Book Title: Laghu Pooja Sangraha
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुपूजासंग्रह आ. श्रीमसिंह मागेका संवत् १९७० कार्तिक सहिर्मनम सन 198 Jain Educationa InteFoateralonal and Private Usewwwyjainelibrary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ पंडित श्रीविचजीक्रत ॥ स्नात्रपूजा प्रारंभः ॥ ( पांखमी गाथा ) ॥ ढाल पड़ेली ॥ चत्तिसे अतिसय जुर्ज, वचना तिसय जुत्त॥ सो परमेसर वीजवि, सिंहासण संपत्त ॥ १ ॥ ॥ ढाल ॥ ॥ सिंहासन बेठा जग जाण, Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usevenly.jainelibrary.org Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखी नविक जन गुण मणि खा' णं ॥ जे की उज. निर्मल नाण, लहीए परम महोदय गण ॥ कुसुमांजलि मेलो श्रादि जिणंदा, तोरो चरणकमल सेवे चोसठ इंदा ॥कु०॥१॥ चोवीश वैरागी, चोवीश सोनागी, चोवीश जिणंदा॥कु०॥ एम कही प्रजुनाचरणे पूजा करीए॥ गाथा ॥ ॥ जो निय गुण पळव रम्यो तसु अनुजव एगंत ॥ सुह पुग्गव आरोपतां, जो तसुरंग निरत्त ॥ Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल ॥ जो निर्जन, सुख श्रबंदी, पुग्गल संगे जेड़ अफंदी ॥ जे परमेसर निज पद लीन, पूजो प्रणमो जव्य छादीन ॥ कुसुमांजलि मेलो शांति जिणंदा ॥ तो० ॥ कु० ॥ २ ॥ एम कही प्रभुना जानुए पूजा करीए ॥ ॥ गाथा ॥ ॥ निम्मल ना पयासकर, निम्मल गुण संपन्न ॥ निम्मल धम्मोवएस कर, सो परमप्पा धन्न ॥ ३ ॥ Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usev@nly.jainelibrary.org Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ढाल ॥ ॥ लोकालोक प्रकाशक नाणी, नविजन तारण जेदनी वाणी ॥ परमानंद तणी नीशाणी, तसु जगते मुज मति उहाणी ॥ कुसु. मांजलि मेलो नेम जिणंदा ॥ तो ॥ कु० ॥३॥ एम कही प्रजुना बे हाथे पूजा करीए॥ ॥गाथा ॥ ॥जे सिद्या सिचंति जे, सिचंति अणंत ॥ जसु थालंबन 7. विय मण, सो सेवो अरिहंत ॥४॥ Jain Educationa Inteffati@essonal and Private Usevenly.jainelibrary.org Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ढाल ॥ ॥ शिवसुख कारण जेह त्रिकाले, समपरिणामे जगत निहाले ॥ उत्तम साधन मार्ग देखाडे, ईजादिक जसु चरण पखाले ॥ कुसुमांजलि मेलो पास जिणंदा ॥ तो० ॥ कु०॥४॥ एम कही प्र. जुना खंनाए पूजा करीए ॥ ॥गाथा ॥ ॥ समदीही देस जय, साहु साहुणी सार ॥ आचारिज उवकाय मुणि,जो निम्मल आधार॥५॥ Jain Educationa Inteffatil@bsonal and Private Usevenly.jainelibrary.org Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ an ॥ ढाल ॥ ॥ चनविद संघे जे मन धायुं, मोक्ष तणुं कारण निरधायुं ॥ विविह कुसुम वर जाति गदेवी, तसु चरणे प्रणमंत ठवेवी ॥ कुसुमांजलि मेलो वीर जिणंदा ॥ तो० ॥ कु० ॥ ५ ॥ एम कही प्रजुने म स्तके पूजा करीए ॥ इति पांखमी गाथा ॥ ॥ वस्तु बंद ॥ ॥ सयल जिनवर सयल जिनवर, नमिय मनरंग, कल्लापक विहि Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usevenly.jainelibrary.org Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघविय, करिस धम्म सुप वित्त ॥ सुंदर सय गसत्तरि तिबंकर, एक समय विदरंति महीयल, चवण समय गवीस जिण, जम्म समय गवीस ॥ जत्तिय नावे पूजीया, करो संघ सुजगीस ॥१॥ ॥ ढाल बीजी॥ एक दिन थचिरा हुलरावती ॥ए देशी॥ ॥ जव त्रीजे समकित गुण र. म्या, जिन नक्ति प्रमुख गुण परिणम्या ॥ तजी इंजिय सुख श्रा Jain Educationa Inteffatil@easonal and Private Usevenly.jainelibrary.org Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंसना, करी स्थानक वीशनी सेबना ॥ १॥ अति राग प्रशस्त प्र. जावता, मन जावना एदवी नावता ॥ सवि जीव करुं शासन रसी, इसी नाव दया मन उन्बसी ॥२॥ सही परिणाम एह नर्बु, निपजावी जिनपद निर्मj ॥ श्रायुबंध वचे एक जव करी, श्रका संवेग ते थिर धरी ॥३॥ त्यांथी चवीय लहे नरजव उदार, जरते तेम ऐरवतेज सार ॥ महाविदेहे Jain Educationa Intefratil@osonal and Private Usev@vily.jainelibrary.org Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजये वर प्रधान, मध्य खंडे श्र. वतरे जिन निधान ॥४॥ ॥अथ सुपनानी ढाल त्रीजी॥ ॥ पुएये सुपनद देखे, मनमाहे हर्ष विशेषे ॥ गजवर उज्ज्वल सुंदर, निर्मल वृषन मनोहर ॥१॥ निर्जय केशरी सिंह, लक्ष्मी श्रतिही अबीद ॥ अनुपम फूलनी माल, निर्मल शशी सुकुमाल ॥२॥ तेजे तरणी अति दीपे, इंउध्वजा जग पूरण जीपे ॥ पूरण कलश पंडूर, पद्म सरोवर पूर ॥३॥ Jain Educationa Internati@bosonal and Private Usevenly.jainelibrary.org Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० अग्यारमे रयणायर, देखे माता गुण सायर ॥ बारमे नुवन विमान, तेरमे अनुपम रत्न निधान ॥४॥ थग्निशिखा निरधूम, देखे माताजी अनुपम ॥ हर्षी रायने जाणे, राजा अरथ प्रकाशे ॥५॥ जगपति जिनवर सुखकर, होशे पुत्र म. नोहर ॥ इंसादिक जसु नमशे, मकल मनोरथ फलशे ॥६॥ ॥ वस्तु बंद ॥ ॥ पुण्य उदय पुण्य उदय, उपना जिननाह, माता तव रयणी Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ समे, देखी सुपन दरखंती जागीय ॥ सुपन कही निज कंतने, सुपन अरथ सांजलो सोजागीय ॥ त्रि जुवन तिलक महागुणी, होशे पुत्र निधान ॥ इंद्रादिक जसु पाय न मी, करशे सिद्धि विधान ॥ १ ॥ ॥ ढाल चोथी ॥ P ॥ चंद्रावलानी देशी मां ॥ ॥ सोहमपति शासन कंपीयो, देश अवधि मन आणंदीयो ॥ निजं श्रातम निर्मल करण काज, Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usev@nly.jainelibrary.org Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ - जवजलतारण प्रगट्यो जहाज ॥ १ ॥ जवाडवी पारंग सवाद, केवल नाणाश्य गुण अगाद ॥ शिव साधन गुण अंकुरो जेद, कारण उलट्यो थासाठी मेह ॥ २ ॥ दरखे विकसी तव रोमराय, वलयादिकमां निज तनु न माय ॥ सिंहासनथी उठ्यो सुरिंद, प्रणमंतो जिन ध्यानंदकंद ॥ ३ ॥ सग छाम पय सामो श्रावी तब, करी अंजलीय प्रणमीय मठ ॥ मुखे जाखे ए ण श्राज सार, तिय Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usev@nly.jainelibrary.org Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ लोय पहु दीठो उदार ॥ ४ ॥ रे रे निसुणो सुरलोय देव, विषयानल तापित तुम सवेव ॥ तसु शांति करण जलधर समान, मिथ्या विष चूरण गरुरुवान ॥ ५ ॥ ते देव सकल तारण सम, प्रगत्यो तस प्रणमी दुवो सनाथ ॥ एम जंपी शक्र स्तव करेवि, तव देव देवी दरखे सुवि ॥ ६ ॥ गावे तव रंजा गीत गान, सुरलोक हुवो मंगल निधान ॥ नरक्षेत्रे आरज वंश ठाम, जिनराज वधे सुर दर्ष धाम Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usew@nly.jainelibrary.org Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥७॥ पिता माता घरे उत्सव अशेष, जिनशासन मंगल अति विशेष ॥ सुरपति देवादिक हर्ष संग, संयमश्रर्थी जनने उमंग॥6॥ शुन वेला लगने तीर्थनाथ, जनम्या इंसादिक हर्ष साथ ॥ सुख पाम्या त्रिजुवन सर्व जीव, वधार वधा यश् अतीव ॥ ए॥ ॥ढाल पांचमी॥ ॥ श्रीशांति जिननो कलश कहीशु प्रेम सागर पूर ॥ ए देशी ॥ ॥ श्रीतीर्थपतिनुं कलश मजान, Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाइए सुखकार ॥ नरखित्त मंगण उद विहंडण, नविक मन थाधार ॥ तिहां राव राणा हर्ष उत्सव, थयो जग जयकार ॥ दि. शिकुमरी श्रवधि विशेष जाणी, लह्यो हर्ष अपार ॥१॥ निय श्र. मर श्रमरी संग कुमरी, गावती गुणबंद ॥ जिन जननी पासे थावी पोहोती, गहगहती आणंद ॥ हे माय ! तें जिनराज जायो, शुचि वधायो रम्म ॥ श्रम जम्म निम्मल करण कारण, करीश सू. Jain Educationa Inteffcatlərsonal and Private Usevky.jainelibrary.org Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्म ॥२॥ तिहां नूमि शोधन दीप दर्पण, वाय वीजण धार ॥ तिहां करीय कदली गेह जिनवर, जननी मजानकार ॥ वर राखमी जिनपाणि बांधी, दीए एम आशीष ॥ जुग कोमाकोमी चिरंजीवो, धर्मदायक ईश ॥३॥ ॥ ढालबही॥ एकवीशानी॥ जगनायकजी, विजुवन जन हितकार ए॥ परमातमजी, चिदानंद घनसार ए ॥ ए देशी ॥ ॥ जिणरयणीजी, दश दिशि Jain Educationa Inteffatil@bsonal and Private Usevanky.jainelibrary.org Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उज्ज्वलता धरे ॥ शुज लगनेजी ज्योतिष चक्र ते संचरे ॥ जिन जनम्याजी, जेणे अवसर माता घरे ॥ तेणे अवसरजी, इंसासन पण थरहरे ॥ ॥त्रुटक ॥ ॥ थरहरे बासन इंउ चिंते, कोण अवसर ए बन्यो । जिन जन्म उत्सव काल जाणी, अतिही श्रानंद उपन्यो ॥ निज सिकि सं. पत्ति हेतु जिनवर, जाणी जक्ते उम्मह्यो । विकसित वदन प्रमोद व क Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धते, देव नायक गहगह्यो ॥१॥ ॥ढाल ॥ ॥ तव सुरपतिजी, घंटानाद कराव ए ॥ सुरलोकेजी, घोषण एह देवराव ए ॥ नरदेनेजी, जिनवर जन्म हुॐ श्र॥ तसु नगतेजी, सुरपति मंदरगिरि गडे ॥ त्रुटक ॥ गति मंदर शिखर उपर, नवन जीवन जिन तणो ॥ जिन जन्म उत्सव करण कारण, श्रावजो सवि सुरगणो ॥ तुम शुरू समकि Jain Educationa Intefrati@asonal and Private Usevnijainelibrary.org Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रए त थाशे निर्मल, देवाधिदेव निहालतां ॥ थापणां पातिक सर्व जाशे, नाथ चरण पखालतां ॥१॥ ॥ढाल ॥ ॥एम सांजलीजी, सुरवर कोमी बहु मली। जिनवंदनजी, मंदरगिरिसामा चली ॥सोहमपतिजी,जिन जननी घर आवीया॥ जिन माताजी, वंदी स्वामी वधावीया ॥ ॥त्रुटक ॥ ॥ वधावीया जिन हर्ष बहुले, धन्य हुं कृतपुण्य ए॥त्रैलोक्य नायक Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० देव दीठो, मुज समो कोण अन्य ए ॥ हे जगत जननी पुत्र तुमचो, मेरु मान वर करी ॥ उत्संग तुमचे वलीय थापीश, श्रातमा पुएये जरी ॥ ३ ॥ ॥ ढाल ॥ ॥ सुर नायकजी, जिन निज करकमले ॥ पंच रूपेजी, छातिशे महिमाए स्तव्या ॥ नाटक विधिजी, तव बत्रीश श्रागल वहे ॥ सुर कोमीजी, जिन दर्शनने उम्मदे ॥ Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usev@nly.jainelibrary.org Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ त्रुटक ॥ ॥सुर कोमाकोमी नाचती वली, नाथ शुचि गुण गावती ॥श्रप्सरा कोमी हाथ जोमी, हाव नाव देखावती ॥ जयो जयो तुं जिनराज जगगुरु, एम दे श्राशीष ए ॥ अम्ह त्राण शरण श्राधार जीवन, एक तुं जगदीश ए ॥४॥ ॥ ढाल ॥ सुरगिरिवरजी, पांमुक वनमें चिहुं दिशे॥ गिरि शिल परजी, Jain Educationa Inteffatil@easonal and Private Usevenly.jainelibrary.org Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्‍ सिंहासन सासय वसे ॥ तिहां श्रापीजी, शक्रे जिन खोले ग्रह्मा ॥ चौसहेजी, तिहां सुरपति यावी रह्या ॥ ॥ त्रुटक ॥ ॥ श्रावीया सुरपति सर्व नक्के, कलश श्रेणी बनाव ए ॥ सिद्धार्थ पमुद्दा तीर्थ औषधि, सर्व वस्तु अणाव ए ॥ च्पति तिहां दुकम कीनो, देव कोमाकोमीने ॥ जिन मऊनारथ नीर लावो, सवे सुर कर जोगीने ॥ ५ ॥ Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usev@nly.jainelibrary.org Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ढाल सातमी॥ ॥ शांतिने कारणे इंछ कलशा जरे ॥ ए देशी॥ ॥ श्रात्मसाधन रसी देवकोमी हसी, उबसीने धसी क्षीरसागर दिशि ॥ पउमदद श्रादि दह गंग पमुहा नई, तीर्थजल श्रमल लेवा नणी ते गई ॥१॥ जाति श्रम कलश करी सहस अहोतरा, बत्र चामर सिंहासण शुजतरा ॥ उपगरण पुप्फ चंगेरी पमुहा सवे, श्रागमे नाषीया तेम Jain Educationa Inteffratilobsonal and Private Use@ly.jainelibrary.org Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2४ आणी ग्वे ॥ २ ॥ तीर्थजल जरीय कर कलश करी देवता, गावता जावता धर्म उन्नतिरता ॥ तिरिय नर मरने दर्ष उपजावता, धन्य श्रम शक्ति शुचि नक्ति एम जावता ॥ ३ ॥ समकित बीज निज यात्म यारोपता, कलश पाणीमिषे जक्तिजल सिंचता ॥ मेरु सिरोवरे सर्व श्राव्या वही, शक्र उत्संग जिन देखी मन गहगही ||४|| ॥ वस्तु बंद ॥ दंदो देवा हो देवा पाइ Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usev@nly.jainelibrary.org Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ कालो, यदि पुवो तिलोय तारणो तिलोय बंधु, मिठत्त मोद विद्वंसपो अणाइ तिरहा विणासणो, देवाहिदेवो दिन बोहिय कामेहिं ॥ ५ ॥ ॥ ढाल तेहीज ॥ ॥ एम पजणंत वण जवण जोईसरा, देव वेमाणिया जत्ति धम्मायरा ॥ केवि कप्पडिया के वि मित्ताएगा, केवि वर रमणि वयषेण श्रइ उघुगा ॥ ६ ॥ ॥ वस्तु बंद ॥ ॥ तब अन्य तव अच्चुय इंद Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usew@nly.jainelibrary.org Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रादेस ॥ कर जोमी सवि देवगप, लेय कलश श्रादेश पामीय ॥ अद्भुत रूप सरूप जुश्र, कवण एह उत्संगे सामिय ॥ इंज कहे जग तारणो, पारग श्रम परमेस ॥ नायक दायक धम्म निहि, करीए तसु अजिसेस ॥ ७ ॥ ॥ ढाल आठमी॥ ॥ तीर्थकमलदल उदक जरीने, पुष्करसागर श्रावे ॥ ए देशी॥ ॥ प्रण कलश शुचि उदकनी Jain Educationa Intefratilobsonal and Private Usev@ly.jainelibrary.org Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारो, जिनवर अंगे नामे॥श्रातम निर्मल जाव करता, वधते शुन परिणामे ॥ श्रच्युतादिक सुरपति मजन, लोकपाल लोकांत ॥ सामानिक इंशाणी पमुहा, एम अनिषेक करंत ॥१॥ ॥गाहा ॥ ॥ तव ईसाण सुरिंदो, सकं पत्नणेई, कर सुपसा ॥ तुम अंके महन्नाहो, पण मित्तं अम्ह अप्पेह ॥२॥ ता सिकिंदो पनणेई, साहमीवरलंमि बहु लाहो Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ आणा एवं तेणं, गिहिहहो उक्कयबाजो ॥३॥ एम कही सर्व स्नात्रीया कलश ढाले, अने मुखश्री नीचे प्रमाणे पाठ कदे॥ ॥ ढाल तेहीज ॥ ॥ सोहम सुरपति वृषन रूप करी, न्हवण करे प्रजु अंग ।। करीय विलेपण पुप्फमाल ग्वी, वर श्राजरण अनंग ॥ तव सुरवर बहु जय जयरव करी, नाचे धरी आणंद ॥ मोद मार्ग सारथपति पाम्यो, नांजणुं दवे नव फंद ॥४॥ कोडि बत्रीश सोवन उवारी, वा Jain Educationa Intefratləbsonal and Private Usevenly.jainelibrary.org Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंते वर नादे ॥ सुरपति संघ अमर श्री प्रजुनी, जननीने सुप्रसादे ॥ आणी थापी एम पयंपे, अम निस्तरीया श्राज ॥ पुत्र तुमारो धणी हमारो, तारण तरण जहाज ॥५॥ मात जतन करी राखजो एहने, तुम सुत अम आधार ॥ सुरपति जक्ति सहित नंदीश्वर, करे जिननक्ति उदार ॥ निय निय कप्प गया सवि निर्जर, कहेतां प्रजु गुणसार ॥ दीदा केवल ज्ञान कव्याणक, श्या चित्त मजार ॥६॥ Jain Educationa Intefcatöesonal and Private Usevenly.jainelibrary.org Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० खरतरगच्छ जिन खाणारंगी, राजसागर उवद्याय ॥ ज्ञान धर्म दीपचंद सुपाठक, सुगुरु तणे सुपसाय ॥ देवचंद्र जिननके गायो, जन्म महोत्सव बंद || बोध बीज अंकूरो उलस्यो, संघ सकल श्रानंद ॥ ७ ॥ ॥ कलश ॥ राग वेलावल ॥ ॥ एम पूजा नक्ते करो, आतमहित काज ॥ तजीय विजाव निज जावमें, रमता शिवराज ॥ एम० ॥ १ ॥ काल अनंते जे हुआ, होशे जेह जिणंद || संपय सीमं Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usev@nly.jainelibrary.org Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर प्रनु, केवलनाण दिणंद ॥एम ॥ २ ॥ जन्ममहोत्सव एणी परे, श्रावक रुचिवंत ॥ विरचे जिन प्रतिमा तणो, अनुमोदन खंत ॥ एम० ॥ ३॥ देवचंड जिन पूजना, करतां नवपार ॥ जिनपमिमा जिन सारखी, कही सूत्र मकार ॥ एम० ॥४॥ समाप्त. Jain Educationa Intefrati@osonal and Private Usevenly.jainelibrary.org Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥अथ श्रीदेवचंजीकृत मात्रपूजाविधिप्रारंभः ॥प्रथम निस्सहीपूर्वक श्रीदेरासर मध्ये श्रावी अंग शुरू करी, नवीन वस्त्र पहेरी, स्वनाल तिलक करी, बाजोग्नी स्थापना करी, ते उपर बाजोठ मांमी, स्नानपीठ उपर थालनी स्थापना करवी, ते उपर तंऽखनी ढगली करवी ॥ तेनी उपर रूपानाएं तथा नालीयेर Jain Educationa InteFreatiBersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ धरीने पनी स्नात्रीयाए पोताने हाथे मौलीसूत्र बांधवं, तथा बीजा कलश प्रमुख स्थानके मौली बंधन करी, कलशने धूप दक्ष, मुध, दधि, घृत, जल तथा शर्करा, ए पंचामृतथी कलश जरी राखवा. पली मुखकोश बांधी मूलनायकजी श्रागल श्रावी नमस्कार करी, अने धूपधाएं हाथमां लश् धूप उखेववो ॥ ते समये मुखथी धूपावबीनी गाथा कहेवी,ते था प्रमाणे: असुरिंदसुरिंदाणं, किन्नर गंधव Jain Educationa InteratiBeasonal and Private Usevanjainelibrary.org Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंद सूराणं ॥ विद्याहरा सुराणं, सजोगा सिकाण सिझाणं ॥१॥ मुनिय परमवर विठ, गियह विविह तव सोसियंगाणं ॥ सिद्धिवहु निप्परकं, ठियाणं जोगीसराणं च॥२॥ जंपूयाय जयवर्ग, तिबयरा राग रोस तम रहिया ॥ वि. णय पणएण तेसिं, समुकुठ मे श्मे धूळ ॥३॥ तिबंकर पमिमाणं कंचण मणिरयण विदुममयाणं ॥ तिहुयण विजूसगाणं, सासय सुर नर कयाणं च ॥४॥ सिकाण Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरि पाठग, साहूणं फाण जोग निरयाणं ॥ सुयदेवय माश्णं, समुकुर्ड मे श्मे धूर्ज॥५॥ ॥ए गाथा कह्या पठी प्रथम श्रदतने धो तेउँने केशर तथा चंदन लगामवां, तथा पुष्पोने पण जलश्री शुरू करी राखवां, तदनंतर ते अदत तथा फूलनी कुसुमांजलि हाथमां लश्, उना थश्ने " नमो अरिहंताणं, नमोऽहंसिका" ॥ एम पाठ कहेवो, Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अने पड़ी बे श्लोक पठन करवा, ते या प्रमाणे:____ श्रीमत्पुण्यं पवित्रं कृतविपुलफलं मंगलं लक्ष्मलदम्याः,कुमारिष्टोपसगग्रहगतिविकृतिस्वप्नमुत्पातघाति॥ संकेतं कौतुकानां सकलसुखमुखं पर्व सर्वोत्सवानां, स्नात्रं पात्रं गुणानां गुरुगरिमगुरो चिता यैनं दृष्टम् ॥१॥ अशेषनवनांतराश्रितसमाजखेददमो,न चापि रमणीयतामतिशयीत तस्यापरः॥प्रदेश प्रहमानतो निखिललोकसाधारणः,सुमेरुरिति ता Jain Educationa Intefratibeasonal and Private Usevenly.jainelibrary.org Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ पिनः स्त्रपनपीठजावं गतः ॥ २ ॥ ॥ एम कला पछी स्नानपीठ सन्मुख कुसुमांजलि अर्पण करवी, तदनंतर स्नापनपीठ पखाली लूंबीने कुंकुमनो स्वस्तिक करवो, धूप उखेववो ने सर्व स्नात्रीयार्जना हाथने धूपावली थापवी, पठी कर्पूर लगावो, छाने एक नवकार कहीने स्नानपीठ उपर प्रतिमाजीनी स्थापना करवी, ते प्रतिमा प्रायः पंचतीर्थिक, थार्थपरकरसंयुक्त स्थापवी, तेना मुख यगल अक्ष Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usev@nly.jainelibrary.org Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ तोनी ढगली करवी, अने तेनी उपर पंचामृतनो एक कलश मूकवो, पढी हाथमां कुसुमांजलि लइने " मुक्कालंकार विकार० " ए आर्या जणी कुसुमांजलि अर्पण करीने, प्रतिमाजीनां निर्माल्य उतारी प्रदालन कर, पढी अंगलूहांथी प्रमार्जीने धूप उखेववो, छाने केशर, चंदन, कर्पूर तथा कस्तूरी घसी ते पवित्र जाजनमां जरीने ते जाजन प्रतिमाजी आ गल धरतुं वली कुसुमांजलि हा Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usev@nly.jainelibrary.org Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इए थमां लश् उना थ" चं णमो अरिहंताएं० ॥ नमोहसिझा ॥" कहीने स्नात्रपूजानी पदेली पांखमी कहेवी, एम अनुक्रमे पांच पांखडी कही कुसुमांजलि पूर्ण करीने हाथमां चामर लश्ने तेने जगवंतनी उपर ढोलवो ॥ वस्तु ॥ “सयल जिनवर " श्री मामीने यावत् “वधाई वधाई थ अतीव" सुधीनो पाठ कदेवो, ते पूर्ण थया पडी चैत्यवंदन करवं. पली शकस्तव कही जयवीयराय सुधी जण. Jain Educationa Inteffatil@bsonal and Private Usevenly.jainelibrary.org Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० पड़ी हाथ धोइ धूप कर्पूरादिक हाथने लगामवां, त्यार केडे जे पूर्वे कलशोने धो धूप थापी कंठे मौलीसूत्र बांधी उपर स्वस्तिक करी तेमां पंचामृत जरी, श्रदतोना ढगला उपर धारण करी तेनी उपर अंगलूहणां ढांकी धूप उखेवी तेजेमांना मात्र बेज कलशोने आसपास जलधारा दश्ने राख्या होय, पठी स्नात्रीयाना हाथमा स्वस्तिको करी सर्वे जणोए श्रेणिबफ उन्ना रहे, अने प्रत्येक स्नात्रीयाए Jain Educationa Intefreati@essonal and Private Usevenly.jainelibrary.org Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ खमासमण दर, पंचांग नमस्कार करवो, पनी प्रत्येक स्नात्रीयाए पोताना बे हाथमां कलशो सेवा, ते कलशधारक स्नात्रीयाए पोताना बन्ने हाथने विषे रहेला कलशने उत्तरासंग वस्त्र वडे ढांकी राखवा, श्रने पोते उन्ना उतां मुखथी"श्रीतीर्थपतिनो कलश मजान" हांथी मांमीने संपूर्ण पूजा जणवी, त्यार पडी प्रतिमाजी उपर कलशो ढोली, पखाल करी अंगलूहणांथी मान करी, केशर चंदनथी अर्चन करीने Jain Educationa Intefratləbsonal and Private Usevenly.jainelibrary.org Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फूल चढाववा. पड़ी थालमा खस्तिक करी बिंबनी स्थापना करवी श्रने धूप करवो. ते समये आ प्रमाणे पाठ जणवोः ॥