किंचि)। केवली का ज्ञान सर्वव्यापक होता है, क्योंकि आत्मा ज्ञान प्रमाण हैं और ज्ञान ज्ञेय प्रमाण कहा गया है (णाणं तु सव्वगयं)। ज्ञानमय होने के कारण केवली को सर्वव्यापक कहा गया है और जगत के सब पदार्थ उनमें स्थित कहे गये हैं। यहाँ यह समझने योग्य है कि केवलज्ञानी के लिए पदार्थ ऐसे ही हैं, जैस रूपों के लिए चक्षु। ज्ञानी सब ज्ञेयों को जानता-देखता है, जैसे चक्षु रूपों को। सच तो यह है कि ज्ञान पदार्थों में व्याप्त होकर रहता है, जैसे दूध में डाला हुआ इन्द्रनील रत्न अपनी आभा से दूध
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प्रवचनसार (खण्ड-1)
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