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१५१ र॥कोसीसां पाखल फिरती खाइ, कोटे विसमा घाट ॥ १॥ हां रे जिनममप शिखर बहुत प्रासादे, दंम कलश ब्रह्मांग ॥ अतिगिरुया गुणसागर बहु सोहे, दिसे पुहवी प्रचंग ॥ तिहां हाट चउटां वस्तु विवेकी, विवहारीया अनेक ॥ लखेसरी कोटी गढतल मंदिर, बोले वचन विवेक ॥२॥ हां रे ते नगरी बहुरी व्यवहारी, घर घर मंगल चार ॥ नारीकरकंकण सुंदर फलके, करी सकल शणगार
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