अथ कलश ढालवा समयनुं स्तवन ॥ ॥ इंछ कलशनर ढाले श्रीजिन पर ॥ इंछ कलश ॥ हाथो हाथ अमरगण आनत, खीर विमल जलधारे ॥ श्रीजिन पर ॥१॥ सुरवनिता मली मंगल गावे, नावत नाव महारे ॥ श्रीजिन पर Jain Educationa Inteffratilobsonal and Private Use@ly.jainelibrary.org Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ ॥ २ ॥ किन्नर अरु गंधर्व महोरग, निरत नीर नित्य सारे ॥ श्री जिन पर० ॥ ३ ॥ देवकुंडुनि धुनि गर्जत यति, शिर पर सुजस विधारे ॥ श्री जिन पर० ॥ ४ ॥ परमानंद जिनराज जगतपद, जगजीवन हितकारे ॥ श्रीजिन पर० ॥ ५ ॥ इति कलश ढालवा समयनुं स्तवन ॥ ॥ पबी रकेबीमां लूप पाणी लइने आरतिनी परे करवुं ने ते वखते मुख की गाथा कहेवी, ते यावी रीतेः Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usev@nly.jainelibrary.org Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभ ॥ श्रथ खूणउतारण गाथा ॥ ॥ उवहि पडिजग्ग पसरं, पयाहिणं मुणिव करे ऊणं ॥ पम सलूण त्तणलाडियं च खूणं हु अवहंमी॥१॥ दोहा पिरकेविणु मुह जिणवरह,दीहर नयण सखूण॥ न्हावर गुरु महर नरिय, जलणी पश्स्सइ, खूण ॥२॥ खूणउतारिह जिणवरह, तिन्नि पयाहिण देउ ॥ तमयड सद्द करंति यह,विजा वित जलेण ॥३॥ गाथा ॥ जं जेण विज विजार, जलेण तं तह निहलह स Jain Educationa Interati@essonal and Private Usevenly.jainelibrary.org Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ स्सइंजिणरूप मबरेणुव,फूट लूण तमयमस्स ॥४॥ ए गाथा कहीने लूणने अग्निशरण करवू. पठी वली प्रथमनी पेठे खूण पाणी लश्ने मुखथीभावीरीते गाथा कदेवी: ॥ दोहा ॥ सर्व मुणिव जलविजड,तं तह नमल पास ॥अहव कयंतसुनिम्मलू, निग्गुण बुद्धि पयास॥१॥ जल थाणे विणु जलणिह पासह, नर विकयंजलि जाविहिं पासह ॥ तिन्नि पयाहिण दितिय पासह, जिम जिउ बुझं नव उद Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ पासह ॥२॥ जल निम्मल करे कमलहि लेविणु, सुरवर नाव हि मुणिव से विणु ॥ पत्नण जिणवर तुह पश्सरणं, नय तुटर लन सिकि गमणं ॥३॥ ए गाथा कही खूण पाणी उतारीने जलशरण करवं, त्यार पड़ी माला लश् उन्ना रहीने या प्रमाणे गाथा कहेवी:॥ अथ पुष्पमालपूजा गाथा ॥ उन्नय पुऊय नत्तस्स, निय गणे संठियं कुणं तस्स ॥ जिण Jain Educationa Interratibesonal and Private Usevenly.jainelibrary.org Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासे नमिय जिणस्स, निय गणे संठियं तस्स (पागंतरे) पिन्छतुह हुय वहे पमणं ॥१॥ सबो जिणप्पजावो, सरिसा सरिसेसु जेण रच्चंति॥सवन्नूण मपासे,जडस्स जमणं ण संकमणं ॥२॥ श्रचंत उक्करं विहु,हुअवह निवडेण कयं॥ थाणा सबनूणं,न कया सुकय मूल मणिं ॥३॥ ए पाठ नणीने माला चढाववी, पली हाथमा बूटां फूलो लेवां. ते वखत गाथा कहेवी, ते या प्रमाणे: Jain Educationa Interati@easonal and Private Usevanky.jainelibrary.org Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रथ बूटां फूलपूजा गाथा ॥ ॥ उसरणो जिणपुर, परिमल मिलिया उरिकविह संगीया ॥ मुत्तामरेदिवो कुणजे, मरमल मिलिया उस्किविहसं ॥१॥ उवणेउ मंगलं वो, जिणाण मुहलावि जाव संचलिया ॥ तिन पवत्तण समए, तिय सेवी मुक्का कुसुम वुही ॥२॥ए पाठ कहीने प्रजुनी आगल फूलो उगलवां. हवे श्राचरण तथा वस्त्रो लश्ने उत्जा उतां गाथा कहेवी, ते था प्रमाणे: Jain Educationa Inteficati@essonal and Private Usev@valy.jainelibrary.org Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ yu ॥ अथ वस्त्राभरणपूजा ॥ ॥ श्लोकः ॥ शक्रो यथा जिनपतेः सुरशैलचूलासिंहासनोपरि मितस्नपनाऽवसने ॥ दध्यक्षतैः कुसुमचंदनगंधधूपैः, कृत्वार्चनं तु विदधाति सुवस्त्रपूजां ॥१॥ तद्वत् श्रावकवर्ग एष विधिनालंकारवस्त्रादिकां, पूजां तीर्थकृतां करोति सततं श क्त्या तिजक्त्यादृतः ॥ नीरागस्य निरंजनस्य विजिताराते त्रिलोकीपतेः, स्वस्यान्यस्य जनस्य निर्वृतिकृते केशयाकांक्षया ॥ २ ॥ एम कही Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usevenly.jainelibrary.org Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० याजरण तथा वस्त्रपूजा करवी ॥ पढी ज्ञानपूजा करे, तेनी गाथाई ॥ ॥ नमंति सामिति मही वनाएं, देवाय पूयं सुजदेव पुवं ॥ जत्तीय चित्तं मण दाम एहिं, मंदार पुप्फेद सवेह नाहं ॥ १ ॥ तदेव सडामण मुत्त एही, सुगंध पुष्फेद वरंस एहिं ॥ पूयं वंदंत नमंत नाणं, ना एस्स लाजाय जवरकयाय ॥ २ ॥ ए गाथा कहीने पुष्पोनी माला चढाववी, तथा रौप्यमुद्रा, सुवर्णमुद्रा, मणिरत्न अने वस्त्र एईए Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usew@nly.jainelibrary.org Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करी खशक्ति अनुसार काननी पूजा करवी. पड़ी धूप करती वखते आ गाथा कहेवी॥ ॥ मीनकुरंगमुदारमसारं, सारसुगंधनिशाकरतारं ॥ तार मिलन्मलयोछविकार, लोकगुरोर्दहधूपमुदारं ॥१॥ एम कहीने धूप उखेववो. पड़ी मंगलदीपक करीने आ गाथा कहेवी:॥अथ मंगलदीपकपूजा ॥ ॥ कोसंबी संहियस्सवि, पयाहिणं कुण मनुखियपश्वो ॥ जि Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णसोम दसणोदिण, य रूव तुह नाह मंगलपश्चो ॥ १॥ नामीजंतो सुरसुंदरीहिं, तुह नाह मंगलपवो ॥ कणयायलस्स निजिय, जाणुव्व पयादिणं दितो ॥२॥ मरगय सामल थालधरे विणु, कोमल सरलिहिं करिहिं करेविणु ॥ जे उत्तार मंगलपश्वो, सो नर हो तिलोयपश्वो ॥३॥ ए गाथा कहीने मंगलप्रदीप करवो. पड़ी रकेबीमां कपूर धरी, आरतिमा Jain Educationa Interati@easonal and Private Usevanky.jainelibrary.org Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ बत्ती सलगावीने मुख थकी श्रा गाथा कढेवी: ॥ अथ आरति गाथा ॥ ॥ जं मरगय मणि गडिय, विसाल थाल माणिक मंमिय पईवो ॥ एहवण यरकुरु खित्तं, जम जिए आरतियं तुम्हें ॥ १ ॥ श्रारत्ति नियष्ठय, जिणस्स धूव किसणागरुछायं ॥ पासेसु नमउ निकिय, संगमय विभिन्न दिहिव ॥ २ ॥ पसणेयवो जवंतर, समद्वियं कम्मरेणु संघायं ॥ श्रार Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usev@nly.jainelibrary.org Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ त्तिय मंगलग्गा, उचलं ति सलिल. धारा ॥ ३ ॥ एवी रीते आरति करवी ॥ इति संक्षेपचार तिविधिः ॥ ॥ पछी उत्तरासंग करी चैत्यवंदन कर, अने अष्ट प्रकारे पूजा करवी. कदाचित् अष्ट प्रकारे पूजा न कराय तो शेष फल फूल ने नैवेद्य जे होय, ते एमज चढावी देवां पढी गुणगीत करवां, जय जय शब्द उच्चारवा, स्वामीवात्सव्य करवुं तथा यथाशक्ति दान देवं ॥ इति श्री स्नात्र पूजाविधिः समा० Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usevenly.jainelibrary.org Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीमदयशोविजयजी नपाध्यायकृत - नवपदपूजा प्रारंभः run ॥ तत्र॥ ॥प्रथम अरिहंतपद पूजा प्रारंजः ॥ ॥ काव्यं ॥उपजातिवृत्तम् ॥ ॥जप्पन्नसन्नाणमदोमयाणं, Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - सप्पामिहेरासणसंठियाणं॥सदेसणाणं दियसकाणाणं, नमो नमो दोज सया जिणाणं॥१॥ ॥ जुजंगप्रयातवृत्तम् ॥ नमोऽनंतसंतप्रमोदप्रदान,प्रधानाय नव्यात्मने नाखताय ॥ थया जेहना ध्यानथी सौख्यनाजा, सदा सिद्धचक्राय श्रीपाल राजा ॥२॥ कस्यां कर्म धर्मर्म चकचूर जेणे, चला जव्य नवपदध्यानेन तेणे ॥ करी पूजना जव्य नावे त्रिकाले, Jain Educationa Interati@easonal and Private Usevanky.jainelibrary.org Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए सदा वासीयो श्रातमा तेणे काले ॥३॥ किंके तीर्थंकर कर्म उदये करीने, दीए देशना नव्यने हित धरीने ॥ सदा आठ महापामिहारे समेता, सुरेशे नरेशे स्तव्या ब्रह्मपुत्ता ॥४॥ कस्यां घातियां कर्म चारे अलग्गां, नवोपग्रही चार जे के विलग्गां ॥ जगत् पंच कल्याणके सौख्य पामे, नमो तेह तीर्थकरा मोदकामे ॥५॥ ॥ ढाल ॥ उलालानी देशी॥ ॥ तीर्थपति अरिहा नमुं, धर्म Jain Educationa Intefrati@asonal and Private Usevnijainelibrary.org Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए धुरंधर धीरो जी ॥ देशना अमृत वरसता, निज वीरज वम वीरो जी ॥१॥ उलालो ॥ वर अखय निमल ज्ञाननासन, सर्व नाव प्रकाशता ॥ निज शुद्ध श्रझा श्रात्मनावे, चरण थिरता वासता ॥ जिननाम कर्मप्रजाव अतिशय,प्रातिहारज शोजता ॥ जगजंतु करुणावंत जगवंत, नविकजनने दोनता॥२॥ ॥पूजा ॥ ढाल ॥श्रीपालना रासनी॥ ॥त्रीजे नव वरस्थानक तप करी, जेणे बांध्युं जिननाम ॥ चो Jain Educationa Interati@easonal and Private Usevanky.jainelibrary.org Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एए सब इंजे पूजित जे जिन, कीजे तास प्रणाम रे ॥ नविका ॥ सि चक्रपद वंदो, जेम चिरकाले नंदो रे ॥ ज०॥ सि ॥ १ ॥ ए श्रांकणी ॥ जेहने होय कल्याणक दिवसे, नरके पण अजवावें ॥ ॥ सकल थधिक गुण अतिशय धारी, ते जिन नमी अघ टाडं रे ॥जम् ॥ सि० ॥ ॥ जे तिहुं नाण समग्ग उप्पन्न, नोगकरम क्षीण जाणी ॥ लेश् दीक्षा शिक्षा दीए जनने, ते नमीए जिननाणी Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रे ॥ न ॥ सि० ॥३॥ महागोप महामाहण कहीए, निर्यामक सब वाह ॥ उपमा एहवी जेहने बाजे, ते जिन नमीए उत्साह रे ॥०॥ सि ॥४॥ श्राउ प्रातिहारज जस बाजे, पांत्रीश गुणयुत वाणी ॥ जे प्रतिबोध करे जगजनने, ते जिन नमीए प्राणी रे ॥ न ॥सि॥५॥ ॥ ढाल ॥ ॥ अरिहंतपद ध्यातो थको, दवह गुण पजाय रे ॥ नेद बेद करी श्रातमा, अरिहंतरूपी थाय Jain Educationa Intefrati@osonal and Private Usevenly.jainelibrary.org Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रे॥