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55.
जीवो
सयं
अमुत्तो
• मुत्तिगदो
तेण
मुत्तिणा
मुत्तं ओगेण्हित्ता
जोगं
जादि
जीवो सयं अमुत्तो मुत्तिगदो तेण मुत्तिणा मुत्तं । ओगेण्हित्ता जोग्गं जाणदि वा तण्ण जाणादि । ।
वा
तण्ण
जाणादि'
1.
(जीव) 1 / 1
अव्यय
( अमुत्तो) 1 / 1 वि
[(मुत्ति) - (गद)
भूक 1 / 1 अनि ]
(त) 3 / 1 सवि
(मुत्ति) 3 / 1
(मुत्त) 2 / 1 वि
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(ओगेण्ह) संकृ
(जोग्ग) 2 / 1 वि
(जाण) व 3 / 1 सक
अव्यय
अव्यय
(जाण) व 3 / 1 सक
प्रवचनसार ( खण्ड - 1 )
जीव
स्वयं
अमूर्त
देह को प्राप्त हुआ
अन्वय - जीवो सयं अमुत्तो मुत्तिगदो तेण मुत्तिणा जोग्गं मुत्तं ओगेण्हित्ता जाणदि वा तण्ण जाणादि ।
उसके द्वारा
देह के द्वारा
मूर्त को
अर्थ- जीव स्वयं अमूर्त (है)। देह को प्राप्त हुआ उस देह के द्वारा (इन्द्रिय ज्ञान कें) योग्य मूर्त (पदार्थ) को अवग्रह करके जानता है अथवा वह (कभी) नहीं (भी) जानता है।
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अवग्रह करके
योग्य
जानता है
अथवा
वह नहीं
जानता है
यहाँ मुत्ति पुल्लिंग की तरह प्रयुक्त है।
मुत्ति- स्त्रीलिंग है। ( पाइय-सद्द - महण्णवो)
वर्तमानकाल के प्रत्ययों के होने पर कभी-कभी अन्त्यस्थ 'अ' के स्थान पर 'आ' हो
जाता है। (हेम - प्राकृत - व्याकरणः 3-158 वृत्ति)
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