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64. जेसिं विसयेसु रदी तेसिं दुक्खं वियाण सब्भाव।
जइ तं ण हि सब्भावं वावारो णत्थि विसयत्थं।।
जेसिं
विसयेसु रदी
तेसिं
दुक्खं
वियाण
सब्भावं
जइ
(ज) 6/2 सवि जिनकी (विसअ) 7/2 विषयों में (रदि) 1/1
रति. (त) 6/2 सवि
उनके (दुक्ख) 2/1
दुःख को (वियाण) विधि 2/1 सक.. जानो ... (सब्भाव) 2/1 अव्यय स्वभाव से अव्यय
यदि ... (त) 1/1 सवि अव्यय
नहीं अव्यय (सब्भाव) 2/1 अव्यय स्वभाव से (वावार) 1/1
प्रयत्न [(ण)+ (अत्थि) ण (अ) = नहीं
नहीं अत्थि (अस) व 3/1 अक होता है अव्यय
विषयों के लिए
क्योंकि
सब्भावं वावारो णत्थि
विसयत्थं
अन्वय- जेसिं विसयेसु रदी तेसिं दुक्खं सब्भावं वियाण हि जइ तं ण सब्भावं विसयत्थं वावारो णत्थि।
अर्थ- जिन (जीवों) की (इन्द्रिय)-विषयों में रति (आसक्ति) (है) उनके दुःख को स्वभाव से (प्राकृतिक) जानो, क्योंकि यदि वह (दुःख) स्वभाव से (प्राकृतिक) नहीं होता (तो) विषयों के लिए प्रयत्न नहीं होता।
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प्रवचनसार (खण्ड-1)
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