१॥ वीर जिनेसर उपदिशे, सांजलजो चित्त लाइ रे ॥आतम ध्याने श्रातमा, कि मले सवि थाइ रे ॥वी० ॥२॥इति प्रथम अरिहंतपदपूजा समाप्ता ॥१॥ ॥ अथ द्वितीय सिपद पूजा प्रारंनः॥ ॥ काव्यं ॥ इंजवज्रावृत्तम् ॥ ॥ सिघाणमाणंसुरमालयाणं ॥ ॥ नमो नमोऽणंतचनकयाणं॥ ॥ तुजंगप्रयातवृत्तम् ॥ ॥ करी थाप कर्मक्षये पार Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ पाम्या, जराजन्ममरणादि जय जेणे वाम्या ॥ निरावरण जे यात्मरूपे प्रसिद्धा, थया पार पामी सदा सिद्धबुद्धा ॥ १ ॥ त्रिजागोन देहावगाहात्मदेशा, रह्या ज्ञानमय जात वर्णादि लेषा ॥ सदानंद सौख्याश्रिता ज्योतिरूपा, अनाबाध अपुनर्नवा - दि स्वरूपा ॥ २ ॥ ॥ ढाल ॥ उलालानी देशी ॥ सकल करममल क्षय करी, पूरण शुद्ध स्वरूपो जी ॥ श्रव्याबाध प्रभुतामयी, आतम संपत्ति Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usev@nly.jainelibrary.org Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नूपो जी ॥१॥ उलालो ॥ जेह नूप आतम सहज संपत्ति, शक्ति व्यक्तिपणे करी॥खाव्यक्षेत्र खकालजावे, गुण अनंता आदरी॥सुखजावगुणपर्याय परिणति, सिमसाधन पर जणी ॥ मुनिराज मानसहंस समवम, नमो सिझमहागुणी॥२॥ ॥पूजा॥ ढाल ॥ श्रीपालना रासनी॥ ॥ समयपएसंतर अणफरसी, चरम तिनाग विशेष ॥ श्रवगाहन लही जे शिव पोहोता, सिक नमो ते अशेष रे ॥ न० ॥ सि ॥६॥ Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व प्रयोग ने गतिपरिणामे, बंधन बेद असंग ॥ समय एक ऊर्ध्व गति जेहनी, ते सिक प्रणमो रंग रे॥ ज० ॥ सि ॥ ७ ॥ निर्मल सिफशिलानी उपरे, 'जोयण एक लोगंत ॥सादिश्रनंत तिहां स्थिति जेहनी, ते सिक प्रणमो संत रे ॥ न ॥ सि०॥ ॥ जाणे पण न शके कही परगुण, प्राकृत तेम गुण जास ॥ उपमा विण नाणी जव. मांहे, ते सिफ दीयो उदास रे ॥ ज॥सि ॥ए। ज्योतिशुं ज्योति Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ मली जस अनुपम, विरमी सकल उपाधि ॥ तमराम रमापति समरो, ते सिद्ध सहज समाधि रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ १० ॥ ॥ ढाल ॥ ॥ रूपातीत स्वनाव जे, केवल दंशणनाणी रे ॥ ते ध्याता निज आतमा, होये सिद्ध गुणखाणी रे ॥ वी० ॥ ३ ॥ इति द्वितीय सिद्ध पदपूजा समाप्ता ॥ २ ॥ ३ Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usev@nly.jainelibrary.org Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ तृतीय आचार्यपद पूजा प्रारंजः॥ ॥ काव्यं ॥अवजावृत्तम् ॥ ॥ सूरीणउरीकयकुग्गदाणं ॥ ॥ नमो नमो सूरसमप्पदाणं ॥ ॥ जुजंगप्रयातवृत्तम् ॥ ॥ नमुं सूरिराजा सदा तत्वताजा, जिनेंडागमे प्रौढ साम्रा. ज्यनाजा ॥ षट्वर्गवर्गित गुणे शोजमाना, पंचाचारने पालवे सावधाना ॥१॥ नविप्राणीने देशना Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देश काले, सदा अप्रमत्ता यथा सूत्र थाले ॥ जिके शासनाधारदिग्दतिकल्पा, जगे ते चिरं जीवजो शुद्धजल्पा ॥२॥ ॥ ढाल ॥ उलालानी देशी ॥ ॥ श्राचारज मुनिपति गणि, गुणवत्रीशी धामो जी ॥ चिदानंद रस स्वादता, परनावे निःकामो जी ॥१॥उलालो॥ निःकाम निर्मल शुद्ध चिद्घन, साध्य निज निरधारथी॥ निज ज्ञान दर्शन चरण वीरज, साधनाव्यापारथी ॥ नविजीव बोधक Jain Educationa Interati@easonal and Private Usevanjainelibrary.org Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वशोधक, सयल गुणसंपत्ति धरा ॥ संवरसमाधि गतउपाधि, मुविध तपगुण आगरा ॥२॥ ॥पूजा॥ ढाल ॥श्रीपालना रासनी॥ ॥ पंच श्राचार जे सुधा पाले, मारग जाखे साचो ॥ ते श्राचारज नमीए तेहगुं, प्रेम करीने जाचो रे ॥ ज० ॥ सि ॥ ११॥ वर उ. त्रीश गुणे करी सोहे, युगप्रधान जन मोहे ॥ जग बोहे न रहे खिण कोहे, सूरि नमुं ते जोहे रे ॥ज ॥ सि ॥१२॥ नित्य Jain Educationa Intefrati@esonal and Private Usev@vky.jainelibrary.org Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ए अप्रमत्त धर्म उवएसे, नहीं विकथा न कषाय ॥ जेहने ते याचारज नमीए, अकबुष अमल अमाय रे ॥ज॥ सि० ॥ १३ ॥ जे दीए सारण वारण चोयण, पमिचोयण वली जनने ॥ पटधारी गल थंज आचारज, ते मान्या मुनि मनने रे ॥ न ॥ सि ॥ १४ ॥ अबमीए जिन सूरज केवल, चंदे जे जगदीवो ॥ जुवन पदारथ प्रकटन पटु ते, श्राचारज चिरं जीवो रे ॥०॥ सि० ॥ १५॥ Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ढाल ॥ ध्याता श्राचारज जला, महा मंत्र शुज ध्यानी रे॥ पंच प्रस्थाने श्रातमा, श्राचारज होय प्राणी रे ॥ वी० ॥४॥ इति तृतीय श्राचार्यपदपूजा समाता ॥३॥ ॥अथ चतुर्थ उपाध्यायपद पूजा प्रारंनः ॥ ॥ काव्यं ॥ अवज्रावृत्तम् ॥ ॥ सुतबविबारणतप्पराणं ॥ ॥ नमो नमो वायगकुंजराणं ॥ Jain Educationa Intefratil@bsonal and Private Usev@vky.jainelibrary.org Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१ ॥ भुजंगप्रयातवृत्तम् ॥ नहीं सूरि पण सूरिगणने सदाया, नमुं वाचका त्यक्तमदमोहमाया ॥ वली द्वादशांगादि सु त्रार्थदाने, जिके सावधाना निरुकाजिमाने ॥ १ ॥ धरे पंचने वर्ग वर्गित गुणौधा, प्रवादि द्विपोछेदने तुल्य सिंघा ॥ गुणी गवसंधारणे स्थंजनूता, उपाध्याय ते वंदीए चित्प्रभूता ॥ २ ॥ ॥ ढाल ॥ उलालानी देशी ॥ ॥ खं तिजुआ मुत्तिजुश्रा, अव म Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usew@nly.jainelibrary.org Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दव जुत्ताजी॥ सच्चं सोयंथकिंचणा, तव संजम गुणरत्ता जी ॥१॥ उ. लालो ॥ जे रम्या ब्रह्मसुगुत्ति गुत्ता, समिति समिता श्रुतधरा ॥ स्याछादवादे तत्ववादक, श्रात्म पर. विनजनकरा ॥ नवनीरू साधन धीरशासन, वहन धोरी मुनिवरा ॥ सिकांत वायण दान समरथ, नमो पाठक पदधरा ॥२॥ ॥पूजा ढाल॥श्रीपालना रासनी॥ ॥ द्वादश अंग सिजाय करे जे, पारग धारग तास ॥ सूत्र अर्थ Jain Educationa Interati@easonal and Private Usev@niw.jainelibrary.org Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ विस्तार रसिक ते, नमो उवकाय उल्लास रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ १६ ॥ अर्थ सूत्रने दान विजागे, श्रचारज उवजाय ॥ जव त्री जे जे लहे शिवसंपद्, नमीए ते सुपसाय रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ १७ ॥ मूरख शिष्य निपाई जे प्रभु, पाहाणने पल्लव श्राणे ॥ ते उवकाय सकल जन पूजित, सूत्र अर्थ सवि जाणे रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ १८ ॥ राजकुमर सरिखा गणचिंतक, श्राचारज पद योग ॥ जे जवजाय सदा ते नमतां, Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usev@nly.jainelibrary.org Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RG नावे जवजय सोग रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ १५ ॥ बावनाचंदन रस सम वयणे, अहित ताप सविटाले ॥ ते उवकाय नमीजे जे वली, जिनशासन अजुवाले रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ २० ॥ ॥ ढाल ॥ ॥ तपसजाये रत सदा, द्वादश अंगनो ध्याता रे ॥ उपाध्याय ते यातमा, जगबंधव जगचाता रे ॥ वी० ॥ ५ ॥ इति चतुर्थ उपाध्याय - पदपूजा समाप्ता ॥ ५॥ Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usevenly.jainelibrary.org Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥अथ पंचम मुनिपद पूजा प्रारंनः॥ ॥ काव्यं ॥अवज्रावृत्तम् ॥ ॥सारण संसादिअ संजमाणं॥ ॥ नमो नमो सुध्दयादमाणं॥ ॥ जुजंगप्रयातवृत्तम् ॥ ॥ करे सेवना सूरिवायग गणिनी, करुं वर्णना तेहनी शी मुणिनी ॥ समेता सदा पंचसमिति त्रिगुप्ता, त्रिगुप्ते नहीं कामनोगेषु लिप्ता॥१॥ वली बाह्य अभ्यंतर Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ ग्रंथि टाली, होये मुक्तिने योग्य चारित्र पाली ॥ शुनाष्टांग योगे रमे चित्त वाली, नमुं साधुने तेह निज पाप टाली ॥२॥ ॥ ढाल ॥ उलालानी देशी ॥ ॥ सकल विषय विष वारीने, निःकामी निःसंगी जी ॥ नवदवताप शमावता, आतमसाधन रंगी जी ॥१॥ उलालो ॥ जे रम्या शुद्ध स्वरूप रमणे, देह निर्मम निर्मदा ॥ काउस्सग्ग मुसा धीर श्रासन, ध्यान श्रन्यासी सदा ॥ Jain Educationa Inteirrati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप तेज दीपे कर्म जीप, नैव बीपे पर जणी ॥ मुनिराज करुपासिंधु त्रिजुवन, बंधु प्रणमुं हित नणी ॥२॥ ॥पूजा॥ ढाल ॥श्रीपालना रासनी॥ __ जेम तरुफूले नमरो बेसे, पीमा तस न उपावे ॥ ले रस आतम संतोषे, तेम मुनि गोचरी जावे रे ॥ न० ॥ सि ॥१॥ पंच इंडियने जे नित्य जीपे, षट्कायक प्रतिपाल ॥संयम सत्तर प्रकारे आराधे, वंदुं तेह दयाल रे ॥ जण Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ सि० ॥ ॥ अढार सहस्स शीलांगना धोरी, अचल आचार चरित्र ॥ मुनि महंत जयणायुत वंदी, कीजे जनम पवित्र रे॥ ॥ सि० ॥३॥ नवविध ब्रह्मगुप्ति जे पाले, बारसविद तप शूरा ॥ एहवा मुनि नमीए जो प्रगटे, पूरव पुण्य अंकूरा रे ॥ न०॥ सिम ॥२४॥ सोना तणी परे परीक्षा दीसे, दिन दिन चढते वाने ॥ संजमखप करता मुनि नमीए, देश काल अनुमाने रे॥नासि॥२५॥ Jain Educationa InteratiBeasonal and Private Usevanjainelibrary.org Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ढाल ॥ ॥ अप्रमत्त जे नित्य रहे, नवि हरखे नवि शोचे रे ॥ साधु सुधा ते श्रातमा, शुं मूंडे झुं लोचे रे॥ वी० ॥६॥ इति पंचम मुनिपदपूजा समाप्ता ॥५॥ ॥अथ षष्ठ सम्यक्त्वदर्शनपद पूजा प्रारंजः ॥ ॥ काव्यं ॥ अवज्रावृत्तम्॥ ॥जिणुत्ततत्ते शश्लकणस्स ॥ ॥नमो नमो निम्मलदंसणस्स। Jain Educationa Intefriati@essonal and Private Usev@ww.jainelibrary.org Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GO ॥ भुजंगप्रयातवृत्तम् ॥ ॥ विपर्यास दठवासनारूप मिथ्या, टले जे अनादि वे जेम पथ्या ॥ जिनोक्ते होये सहजधी श्रद्दधानं कहीए दर्शनं तेह परमं निधानं ॥ १ ॥ विना जेड़थी ज्ञान अज्ञानरूपं, चरित्रं विचित्रं जवारण्यकूपं ॥ प्रकृति सातने उपशमे क्षय ते होवे, तिहां यापरूपे सदा आप जोवे ॥२॥ ॥ ढाल ॥ उलालानी देशी ॥ ॥ सम्यग्दर्शन गुण नमो, तत्त्व प्रतीत स्वरूपो जी ॥ जसु निरधार Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usew@nly.jainelibrary.org Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र खजाव बे, चेतनगुण जे अरूपो जी ॥ १ ॥ उलालो ॥ जे अनुप श्रद्धा धर्म प्रगटे, सयल परईहा टले ॥ निज शुद्ध सत्ता प्रगट अनुजव, करणरुचिता उच्छले ॥ बहुमान परिपति वस्तुतत्त्वे, अहव तसु कारणपणे ॥ निज साध्यदृष्टे सर्व करणी, तत्त्वता संपत्ति गणे ॥ २ ॥ ॥ पूजा ॥ ढाल ॥ श्रीपालना रासनी ॥ ॥ शुद्धदेव गुरु धर्म परीक्षा, सददणा परिणाम ॥ जेह पामीजे तेह नमीजे, सम्यग्दर्शन Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usew@nly.jainelibrary.org Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम रे ॥ ज० ॥ सि ॥२६॥ मलजपशम दय उपशमदयश्री, जे होय त्रिविध अनंग ॥ सम्यग्दर्शन तेह नमीजे, जिनधर्मे दृढरंग रे ॥ न ॥ सि ॥७॥ पंच वार उपशमिय लहीजे, दयउपशमिय असंख ॥ एक वार दायिक ते समकित, दर्शन नमीए असंख रे ॥ ज०॥ सि ॥२०॥ जे विण नाण प्रमाण न होवे, चारित्रतरु नवि फलीयो ॥ सुख निर्वाण न जे विण लहीए, सम Jain Educationa Intefrati@essonal and Private Usevenly.jainelibrary.org Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कितदर्शन बलीयो रे॥ न॥सि ॥श्ए ॥ समसठ बोले जे अलंकरीयो, ज्ञानचारित्रनुं मूल ॥ समकितदर्शन ते नित्य प्रणमुं, शिवपंथनुं अनुकूल रे ॥जासि ॥३॥ ॥ ढाल ॥ ॥शम संवेगादिक गुणो, क्षयउपशम जे श्रावे रे ॥ दर्शन तेहिज श्रातमा, शुं होय नाम धरावे रे ॥ वीर ॥७॥ इति षष्ठ सम्यक्त्वदर्शनपदपूजा समाता ॥ - - Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ सप्तम सम्यग्ज्ञानपद पूजा प्रारंनः॥ ॥ काव्यं ॥ वज्रावृत्तम् ॥ ॥ अन्नाणसंमोदतमोदरस्स ॥ ॥ नमो नमो नाणदिवायरस्स॥ ॥ जुजंगप्रयातवृत्तम् ॥ ॥ होये जेहथी ज्ञान शुरु प्र. बोधे, यथा वरण नासे विचित्रावबोधे ॥ तेणे जाणीए. वस्तु षर अव्यजावा, न हुये वितबा (वाद) Jain Educationa Intefroati@essonal and Private Usev@nwjainelibrary.org Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्य निजेठा खजावा ॥१॥ होय पंच मत्यादि सुझाननेदे, गुरूपास्तिथी योग्यता तेह वेदे ॥ वली झेय हेय उपादेय रूपे, लहे चित्तमां जेम ध्वांत प्रदीपे ॥२॥ ॥ ढाल ॥ उलालानी देशी ॥ ॥ नव्य नमो गुणज्ञानने, खपर प्रकाशक नावे जी ॥ परजय धर्म अनंतता, नेदानेद खनावे जी ॥१॥ उलालो ॥ जे मुख्य परिणति सकलायक, बोध नावविलखना ॥ मतिश्रादि पंच प्रकार Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्मल, सिक साधन ललना। स्याहादसंगी तत्त्वरंगी, प्रथम ने दानेदता ॥ सविकल्प ने अविर कल्प वस्तु, सकल संशय बेदता॥२॥ ॥ पूजा ढाल॥श्रीपालना रासनी॥ ॥जदाजद न जे विण लहीए, पेय अपेय विचार ॥ कृत्य अकृत्य न जे विण लहीए, ज्ञान ते सकल आधार रे ॥ ज०॥ सिण ॥ ३१ ॥ प्रथम ज्ञान ने पढ़ी अहिंसा, श्रीसिकांते नाख्युं ॥ झानने वंदो ज्ञान म निंदो, झा Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B नीए शिवसुख चाख्यु रे ॥०॥ सि० ॥३५॥ सकल क्रियानुं मूल जे श्रझा, तेहनुं मूल जे कहीए ॥ तेह झान नित नित वंदीजे, ते विण कहो केम रहीए रे ॥ ज० ॥ सि ॥ ३३ ॥ पंच ज्ञान मांहि जेद सदागम, स्वपर प्रकाशक जेह ॥ दीपक परे त्रिजुवन उपकारी, वली जेम रवि शशि मेह रे ॥न० ॥ सि० ॥ ३४ ॥ लोक ऊर्ध्व अधो तिर्यग्ज्योतिष, वैमानिक ने सिझ॥ लोकालोक प्रगट सवि जेहथी, Jain Educationa Inteffratilobsonal and Private Usevily.jainelibrary.org Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेह ज्ञान मुज शुरु रे ॥नम् ॥ सि ॥३५॥ ॥ ढाल ॥ ॥ ज्ञानावर्णी जे कर्म , क्षयउपशम तस थाय रे ॥ तो हुए एहिज श्रातमा, ज्ञानबोधता जाय रे ॥ वी० ॥ ॥ इति सप्तम सम्यग्ज्ञानपदपूजा समाप्ता ॥ ७ ॥ ॥ अथ अष्टम चारित्रपद पूजा प्रारंनः॥ ॥ काव्यं ॥ इंजवज्रावृत्तम् ॥ आरादिअखंडीअस किस्सा Jain Educationa Intercati@essonal and Private Usev@ww.jainelibrary.org Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ פה ॥ णमो णमो संजमवी रिप्रस्स ॥ ॥ भुजंगप्रयातवृत्तम् ॥ ॥ वली ज्ञानफल चरण धरीए सुरंगे, निराशंसता द्वाररोधप्रसंगे ॥ जवांजो धिसंतारणे यान तुल्यं, धरुं तेह चारित्र प्राप्तमूल्यं ॥ १ ॥ होये जास महीमा थकी रंक राजा, वली द्वादशांगी जणी होय ताजा ॥ वली पापरूपोपि निःपाप थाय, थइ सिद्ध ते कर्मने पार जाय ॥२॥ ॥ ढाल उलालानी देशी ॥ ॥ चारित्रगुण वली वली नमो, Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usew@nly.jainelibrary.org Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वरमण जसु मूलो जी ॥ पररमणीयपणुं टले, सकल सिक अनुकूलो जी ॥१॥ उलालो ॥ प्रतिकूल श्राश्रवत्याग संयम, तत्वथिरता दममयी ॥ शुचि परम खंति मुत्ति दश पद, पंच संवर उपचई ॥ सामायिकादिक नेद धर्मे, यथाख्याते पूर्णता ॥ अकषाय अकलुष श्रमल उज्ज्वल, कामकश्मलचूर्णता॥२॥ ॥पूजा॥ ढाल श्रीपालना रासनी॥ ॥ देशविरति ने सरव विरति Jain Educationa InteFreatiBersonal and Private Usev@ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जे, गृही यतिने अजिराम ॥ ते चारित्र जगत् जयवंतुं, कीजे तास प्रणाम रे ॥ज०॥ सि ॥३६ ॥ तृण परे जे षट् खंग सुख बंमी, चक्रवर्ती पण वरीयो ॥ ते चारित्र अक्षय सुख कारण, ते में मनमाहे धरीयो रे ॥ ज० ॥ सि॥ ॥ ३७॥ हुया रांक पण जे आदरी, पूजित इंद नरिंदे ॥ अशरण शरण चरण ते वंडं, पूगुं ज्ञान थानंदे रे॥ ज० ॥ सि ॥ ३० ॥ बार मास पर्याये जेहने, अनुत्तर सुख Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिक्रमीए ॥ शुक्ल शुक्ल अनि जात्य ते उपरे, ते चारित्रने नमी रे ॥ ज०॥ सि० ॥ ३५ ॥ चय ते आठ करमनो संचय, रिक्त करे में तेह ॥ चारित्र नाम निरुत्ते जाख्यु, ते वंडं गुणगेह रे ॥नासि ॥ ढाल ॥ जाण चारित्र ते श्रातमा, निज खनावमा रमतो रे ॥ लेश्या शुक्र अलंकस्यो, मोहवने नवि नमतो रे॥ वी०॥ ए॥ इत्यष्टम चारित्रपदपूजा समाता ॥७॥ Jain Educationa Intefrati@essonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ नवम तपःपदपूजा प्रारंनः॥ ॥ काव्यं ॥ अवज्रावृत्तम् ॥ ॥ कम्मदुमोम्मूलणकुंजरस्स ॥ ॥ नमो नमो तिवतवोनरस्स॥ ॥ मालिनीवृत्तम् ॥ ॥श्यनवपय सिकं, लझिविजासमिक्षं । पयमियसुरवग्गं, हीतिरेहासमग्गं ॥ दिसवश्सुरसारं, खोणिपीढावयारं ॥ तिजय विजयचक्र, सिद्धचकं नमामि ॥१॥ Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CU ॥ जुजंगप्रयातवृत्तम् ॥ ॥त्रिकालिकपणे कर्म कषाय टाले, निकाचितपणे बांधीयां तेह बाले ॥ कयुं तेह तप बाह्य अंतर मुन्नेदे, दमायुक्त निर्हेतु उर्ध्यान बेदे ॥२॥ होये जास महीमा थकी लब्धि सिकि, अवांबकपणे कर्म थावरणशुफि॥ तपो तेह तप जे महानंद देते, होय सिकि सीमंतिनी जिम संकेते ॥३॥ इस्या नव पद ध्यानने जेह ध्यावे, सदानंद चिड्रपता तेह पावे ॥ वली Jain Educationa InteFreati@easonal and Private Usev@ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए ज्ञानविमलादि गुणरत्नधामा, नमुं ते सदा सिद्धचक्रप्रधाना ॥४॥ ॥मालिनीवृत्तम् ॥ ॥श्म नवपद ध्यावे, पर्म आनंद पावे, नवमे जव शिव जावे, देव नरजव पावे ॥ ज्ञान विमल गुण गावे, सिमचक्रप्रनावे, सवि पुरित समावे,विश्वजयकार पावे५ ॥ ढाल ॥ उलालानी देशी ॥ ॥छारोधन तप नमो, बाह्य अन्यंतर नेदे जी॥ आतम सत्ता एकता, परपरिणति उछेदे जी Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@ww.jainelibrary.org Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए६ ॥ १ ॥ उलालो ॥ उछेद कर्म अनादिसंतति, जेह सिद्धपएं वरे ॥ योगसंगे श्राहार टाली, नाव छा क्रियता करे | अंतर मुहूरत तत्त्व साधे, सर्व संवरता करी ॥ निज श्रात्मसत्ता प्रगटजावे, करो तप गुण यादरी ॥ २ ॥ ॥ ॥ ढाल ॥ ॥ एम नवपद गुणमंगलं, चन निक्षेप प्रमाणे जी ॥ सात नये जे यादरे, सम्यग्ज्ञानने जाऐ जी ॥ ॥ ३ ॥ जलालो ॥ निर्द्धारसेती Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usew@nly.jainelibrary.org Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणी गुणनो, करे जे बहुमान ए ॥ तसु करण हा तत्व रमणे, थाय निर्मल ध्यान ए ॥ एम शु. इसत्ता नल्यो चेतन, सकल सिकि अनुसरे ॥ श्रदय अनंत महंत चिद्घन, परम आनंदता वरे ॥३॥ ॥ कलश ॥ श्य सयल सुखकर गुणपुरंदर, सिद्धचक्र पदावलि ॥ सवि लकि विद्या सिद्धिमंदर, नविक पूजो मनरुली ॥उवफायवर श्रीराजसागर झानधर्म सुराजता ॥ गुरु दीपचंद Jain Educationa Inteffatil@bsonal and Private Usevenly.jainelibrary.org Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुचरण सेवक,देवचंद सुशोजता॥ ॥पूजा॥ ढाल ॥श्रीपालना रासनी॥ ॥जाणंता त्रिहुँ ज्ञाने संयुत, ते जवमुक्ति जिणंद ॥ जेद था. दरे कर्म खपेवा, ते तप शिवतरु कंद रे ॥ न० ॥ सि ॥४१॥ कर्म निकाचित पण क्षय जाये, दमा सहित जे करतां ॥ ते तप नमीए जेह दीपावे, जिनशासन उजः मंतां रे ॥ ॥ सि ॥ ४५ ॥ श्रामोसही पमुहा बहु लकि, होवे जास प्रजावे॥अष्ट महा सिकिनव Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UU निधि प्रगटे, नमीए ते तप जावे रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ ४३ ॥ फल शिवसुख मदोटुं सुर नरवर, संपत्ति जेहनुं फूल ॥ ते तप सुरतरु सरिखो वं, सम मकरंद अमूल रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ ४४ ॥ सर्व मंगलमां पहेलुं मंगल, वरणवीए जे ग्रंथे ॥ ते तपपद त्रिहुं काल नमीजे, वर सहाय शिवपंथे रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ ४५ ॥ एम नवपद युणतो तिहां लीनो, हुर्ज तन्मय श्रीपाल ॥ सुजशविलासे चोथे खंने, एह अ Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usew@nly.jainelibrary.org Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ग्यारमी ढाल रे ॥नासि॥६॥ ॥ ढाल ॥ ॥ श्वारोधे संवरी, परिणति समतायोगे रे ॥ तप ते एहिज श्रातमा, वर्ने निज गुण जोगे रे ॥ वी० ॥ १० ॥ श्रागम नोश्रागम तणो, नाव ते जाणो साचो रे ॥ श्रातमनावे थिर होजो, परनावे मत राचो रे ॥ वी० ॥ ११॥ अ. ष्टक सकल समृधिनी, घटमांदे कि दाखी रे॥तेम नव पद शक्ति जाणजो, बातमराम डे साखी रे Jain Educationa Inteffratilosonal and Private Useverly.jainelibrary.org Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ ॥ वी० ॥ १५ ॥ योग असंख्य डे जिन कह्या, नव पद मुख्य ते जाणो रे॥ एह तणे अवलंबने, बातम ध्यान प्रमाणो रे ॥ वी० ॥ १३ ॥ ढाल बारमी एहवी, चोथे खेमे पूरी रे॥ वाणी वाचक जस तणी, कोश नये न अधूरी रे ॥ वी० ॥ १४ ॥ इति नवम तपःपदपूजा समाप्ता॥॥ ॥अथ काव्यं ॥ अतविलं. बितवृत्तम् ॥ ॥ विमलकेवलनासननास्कर, जगति जंतुमहोदयकारणं ॥ जिन Jain Educationa Inteffatilesonal and Private Useverly.jainelibrary.org Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ वरं बहुमानजलौघनं, शुचिमनाः स्त्रपयामि विशुद्धये ॥ १ ॥ इति काव्यम् ॥ या काव्य प्रत्येक पूजा दीठ कहेतुं . ॥ स्नान करतां जगङ्गुरु शरीर, सकल देवे विमल कलशनी रे ॥ आपण कर्ममल डूर कीधा, तेणे ते विबुध ग्रंथे प्रसिद्धा ॥ २ ॥ दर्ष धरी अप्सरावृंद यावे, स्नात्र करी एम आशिष् जावे ॥ जिहां लगे सुरगिरि जंबूदीवो, श्रम तथा नाथ देवाधिदेवो ॥ ३ ॥ Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usevenly.jainelibrary.org Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ ॥ अथ नवपदकाव्यानि प्रारच्यन्ते ॥ ॥ तत्र प्रथम श्रीअरिहंतपदकाव्यम्॥ईवज्रावृत्तम् ॥ ॥नियंतरंगारिगणे सुनाणे, सप्पामिहेराइ सयप्पदाणे ॥ संदेहसंदोदरयं दरंतो, काएद निच्चपि जिणे रदंतो॥१॥ ॥ श्रीसिझपदकाव्यम् ॥ ॥ दुहकम्मावरण प्पमुक्के, अनंतनाणाइ सीरीचनके ॥ Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ समग्गलोगग्ग पयचसिदे, काएद निश्चपि समग्गसिदे ॥ २ ॥ ॥ श्रीश्राचार्यपदकाव्यम् ॥ ॥ सुतच्च संवेगमयं सुए, संनी रखीरामय विसुएणं ॥ पी नंति जे ते नवनायराए, फाएद निचंपि कयप्पसाए ॥ ३ ॥ ॥ श्रीउपाध्यायपदकाव्यम् ॥ ॥ ननं सुदं नहि पीया न माया, जे दंति जिवान्दिसूरीसपाया ॥ तदाहु ते चैव सया Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usev@nly.jainelibrary.org Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ मजेद, जं मुक मुस्काई खदु लदेद ॥४॥ ॥ श्रीसाधुपदकाव्यम् ॥ खतेय दंतेय सुगुत्तिगुत्तो, मुत्तेय संते गुणजोगजुत्तो ॥ गयप्पमाए गयमोदमाए, काएद निचं मुणिरायपाए ॥५॥ ॥ श्रीसम्यग्दर्शनपदकाव्यम् ॥ ॥ जं दवबिक्तायेसु सद्ददाणं, तं दसणं सवगुणप्पहाणं ॥ कुग्गदि वादी नवयंति जेणं, Jain Educationa Inteffratilosonal and Private Useverly.jainelibrary.org Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जदा विधे रसायणेणं ॥ ६ ॥ ॥ श्री सम्यग्ज्ञानपदकाव्यम् ॥ नाणं पढ़ाणं नयचक्क सि ं, ततवबोदीक मयं पसिदं ॥ ध रेह चित्तावसर फुरंतं, माणि कदिर्जवतमो दरंतं ॥ ७ ॥ ॥ श्री चारित्रपदकाव्यम् ॥ ॥ सुसंवरं मोदनिरोधसारं, पंचप्पयारं विगमाइयारं ॥ मूलो. त्तरागगुणं पवित्तं, पालेह नि चंपि सच्चरितं ॥ ८ ॥ Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usev@nly.jainelibrary.org Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ ॥ श्री तपःपदकाव्यम् ॥ ॥ बनं तदा निंतरनेयमेय, कयाय द्येय कुकम्म नेयं ॥ डुकरकचे कयपावनासं, तवेदादागमयं निरासं ॥ ए॥ इति नवपदकाव्यानि सं० ॥ समाप्त. Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usew@nly.jainelibrary.org Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ ॥ अथ श्रीदेवविजयजीकृत ॥ PDE Siminal - अष्टप्रकारीपू प्रारंभः ॥ तत्र ॥ ॥प्रथम न्दवणपूजा प्रारंनः ॥ ॥दोहा॥ अजर अमर निकलंक जे, श्रगम्य रूप अनंत ॥ अलख अगोचर नित्य नमुं, परम प्रजुतावंत ॥१॥ श्री संजवजिन गुणनिधि, त्रिजुवन जन हितकार ॥ तेहना Jain Educationa Inteffatil@bsonal and Private Usevanky.jainelibrary.org Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०ए पद प्रणमी करी, कहीशुं श्रष्ट प्रकार ॥२॥ प्रथम न्हवणपूजा करो, बीजी चंदन सार ॥ त्रीजी कुसुम वली धूपनी, पंचम दीप मनोहार ॥ ३॥ अदत फल नैवेधनी, पूजा अतिहि उदार ॥ जे नवियण नित नित करे, ते पामे नवपार ॥४॥ रतन जडित कलशे करी, न्हवण करो जिननूप ॥ पातक पंक पखालतां, प्रगटे श्रामखरूप ॥ ५॥ अव्य नाव दोय पूजना, कारण कार्य संबंध ॥ ना Jain Educationa Intefratiloesonal and Private Usevanky.jainelibrary.org Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० वस्तव पुष्टि जणी, रचना अव्य प्रबंध ॥६॥ शुन सिंहासन मांमीने, प्रन्नु पधरावो जक्त ॥ पंच शब्द वाजित्रशु, पूजा करीए व्यक्त ॥७॥ ॥ ढाल पदेली ॥ अने हारे जिनमंदिर रलियामणुं रे ॥ ए देशी॥ ॥अने हारे न्हवण करो जिनराजने रे, ए तो शुझालंबन देव॥ परमातम परमेसरू रे, जसु सुर नर सारे सेव ॥ न्ह० ॥१॥०॥ मागध तीर्थ प्रजासना रे, सुरनदी सिंधुनां देव ॥ वरदाम दीरसमु Jain Educationa Inteffatil@bsonal and Private Usevenly.jainelibrary.org Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ जना रे, नीरे न्हवे जेम देव ॥ न्ह०॥२॥०॥ तेम जवि जावे तीर्थोदके रे, वासो वास सुवास ॥ औषधि पण नेली करो रे, श्रनेक सुगंधित खास ॥ न्ह० ॥३॥ अ॥ काल अनादि मल टालवा रे, नालवा बातम रूप ॥ जलपूजा युक्ते करी रे, पूजो श्री जिननूप ॥ न्ह० ॥४॥०॥ विप्रवधू जलपूजश्री रे, जेम पामी सुख सार ॥ तेम तमे देवाधिदेवने रे, Jain Educationa Inteffcatlərsonal and Private Usev@vky.jainelibrary.org Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ श्रर्ची लहो नवपार ॥ न्ह० ॥५॥ ॥अथ काव्यं ॥ विमलकेवलदर्श. नसंयुतं, सकलजंतुमहोदयकारणं॥ खगुणशुद्धिकृते नपयाम्यहं, जिनवरं नवरंगमयांनसा ॥ १॥ इति प्रथम जलपूजा समाप्ता॥१॥ ॥ अथ द्वितीय चंदनपूजा प्रारंजः ॥ ॥दोहा॥ ॥ हवे बीजी चंदन तणी, पूजा करो मनोहार ॥ मिथ्या ताप अना Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिनो, टालो सर्व प्रकार ॥१॥ पुगल परिचय करी घणो, प्राणी थयो पुर्वास ॥ सुगंध अव्य जिनपूजने, करो निज शुरू सुवास ॥२॥ ॥ ढाल बीजी ॥ मनथी मरणां, परनारीसंग न करणां॥ ए देशी॥ ॥जवि जिन पूजो, उनियामां देव न पूजो ॥जे अरिहा पूजे, तस नवनां पातक धूजे ॥ज ॥१॥ प्रनुपूजा बहु गुण जरीरे,कीजे मनने रंग॥मन वच काया थिर करी रे, अरचो अरिहा अंग ॥ ज० ॥२॥ Jain Educationa IntercatiBesonal and Private Usevanjainelibrary.org Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ केशर चंदन घसी घणुं रे, मांदे नेली घनसार ॥ रत्नकचोलीमांदे धरी रे, प्रजुपद चर्चा सार ॥ नए ॥३॥जवदव ताप शमाववा रे, तरवा जवजल तीर ॥ श्रातम खरूप निहालवा रे, रुमो जगगुरु धीर ॥ ज० ॥४॥ पद जानु कर अंश शिरे रे, नाल गले वली सार ॥ हृदय उदर प्रजुने सदा रे, तिलक करो मन प्यार ॥ ज० ॥५॥ एणि विध जिनपद पूजना रे, करतां पाप पलाय ॥ जेम जयसुर ने शुज Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९५ मति रे, पाम्या अविचल गय ॥ ज० ॥६॥ काव्यं ॥ जगदुपाधिचयाजहितं हितं, सहजतत्वकृते गुणमंदिरं ॥ विनयदर्शनकेशरचंदन-रमलहृन्मलहजिनमर्चये ॥१॥ इति द्वितीय चंदनपूजा समाप्ता ॥२॥ ॥ अथ तृतीय कुसुमपूजा प्रारंजः॥ ॥दोहा॥ ॥त्रीजी कुसुम तणी हवे, पूजा करो सदनाव ॥ जेम पुष्कृत दूरे Jain Educationa Inteffati@essonal and Private Usevanky.jainelibrary.org Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टले, प्रगटे आत्मखनाव ॥१॥ जे जन षट् शतु फूलशें, जिन पूजे त्रण काल ॥ सुर नर शिवसुख संपदा, पामे ते सुरसाल ॥२॥ ॥ ढाल त्रीजी ॥ साहेल मीयांनी ॥ देशी॥ ॥ कुसुमपूजा नवि तुमे करो। साहेलमीयां ॥ श्राणी विविध प्रकार ॥ गुण वेलमीयां ॥ जाइ जूई केतकी ॥ सा ॥ दमणो मरुः सार ॥ गु० ॥१॥ मोघरो चंपक मालती ॥ सा ॥ पामल पद्म ने Jain Educationa Intefratilobsonal and Private Usev@ly.jainelibrary.org Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ वेल ॥ गु० ॥ बोल सिरी जासूलशुं ॥ सा० ॥ पूजो मनने गेल ॥ गु० ॥ २ ॥ नाग गुलाब सेवंतरी ॥ सा० ॥ चंपेली मचकुंद ॥ गु० ॥ सदा सोहागण दाउदी ॥ सा० ॥ प्रियंगु पुन्नागनां वृंद ॥ गु० ॥ ३ ॥ बकुल कोरंट अंकोली ॥ सा० ॥ केवमो ने सहकार ॥ गुं० ॥ कुंदादिक पमुद्दा घणे ॥ सा० ॥ पुष्प तणे विस्तार ॥ गु० ॥ ४ ॥ पूजे जे नवि जावशुं ॥ सा० ॥ श्री जिन केरा पाय ॥ गु० ॥ वणिकसुता लीला Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usev@nly.jainelibrary.org Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ वती ॥ सा० ॥ जिम लहे शिवपुर गय ॥ गु०॥५॥ काव्यं ॥ सुकरुणासुनृतार्जवमार्दवैः,प्रशमशौचशमादिसुमैर्जनाः ॥ परमपूज्यपदस्थितमर्चितं, परमुदारगुणं जिनं ॥ ॥ १ ॥ इति तृतीय पुष्पपूजा समाता ॥३॥ ॥अथ चतुर्थधूपपूजा प्रारंजः॥ ॥दोहा॥ ॥अर्चा धूप तणी करो, चोथी हर्ष अमंद॥कमधन दादन जणी, पूजो श्री जिनचंद ॥१॥ सुविधि Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११॥ धूप सुगंधशुं, जे पूजे जिनराय ॥ सुर नर किन्नर ते सवि, पूजे ते. हना पाय ॥२॥ ॥ ढाल चोथी॥ सामरी सुरत पर मेरो दिन अटक्यो॥ए देशी॥ ॥अरिहा भागे धूप करीने, नरजव लाहो लीजे री ॥ अगर चंदन कस्तूरी संयुक्त, कुंदरू मांदे धरीजे री॥ अरि॥१॥ चूरण शुभ दशांग अनोपम, तुरक अंबर जावीजे री ॥ रत्नजमित धूपधापामांहे, शुज घनसार वीजे Jain Educationa Internati@essonal and Private Usevenly.jainelibrary.org Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० री॥श्ररि ॥२॥ पवित्र थश जिनमंदिर जश्ने, आशय शुद्ध करीजे री॥ धूप प्रगट वामांगे धरता, जव जव पाप हरीजे री ॥श्ररि ॥ ३ ॥ समतारस सागर गुण श्रागर, परमातम जिन पूरा री॥ चिदानंदघन चिन्मय मूरति, जगमग ज्योति सनूरारी ॥अरि ॥४॥ एहवा प्रजुने धूप करंतां, अविचल सुखमां लहीए री ॥ इह जव परजव संपत्ति पामे, जेम विनयंधर कहीए री ॥श्ररि॥५॥ Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ काव्यं ॥ अशुनपुजलसंचयवारणं, समसुगंधकरं तपधूपनं ॥ जगवता सुपुरोहितकर्मणां, जयवतो यवतोऽक्षयसंपदा ॥ १॥ इति चतुर्थ धूपपूजा समाप्ता ॥४॥ ॥अथ पंचम दीपक पूजा प्रारंनः॥ ॥दोहा ॥ ॥ निश्चय धन जे निज तणु, तिरोनाव के तेह ॥ प्रमुख व्य दीपक धरी, श्राविरजाव करेह ॥१॥ अभिनव दीपक ए प्रनु, Jain Educationa Interati@esonal and Private Usevanjainelibrary.org Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजी मागो देव ॥ अज्ञान तिमिर जे अनादिनु, टालो देवाधिदेव ॥२॥ ॥ढाल पांचमी॥जुमखडानी देशी॥ ॥ नावदीपक प्रनु श्रागले, अव्यदीपक उत्साहे ॥ जिनेसर पूजीए ॥ प्रगट करी परमातमा, रूप नावो मनमांदे ॥ जि ॥१॥ धूम कषाय न जेहमां, न बीपे पतंगने हेज ॥जि०॥चरण चित्रामण नवि चले, सर्व तेजनुं तेज ॥ जि० ॥॥ अधन करे जे आधारने, समीर तणे नहीं गम्य Jain Educationa Interrati@essonal and Private Usevandw.jainelibrary.org Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ ॥ जि० ॥ चंचल नाव जे नवि लहे, नित्य रहे वली रम्य ॥ जिप ॥३॥ तैल प्रदेप जिहां नहीं, शुद्ध दशा नहीं दाह । जि० ॥ अपर दीपक ए अरचतां, प्रगटे प्रशम प्रवाह ॥ जि० ॥४॥ जेम जिनमती ने धनसिरि, दीप पूजनथी दोय ॥ जि० ॥ श्रमरगति सुख अनुभवी, शिवपुर पोहोती सोय ॥ जिम् ॥ ५॥ काव्यं ॥बहुलमोहतमित्र निवारकं, खपरवस्तुविकासनमात्मनः ॥ विमलबोध Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ सुदीपकमादधे, जुवनपावनपारगताग्रतः॥१॥इति पंचम दीपकपूजा समाप्ता॥५॥ ॥अथ षष्ठादतपूजा प्रारंजः॥ ॥दोहा॥ ॥ समकितने अजुबालवा, उत्तम एह उपाय ॥ पूजाथी तुमे प्रीब्जो, मन वंडित सुख थाय ॥१॥ अदत शुद्ध अखंडशें, जे पूजे जिनचंद ॥ लहे अखंमित तेह नर, अक्षय सुख आणंद ॥२॥ Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ ॥ ढाल बही ॥ धर्मजिणंद दयालजी, धर्म तो दाता ॥ए देशी॥ . ॥ अक्षतपूजा जवि कीजे जी, श्रदत फल दाता ॥ शालि गोधूम पण लीजे जी ॥ १० ॥ प्रजु सन्मुख स्वस्तिक कीजे जी ॥१०॥ मुक्ताफल वीचमे दीजे जी ॥ ॥ ॥१॥ एदवा उज्ज्वल अक्षत वासी जी ॥ १०॥ शुन तंडुल वासे उबासी जी ॥ अ० ॥ चूरक चउगति चित्त चोखे जी॥१०॥ Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ पूरी श्रदय सुख लहो जोखे जी ॥ १० ॥ २॥ पुनरावर्त्त हरवा हाथे जी ॥ १० ॥ नंदावर्त्त करो रंग साथे जी ॥ ॥ कर जोमा जिनमुख रहीने जी ॥ अ० ॥ एम आखो शिव दीयो वहीने जी ॥१०॥३॥ जगनायक जगगुरु जेता जी ॥ अ० ॥ जगबंधु अमल विनु नेता जी ॥०॥ ब्रह्मा ईश्वर वमनागी जी ॥ १० ॥ योगीश्वर विदित वैरागी जी ॥ ॥४॥ एहवा देवाधिदेवने पूजे जी॥॥ Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ जवनवनां पातक धूजे जी॥०॥ जेम कीरयुगल नवपार जी॥०॥ लहे अदत पूज प्रकार जी॥॥ ॥५॥ काव्यं ॥ सकलमंगलसंजवकारणं, परममदतनावकृते जिनं ॥ सुपरिणाममयैरहमदतैः, परमया रमया युतमर्चये ॥इति षष्ठादतपूजा समाप्ता॥६॥ ॥ अथ सप्तम फलपूजा प्रारंनः ॥ ॥दोहा॥ ॥ श्रीकार उत्तम वृदनां, फल Jain Educationa Inteffatləbsonal and Private Usevenly.jainelibrary.org Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेश नर नार ॥ जिनवर थागे जे धरे, सफलो तस अवतार ॥१॥ फलपूजानां फल थकी, कोकि होय कल्याण ॥ अमर वधू उलट धरी, तस धरे चित्तमां ध्यान ॥२॥ ॥ ढाल ॥ सातमी ॥ बिंद लीनी देशी॥ ॥ फलपूजा करो फलकामी, अभिनव प्रजु पुण्ये पामी हो ॥ प्राणी जिन पूजो॥श्रीफल अखोड बदाम, सीताफल दामिम नाम हो ॥ प्राण ॥१॥ जमरुख तरबुज Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२॥ केला, निमजां कोहलां करो नेलां हो ॥ प्राण ॥ पीस्तां फनस नारंग, पूंगी चूत्रफल घणुं चंग हो ॥प्रा० ॥२॥ खरबूज प्राख अंजीर, अन्नास रायण जंबीर हो ॥ प्रा० ॥ मिष्ट लींबु ने अंगुर, शिंगोडां टेटी बीजपूर हो ॥प्रा०॥ ॥३॥ एम जे जे विषय लहंत, ते ते जिनजुवने ढोयंत हो॥प्रा॥ अनुपम थाल विशाल, तेहमां जरीने सुरसाल हो ॥ प्राण ॥४॥ फलपूजा करे जे जावे, ते शिव Jain Educationa IntefratiBesonal and Private Usevenijainelibrary.org Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० रमणी सुख पावे हो ॥ प्रा० ॥ उर्गता नारी जेम, लहे कीरयुगल वली तेम हो ॥ प्रा० ॥५॥काव्यं। अमलशांतिरसैकनिधि शुचिं, गुणफलैर्मलदोषहरैर्हरं ॥ परमशुद्धिफलाय यजे जिनं, परहितं रहितं परजावतः ॥१॥ इति सप्तम फलपूजा समाता ॥७॥ ॥अथाष्टम नैवेद्यपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा॥ नवदव दहन निवारवा, जलद 95 Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ घटा सम जेह ॥ जिनपूजा युगते करी, त्रिविधे कीजे ते ॥ १ ॥ पूजा कुगतिनी अर्गला, पुण्य सरोवर पाल || शिवगतिनी साहेलमी, यापे मंगल माल ॥ २ ॥ शुभ नैवेद्य शुभ जावशुं, जिन यागे धरे जेह ॥ सुर नर शिवपद सुख लहे, दलीय पुरुष परे तेह ॥ ३ ॥ ॥ ढाल आठमी ॥ श्रावण मासे स्वामी, मेहेली चाल्या रे ॥ ए देश ॥ ॥ ॥ हवे नैवेद्य रसाल, प्रभुजी आगे रे ॥ धरतां जवि सुखकार, प्र Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usev@nly.jainelibrary.org Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ जुता जागे रे ॥ कंचन जमित दार, थालमा लावो रे ॥ तार तार मुज तार, जावन जावो रे ॥१॥ लापसी सेव कंसार, लाडु ताजा रे॥मनोहर मोतिचूर,खुरमा खाजा रे ॥ बरफी पेंडा खीर, घेवर घारी, रे ॥ साटा सांकली सार, पूरी खारी रे ॥२॥ कसमसीया कूबेर, सकरपारा रे ॥ लाखणसाश रसाल, धरो मनोहारा रे॥ मोतैया कलिसार, आगे धरीए रे ॥ नव जव संचित पाप, दणमा हरीए Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ रे ॥३॥ मुरकी मेसुर दहींथरा, वरसोलां रे॥पापम पूरी खास,दोगं घोला रे ॥ गुंदवमां ने रेवमी, मन नावे रे ॥ फेणी जलेबी मांहे, सरस सोहावे रे ॥४॥ शालि दाल ने सालणां, मन रंगे रे॥ विविध जाति पकवान, ढोवो चंगेरे ॥ ताल कंसाल मृदंग, वीणा वाजे रे ॥नेरी नफेरी चंग, मधुर ध्वनि गाजे रे सोल सजी शणगार,गोरी गावे रे ॥ देतां श्रढलक दान, जिनघर आवे रे ॥ एणी परे अष्ट प्रकार, पूजा क Jain Educationa Inteffati@osonal and Private Usevanky.jainelibrary.org Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. १३४ रशे रे ॥ नृप हरिचंड परे ते जवजल तरशे रे ॥ ६ ॥ काव्यं ।। सकलचेतनजीवितदायिनी, विमल नक्ति विशुफिसमन्विता ॥ जगवत, स्तुतिसारसुखासिका, श्रमहरा म हरास्तु विनोः पुरः॥ इत्यष्टम नै वेद्यपूजा समाप्ता ॥७॥ ॥ ढाल नवमी ॥ नमो नवि नावगुं ए॥ ए देशी॥ अष्टप्रकारी चित्त नावीए ए आणी हर्ष अपार ॥ नविजन से वीए ए ॥ अष्ट महासिकि संपजे .. Jain Educationa Interati@easonal and Private Usevanky.jainelibrary.org Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ ए, अमबुद्धि दातार ॥ नवि० ॥१॥ अडदिहि पण पामीए ए, पूजथी नवि श्रीकार ॥ ज० ॥ अनुक्रमे अष्ट करम हणी ए, पंचमी गति लहो सार ॥ ज० ॥२॥ शा न्हानासुत सुंदरु ए, विनयादिक गुणवंत ॥ न० ॥ शाह जीवणना कहेणथी ए, कीयो अन्यास ए संत ॥ ॥३॥ सकल पंमित शिर सेहरो ए, श्रीविनीतविजय गुरुराय ॥ ज० ॥ तास चरणसेवा थकी ए, देवनां वंडित थाय ॥ ज०॥४॥ Jain Educationa Inteffatil@bsonal and Private Usevenly.jainelibrary.org Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ शशि नयन गज विधु वरु वरु ए ( १४२१ ) नाम संवत्सर जाण ॥ज तृतीया सित शो तणी ए, शुक रवार प्रमाण ॥ जं० ॥ ५ ॥ पादर नगर विराजता ए, श्रीसंजव सुख कार ॥ ज० ॥ तास पसायथी ए रची ए, पूजा अष्ट प्रकार ॥ न॥६॥ ॥ कलश ॥ ॥ इह जगत् स्वामी मोहवामी, मो दगामी सुखकरू ॥ प्रभु प्रकल अमल अखंड निर्मल जव्य मिथ्या. तम हरू || देवाधिदेवा चरणसेवा, Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usev@nly.jainelibrary.org Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ नित्य मेवा आपीए ॥ निज दास जाणी दया खाणी, आप समोवड थापी ॥ १ ॥ श्लोक ॥ इति जिनवरवृंद, शुद्धजावेन कीर्ति - विमलमिह जगत्यां पूजयंत्यष्टधा ये ॥ निजकलिमलहेतोः, कर्मणोंतं विधाय, परमगुणमयं ते, यांति मोक्षं हि वीराः ॥ १ ॥ इति ष्टप्रकारी पूजा संपूर्णा ॥ इति श्री देव विजयजीकृत - ष्टप्रकारी पूजा संपूर्णा ॥ Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usev@nly.jainelibrary.org Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ॥ अथ श्री ज्ञानविमलसूरिकृत श्रीशांतिनाथजीनो कलश प्रारंभः ॥ श्रीजयमंगल कृत्स्नमच्युदय सावली प्ररोहांबुदो, दारिद्र्यडुम काननैकदलने मत्तो धुरः सिंधुरा ॥ विश्वैः संस्तुतसत्प्रतापम हिमा सौभाग्य जाग्योदयः, स श्रीशांति जिनेश्वरोऽमितदो जीयात् सुव छबिः ॥ १ ॥ अहो नव्याः श्रृणुत तावत् सकलमंगल के लिकलाली - Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usev@nly.jainelibrary.org Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ए लासनकाः लीलारसरोपितचित्तवृत्तयः विहितश्रीमजिनेंत्नक्तिप्रवृत्तयः सांप्रतं श्रीमहांतिजिनेंजन्मानिषेककलशो गीयते ॥ ॥ राग वसंत, तथा नट्ट, देशाख ॥ श्रीशांति जिनवर, सयल सुखकर, कलश नणीए तास ॥ जिम नविक जनने, सयल संपत्ति, बहुत लील विलास ॥ कुरु नानिजनपद, तिलक सम वम, हबिपाउर सार ॥ जिननयरी कंचन, रयण धण कण, सुगुणजन आधार Jain Educationa Intefratil@bsonal and Private Usevenly.jainelibrary.org Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० ॥१॥ तिहां राय राजे, बहु दि. वाजे, विश्वसेन नरिंद ॥ निज प्रकृति सोमह, तेज तपनह, मार्नु चंद दिणंद ॥ तस पण वखाणी, पट्टराणी, नामे अचिरा नार ॥ सुखसेजे सुतां, चौद पेखे, सुपन सार उदार ॥२॥सबक सिकविमानथी तव, चवीयो उर उप्पन्न ॥ बहु नह नट नन्न कोण सत्तमी, दिवस गुणसंपन्न ॥ तव रोग सोग वियोग विड्डर, मारी इति शमंत॥ वर सयल मंगल, केवि कमला,घर Jain Educationa Interati@essonal and Private Usevenly.jainelibrary.org Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ घरे विलसंत ॥ ३ ॥ वर चंद योगे, ज्येष्ठ तेरस, वदि दिने थयो जम्म || तव मध्यरयणीए दिशिकुमारी, करे सूई कम्म ॥ तव चलिय श्रासन, सुणीय सवि हरि, घंटनादे मेली ॥ सुरविंद सत्रे, मेरुमळे, रचे मऊन केली ॥४॥ ढाल ॥ विश्वसेन नृप घरे नंदन जनमीया ए ॥ तिहुश्रण जवियण प्रेमशुं प्रणमीया ए ॥ ५ ॥ चाल ॥ हां रे प्रणमीया ते चौसठ इंद्र, लेइ वे मेरु गिरींद ॥ सुरनदी नीर समीर तिहां, क्षीरजलनिधि Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usev@nly.jainelibrary.org Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ तीर ॥६॥ सिंहासने सुरराज, जिहां मस्या देवसमाज ॥ सर्व औषधिनी जात, वर सरस कमल विख्यात ॥ ७॥ ढाल ॥ विख्यात विविध परे कमलना ए ॥ तिहां हरख जर सुरलि वरदामना ए ॥७॥ चाल ॥ हां रे वरदाम मागध नाम, जे तीर्थ उत्तम गम ॥ तेह तणी माटी सर्व,कर ग्रहे सर्व सुपर्व ॥ए ॥ बावनाचंदन सार, थनियोग सुर अधिकार ॥ मन धरी अधिक श्रानंद, अवलोकता Jain Educationa Inteffcatləbsonal and Private Usev@viky.jainelibrary.org Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ जिनचंद ॥ १० ॥ ढाल ॥ श्री जिनचंदने, सुरपति सवि नवरावता ए ॥ निज निज जन्म सुकृतारथ जावता ए ॥ ११ ॥ चाल ॥ हां रे नावता जन्म प्रमाण, अनिषेक कलश मंडाण ॥ साठ लाख ने एक क्रोम, शत दोय ने पंचास जोन ॥ १२ ॥ श्रव जातिना ते होय, चौसठी सहसा जोय ॥ एपी परे जक्ति उदार, करे पूजा विविध प्रकार || १३ || ढाल ॥ विविध प्रकारना करीय शिणगार ए ॥ जरीय जल Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usev@nly.jainelibrary.org Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ विमलना विपुल गंगार ए॥१४॥ चाल ॥ हां रे शृंगार थाल चंगेरी, सुप्रतिष्ठ प्रमुख सुन्नेरी ॥ सवि कलश परे मंमाण, जे विविध वस्तु प्रमाण ॥ १५ ॥आरति ने मंगलदीप, जिनराजने समीप ॥ जगवती चूरणी मांही, अधिकार एह उत्साही ॥ १६ ॥ ढाल ॥ अधिक उत्साहशुं हरख जल नीजता ए, नव नव नांतिगुं नक्तिजर कीजता ए ॥ १७॥ चाल ॥ हां रे कीजता नाटारंज, गाजता गुहीर Jain Educationa Intefcatibesonal and Private Usev@vky.jainelibrary.org Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ मृदंग ॥ करी करी तिहां कंठताल, चउताल ताल कंसाल ॥ १७ ॥ शंख पणव मुंगल नेरी, जबरी वीणा नफेरी ॥ एक करे हयदेषा, एक करे गज लकार ॥ १५ ॥ ढाल ॥ गुलकार गर्जनारव करे ए ॥ पाय पूर. पूर धुर धुर धरे ए ॥२०॥ चाल ॥हां रे सुर धरे श्रधिक बहु मान, तिहां करे नव नव तान ॥ वर विविध जाति बंद, जिननक्ति सुरतरुकंद॥ १॥वली करे मंगल आउ, ए जंबूपन्नत्ति Jain Educationa Intefratil@osonal and Private Usev@vily.jainelibrary.org Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ पाठ ॥ थाय थुश्य मंगल एम, मन धरी अधिक बहु प्रेम ॥२२॥ ढाल ॥प्रेममद घोषणा पुण्यनी सुरासुर सहु ए॥ समकित पोषणा शिष्ट संतोषणा एम बहु ए॥ २३ ॥ चाल ॥ हां रे बहु प्रेमअ॒सुख देम, घरे आणीया निधि जेम ॥ बत्रीश कोडि सुवन्न, करे वृष्टि रयणनी धन्न ॥२४॥ जिनजननी पासे मेली, करे अहाश्मी केली ॥ नंदीश्वरे जिनगेह, करे महोत्सव ससनेह ॥ २५॥ Jain Educationa Inteffatilesonal and Private Useverly.jainelibrary.org Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ ॥ ढाल प्रथमनी ॥ ॥ हवे राय महोत्सव करे रंग जर, थयो जब परजात ॥ सूर पूजीयो सुत, नयणे निरखी, दरखीयो तव तात ॥ वर धवल मंगल, गीत गातां, गंधर्व गावे रास ॥ बहु दाने माने, सुखीयां कीधां, सयल पूगी आश ॥ २६ ॥ तिहां पंचवरणी, कुसुमवासित, भूमिका संवित्त ॥ वरगर कुंदरु, धूपधूपण, ढांट्यां कुंकुम वित्त ॥ शिर मुकुट मंगल, काने कुंमल, हैये नवसर हार ॥ एम Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usevenly.jainelibrary.org Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ सयल भूषण नूषितांबर, जगत्जन परिवार ॥ २७ ॥ जिनजन्मकल्याएक महोत्सवे, चौद जुवन उद्योत ॥ नारंकी थावर, प्रमुख सुखीयां, सकल मंगल होत ॥ दुःख दुरित ईति, शमित सघलां, जिनराजने परताप | तेणे देते शांति कुमार ववीयुं, नाम इति श्रालाप ॥ २८ ॥ एम शांति जिननो, कलश जणतां, होवे मंगलमाल ॥ कल्याण कमला, केली करती, लहे लील विलास ॥ जिन स्नात्र करीए, सहेजे तरीए, Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usev@nly.jainelibrary.org Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ए नवसमुनो पार ॥ एम ज्ञानविमल, सूरींद जंपे, श्रीशांति जिन जयकार ॥ए ॥ इति श्रीज्ञानविमलसूरिकृत श्रीशांति जिनकलशः संपूर्णः ॥ Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥अथ श्रीपार्श्वनाथ कलशः॥ श्रीसौराष्ट्र देश मध्ये, श्रीमंगलपुर मंगणो, छरित विहंगणो, श्रनाथनाथ, अशरणशरण, त्रिनुवन जनमनरंजणो, त्रेवीशमो ती. थंकर श्रीपार्श्वनाथ तेह तणो कलश कहीशुं ॥ ढाल ॥ हां रे वाणारसी नयरी वसेय अनुपम, उपम अवदधार ॥ तिहां वावि सरोवर नदीय कूपजल, वनस्पति अढार ॥ तिहां गढ मढ मंदिर दीसे अनिनव, सुंदर पोलि प्राका Jain Educationa Interati@osonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ र॥कोसीसां पाखल फिरती खाइ, कोटे विसमा घाट ॥ १॥ हां रे जिनममप शिखर बहुत प्रासादे, दंम कलश ब्रह्मांग ॥ अतिगिरुया गुणसागर बहु सोहे, दिसे पुहवी प्रचंग ॥ तिहां हाट चउटां वस्तु विवेकी, विवहारीया अनेक ॥ लखेसरी कोटी गढतल मंदिर, बोले वचन विवेक ॥२॥ हां रे ते नगरी बहुरी व्यवहारी, घर घर मंगल चार ॥ नारीकरकंकण सुंदर फलके, करी सकल शणगार Jain Educationa Inteffati@osonal and Private Usevanky.jainelibrary.org Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ॥ तिहां राजा अश्वसेन महीमडल, दान खन जीपंत ॥ अति न्यायवंत दीसे नरनायक, वामादेवीकंत ॥३॥ हां रे सरगलोकथी चवीय सुरवर, उप्पन्नो कुल जास ॥ तिहां कृष्ण चोथे चैत्र मासे, एहवे अति उल्हास ॥ तिहां राणी पश्चिम रयणी पेखे, सुहणां चन्द विशाल ॥ तस कुखे अवतरशे जिनवर, जीवदया प्रतिपाल ॥४॥ ॥ अथ सुपननी ढाल उलालानी॥ ॥ पहेले गयवर दीगे, मुफ Jain Educationa Interati@easonal and Private Usevanky.jainelibrary.org Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ मुखकमल पो ॥ बीजे वृषन उदार, दीगे अति सुकुमार ॥५॥ त्रीजे सिंह संपूरो, मही मंगलमांदे ए सुरो ॥ चोथे लखमी ए दीठी, रतन कमले ए बेठी ॥६॥ जर उतरती ए माल, कुसुमनी जाकऊमाल ॥ पूनम चंदो, श्रमीय ऊरे सुखकंदो ॥ ७॥ तेजे तपंतो ए नाण, करतो सफल वि. हाण ॥ ध्वजा उतरती आकाशे, लोडंती अंबरवासे ॥ ॥ कणयकलस शिरे करीयो, अमीय महा Jain Educationa Intefratil@osonal and Private Usev@vily.jainelibrary.org Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ रस गरीयो ॥ दशमे पद्मसरोवर, दोगे वामादेवी मनोहर ॥ ए॥ खीरसमुज घरे श्रायो, मुज मन सयल सुहायो ॥ बंडी निज निज गम, श्राव्युं श्राव्युं अमर विमान ॥ १० ॥ पेखी पेखी रयणनी राशि, सग पण चढी आकाशि ॥ जलण जलंतो ए दरिकण, जागी वामादेवी तरिकण ॥ ११॥ ॥ राग धन्याश्री ॥ ढाल ॥ ॥ नवमे मासे आग्मे दिवसे, जायो जिनवर रायो जी ॥घर गूडी Jain Educationa Inteirrati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ՀԱՄ तरियां तोरण लहेके, जिणमंदिर उठायो जी ॥ १ ॥ तत्क्षण बप्पन्न कुमरी श्रावे, वधावे जिणंदो जी ॥ स्तर कालमांहि ए जिनवर, प्रगट्यो पूनमचंदो जी ॥ २ ॥ उलाली वज्र सुर एम बोले, आसन कंपे दो जी ॥ तिहां जोइ श्रवधिनाणे तेणी वेला, अवतरीया जिणंदो जी ॥ ३ ॥ तेणे स्थानके जनममहोत्सव करवा, यावे चोसव इंदो जी ॥ मेरुशिखर पर रत्नसिंहासन, बेठा पास जिणंदो जी Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usew@nly.jainelibrary.org Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ॥ ४ ॥ तिहा हु सनाथ उत्र शिर सोहे, ढाले चामर सुरेंदो जी ॥ पहुता सुर मली प्रभुथानकवर, लब्धिपात्र जयवंतो जी ॥ ५ ॥ नवपल्लव जिन महिमासागर, आगर तपो भंडारो जी ॥ इकागवंस तिदुयण मनरंजण, जिनशासन सिपगारो जी ॥ ६ ॥ जणे वचजंगारी श्रम मन, वसीयो श्रीश्ररिहंतो जी ॥ नीलवरण तनु महिमासागर, जय जय जगवंतो जी ॥७॥ इति श्री पार्श्वनाथ कलशः संपूर्णः ॥ Jain Educationa InternatiBeasonal and Private Usew@nly.jainelibrary.org Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ ॥ श्रथ ॥ लूणउतारणं ॥ ॥खूण उतारो जिनवर अंगे, निर्मल जलधारा मन रंगे ॥ लू० ॥१॥ जिम जिम तमतम गुणय फूटे, तिम तिम अशुज कर्मबंध बेटे ॥ लू ॥२॥ नयन सबूणां श्री जिनजीनां, अनुपम रूप दयारस नीनां ॥ खू० ॥ रूप सलूणुं जिनजीनुं दीसे, लाज्युं लूण ते जलमां पेसे ॥ लू० ॥ ४ ॥ त्रण प्रदक्षिण देश जलधारा, जलण खेपवीए खूण उदारा ॥तू॥५॥ जे जिन Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० उपर उमणो प्राणी, ते एम थाजो खूण ज्युं पाणी लू॥ ६ ॥ अगर कृष्णागरु कुंदरु सुगंधे, धूप करीजे विविध प्रबंधे ॥ लू ॥ ७॥ इति खूणउतारणं ॥ ॥अथ श्रारतिः॥ ॥ विविध रत्न मणिजमित रचावो, थाल विशाल अनोपम लावो ॥आरति उतारो प्रजुजीने आगे, नावना नावी शिवसुख मागे ॥ श्रा० ॥१॥ सात चौद ने एकवीश नेवा, त्रण त्रण वार प्रद Jain Educationa InteffatiBesonal and Private Usevenly.jainelibrary.org Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ए क्षिण देवा ॥श्रा॥॥ जिम जिम जलधारा देजपे,तिम तिम दोहग थरहर कंपे ॥ श्रा० ॥ बहुनव संचित पाप पणासे,अव्यपूजाथी नाव उबासे ॥ आ॥४॥ चौद जुवनमां जिनजीने तोले, को नहीं आरति एम बोले ॥या॥॥ति आरतिः॥ ॥अथ मंगलदीपकः ॥ ॥दीवो रे दीवो मंगलिक दीवो, जुवन प्रकाशक जिन चिरंजीवो ॥ दी० ॥१॥ चंद सूरज प्रजु तुम मुख केरां, खूबण करता दे Jain Educationa Interati@esonal and Private Usevanjainelibrary.org Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० नित्य फेरा ॥ दी० ॥२॥ जिम तुज आगल सुरनी अमरी, मंगलदीप करी दीए नमरी ॥ दी० ॥ ॥३॥ जिम जिम धूपघटी प्रगटावे, तिम तिम जवनां कुरित दकावे ॥ दी० ॥४॥ नीर अदत कुसुमांजलि चंदन, धूप दीप फल नैवेद्य वंदन ॥ दी० ॥ एणी परे अष्टप्रकारी कीजे, पूजा स्नात्र महोत्सव पत्नणीजे ॥दी० ॥६॥ इति मंगलदीपकः॥ Jain Educationa Inteffatil@bsonal and Private Useverly.jainelibrary.org Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa InteFiontreraslonal and Private Usenarnyjainelibrary.org